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गुरु पूर्णिमा-तत्वज्ञान दे वही होता है सच्चा गुरु (article in hindi on guru purnima


गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दांव।
दो बूड़े वापूरे,चढ़ि पाथर की नाव

         जहां गुरु लोभी और शिष्य लालची हों वह दोनों ही अपने दांव खेलते हैं पर अंततः पत्थर बांध कर नदिया पर करते हुए उसमें डूब जाते हैं।

            आज पूरे देश में गुरु पूर्णिमा मनाई जा रही है। भारतीय अध्यात्म में गुरु का बहुत महत्व है और बचपन से ही हर माता पिता अपने बच्चे को गुरु का सम्मान करने का संस्कार इस तरह देते हैं कि वह उसे कभी भूल ही नहीं सकता। मुख्य बात यह है कि गुरु कौन है?
दरअसल सांसरिक विषयों का ज्ञान देने वाला शिक्षक होता है पर जो तत्व ज्ञान से अवगत कराये उसे ही गुरु कहा जाता है। यह तत्वज्ञान श्रीगीता में वर्णित है। इस ज्ञान को अध्ययन या श्रवण कर प्राप्त किया जा सकता है। अब सवाल यह है कि अगर कोई हमें श्रीगीता का ज्ञान देता है तो हम क्या उसे गुरु मान लें? नहीं! पहले उसे गुरु मानकर श्रीगीता का ज्ञान प्राप्त करें फिर स्वयं ही उसका अध्ययन करें और देखें कि आपको जो ज्ञान गुरु ने दिया और वह वैसा का वैसा ही है कि नहीं। अगर दोनों मे साम्यता हो तो अपने गुरु को प्रणाम करें और फिर चल पड़ें अपनी राह पर।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में गुरु की सेवा को बहुत महत्व दिया है पर उनका आशय यही है कि जब आप उनसे शिक्षा लेते हैं तो उनकी दैहिक सेवा कर उसकी कीमत चुकायें। जहां तक श्रीकृष्ण जी के जीवन चरित्र का सवाल है तो इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उन्होंने अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त कर हर वर्ष उनके यहां चक्कर लगाये।
गुरु तो वह भी हो सकता है जो आपसे कुछ क्षण मिले और श्रीगीता पढ़ने के लिये प्रेरित करे। उसके बाद                    अगर आपको तत्वज्ञान की अनुभूति हो तो आप उस गुरु के पास जाकर उसकी एक बार सेवा अवश्य करें। हम यहां स्पष्ट करें कि तत्वज्ञान जीवन सहजता पूर्ण ढंग से व्यतीत करने के लिये अत्यंत आवश्यक है और वह केवल श्रीगीता में संपूर्ण रूप से कहा गया है। श्रीगीता से बाहर कोई तत्व ज्ञान नहीं है। इससे भी आगे बात करें तो श्रीगीता के बाहर कोई अन्य विज्ञान भी नहीं है।
इस देश के अधिकतर गुरु अपने शिष्यों को कथायें सुनाते हैं पर उनकी वाणी तत्वाज्ञान से कोसों दूर रहती है। सच तो यह है कि वह कथाप्रवचक है कि ज्ञानी महापुरुष। यह लोग गुरु की सेवा का संदेश इस तरह जैसे कि हैंण्ड पंप चलाकर अपने लिये पानी निकाल रहे हैं। कई बार कथा में यह गुरु की सेवा की बात कहते हैं।
सच बात तो यह है गुरुओं को प्रेम करने वाले अनेक निष्कपट भक्त हैं पर उनके निकट केवल ढोंगी चेलों का झुंड रहता है। आप किसी भी आश्रम में जाकर देखें वहा गुरुओं के खास चेले कभी कथा कीर्तन सुनते नहीं मिलेंगे। कहीं वह उस दौरान वह व्यवस्था बनाते हुए लोगों पर अपना प्रभाव जमाते नजर आयेंगे या इधर उधर फोन करते हुए ऐसे दिखायेंगे जैसे कि वह गुरु की सेवा कर रहे हों।

कबीरदास जी ने ऐसे ही लोगों के लिये कहा है कि

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जाका गुरु आंधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद।

      “जहां गुरु ज्ञान से अंधा होगा वहां चेला तो उससे भी बड़ा साबित होगा। दोनों अंधे मिलकर काल के फंदे में फंस जाते है।”

 
बहुत कटु सत्य यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान एक स्वर्णिम शब्दों का बड़ा भारी भंडार है जिसकी रोशनी में ही यह ढोंगी संत चमक रहे हैं। इसलिये ही भारत में अध्यात्म एक व्यापार बन गया है। श्रीगीता के ज्ञान को एक तरह से ढंकने के लिये यह संत लोग लोगों को सकाम भक्ति के लिये प्रेरित करते हैं। भगवान श्रीगीता में भगवान ने अंधविश्वासों से परे होकर निराकर ईश्वर की उपासना का संदेश दिया और प्रेत या पितरों की पूजा को एक तरह से निषिद्ध किया है परंतु कथित रूप से श्रीकृष्ण के भक्त हर मौके पर हर तरह की देवता की पूजा करने लग जाते हैं। गुरु पूर्णिमा पर इन गुरुओं की तो पितृ पक्ष में पितरों को तर्पण देते हैं।
मुक्ति क्या है? अधिकतर लोग यह कहते हैं कि मुक्ति इस जीवन के बाद दूसरा जीवन न मिलने से है। यह गलत है। मुक्ति का आशय है कि इस संसार में रहकर मोह माया से मुक्ति ताकि मृत्यु के समय उसका मोह सताये नहीं। सकाम भक्ति में ढेर सारे बंधन हैं और वही तनाव का कारण बनते हैं। निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया ऐसे ब्रह्मास्त्र हैं जिनसे आप जीवन भर मुक्त भाव से विचरण करते हैं और यही कहलाता मोक्ष। अपने गुरु या पितरों का हर वर्ष दैहिक और मानसिक रूप से चक्कर लगाना भी एक सांसरिक बंधन है। यह बंधन कभी सुख का कारण नहीं होता। इस संसार में देह धारण की है तो अपनी इंद्रियों को कार्य करने से रोकना तामस वृत्ति है और उन पर नियंत्रण करना ही सात्विकता है। माया से भागकर कहीं जाना नहीं है बल्कि उस पर सवारी करनी है न कि उसे अपने ऊपर सवार बनाना है। अपनी देह में ही ईश्वर है अन्य किसी की देह को मत मानो। जब तुम अपनी देह में ईश्वर देखोगे तब तुम दूसरों के कल्याण के लिये प्रवृत्त होगे और यही होता है मोक्ष।
