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ओसामा बिन लादेन कब मरा-हिन्दी लेख (death of osama bin laden,what truth and lie-hindi lekh)


               इस्लामिक उग्रवाद के आधार स्तंभ ओसामा  बिन लादेन के मारे जाने की खबर इतनी बासी लगी कि उस पर लिखना अपने शब्द बेकार करना लगता है।  अगर अमेरिका और लादेन के बीच चल रहे पिछले दस वर्षों से चल रहे संघर्ष के बारे में प्रचार माध्यमों में प्रकाशित तथा प्रसारित समाचारों पर दृष्टिपात करते हैं तो हमारा अनुमान है कि वह दस साल पहले ही मर चुका है क्योंकि उसके जिंदा रहने के कोई प्रमाण अमेरिका और उसकी खुफिया एजेंसी सीआईऐ नहीं दे सकी थी। उसके मरने के प्रमाण नहीं मिले या छिपाये गये यह अलग से चर्चा का विषय हो सकता है। थोड़ी देर के लिये मान लें कि वह दस साल पहले नहीं मारा गया तो भी बाद के वर्षों में भी उसके ठिकानों पर ऐसे अमेरिकी हमले हुए जिसमें वह मर गया होगा। यह संदेह उसी अमेरिका की वजह से हो रहा है जिसकी सेना के हमले बहुत अचूक माने जाते हैं।
                 अगर हम यह मान लें कि ओसामा बिन लादेन अभी तक नहीं मरा  था  तो यह शक होता है कि अमेरिका का एक बहुत बड़ा वर्ग उसे जिंदा रखना चाहता था ताकि उसके आतंक से भयभीत देश उसके पूंजीपतियों के हथियार खरीदने के लिये मजबूर हो सकें। यह रहस्य तो सैन्य विशेषज्ञ ही उजागर कर सकते हैं कि इन दस वर्षों में अमेरिका के हथियार निर्माताओं को इस दस वर्ष की अवधि में ओसामा बिन लादेन की वजह से कितना लाभ मिला? इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि उसे दस वर्ष तक प्रचार में जिंदा रखा गया। अमेरिका के रणीनीतिकार अपनी शक्तिशाली सेना की नाकामी का बोझ केवल अपने आर्थिक हितो की वजह से ढोते रहे।
                  आज से दस वर्ष पूर्व अमेरिका के अफगानिस्तान पर हम हमले के समय ओसामा बिन लादेन के मारे जाने की खबर आयी थी। वह प्रमाणित नहीं हुई पर सच बात तो यह है कि उसके बाद फिर न तो ओसामा बिन लादेन का कोई वीडियो आया न ही आडियो। जिस तरह का ओसामा बिन लादेन प्रचार का भूखा आदमी था उससे नहीं लगता कि वह बिना प्रचार के चुप बैठेगा। कभी कभी उसकी बीमारी की खबर आती थी। इन खबरों से तो ऐसा लगा कि ओसामा चलती फिरती लाश है जो स्वयं लाचार हो गया है। उन  समाचारों पर शक भी होता था क्योंकि कभी उसके अफगानिस्तान में छिपे होने की बात कही जाती तो कभी पाकिस्तान में इलाज करने की खबर आती।
                          अब अचानक ओसामा बिन लादेन की खबर आयी तो वह बासी लगी। उसके बाद अमेरिका के राष्टपति बराक हुसैन ओबामा के राष्ट्र के नाम संबोधन सुनने का मौका मिला। उसमें ओसामा बिन लादेन के धर्मबंधुओं को समझाया जा रहा था कि अमेरिका उनके धर्म के खिलाफ नहीं है। अगर हम प्रचार माध्यमों की बात करें तो यह लगता है कि इस समय अमेरिका में बराक ओबामा की छवि खराब हो रही है तो उधर मध्य एशिया में उसके हमलों से ओसामा बिन लादेन  के धर्मबंधु पूरी दुनियां में नाराज चल रहे हैं। लीबिया में पश्चिमी देशों के हमल जमकर चल रहे हैं। सीरिया  और मिस्त्र में भी अमेरिका अपना सीधा हस्तक्षेप करने की तैयारी मे है। देखा जाये तो मध्य एशिया में अमेरिका की जबरदस्त सक्रियता है जो पूरे विश्व में ओसामा बिन लादेन के धर्म बंधुओं के लिये विरोध का विषय है। बराक ओबामा ने जिस तरह अपनी बात रखी उससे तो लगता है कि वह ने केवल न केवल एक धर्म विशेष लोगों से मित्रता का प्रचार कर रहे थे बल्कि मध्य एशिया में अपनी निरंतर सक्रियता  से उनका ध्यान भी हटा रहे थे। उनको यह अवसर मिला या बनाया गया यह भी चर्चा का विषय है।