इस लेखक के गुरु एक पत्रकार थे। वह शराब आदि का सेवन भी करते थे। अध्यात्मिक ज्ञान तो कभी उन्होंने प्राप्त नहीं किया पर उनके हृदय में अपनी देह को लेकर कोई मोह नहीं था। वह एक तरह से निर्मोही जीवन जीते थे। उन्होंने ही इस लेखक को जीवन में दृढ़ता से चलने की शिक्षा दी। माता पिता तथा अध्यात्मिक ग्रंथों से ज्ञान तो पहले ही मिला था पर उन गुरु जी जो दृढ़ता का भाव प्रदान किया उसके लिये उनको नमन करता हूं। अंतर्जाल पर इस लेखक को पढ़ने वाले शायद नहीं जानते होंगे कि उन्होंने अपने तय किये हुए रास्ते पर चलने के लिये जो दृढ़ता भाव रखने की प्रेरणा दी थी वही यहां तक ले आयी। वह गुरु इस लेखक के अल्लहड़पन से बहुत प्रभावित थे और यही कारण है कि वह उस समय भी इस तरह के चिंतन लिखवाते थे जो बाद में इस लेखक की पहचान बने। उन्हीं गुरुजी को समर्पित यह रचना।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

आर.एस.एस. से भारत का प्रबुद्ध वर्ग दूर क्यों हुआ-हिन्दी लेख


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने 10 नवंबर को अपने ही कुछ मुद्दों को लेकर देश भर में प्रदर्शन किया जो शायद इस किस्म का पहला आयोजन था । हम यहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के इस प्रदर्शन के मुद्दों पर चर्चा नहीं कर रहे क्योंकि वह तात्कालिक विषयों के साथ ही राजनीतिक रूप से महत्व के हैं। न ही हम यहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का समर्थन या विरोध कर रहे हैं। चूंकि उसके सदस्य अपने  संगठन को सामाजिक संगठन मानते हैं इसलिये हम इस संगठन का भारतीय जनमानस में जो छबि उस पर विचार कर रहे हैं।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की छबि एक ऐसे सामाजिक संगठन की रही है जो राजनीति को समाज का ही एक हिस्सा मानकर उसमें भी दखल रखता है पर दिखना नहीं चाहता। उससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि यह संगठन कभी प्रत्यक्ष किसी सामाजिक या राजनीतिक गतिविधि में सक्रिय रहने के लिये प्रसिद्ध नहीं है। सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में वह अपने सक्रिय स्वयं सेवकं तथा अनुवर्ती  संगठन बनाकर काम करता है जो कि नीति निर्धारण तथा कार्यशैली में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के उच्च नेत्त्व के मार्गदर्शन का अनुसरण करते हैं-सच क्या है पता नहीं पर प्रचार माध्यमों में ऐसा ही दिखता है। इसे हम यूं भी कहें कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मूल में बौद्धकता का प्रभाव है जिसमें सार्वजनिक सक्रियता या एक्शन न के बराबर दृष्टिगोचर होती है बस! उसकी उपस्थिति का आभास किया जाता है। अगर कोई सक्रियता दिखाई देती है तो वह बौद्धिक शिविर या महत्वपूर्ण पर्वों पर पथ संचालन तक ही सीमित है। लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक अदृश्य बौद्धिक संस्था के रूप में सक्रिय है पर समय की मांग है कि सक्रिय भूमिका या एक्शन के माध्यम से भी जनमानस को प्रभावित कर अपना संगठन आगे बढ़ाया जाये-ऐसा विचार उसके कुछ बुद्धिमान लोगों ने किया है। 10 नवंबर को उसके स्वयं सेवक जिस प्रदर्शन में भाग लिया  वह एक तरह का नया व्यवहार है पर इसके प्रभाव दूरगामी होंगे यह तय है और क्योंकि माना जाता है संघ के कर्ताधर्ता कोई भी कार्य या योजना भविष्य के दीर्घकालीन  परिणामों को दृष्टिगत रखते हुए ही प्रारंभ करता है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने अनुवर्ती  संगठनों के माध्यम से कार्य करने में इतना कुशल है कि अगर उसके आलोचक विरोध न करें तो शायद भारतीय जनमानस और युवा वर्ग में उसका वह स्थान न रहे जो कि नैपथ्य की बौद्धिकता से अधिक सार्वजनिक सक्रियता या एक्शन से प्रभावित होता है। राष्ट्रीय स्वयं संघ को इसका लाभ यह मिलता है कि किसी अभियान या आंदोलन में सक्रियता से अगर सब ठीक है तो उसे श्रेय मिलता है पर अगर कुछ नाकामी है तो वह अपने  अनुवर्ती  सगंठनों के पदाधिकारियों को जवाबदेही के लिये आगे कर देता है। इससे संघ को यह लाभ तो हुआ कि उसकी छबि हमेशा धवल रही पर इसका नुक्सान यह हुआ कि प्रचार के इस युग में सक्रियता या एक्शन न होने की वजह से वह नयी पीढ़ी की दृष्टि से ओझल होता जा रहा है। यह तो उसके आलोचक गाहेबगाहे उसका विरोध कर उसका नाम जनमानस में बनाये हुए हैं वरना अपने स्वयं सेवकों के सहारे उसका प्रचार नगण्य है हालांकि वह समाज में चेतना लाने का काम करते हैं।
संघ के कर्णधार अपनी गिरती सदस्य संख्या से चिंतित हैं और उसे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। यह स्थिति तब है जब आज भी भारतीय जनमानस और पुराने प्रबुद्ध वर्ग में उसकी छबि धवल और बौद्धिकता से संपन्न मानी जाती है। आज भी पुरानी पीढ़ी के अनेक प्रबुद्ध लोग हैं जो संघ  का नाम सम्मान से लेते हैं। तब ऐसा क्या हो गया कि संघ अपनी घटती साख तथा सदस्य संख्या जैसी समस्याओं से जूझ रहा है।
यह कहना तो ठीक नहीं है कि संघ के बुद्धिमान लोग उन सच्चाईयों से अवगत नहीं है जिनसे यह समस्यायें पैदा हुई हैं पर प्रचार से दूर रहने वाले इस संगठन के मंचों से ऐसा होने का प्रमाण नहीं मिलता। समूचे भारत में आधुनिक समाज का सपना देखने वाले संघ के बुद्धिमान नियंत्रणकर्ता यह तय नहीं कर पा रहे कि संघ को अनुवर्ती  संगठनों के माध्यम से आगे बढ़ायें या स्वयं यह काम करें। जब वह आज अपनी शाखाओं में युवा सदस्यों की कम संख्या देखते हैं तो निराशा उनको होती होगी पर यह भूल जाते हैं कि उसके अनुवर्ती  संगठन ही उसके प्रतिद्वंद्वी हैं क्योंकि वह नेपथ्य में नहीं वरन् लोगों की आंखों के सामने सक्रिय या एक्शन करते नज़र आते हैं। धर्म, शिक्षा, राजनीति, श्रम संगठन तथा साहित्य संस्थाओं में सक्रिय संघ के नाम लेकर ही चल