                  अमेरिका में रविवार छुट्टी का दिन था। लोगों के पास मौज मस्ती का समय होता है और वहां के लोगों को यह एक रोचक और दिलखुश करने वाला विषय मिल गया और प्रचार माध्यमों में उनका जश्न दिखाया भी गया। अमेरिका की हर गतिविधि पर नज़र रखने वाले किसी भी घटना के वार और समय में बहुत दिलचस्पी रखते हैं। सदाम हुसैन को फांसी रविवार को दी गयी थी तब कुछ विशेषज्ञों ने अनेक घटनाओं को हवाला देकर शक जाहिर किया था कि कहीं यह प्रचार के लिये फिक्सिंग तो नहीं है क्योकि ऐसे मौकों पर अमेरिका में छुट्टी का दिन होता है और समय वह जब लोग नींद से उठे होते हैं या शाम को उनकी मौजमस्ती का समय होता है।
                    जब से क्रिकेट  में फिक्सिंग की बात सामने आयी है तब से हर विषय में फिक्सिंग के तत्व देखने वालों की कमी नहीं है। स्थिति तो यह है कि फुटबाल और टेनिस में भी अब लोग फिक्सिंग के जीव ढूंढने लगे हैं। अमेरिका की ऐसी घटनाओं पर विश्लेषण करने वाले वार और समय का उल्लेख करना नहीं भूलते।
                        पहले की अपेक्षा अब प्रचार माध्यम शक्तिशाली हो गये है इसलिये हर घटना का हर पहलु सामने आ ही जाता है। अमेरिका इस समय अनेक देशों में युद्धरत है और वह अफगानिस्तान से अपनी सेना  वापस बुलाना चाहता है। संभव है कि ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद उसे यह सहुलियत मिल जायेगी कि वहां के रणनीतिकार अपनी जनता को सेना की वापसी का औचित्य बता सकेंगे। अभी तक  वह अफगानिस्तान में अपनी सेना बनाये रखने का औचित्य इसी आधार पर सही बताता रहा था कि ओसाबा अभी जिंदा है। अलबत्ता सेना बुलाने का यह मतलब कतई नहीं समझना चाहिए कि अफगानितस्तान से वह हट रहा है। दरअसल उसने वहां उसी तरह अपना बौद्धिक, आर्थिक तथा प्रशासनिक वर्चस्व स्थापित कर दिया होगा जिससे बिना सेना ही वह वहां का आर्थिक दोहन करे जैसे कि ब्रिटेन अपने उपनिवेश देशों को आज़ाद करने के बाद करता रहा है। सीधी बात कहें तो अफगानिस्तान के ही लोग अमेरिका का डोली उठाने वाले कहार बन जायेंगे।        
                     ओसामा बिन लादेन एकदम सुविधा भोगी जीव था। यह संभव नहीं था कि जहां शराब और शबाब की उसकी मांग जहां पूरी न होती हो वह वहां जाकर रहता। उसके कुछ धर्मबंधु भले ही प्रचार माध्यमों के आधार पर उसे नायक मानते रहे हों पर सच यह है कि वह अय्याश और डरपोक जीव था। वह युद्ध के बाद शायद ही कभी अफगानिस्तान में रहा हो। उसका पूरा समय पाकिस्तान में ही बीता होगा। अमेरिकी प्रशासन के पाकिस्तानी सेना में बहुत सारे तत्व हैं और यकीनन उन्होंने ओसामा बिन लादेन को पनाह दी होगी। वह बिना किसी पाकिस्तानी सहयोग  के इस्लामाबाद के निकट तक आ गया और वहां आराम की जिंदगी बिताने लगा यह बात समझना कठिन है। सीधा मतलब यही है कि उसे वहां की लोग ही लाये और इसमें सरकार का सहयोग न हो यह सोचना भी कठिन है। वह दक्षिण एशिया की कोई भाषा नहीं जानता इसलिये यह संभव नही है कि स्थानीय सतर पर बिना सहयोग के रह जाये। अब सवाल यह भी है कि पाकिस्तानी सेना बिना अमेरिका की अनुमति के उसे वहां कैसे पनाह दे सकती थी। यकीनन कहीं न कहीं फिक्सिंग की बू आ रही है। अमेरिका उसके जिंदा रहते हुए अनेक प्रकार के लाभ उठाता रहा है। ऐसे में संभव है कि उसने अपने पाकिस्तानी अनुचरों से कहा होगा कि हमें  तो हवा में बमबारी करने दो और तुम लादेन को कहीं रख लो। किसी को पता न चले, जब फुरतस मिलेगी उसे मार डालेंगे। अब जब उसका काम खत्म हो गया तो उसे इस्लामाबाद में मार दिया गया।
                        खबरें यह है कि कुछ मिसाइलें दागी गयीं तो डान विमान से हमले किये गये। अमेरिका के चालीस कमांडो आराम से लादेन के मकान पर उतरे और उसके आत्मसमर्पण न करने पर उसे मार डाला। तमाम तरह की कहानिया बतायी जा रही हैं पर उनमें पैंच यह है कि अगर पाकिस्तान को पता था कि लादेन उनके पास आ गया तो उन्होंने उसे पकड़ क्यों नहीं लिया? यह ठीक है कि पाकिस्तान एक अव्यवस्थित देश है पर उसकी सेना इतनी कमजोर नहीं है कि वह अपने इलाके में घुसे लादेन को जीवित न पकड़ सके। बताया जाता है कि अंतिम समय में पाकिस्तान के एबटबाद में सैन्य अकादमी के बाहर ही एक किलोमीटर दूर एक बड़े बंगले में रह रहा था। पाकिस्तान का खुफिया तंत्र इतना हल्का नहीं लगता है कि उसे इसकी जानकारी न हो। अगर पाकिस्तान की सेना या पुलिस अपनी पर आमादा हो जाती तो उसे कहीं भी मार सकती थी। ऐसे में एक शक्तिशाली सेना दूसरे देश को अपने देश में घुस आये अपराधी की सूचना भर देने वाली एक  अनुचर संस्था  बन जाती है और फिर उसकी सेना  को हमले करने के लिए  आमंत्रित  करती है। इस तरह पाकिस्तान ने सारी गोटिया बिछायीं और अमेरिकी सेना को ही ओसामा बिन लादेन को मारे का श्रेय दिलवाया जिसको न मार पाने के आरोप को वह दस बर्षों से ढो रही थी। लादेन अब ज्यादा ताकतवर नहीं रहा होगा। उसे सेना क्या पाकिस्तानी पुलिस वाले ही धर लेते अगर उनको अनुमति दी जाती । ऐसा लगता है कि अमेरिका ने चूहे को मारने के लिये तोपों का उपयोग  किया है।
                   यह केवल अनुमान ही है। हो सकता है कि दस वर्ष या पांच वर्ष पूर्व मर चुके लादेन को अधिकारिक मौत प्रदान करने का तय किया गया हो। अभी यह सवाल है कि यह तय कौन करेगा कि करने वाला कौन है? बिना लादेन ही न1 इसका निर्णय तो आखिर अमेरिका ही करेगा। हालांकि नज़र रखने वाले इस बात की पूरी तहकीकात करेंगे। सब कुछ एक कहानी की तरह लग रहा है क्योंकि लादेन की लाश की फोटो या वीडियो दिखाया नहीं गया। कम उसका पोस्टमार्टम हुआ कब उसका डीएनए टेस्ट किया गया इसका भी पता नहीं चला। आनन फानन में उसका अंतिम संस्कार समंदर में इस्लामिक रीति से किया गया। कहां, यहा भी पता नहीं। भारतीय प्रचार माध्यम इस कहानी की सच्चाई पर यकीन करते दिख रहे हैं। उनको विज्ञापन दिखाने के लिये यह कहानी अच्छी मिल गयी। हमारे पास भीअविश्वास का कोई कारण नहीं पर इतना तय है कि इस विषय पर कुछ ऐसे तथ्य सामने आयेंगे कि इस कहानी पेंच दिखने लगेंगे।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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इश्क और नारीवादी-हिन्दी व्यंग्य (ishq aur narivadi-hindi vyangya


अपने पल्ले आज तक एक बात नहीं पड़ी कि इश्कवादी और नारीवादी बुद्धिजीवी अभी तक बिना विवाह साथ रहने के न्यायालयीन फैसले पर जश्न मना रहे थे फिर अचानक किसी प्रेम के विवाह में परिवर्तित न होने पर समाज को क्यों कोस रहे हैं?