रहे हैं जिसकी धवल छबि से उनको समाज  सहानुभूति के साथ युवा वर्ग के  सदस्य  मिल भी जाते हैं। संघ ने जो 10 नवंबर को प्रदर्शन किया उसमें भी इन्ही अनुवर्ती  संगठनों के कर्ताधर्ताओं ने ही कार्यकर्ता जुटाये होंगे इसमें संदेह नहीं है क्योंकि उनके मंचों पर धर्म से जुड़ी संस्थाओं के लोग भी बैठे थे। इस देश में प्रबुद्ध वर्ग के अनेक ऐसे लोग हैं जो संघ के अस्तित्व बने रहने की आवश्यकता इस देश के प्रबुद्ध वर्ग के अनेक लेखक, बुद्धिजीवी और जागरुक नागरिक अनुभव करते हैं पर उससे पूरे होने वाले लक्ष्य वह नहीं जानते। अगर जानते हैं तो कहते नहीं है क्योंकि संघ में दोतरफा संवाद का अभाव है और उच्च स्तर से निर्णय लेकर नीचे नियमित सदस्यों तथा अनुवर्ती  संगठनों का संचालन किया जाता है-ऐसा इससे जुड़े लोग कहते हैं। यह तब तक ही ठीक था जब राजनीति और शिक्षा में सक्रिय उसके अनुवर्ती   संगठन सीमित लक्ष्य और साधनों से काम रहे थे। अब वह सभी आर्थिक, सामाजिक, राजनीति तथा सदस्य की दृष्टि से इतने शक्तिशाली हो गये हैं कि संघ का आकर्षण उनके फीका पड़ जाता है। रामजन्मभूमि आंदोलन के चलते उसके धार्मिक संगठनों ने बहुत प्रचार पाया और यही संघ के लिये परेशानी का सबब बना। उसके बाद तो संघ के अनुवांषिक संगठनों ने भारत में राजनीति, धर्म, व्यापार तथा समाज के क्षेत्र में अपनी छबि बनायी और उसका भौतिक लाभ भी लेकर शक्ति अर्जित की। मगर याद रखने लायक बात यह है कि केवल संघ के नियमित सदस्यों की बौद्धिकता या उसके अनुवर्ती  संगठनों की आक्रमकता की वजह से यह रथ नहीं चला बल्कि देश के अनेक स्वंतत्र, मौलिक तथा निष्कामी बुद्धिजीवियों ने संघ और उसके  अनुवर्ती   संगठनों को निस्वार्थ सहानुभूति दी। संघ के आलोचक खुलकर यह बात कहते हैं कि उसने कोई ऐजेंडा नहीं बनाया बल्कि जो प्रचार में आया उसे जब्त कर लिया। मतलब यह कि देश के अनेक स्वतंत्र बुद्धिजीवियों का ऐजेंडा स्वाभाविक रूप से संघ से मिल गया। देखते देखते राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सत्ता के गलियारों में एक ताकत बन गया मगर नेपथ्य में रहने की उसकी परंपरा ने उसे यहीं घोखा दिया। भारत ही नहीं विश्व जनमानस  का यह स्वभाव है कि वह नेपथ्य की बजाय पर्दे पर सक्रिय या एक्शन करने वाले पात्र को ही मान्यता देता है। राष्ट्रीय स्वयं संघ के बुद्धिमान लोग कह सकते हैं कि हमारा सत्ता से क्या लेना देना? मगर क्या इसे सभी मान लेंगे, यह नहीं माना  जा सकता है।
मगर जब आप समाज को सुधारने की बात कहते हैं तो सत्ता उसका एक साधन हुआ करती है और अध्यात्म तथा समाज पर दृष्टि रखने वाले प्रबुद्ध वर्ग को आप भरमा नहीं सकते। फिर भारत जैसे देश में जहां अनेक राजा भगवान का दर्जा प्राप्त कर गये वहां इस तरह की बात जमती नहीं। दूसरी बात यह कि जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने सदस्यों को समाज पर नियंत्रण करने वाली संस्थाओं में जाने के लिये उतार रहा है तब वह इस बात को भूल रहा था कि लोग उसकी साख के कारण  उसके   अनुवर्ती  संगठनों को समर्थन दे रहे हैं। भले ही संघ के कर्ताधर्ता यह दावा करते हैं कि उसके  अनुवर्ती  संगठन स्वतंत्र रूप से काम करते हैं पर स्वतंत्र और मौलिक प्रबुद्ध वर्ग के लिये यह कथन अधिक महत्व नहीं रखता था क्योंकि वह मानकर चल रहा था कि संघ अपने अनुवर्ती  संगठनों पर नियंत्रण करेगा दिखाने के लिये कुछ भी कहा जा रहा हो-दूसरे शब्दों में कहें तो यह उसके प्रति ही यह एक बहुत बड़ा विश्वास था। बाद में दखल न देने के दावे ने उसकी दृढ़ छबि को हानि पहुंचाई क्योंकि निष्पक्ष तथा स्वतंत्र प्रबुद्ध वर्ग उसे अप्रत्यक्ष से दखल देता हुए देखना चाहते थे।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कर्ताधर्ता इस बात का अनुमान करते नहीं दिखते कि उनके सदस्यों से अधिक संख्या तो उनके ऐसे समर्थकों की रही है जो उसके कार्यक्रमों या शाखाओं में आते ही नहीं बल्कि आम आदमी के बीच आम आदमी की तरह अपनी दिनचर्या निभाते हैं। उन्हें लाभ की कोई चाहत नहीं थी बल्कि देश में एक मज़बूत समाज देखना की इच्छा ने उनके अंदर संघ के प्रति सहानुभूति पैदा की। यही वर्ग उसके प्रति उदासीन हो गया है। एक तरह से कहें तो आम आदमी और संघ के कार्यकर्ता का अंतर भी अनेक जगह खत्म हो गया था।
ऐसे ही संघ को आज जब भारतीय जनमानस की उदासीनता का सामना करना पड़ रहा है तो कहना पड़ता है कि समय बलवान है। यहां संघ की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठते हैं। जब संघ और उसके अनुवर्ती संगठन शिखर पर थे तब उनके आकर्षण की वजह से युवा पीढ़ी उनकी तरफ गयी और यकीनन इसका प्रभाव उसकी शाखाओं में जाने वाले सदस्यों की कमी के रूप में प्रकट हुआ होगा। दूसरा यह भी राज्य और समाज पर नियंत्रण के दौरान ऊंच नीच होता है और उसका परिणाम उनमें काम करने वालों को भोगना होता है पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मामले में अपने ही अनुवर्ती  संगठनों के असंतोष दुष्प्रभाव उसे ही झेलना पड़ा। मतलब संघ के कर्ताधर्ता भले ही राजनीति की काज़ल काली कोठरी से दूर रहने का दावा करते रहे हों पर उनके समर्थक इसे मानने को राजी नहीं थे। देश के स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा मौलिक विचारों के प्रबुद्ध लोगों का मानना था कि न केवल इस संगठनों पर काबू रखे बल्कि वह दिखे भी। वह चाहते थे कि संघ से बड़ा उसका  अनुवर्ती संगठन नहीं होना चाहिए। मगर कहते हैं कि राजकाज तो काज़ल की कोठरी है वहां से कोई सफेद नहीं निकल सकता। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के  अनुवर्ती संगठनों को न केवल अपने सदस्यों बल्कि स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा मौलिक विचारों वाले बुद्धिजीवियों का समर्थन मिला पर उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की न संघ इसके लिये उनको बाध्य कर सका।
देखते देखते क्या हो गया? संघ के कार्यकर्ता सम्मानीय होते थे। उनसे मित्रता होना अच्छी बात समझी जाती थी। मगर इधर  अनुवर्ती  संगठनों में ऐसे लोग आ गये तो बौद्धिकता से अधिक शक्ति  के पूजक हैं। अगर हम घटनाओं का विस्तार करेंगे तो अंबार लग जायेगा पर संक्षेप में इतना कह सकते हैं कि देश के प्रबुद्ध वर्ग ने देखा कि अब राष्ट्रीय स्वयं संघ संघ के पुराने और बौद्धिक कार्यकर्ताओं से समाज को कोई मदद नहीं मिल सकती और उसके आनुवांषिक संगठनों की ताकत इतनी बढ़ गयी है जिसकी मस्ती में उनकी कार्यशैली वैसी हो गयी जिनकी आलोचना संघ का बौद्धिक वर्ग करता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कर्ताधर्ता भूल गये कि वह अपने अनुवर्ती  संगठनों को दिखावे की स्वतंत्रता देना देश के स्वतंत्र और निष्पक्ष प्रबुद्ध वर्ग को स्वीकार्य है पर वास्तविकता में वह न है और न होना चाहिए। मतलब यह कि  अनुवर्ती  संगठनों की शक्ति बढ़ी तो संघ की भी बढ़ती दिखना चाहिये। संघ प्रत्यक्ष रूप से कहीं दखल न दे पर अप्रत्यक्ष रूप से दिखना चाहिए। ऐसा हुआ कि नहीं पर यह तय है कि संघ की साख पर ही उसके संगठन आगे बढ़े थे और अगर उन पर कुछ दाग लगे तो संघ उससे बच नहीं सकता। जब संघ अपने अनुवर्ती  संगठनों को आगे बढ़ा रहा था तब प्रबुद्ध वर्ग उसे आगे बढ़ता देख रहा था। उसकी इस कार्यशैली पर कोई आपत्ति नहीं थी पर इसका मतलब यह नहीं कि संघ का यह दावा कि उसके अनुवर्ती  संगठन स्वतंत्र है मान ली जाये-प्रबुद्ध वर्ग यह स्वीकार कर भी नहीं सकता क्योंकि वह संघ की साख पर ही उनको अपनी सहानुभूति दे रहे था। सीधी बात कहें कि संघ कितना भी कहे वह अनुवर्ती  संगठनों को स्वतंत्र दे पर उसका नियंत्रक वही दिखना चाहिये।
स्थिति आज भी यही है कि संघ के अनुवर्ती  संगठनों के आलोचक संघ को निशाना बनाते हैं तब उसके समर्थक खामोश बैठ जाते हैं। पुराना प्रबुद्ध वर्ग तो यह सोचकर निराश हो जाता है कि संघ भले ही प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय नहीं दिख रहा था पर अप्रत्यक्ष रूप से उसे दृढ़तापूर्वक अपनी भूमिका निभानी थी तो नया वर्ग तो वैसे भी सक्रियता या एक्शन देखकर प्रभावित होता है ऐसे में संघ की सदस्य संख्या और साख में कमी दर्ज हुई तो कोई आश्चर्य नहीं है। ऐसे में संघ के  अनुवर्ती  संगठनों के कुछ सदस्यों के हिंसा में लिप्त होने के आरोप उसके लिये चिंता की बात है क्योंकि जो लक्ष्य राजनीतिक शक्ति होने पर प्राप्त किये जा सकते हैं उसके लिये हिंसा की आवश्यकता नहीं है-भारतीय जनमानस इतना मूर्ख नहीं है कि वह यह बात नहीं जानता। संघ के कर्ताधर्ता जानते हैं कि यह समाज ऐसी हिंसा को मान्यता नहीं देता। यही कारण है कि संघ के कार्यधर्ता इस बात को मान रहे हैं कि उनका हिंसा में विश्वास नहीं है। हालांकि जनमानस में विश्वास बढ़ाने के लिये उनको अभी बहुत कुछ करना है। अभी इस विषय पर इतना ही लिख रहे हैं। अगली कड़ी भी लिखी जा सकती है अगर इसका कोई सख्त विरोध नहीं हुआ। यहां संघ समर्थक इस बात का ध्यान रखें कि यह एक स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा मौलिक लेखक का पाठ है जो संघ का कार्यकर्ता नहीं रहा पर उसके कार्यक्रमों के समाचारों में बाहर बैठकर रुचि लेता रहा है। इस लेखक का संघ को सिखाने या समझाने का कोई इरादा भी नहीं है। यह एक चर्चा है तो मन में आयी लिख दी। ऐसा लगता है कि कुछ छूट रहा है और उसे अगली कड़ी में लिखने का प्रयास करेंगे। कब मालुम नहीं।

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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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इश्क और नारीवादी-हिन्दी व्यंग्य (ishq aur narivadi-hindi vyangya


अपने पल्ले आज तक एक बात नहीं पड़ी कि इश्कवादी और नारीवादी बुद्धिजीवी अभी तक बिना विवाह साथ रहने के न्यायालयीन फैसले पर जश्न मना रहे थे फिर अचानक किसी प्रेम के विवाह में परिवर्तित न होने पर समाज को क्यों कोस रहे हैं?
देश में ऐसे अनेक किस्से होते हैं कि लड़कियां और लड़के भाग कर शादी कर लेते हैं, और समाज उनका पीछा करता है तो उनके बचाव में नारीवादी और इश्कवादी बुद्धिजीवी आगे आते रहे हैं। आगे क्या आते हैं! समाज की असामाजिक स्थिति पर सवाल उठते हैं-जवाब तो वह खैर क्या ढूंढेंगे? जमकर भारतीय धर्म पर उंगली उठायेंगे। जातिवाद को कोसेंगे। संविधान के प्रावधानों की दुहाई देते हुए बतायेंगे कि उसके अनुसार किसी को किसी से भी विवाह करने से रोकना गलत है।
जब एक माननीय अदालत ने यह निर्णय दिया कि अगर कोई व्यस्क जोड़ा बिना विवाह के लिये साथ रहना चाह तो रह सकता है तब लगा कि इश्कबाजी में समाज से विद्रोह करने वाले इसका लाभ उठायेंगे और शादी वादी के चक्कर से बचेंगे। इससे समाज के साथ ही आशिक और माशुकाओं को राहत मिलेगी। अलबत्ता नारीवादी और इश्कवादी बुद्धिजीवियों के बौद्धिक अभ्यास में कमी आने की आशंका थी पर लगता है उसकी संभावना नहीं के बराबर है। इसका कारण यह है कि हमारे देश के युवक युवतियां बाह्य रूप से पश्चात्य चालचलन और आंतरिक रूप से प्राचीन संस्कारों में चलते हुए ऐसे अंतद्वंद्ध में पड़े हैं जिसके चलते उनको यह समझ में नहंी आता कि करना क्या है?