देश में ऐसे अनेक किस्से होते हैं कि लड़कियां और लड़के भाग कर शादी कर लेते हैं, और समाज उनका पीछा करता है तो उनके बचाव में नारीवादी और इश्कवादी बुद्धिजीवी आगे आते रहे हैं। आगे क्या आते हैं! समाज की असामाजिक स्थिति पर सवाल उठते हैं-जवाब तो वह खैर क्या ढूंढेंगे? जमकर भारतीय धर्म पर उंगली उठायेंगे। जातिवाद को कोसेंगे। संविधान के प्रावधानों की दुहाई देते हुए बतायेंगे कि उसके अनुसार किसी को किसी से भी विवाह करने से रोकना गलत है।
जब एक माननीय अदालत ने यह निर्णय दिया कि अगर कोई व्यस्क जोड़ा बिना विवाह के लिये साथ रहना चाह तो रह सकता है तब लगा कि इश्कबाजी में समाज से विद्रोह करने वाले इसका लाभ उठायेंगे और शादी वादी के चक्कर से बचेंगे। इससे समाज के साथ ही आशिक और माशुकाओं को राहत मिलेगी। अलबत्ता नारीवादी और इश्कवादी बुद्धिजीवियों के बौद्धिक अभ्यास में कमी आने की आशंका थी पर लगता है उसकी संभावना नहीं के बराबर है। इसका कारण यह है कि हमारे देश के युवक युवतियां बाह्य रूप से पश्चात्य चालचलन और आंतरिक रूप से प्राचीन संस्कारों में चलते हुए ऐसे अंतद्वंद्ध में पड़े हैं जिसके चलते उनको यह समझ में नहंी आता कि करना क्या है?
असामयिक जवान मौत चाहे वह लड़की की हो या लड़के की पीड़ादायक है। पीड़ादायक तो हर मौत होती है पर बड़ी उम्र में हुई मौत पर केवल रिश्तेदार और परिवार ही शोकाकुल होता है जबकि जवान मौत पर पूरा समाज ही दुःखी हो जाता है। जन्म और मृत्यु कभी स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करती पर जीवन करता है। जीवन यानि जन्म से मृत्यु के बीच का सफर! भले ही कोई आदमी कितना भी कहे कि स्त्री और पुरुष एक समान है पर वह प्रकृति के द्वारा किये भेद और उसकी सच्चाईयों को बदल नहीं सकता। सबसे बड़ा सच यह है कि स्त्री की इज्जत कांच की तरह होंती है-एक बार टूटी तो जूड़ती नहीं, जबकि आदमी की इज्जत पीतल के लोटे की तरह है-एक बार गंदी हो गयी तो फिर पानी से धोकर साफ हो जाती है।
अपने देश के बुद्धिजीवी इस सच को बदलना चाहते हैं, पर पाश्चात्य विचारधाराओं की धारा में बह रहे यह लोग ऐसा कर नहीं सकते।
पाश्चात्य विचाराधाराओं के समर्थक सवाल करते हैं, पर जवाब नहीं ढूंढते। यह ऐसा क्यों है? इसे ऐसा होना चाहिये! यह पहले ऐसा था पर अब इसे समय के अनुसार बदलना चाहिये-ऐसा वह हर विषय पर करते हैं। गनीमत है कि सर्वशक्तिमान को नहीं मानते। वरना इनमें एकाध तपस्वी निकल पड़ता तो उसे भी हैरान कर देता। उसकी तपस्या से मान लीजिये सर्वशक्तिमान प्रकट होते तो उसे वरदान मांगने को कहते तो वही यही कहता कि ‘यहां स्त्री पुरुष का भेद खत्म करो और सभी को एक जैसा बनाओ। सभी लोगों को अपनी शक्ति से प्रकट करो। आखिर यह औरत ही इंसान को जन्म देने का बोझ क्यों उठाये?’
मान लीजिये सर्वशक्तिमान एक से अधिक वरदान मांगने को कहते तो जाने क्या हाल होता। ऐसे तपस्वी उनसे कहते कि ‘यहां सभी को पैदा किया है तो उनको खाना भी उम्र भर का खाना साथ भेजो ताकि यहां आदमी मजदूर यह पूंजीपति जैसे वर्ग न बने।’
तीसरा वरदान मांगने को मिलता तो कहते कि ‘भारत के अलावा विश्व में जितने भी महान लोग हुए हैं सभी को यहीं भेज दो ताकि हम अपने पुराने नायकों को भुला सकें क्योंकि वह सभी कल्पित हैं। यहां का धर्म एक धोखा है और बाकी दुनियां के सही है इसलिये उनकी स्थापना करनी है।’
ऐसे बुद्धिजीवियों का क्या कहा जाये? उनकी कहानी फिल्मी की तरह शादी से आगे नहीं जाती। इश्क की आजादी के नाम पर सभी स्वीकार्य है फिर कोई दुर्घटना हो जाये-कहीं लड़की तो कहीं लड़के के परिवार वालों से व्यवधान होने पर-तो समाज को कोसो। कहीं कोई मर जाये तो उसे इश्क की जंग का शहीद बताओ। समाज का अंधा बताओ। माता पिता को पिछड़ी विचारधारा का प्रचारित करो। मतलब यह कि माता पिता अपने पुत्र और पुत्री के लिये योग्य वधु या वर अपने विवेक से ढूंढते हैं तो वह अंधापन है।
इनको इश्क और शादी का अंतर पता नहंी है। दरअसल इनको कौन समझाये कि इश्क का शादी में तब्दील होना ही शहीद होना है। इश्क में तो होटल और पार्क में काम चल जाता है पर जब गृहस्थी की बात आती है तो उसके लिये घर ही मोर्चे की तरह हो जाता है जहां पैसे के बिना आदमी गरीब भी कहलाता है।
देश में रोजगार की कमी है। पढ़ने लिखने के अलावा व्यवहारिक चालाकियों में दक्ष ही लोग आजकल व्यवसायों और नौकरियों में चल पाते हैं। जिनके पास बहुत काम है उनके पास इश्क में इधर उधर घूमने की फुरसत नहीं है और उनकी कमाई इतनी होती है कि उनके पास अच्छे रिश्ते स्वयं ही आते हैं। जिनके पास कम काम है या नकारा हैं वह इधर उधर हाथ पंाव मारकर ऐसी प्रेयसी ढूंढते हैं जो शादी के बाद भी उनका खाना भी बनाये और कमाये भी!