असामयिक जवान मौत चाहे वह लड़की की हो या लड़के की पीड़ादायक है। पीड़ादायक तो हर मौत होती है पर बड़ी उम्र में हुई मौत पर केवल रिश्तेदार और परिवार ही शोकाकुल होता है जबकि जवान मौत पर पूरा समाज ही दुःखी हो जाता है। जन्म और मृत्यु कभी स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करती पर जीवन करता है। जीवन यानि जन्म से मृत्यु के बीच का सफर! भले ही कोई आदमी कितना भी कहे कि स्त्री और पुरुष एक समान है पर वह प्रकृति के द्वारा किये भेद और उसकी सच्चाईयों को बदल नहीं सकता। सबसे बड़ा सच यह है कि स्त्री की इज्जत कांच की तरह होंती है-एक बार टूटी तो जूड़ती नहीं, जबकि आदमी की इज्जत पीतल के लोटे की तरह है-एक बार गंदी हो गयी तो फिर पानी से धोकर साफ हो जाती है।
अपने देश के बुद्धिजीवी इस सच को बदलना चाहते हैं, पर पाश्चात्य विचारधाराओं की धारा में बह रहे यह लोग ऐसा कर नहीं सकते।
पाश्चात्य विचाराधाराओं के समर्थक सवाल करते हैं, पर जवाब नहीं ढूंढते। यह ऐसा क्यों है? इसे ऐसा होना चाहिये! यह पहले ऐसा था पर अब इसे समय के अनुसार बदलना चाहिये-ऐसा वह हर विषय पर करते हैं। गनीमत है कि सर्वशक्तिमान को नहीं मानते। वरना इनमें एकाध तपस्वी निकल पड़ता तो उसे भी हैरान कर देता। उसकी तपस्या से मान लीजिये सर्वशक्तिमान प्रकट होते तो उसे वरदान मांगने को कहते तो वही यही कहता कि ‘यहां स्त्री पुरुष का भेद खत्म करो और सभी को एक जैसा बनाओ। सभी लोगों को अपनी शक्ति से प्रकट करो। आखिर यह औरत ही इंसान को जन्म देने का बोझ क्यों उठाये?’
मान लीजिये सर्वशक्तिमान एक से अधिक वरदान मांगने को कहते तो जाने क्या हाल होता। ऐसे तपस्वी उनसे कहते कि ‘यहां सभी को पैदा किया है तो उनको खाना भी उम्र भर का खाना साथ भेजो ताकि यहां आदमी मजदूर यह पूंजीपति जैसे वर्ग न बने।’
तीसरा वरदान मांगने को मिलता तो कहते कि ‘भारत के अलावा विश्व में जितने भी महान लोग हुए हैं सभी को यहीं भेज दो ताकि हम अपने पुराने नायकों को भुला सकें क्योंकि वह सभी कल्पित हैं। यहां का धर्म एक धोखा है और बाकी दुनियां के सही है इसलिये उनकी स्थापना करनी है।’
ऐसे बुद्धिजीवियों का क्या कहा जाये? उनकी कहानी फिल्मी की तरह शादी से आगे नहीं जाती। इश्क की आजादी के नाम पर सभी स्वीकार्य है फिर कोई दुर्घटना हो जाये-कहीं लड़की तो कहीं लड़के के परिवार वालों से व्यवधान होने पर-तो समाज को कोसो। कहीं कोई मर जाये तो उसे इश्क की जंग का शहीद बताओ। समाज का अंधा बताओ। माता पिता को पिछड़ी विचारधारा का प्रचारित करो। मतलब यह कि माता पिता अपने पुत्र और पुत्री के लिये योग्य वधु या वर अपने विवेक से ढूंढते हैं तो वह अंधापन है।
इनको इश्क और शादी का अंतर पता नहंी है। दरअसल इनको कौन समझाये कि इश्क का शादी में तब्दील होना ही शहीद होना है। इश्क में तो होटल और पार्क में काम चल जाता है पर जब गृहस्थी की बात आती है तो उसके लिये घर ही मोर्चे की तरह हो जाता है जहां पैसे के बिना आदमी गरीब भी कहलाता है।
देश में रोजगार की कमी है। पढ़ने लिखने के अलावा व्यवहारिक चालाकियों में दक्ष ही लोग आजकल व्यवसायों और नौकरियों में चल पाते हैं। जिनके पास बहुत काम है उनके पास इश्क में इधर उधर घूमने की फुरसत नहीं है और उनकी कमाई इतनी होती है कि उनके पास अच्छे रिश्ते स्वयं ही आते हैं। जिनके पास कम काम है या नकारा हैं वह इधर उधर हाथ पंाव मारकर ऐसी प्रेयसी ढूंढते हैं जो शादी के बाद भी उनका खाना भी बनाये और कमाये भी!
पाश्चात्य संस्कृति और भारतीय संस्कारों के बीच चल रहा यह अंतहीन संघर्ष बहुत गहरा है इसके लिये जरूरी है कि केवल किताबी बातों को पढ़कर उस पर अभिव्यक्ति देने की बजाय समाज में अलग अलग स्थानों और समूहों में बैठकर वहां की दैनिक गतिविधियों को अवलोकन किया जाये। तभी बात समझी जा सकती है।
पिछले एक वर्ष से तो ऐसा लग रहा है कि इश्क का राजनीतिकरण हो गया है। कहंी आशिक तो कहीं माशुका बलिदान हो जाती है। इसके साथ ही हो जाता है व्यक्ति की आजादी की अभिव्यक्ति रोकने के विरोध का अभियान! इतना ही नहीं जिस तरह देश में राजनीतिक धारायें प्रवाहित हैं उसी के अनुसार टिप्पणियां भी आती है। कलकत्ता में इश्क पर संकट आया तो उस पर एक विचारधारा विशेष के लोग बोलेंगे तो कश्मीर में दूसरे विचाराधारा के लोग अभिव्यक्ति देंगे। ऐसे में हम जैसे लोग संकट में फंस जाते हैं कि इधर बोले तो यह समझें जायें उधर बोलें तो वह समझें जायें। खामोश रहो तो लगता है कि अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन किया। साथ ही लगता है कि यह कथित संघर्ष तो तयशुदा है-हिन्दी में बोलें तो  फिक्सिंग-जो शायद इसलिये जारी रखा जाता है कि कोई आजाद चिंतक उभरकर नाम न कमा ले-इनाम वगैरह तो क्या ले पायेंगे क्योंकि बांटने वाले तो विचाराधाराओं के अनुसार ही चलते हैं। सो कभी कभार बिना नाम लिये दिये अपनी बात कह जाते हैं। विचार वीरों से बचने तथा अपने अभिव्यक्ति के अधिकार में सामंजस्य बिठाने का यह एक अच्छा मार्ग दिखता है। अलबत्ता आशिक और माशुका के इश्क के बाद शादी न होने या होकर मिलन न होने के प्रसंग अब जिस तरह सार्वजनिक चर्चा का विषय बन रहे हैं उससे तो यही लगता है कि जिस तरह कोई फिल्म बिना प्रेम कहानी के पूरी नहीं होती उसी तरह संगठित प्रचार माध्यमों में बहसें भी इसके बिना रुचिकर नहीं  बनती। इसलिये हर आठवें दिन कोई न कोई प्रेम प्रसंग चर्चा का विषय बन ही जाता है।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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साभार समाचार प्रस्तुति-हिन्दी व्यंग्य (sabhar samachar prustuti-hindi vyangya)


धरती पर विचरने वाला सौर मंडल! कल जब इस विषय पर लेख लिखा था तब यह स्वयं को ही समझ में नहीं आ रहा था कि यह चिंत्तन है कि व्यंग्य! हमें लगने लगा कि यह किसी की समझ में नहीं आयेगा, क्योंकि उस समय दिमाग सोचने पर अधिक काम कर रहा था लिखने में कम! मगर ऐसे में उस पर आई एक टिप्पणी से यह साफ हो गया कि जिन लोगों के लिये लिखा गया उनको समझ में आ गया।
मुश्किल यह है कि चिंत्तन लिखने बैठते हैं तब किसी विषय पर तीव्र कटाक्ष करने की इच्छा होती है, तब कुछ न कुछ व्यंग्यात्मक हो ही जाता है। जब व्यंग्य लिखने बैठते हैं तो अपने विषय से संबंधित कुछ गंभीर चर्चा हो ही जाती है और वह चिंत्तन दिखने लगता है।
ब्लाग पर लिखते हुए पहले हम यह सोचते थे कि दोनों भाव एक साथ न लायें पर जब समाचार चैनलों को समाचार से अधिक खेल, हास्य तथा मनोरंजन से संबंधित अन्य चैनलों की सामग्री प्रसारित करते देखते हैं तो सोचते हैं क्यों न दोनों ही विद्यायें एक साथ चलने दी जायें। हम उनकी तरह धन तो नहीं कमा सकते पर उनकी शैली अपनाने में क्या बुराई है? इधर अमेरिका के राष्ट्रपति का भारत आगमन क्या हुआ? सारे चैनलों के लिये यही एक खबर बन गयी है। कब किधर जा रहे हैं, आ रहे हैं और खा रहे हैं, यह हर पल बताया जा रहा है। ऐसा लगता है कि बाकी पूरा देश ठहर गया है, कहीं सनसनी नहीं फैल रही। कहीं हास्य नहंी हो रहा है। कहीं खेल नहीं चल रहा है।
हैरानी होती है जिस क्रिकेट से यही प्रचार माध्यम अपनी सामग्री जुटा रहे थे उसके टेस्ट मैच-यह भारत और न्यूजीलैंड के बीच अहमदाबाद में चल रहा है-की खबर से मुंह फेरे बैठे हैं। कल इनका कथित महानायक या भगवान चालीस रन बनाकर आउट हो गया जबकि यह उससे पचासवें शतक की आशा कर रहे थे। हो सकता है कि उस महानायक या भगवान ने सोचा हो कि क्यों इनके अस्थाई भगवान यानि अमेरिकी राष्ट्रपति के सामने खड़ा होकर धर्मसंकट खड़ा किया जाये। इस धरती पर विचरने वाले सौर मंडल-पूंजीपति, धार्मिक ठेकेदार, अराजक तत्व तथा उनके दलाल-के लिये स्वर्ग है अमेरिका। वैश्वीकरण ने पूरी दुनियां को एक राष्ट्र बना दिया है अमेरिका! इसलिये अमेरिका के राष्ट्रपति को अब विश्व का दबंग कहकर प्रचारित किया जा रहा है। बाकी राष्ट्रों के प्रमुख क्या हैं, यह वही जाने और उनके प्रचार माध्यम! ऐसे में क्रिकेट के भगवान या महानायक ने चालीस रन पर अपनी पारी निपटाकर प्रचार माध्यमों को संकट से बचा लिया। अगर वह शतक बनाता तो संभव है टीवी चैनल और अखबार में संकट पैदा हो जाता कि किसको उस दिन का महानायक बनाया जाये। अपनी खबर को अगले मैचों तक के लिये रोक कर उसने प्रचार माध्यमों को धर्मसंकट से बचा लिया। ख् वह पचासवां शतक नहीं बना सके-इस खबर से ऐसा लगता है कि जैसे नब्बे तक पहुंच गये थे, पर वह तो चालीस रन बनाकर आउट हो गया। इस तरह इन भोंपूओं ने सारी दुनियां में धरती पर विचरने वाले सौर मंडल को बताया कि देखो कैसे क्रिकेट के भगवान या महानायक ने अपनी वफादारी निभाई।
जिस पूंजीवाद को हम रोते हैं वह अब चरम पर है। अब तो ऐसा लगता है कि विश्व के अनेक विकासशील देशों के राष्ट्रप्रमुख अपने लिये अमेरिका को ही संरक्षक मानने लगे हैं। यही कारण है कि पूंजी के बल पर चलने वाले प्रचार माध्यम भले ही चौथे स्तंभ के रूप में अपनी भूमिका जनाभिमुख होने का होने का दावा करें पर यह सच नहीं है। वह अपने समाचार और विषय जनता पर थोप रहे हैं। कम से कम भारत में अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा को लेकर जनमानस इतना उत्साहित नहीं है जितना समाचार चैनल उसे दिखा रहे हैं। इस समय देश में दीपावली का पर्व की धूम है। इधर अमेरिका का भव्य विमान भारत में उतर रहा था भारत में लोग तब फटाखे फोड़ने और मिठाई खाने में लोग व्यस्त थे। फिर भाईदूज का दिन भी है जब लोग अपने घरों से इधर उधर जाते और आते हैं। ऐसा लगता है कि यह यात्रा कार्यक्रम ही इस तरह बनाया गया कि भारत के लोग घरों में होंगे तो उन पर अपने महानायक का प्रचार थोपा जायेगा। हालांकि अनेक मनोरंजन और धार्मिक चैनलों के चलते यह संभव नहीं रहा कि कोई एक प्रकार के चैनल अपना कार्यक्रम थोप ले पर समाचारों में दिलचस्पी रखने वालों की संख्या कम नहीं है और अंततः उनको एक कम महत्व का समाचार बार बार देखना पड़ा।
समाचार पत्र पत्रिकाऐं, टीवी चैनल और रेडियो इनको एक प्रकार से लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। पहले केवल प्रकाशन पत्रकारिता को ही चौथा स्तंभ माना जाता था पर अब आधुनिक तकनीकी के उपयोग के चलते बाकी अन्य दोनों माध्यमों को भी इसमें शामिल कर लिया गया है। समाचार चैनलों के कार्यकर्ता यह कहते है कि लोग इसी तरह के कार्यक्रम पसंद कर रहे हैं पर उन्हें यह पता होना चाहिए कि वह अपने मनोरंजन कार्यक्रमों को समाचारों की आड़ में थोप रहे हैं। इतना ही नहीं समाचारों के नाम पर भी अब अपने नायक बनाने लगे हैं। कभी फिल्म तो कभी क्रिकेट तो कभी टीवी धारावाहिकों से जुड़े लोगों को अनावश्यक प्रचार देने लगते हैं।
यह देश के समाचार चैनलों के लिये ही चिंताजनक है कि आम जनमानस में उनको एक समाचार चैनल की तरह नहीं बल्कि मनोरंजन कार्यक्रमों के नाम पर ही जाना जा रहा है। इन चैनलों की छबि भारत में नहीं बल्कि बाहर भी खराब हो गयी है। अगर ऐसा न होता तो ओबामा बराक हुसैन के भारत दौरे में मुंबई के कार्यक्रमों में उनको दूर नहीं रखा जाता। याद रखिये वहां के कार्यक्रमों में केवल दिल्ली दूरदर्शन को ही आने का अवसर मिला। क्या कभी अमेरिका के राष्ट्रपति की यात्रा के दौरन किसी पश्चिमी देश में भी ऐसा होता है कि वहां के समाचार चैनलों में किसी एक को ही ऐसा अवसर मिलता हो। यहां हम देखें तो अपने देश के समाचार चैनल संभव है कि विदेशी समाचार चैनलों से अधिक कमा रहे हों पर उनकी वैसी छबि नहीं है। इसका कारण यह है कि एक समाचार चैनल के नाते उनको जनमानस से सहानुभूति नहीं मिलती और जो उन्होंने खुद ही खोई है। वरना क्या वजह है कि दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर दावा करने वाले अनेक समाचार पत्रों तथा टीवी चैनलों की ऐसी उपेक्षा की गयी और वह भी दुनियां के सबसे महान लोकतांत्रिक देश होने का दावा करने वाले अमेरिका के रणनीतिकारों के कम कमलों से। बहरहाल यह तय है कि धरती पर विचरने वाले सौर मंडल के सूर्य कहे जाने पूंजीपतियों का उनको वरदहस्त बराबर मिलेगा क्योंकि उनके महानायक को वैसा ही प्रचार दिया जिसकी चाहत थी। यह पहला अवसर था कि जब कोई समाचार चैनल यह दावा नहीं कर रहा था कि यह सीधा प्रसारण आप हमारे ही चैनल पर देख रहे हैं। सभी ने दूरदर्शन से साभार कार्यक्रम लिया।
एक बुद्धिमान आज सब्जी खरीद रहे थे। पास में उनके एक मित्र आ गये। उन्होंने बुद्धिमान महाशय से कहा-‘आज ओबामा जी का क्या कार्यक्र्रम है? कहंी पढ़ा या सुना था। हमारे यहां तो सुबह से लाईट नहीं थी।’
बुद्धिमान महाशय ने कहा-‘क्या खाक देखते? हमारी भी लाईट सुबह से नहीं है। पता नहीं ओबामा का आज क्या कार्यक्रम है?