पाश्चात्य संस्कृति और भारतीय संस्कारों के बीच चल रहा यह अंतहीन संघर्ष बहुत गहरा है इसके लिये जरूरी है कि केवल किताबी बातों को पढ़कर उस पर अभिव्यक्ति देने की बजाय समाज में अलग अलग स्थानों और समूहों में बैठकर वहां की दैनिक गतिविधियों को अवलोकन किया जाये। तभी बात समझी जा सकती है।
पिछले एक वर्ष से तो ऐसा लग रहा है कि इश्क का राजनीतिकरण हो गया है। कहंी आशिक तो कहीं माशुका बलिदान हो जाती है। इसके साथ ही हो जाता है व्यक्ति की आजादी की अभिव्यक्ति रोकने के विरोध का अभियान! इतना ही नहीं जिस तरह देश में राजनीतिक धारायें प्रवाहित हैं उसी के अनुसार टिप्पणियां भी आती है। कलकत्ता में इश्क पर संकट आया तो उस पर एक विचारधारा विशेष के लोग बोलेंगे तो कश्मीर में दूसरे विचाराधारा के लोग अभिव्यक्ति देंगे। ऐसे में हम जैसे लोग संकट में फंस जाते हैं कि इधर बोले तो यह समझें जायें उधर बोलें तो वह समझें जायें। खामोश रहो तो लगता है कि अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन किया। साथ ही लगता है कि यह कथित संघर्ष तो तयशुदा है-हिन्दी में बोलें तो  फिक्सिंग-जो शायद इसलिये जारी रखा जाता है कि कोई आजाद चिंतक उभरकर नाम न कमा ले-इनाम वगैरह तो क्या ले पायेंगे क्योंकि बांटने वाले तो विचाराधाराओं के अनुसार ही चलते हैं। सो कभी कभार बिना नाम लिये दिये अपनी बात कह जाते हैं। विचार वीरों से बचने तथा अपने अभिव्यक्ति के अधिकार में सामंजस्य बिठाने का यह एक अच्छा मार्ग दिखता है। अलबत्ता आशिक और माशुका के इश्क के बाद शादी न होने या होकर मिलन न होने के प्रसंग अब जिस तरह सार्वजनिक चर्चा का विषय बन रहे हैं उससे तो यही लगता है कि जिस तरह कोई फिल्म बिना प्रेम कहानी के पूरी नहीं होती उसी तरह संगठित प्रचार माध्यमों में बहसें भी इसके बिना रुचिकर नहीं  बनती। इसलिये हर आठवें दिन कोई न कोई प्रेम प्रसंग चर्चा का विषय बन ही जाता है।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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ऊपरी कमाई -लघु हास्य व्यंग्य कथा


सुबह घर से निकलते समय पत्नी ने अपने पति से कहा-‘मैं सर्वशक्तिमान के दरबार के निर्माण कार्य के लिये चंदा देने का वादा करके आयी हूं। अब तो आपकी तनख्वाह बहुत अच्छी है इसलिये कुछ पैसे देना तो मैं वहां दे आऊंगी।’
पति ने कहा-‘कितनी बात कहा है कि तनख्वाह की बात मत किया करो। अपना घर तो ऊपरी कमाई से ही चलता है। आजकल प्रचार माध्यम बहुत ताकतवर हो गये हैं इसलिये ऊपरी कमाई आसान नहीं रही है। इधर तुम धर्मार्थ काम के लिये पैसा मांगने लगी हो। आज इस दरबार में तो कल उस दरबार में चंदा देना बंद कर दो।
पत्नी ने कहा-‘कैसी बात करते हो? सर्वशक्तिमान की कृपा से इतनी अच्छी तनख्वाह हो गयी है……………….’’
पति ने कहा-‘फिर वही बात! सर्वशक्तिमान की कृपा से तनख्वाह नहीं मिलती। वह तो अपनी मेहनत का फल है। उसकी कृपा से तो बस ऊपरी कमाई हो सकती है, जिसमें आजकल कमी हो गयी है फिर दफ्तर में अब नज़र भी रखी जाने लगी है। खतरा बढ़ गया है।
पत्नी उदास हो गयी तो पति ने कहा-‘ठीक है! देखता हूं आज कोई मुर्गा फंसा तो उससे अपनी कमाई के साथ ही सर्वशक्तिमान के नाम पर धर्मार्थ कर भी मांग लूंगा। अगर तुम इसी तरह धर्म का काम करती रही तो मुझे पता नहीं कितने लोगों से यह धर्मार्थ कर मांगना पड़ेगा। अब मैं चलता हूं और सर्वशक्तिमान से प्रार्थना करो कि आज ऊपरी कमाई के साथ धर्मार्थ कर भी वसूल हो जाये।’
पत्नी खुश हो गयी और बोली-‘अच्छा! आप जाओ मैं सर्वशक्तिमान से प्रार्थना करती हूं कि आज आपको कोई धर्मार्थ कर देने वाला मिल जाये।’
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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दौलत भक्ति-हास्य कविताएँ (dualat bhakti-hasya kavitaen)


पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी पर
देश भक्ति के गीत गाना
हास्यास्पद दिखता है,
जिन्होंने हथिया लिये दौलत और शौहरत के शिखर
वह हर शख्स
दौलत भक्ति करता दिखता है,
बातें कर चाहे कोई भी कितनी आदर्श की
मौका पड़े तो वह शख्स
देश को बेचने का सौदा भी लिखता है।
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महंगाई यूं बड़ी तो
पीतल सोने के भाव बिक जायेगा।
चांदी के भाव लोहा लिख जायेगा,
मोटे पेट वाले सेठ
कपड़े की गांठों पर बैठे रहेंगे,
गरीब हर जगह नंगा दिख जायेगा।
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महंगाई न केवल कमर तोड़ गयी
बल्कि पांव में पत्थर भी जोड़ गयी,
जिंदा रहना तो मुश्किल हो गया
मौत भी इंसान से मुंह मोड़ गयी।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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यह चुनाव है-हास्य व्यंग्य (it is election-hindi vyangya)


उस दिन एक आटो रिक्शा से बार बार लाउडस्पीकर पर दोहराया जा रहा था कि अमुक महिला को पार्षद पद पर मोहर लगाकर विजयी बनाईये। पहली बार जब कान में यह शब्द गूंजा तो हमें पार्षद पद की जगह पति शब्द सुना ही दिया। फिर जब दूसरी बार ध्यान दिया तो पता लगा कि पार्षद पद पर मोहर लगाकर विजयी बनाने की अपील की जा रही है। स्थानीय निकायों में पचास प्रतिशत महिलाओं के लिये सुरक्षित रखे गये हैं। हमें इस निर्णय के श्रेष्ठ या गौण होने की मीमांसा नहीं कर रहे क्योकि एक आम आदमी के लिये बस इतना ही काफी है कि वह एक दिन मोहर लगाकर अपने काम में जुट जाये। हम भी यही करते हैं। जिस तरह फिल्म, व्यापार, और पत्रकारिता में नित परिवर्तन होते हैं क्योंकि इनका संबंध लोगों की रुचियों और मानसिकता को प्रभावित करने सै है तब खुली लोकतंात्रिक प्रक्रिया में नीरसता के वातावरण को सरस बनाने के लिये इस तरह के परिवर्तन करना भी स्वाभाविक लगता हैं। भले ही यह प्रक्रिया एक व्यवसाय, फिल्म या पत्रकारिता जैसी न हो पर चूंकि लोगों में रुचि हमेशा बनी रहे इसलिये ऐसे परिवर्तन होते हैं जिसका परिणाम भी परिलक्षित होता है।