सब्जी वाले ने बीच में हस्तक्षेप किया‘यह आप लोग लाईट न होने से किसकी बात कर रहे हो।’
बुद्धिमान ने कहा-‘तू चुपचाप सब्जी बेच, ऐसे समाचार सुनना और देखना हमारे जैसे फालतू लोगों का काम है या कहो मज़बूरी है।’
मित्र ने अपना सिर हिलाया और बोला-‘हां, यह बात सही है।
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एक लेखिका को ब्रह्मज्ञानी साबित करने की कोशिश-हिन्दी लेख


पश्चिम से पुरस्कार प्राप्त होने के बाद भारत के अंग्रेजी लेखक हिन्दी प्रचार माध्यमों के चहेते हो जाते हैं। उनके बयान भारतीय प्रचार माध्यम-टीवी, अखबार तथा रेडियो-ब्रह्मवाणी की तरह प्रस्तुत करने के लिए तरसते हैं। भारत में भगवान ब्रह्मा के बाद कोई दूसरा नहीं हुआ क्योंकि कुछ कहने सुनने को बचा ही नहीं था। उनको भारतीय अध्यात्म का पितृपुरुष भी कहा जा सकता है। इसका मतलब यह है कि उनके बाद जो हुए वह पुत्र पुरुष हुए। मतलब यहां ब्रह्मा के पुत्र पुरुष तो बन सकते हैं पर भारत के पितृपुरुष नहीं बन सकते। सो प्रचार माध्यम आये दिन नये पितृपुरुष प्रस्तुत करते है क्योंकि पुत्र पुरुष में अधिक प्रभाव नहीं दिखता। यहां पुरुष से आशय संपूर्ण मानव समाज से है न कि केवल लिंग भेद से। स्पष्टत करें तो स्त्री के बारे में भी कह सकते हैं कि वह पुत्री बन सकती है पर गायत्री माता नहीं। गायत्री माता का मंत्र जापने से जो मानसिक शांति मिलती है पर उसकी चर्चा यहां नहीं कर रहे हैं।
अंग्रेजी में भारतीय गरीबी पर उपन्यास लिखकर पुरस्कार प्राप्त करने वाली एक लेखिका ने कहा कि ‘इतिहास में जम्मू-कश्मीर कभी भारत का हिस्सा नहीं रहा।’
उसने यह पहली बार नहीं कहा पर जो स्थिति बनी है उससे लगता है कि दोबारा वह शायद ही यह बयान दोहराये। कथित न्याय के लिये संघर्षरत वह लेखिका केवल प्रचार माध्यमों के सहारे ही प्रचार में बनी रहती है। दरअसल उसके बयान का महत्व इसलिये बना क्योंकि कश्मीर के एक अलगाववादी नेता के साथ उसने दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस की थी। इसके लिये धन कहां से आया पता नहीं। मगर जिस साज सज्जा से यह सब हुआ उसमें पर्दे के पीछे धन का काम अवश्य रहा होगा। यह लेख उन कथित महान लेखिका को यह समझाने के लिये नहीं लिखा जा रहा कि वह जम्मू कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग स्वीकार करने की कृपा करें। उनके बयान का प्रतिवाद करने का हमारा कोई इरादा नहीं है।
हम तो बात कर रहे हैं उस इतिहास की जिसको उनके सहायक प्रचार माध्यमों ने जोरशोर से सुनाया। कुछ लोगों ने तो यह भी लिखा है कि अंग्रेजों के आने से पहले यह भारत भी कहां था? इतनी सारी रियासतों को जबरन मिलाकर देश बनाया गया। चलिये यह भी मान लेते हैं क्योंकि हमें अब इतिहास पर नज़़र डालनी होगी।
इतिहास बताता है कि आज का भारत बहुत छोटा है इससे अधिक पर तो अनेक राजा राज्य कर चुके हैं। एक समय किसी भारतीय राजा की ईरान तो दूसरे की तिब्बत तक राज्य सीमा बताई गयी है। उसके पश्चात् जो राजा हुआ आपस में लड़ते रहे यह भी सच है। विदेशियों को आने का मौका मिला। मुगल और अंग्रेज सबसे अधिक शासन करने वाले माने जाते हैं। जिस डूंरड लाईन को पार कर वह काबुल तक नहीं जा सके वहां तक भारतीय राजा राज्य कर चुके थे। इतिहास में पाकिस्तान भी भारत का हिस्सा था। मतलब यह कि सिंध, पंजाब, ब्लूचिस्तान और सीमा प्रांत भी कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं रहे। अस्पष्ट रूप से पाकिस्तान की बजा रही वह लेखिका इससे भी मुंह फेर ले तो उससे भी शिकायत नहीं है। इतिहास गवाह है कि ईरान के राजा ने सिंध के राजा दाहिर को परास्त किया था। इस संबंध में भी बताया जाता है कि ईरान के एक आदमी पर अधिक भरोसा करना उसे ले डूबा। उसके बाद ईरान के राजा ने उसकी स्त्रियों का हरण किया-नारीवादी होने के नाते उस लेखिका को यह बात भी पढ़नी चाहिए।
गरीबों के साथ अन्याय, मजदूरों का शोषण, स्त्री के मजबूरी के विषय पर अपनी आवाज बुलंद करने वाले अनेक लेखक लेखिकाऐं तमाम तरह के नारे चुन लेते हैं। समस्याओं का हल तो उनके पास नहीं था है और न होगा। इसका कारण यह है कि हर मनुष्य अपने आप में एक ईकाई है और उसकी समस्याओं का सामूहिक अस्तित्व होता ही नहीं है। जो समस्यायें सामूहिक हैं वह गरीब और मध्यम वर्ग दोनों के लिये एक समान है। कहीं कहीं अमीर भी उसका शिकार होता है। जब भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ तब आज पाकिस्तान के कथित रूप से हिस्सा कहला रहे पंजाब और सिंध से जो हिन्दू भारत आये उनमें की कई अमीर थे और वहां से तबाह होकर यहां आये। इस विभाजन में कहने को भले ही किसी को जिम्मेदार माना जाये पर हकीकत यह कि कहीं न कहीं इसके पीछे आधुनिक कंपनी पूंजीवाद भी जिम्ममेदार थां मतलब यह कि जिस अमेरिकी और ब्रिटेन के सम्राज्य को कोसा जा रहा है वह कहीं ने कहीं से केवल कंपनी अमीरों का ही बनाया हुआ है। कंपनी नाम का यह दैत्य भारत की आज़ादी से पूर्व ही सक्रिय है। इसी समूह से जुड़े लोग बूकर जैसे पुरस्कार बनाते हैं जो अपने समर्थित बुद्धिजीवियों को दिये जाते हैं। वरना लेखकों या रचनाकारों को पुरस्कार की क्या जरूरत! क्या वेदव्यास या बाल्मीकी को कोई बूकर या नोबल मिला था या वह ऐसी आशा करते थे। रहीम, कबीर, मीरा, तुलसी जैसे रचनाकर अपनी क्षेत्रीय भाषा में रचनायें कर विश्व भर में लोकप्रिय हैं। कोई अंग्रेजी या अन्य लेखक उनके पासंग नहीं दिखता। मुश्किल यह है कि समाज को नयापन देकर पैसा बटोरने के प्रयास करने वाले बाज़ार तथा उसके प्रचारकों के पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है कि वह विदेशी पुरस्कारों तथा भाषाओं का सम्मान करें ताकि उनका धंधा चलता रहे। यह बूकर पुरस्कार भी भारत के इतिहास में नहीं है।