स्थानीय चुनावों में वास्तव ही एक अलग किस्म का वातावरण दिखने लगा है। महिलायें चुनाव लड़ रही हैं, यह देखकर खुशी होती है पर कुछ ऐसी बातें होती हैं जो कभी हास्य तो कभी करुणा का भाव पैदा करती हैं। उस दिन एक मित्र रास्ते में मिले। वह पास के ही शहर में जा रहे थे। हमसे अभिवादन करने के बाद वह तत्काल बोले-‘‘यार, आज जरा जल्दी में हूं। घर जा रहा हूं। भाईसाहब पार्षद के लिये खड़े हुए हैं। उनके प्रचार का काम मैं ही देख रहा हूं। मेरा पूरा परिवार वहीं है और अब मैं भी जा रहा हूं।’
हमने कहा-‘अच्छा, चलो कोई बात नहीं, अगर आपके भाई पार्षद बन जायें तो अच्छी बात है।’
वह कुछ सोचते दिखे फिर बोले-दरअसल, भाईसाहब नहीं बल्कि भाभीजी खड़ी हैं। महिलाओं के लिये सुरक्षित स्थान है तो भाईसाहब तो खड़े नहीं हो सकते थे इसलिये उनको खड़ा करना पड़ा। वैसे हमारी भाभी तो अभी तक घर गृहस्थी संभालती आई हैं इसलिये भाई साहब को अपनी राजनीतिक जमीन पर उनको मैदान में उतारना पड़ा।’
जब वह अपनी बात कह रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई संकोच उनके मन में था जो चेहरे पर दिख रहा था।
एक अन्य मित्र ने भी अपना एक दिलचस्प किस्सा सुनाया। उनके पड़ौस में ही एक महिला पार्षद पद की प्रत्याशी हैं। वह भी एक सामान्य गृहिणी हैं। अगर पड़ौसी चुनाव लड़ता तो कोई बात नहीं पर उसकी पत्नी चुनाव लड़ रही है और वह अपनी पड़ोसनों को भी प्रचार के लिये साथ लेती है। संयोग से उसी जगह उन्ही मित्र के एक पुराने परिचित की भी पत्नी चुनाव लड़ रही है। वह प्रत्याशी पति-हां, यही शब्द ठीक लगता है-उनके घर आया और बोला ‘‘यह तो मैं भी समझ रहा हूं कि पड़ौस की वजह से आपको उनका प्रचार करना ही है पर आप वोट मुझे ही देना।’
उन मित्र ने कहा-‘आपको!
वह प्रत्याशी थोड़ा हकलाते हुए बोले-हां, मतलब मेरी पत्नी के नाम पर मुहर लगाना।’
मतलब उनकी पत्नी के नाम पर मोहर लगाना उनको वोट देना ही था।
एक अन्य मित्र की एक रिश्तेदार चुनाव लड़ी रही है। वह तो साफ कह देती हे कि हमारा तो नाम है पर हमारे पति ही असल में चुनाव लड़ रहे हैं। वरना हम क्या जानते है इस राजनीति में।’
पुरुषों के मुकाबले महिलायें बहुत सरल और कोमल स्वभाव की होती हैं। छल, कपट, धोखा तथा बेईमानी से तो उनका करीब करीब नाता ही नहीं होता। मगर राजनीति का खेल अलग ही है। जो महिलायें राजनीति की अनुभवी हैं उनके लिये प्रचार वगैरह कोई असहज काम नहीं होता जबकि ऐसी सामान्य गृहणियां जो बरसों तक पर्दे में रही पर अब भले ही नाम के लिये प्रत्याशी बनती हैं तो उनको घर से बाहर निकलना ही पड़ता है। हालत यह हो जाती है कि जिन घरों में पर्द का बोलाबाला है वहां भी पुरुष अपनी राजनीतिक जमीन बचाने या बनाने के लिये इस परंपरा का त्याग करने के लिये प्रेरित करते है।
जगह जगह लगे बैनरों में प्रत्याशी महिलाओं के फोटो हैं। जिन महिलाओं ने अपनी राजनीतिक जमीन बनाय हैं वह तो अपना नाम ही लिखती हैं पर जिनको पति के नाम पर वोट चाहिये उनके नाम पीछे वह जुड़ा रहता है। जिनमें से तो कई ऐसी हैं जिनके परिवार वाले अगर कहीं उनके फोटो सार्वजनिक स्थान पर देखें तो आसमान सिर पर उठा डालें पर अब उनके पुरुष सदस्यों ने स्वयं ही लगाये हैं। फोटो में अधिकतर के सिर पर पल्लू हैं और मांग में सिंदूर भरा हुआ है। सच बात तो यह है कि सभी प्रत्याशी महिलायें भली हैं और अगर जैसा कि साफ सुथरी छबि की बात की जाती है तो सभी उस पर खरी उतरती हैं।
ऐसे में लगता है कि सभी जीत जायें मगर लोकतंत्र की भी सीमा है। वार्ड में एक को चुना जाना है और शहर का महापौर भी एक ही हो सकता है।