अमेरिका और ब्रिटेन सहित पश्चिमी देशों ने नोबल, बूकर, तथा सर जैसे खिताब बना रखे हैं जिनके प्रयास में कुछ बुद्धिमान भारतीय अंग्रेजी में लिख लिख कर मर गये पर मन है कि मानता नहीं। उनके यहां अमिताभ बच्चन जैसा अभिनेता नहीं है इसलिये ऑस्कर लेकर आने वाले अभिनेताओं को उनसे बड़ा साबित करने की भारतीय प्रचार माध्यम नाकाम कोशिश करते हैं। अलबत्ता लेखन जगत में वह कामयाब हो जाते हैं क्योंकि हिन्दी के लेखकों के पास कोई स्वतंत्र साधन नहीं है और बाज़ार और उसके प्रचार समूह से समझौता कर ही वह चल पता है ऐसे में उसकी मौलिकता तथा स्वतंत्रता दाव पर लग जाती है। यही कारण है कि उनको अंग्रेजी को पाठकों को विदेशी भाषा के देशी लेखक या उनके पाठ हिन्दी में प्रस्तुत करना पड़ते हैं। सम सामयिक घटनाओं को लिखा साहित्य नहीं होता मगर लिखने वाले साहित्यकार कहलाते हैं। दूसरे का लिखा पढ़ने वाला टीवी एंकर पत्रकार नहीं होता मगर कहलता है। एक उपन्यास लिखकर कोई महान लेखक नहीं होता क्योंकि सतत लिखना ही उनको महान बनाता है मगर यहां तो एक उपन्यास लिखकर ही एक लेखिका महान बनी फिर रही है।
सीधी बात कहें कि इतिहास पर बहस अनंत हो सकती है। उस लेखिका ने बाद में कहा कि ‘जम्मू कश्मीर के बारे में मैंने वही कहा जो लाखों लोग रोज कहते हैं। मैं तो अन्याय के विरुद्ध बोल रही हूं।’
यह बयान बदलने की तरह है। पहले आप इतिहास की आड़ लेते हैं जब मामला दर्ज होता है तो आप लोगों के कहने की आड़ लेते हैं। इसका मतलब यह कि आपने इतिहास नहीं पढ़ा। जिस तरह की वह लेखिका हैं वह शायद ही किसी का लिखा पढ़ती हों ऐसे में इतिहास जैसा बृहद विषय पढ़ा होगा संदेह की बात है। रहा न्याय के लिये अन्याय से लड़ने की बात! उस पर भी सवाल यह है कि केवल उत्तर पूर्व तथा जम्मू कश्मीर जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों में ही उनको अन्याय दिखता है। उन जैसे अन्य लोगों को मध्य भारत में सब कुछ ठीक ठाक लगता है। क्या यहंा इस तरह का अन्याय नहीं होता! शायद डर है कि कहीं अगर पूरे भारत में न्याय की मांग का विषय पूरे भारत में फैला तो फिर पूरे देश के सारे प्रदेशों में ही कहीं अलगाववाद न फैल जाये। फिर कहीं सारे देश का विभाजन हो गया तो फिर पूंजी, समाज तथा राजनीति के जिन शिखरों के सहारे खड़े बुद्धिजीवियों का भी बंटाढार हो जायेगा तब वह उनका प्रायोजन कैसे करेंगें।
आखिरी बात यह कि इतिहास में वीसा या पासपोर्ट भी नहीं था। राजाओं की जंग होती थी पर सामान्य लोगों का आवागमन बाधित होता था इसका प्रमाण नहीं मिलता था। अब भारत का आदमी बिना सरकारी सहायता के लाहौर, कराची या सक्खर नहीं जा सकता जहां हिन्दू धर्म के अनेक पवित्र स्थान है। कश्मीर हिमालयीन क्षेत्र है जहां से आम भारतीय भावनात्मक रूप से जुड़ा रहा है। यहां तमाम तीर्थ हैं ऐसे में यह भारतीय जनमानस के हृदय का अभिन्न अंग हमेशा रहा है। लेखिका और उनके सहयोगी जो बकवास कर रहे हैं वह इस बात को समझ लें कि आम आदमी का पारगमन बाधित हुआ है जिसके कारण वह सरकारी महकमों का मोहताज हो गया है। यही अन्याय का कारण भी है। अगर दम है तो फिर सारी दुनियां में पासपोर्ट तथा वीजा मुक्त आवागमन के लिये आंदोलन करो। कतरनों में ज़माने का कल्याण नहीं होगा। स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि दूसरे को छोड़कर अपने ही लोग शोषण करें बल्कि आम आदमी हर जगह स्वतंत्र रूप से जा सके यही न्याय का प्रमाण है। जम्मू कश्मीर में धारा 370 लगी है जिससे वहां शेष भारत का आदमी मकान नहीं खरीद सकता जबकि वहां का आदमी कहीं भी खरीद सकता है। क्या इसमें अन्याय जैसा कुछ नहीं है। मतलब यह कि इतिहास और आम इंसान से न्याय का प्रश्न उससे अधिक गहरे हैं जितने वह लेखिका और उसके समर्थक बता रहे हैं। चलते चलते हमारे मन में एक प्रश्न तो रह ही गया कि भारतीय अध्यात्म ग्रंथों में कहीं अरुधंती नाम की महिला का उल्लेख मिलता है पर याद नहीं आ रहा वह कौन है?
हां, इतना जरूरी है कि हम यह देख सकते हैं कि एक विदेशी पुरस्कार प्राप्त लेखिका को हमारे ही देश के प्रचार माध्यम ब्रह्मज्ञानी की तरह प्रचारित कर रहे हैं जो कि हास्यास्पद है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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