किसी भी महिला प्रत्याशी की आलोचना करने का मन भी नहीं करता। अगर पुरुष हो तो उस पर तो दस प्रकार की टिपपणियां की जा सकती हैं पर अपने घर की गृहस्थी को अपनी खून पसीने से सींच चुकी इन महिलाओं को इस तरह प्रचार के लिये जूझते देख मन द्रवित हो उठता है। संभव है कि इनमें कुछ महिलायें ऐसी हों जो घर का काम करने के बाद प्रचार के लिये जूझती हों। यह भी संभव है कि उन्होंने चुनाव के समय तक अपने मायके या ससुराल पक्ष से किसी को घर के काम के लिये बुलाया हो। इसके लिये उनके रिश्तेदार भी तैयार हुए हो। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि पुरुष आम तौर से घर के बाहर रहते हुए अपने संपर्क व्यापक दायरे में बनाये रहता है और जब वह चुनाव लड़ता है तब वह पड़ौसियों और रिश्तेदारों पर बोझ नहीं डालता। इसके विपरीत महिलायें घर में रहते हुए अपने आसपास आत्मीय रिश्ते बना लेती हैं। घर में सीमित महिलायें व्यापक दायरे में संपर्क नहीं बना पाती पर अपने आसपास के उनके आत्मीय रिश्ते पुरुषों के औपचारिक रिश्तों से अधिक मजबूत तथा सार्थक होते हैं इस कारण उनकी आदत भी हो जाती है कि जब कहीं सार्वजनिक कार्यक्रम होता है तो वह अपने पड़ौस और रिश्तदारेां के समूह के साथ ही वहां पहुंचती हैं। ऐसे में अगर सामान्य गृहस्थ महिलायें मैदान में उतरे और अपने रिश्तेदारों के साथ पड़ौसियों को मोर्चे पर लेकर न निकले यह संभव नहीं है। एक पुरुष को मित्र, रिश्तेदार और पड़ोसी कोई भी बहाना बनाकर मना कर सकता है पर महिलाओं को कौन मना कर सकता है क्योंकि उनके आत्मीय संबंध एक आदत बन जाते हैं। कई गृहणियों को यह पार्षद पद का संघर्ष बैठे बिठायें मुसीबत लगता होगा। यह अलग बात है कि कुछ इसे अपने आत्मीय लोगों के बीच व्यक्त करती होंगी तो कुछ नहीं।
वैसे सरकार या प्रशासन कोई अदृश्य संस्था नहीं है बल्कि उसे वेतनभोगी लोग ही चलाते हैं जो कि अपने हिसाब से सारा काम करते हैं। उनको अपने हिसाब से चलाना कोई आसान काम नहीं है। यह सामान्य गृहणियां इस प्रशासन तंत्र को केसे साधेंगी यह प्रश्न अपने आप में गौण है क्योंकि चुने जाने के बाद उनके पति ही ‘पार्षद पति’ बनकर यह काम संभाल लेगें। बाकी तो छोड़िये आसपास के लोग भी अपने पार्षद के नाम पर उनके पति की ही नाम लेंगे जैसे गांवों में अभी तक सरपंच का नाम पूछने पर बताया जाता है कि अमुक पुरुष है। बाद में पता लगता है कि औपचारिक रूप से उनकी पत्नी ही सरपंच है। कहने का तात्पर्य यह है कि बाद में यह गृहणियां किसी अन्य कार्य के तनाव से मुक्त रहती हैं। अलबत्ता चुनाव के समय उनके लिये यह एक अतिरिक्त जिम्मेदारी हो जाती है कि वह बाहर निकल कर अपने पति को पार्षद पति बनाने के लिये प्रयास करें ंवै से असली महारानी तो गृहणी ही होती है । पुरुष महाराजा हो साहूकार बाहर कितना भी कद्दावर दिखता हो पर घर में केवल पति का पत्नी होता है। दरअसल यह पार्षद पति शब्द एक ऐसी प्रत्याशी महिला के शब्दों से मिला जो स्वयं अपनी राजनीतिक जमीन बना चुकी है। उसके समर्थक ही कह रहे हैं कि ‘पार्षद पति’ नहीं बल्कि अपने यहां खुद काम करने वाला ‘पार्षद’ चुनो। बहरहाल लोकतंत्र में एक यह नजारा भी देखने में आ रहा है जिसे देखकर मन में उतार चढ़ाव तो आता ही है। शहरों में महिलाओं की यह भागीदारी दिलचस्प और रोमांचक तो दिखती है।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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