पश्चिम से पुरस्कार प्राप्त होने के बाद भारत के अंग्रेजी लेखक हिन्दी प्रचार माध्यमों के चहेते हो जाते हैं। उनके बयान भारतीय प्रचार माध्यम-टीवी, अखबार तथा रेडियो-ब्रह्मवाणी की तरह प्रस्तुत करने के लिए तरसते हैं। भारत में भगवान ब्रह्मा के बाद कोई दूसरा नहीं हुआ क्योंकि कुछ कहने सुनने को बचा ही नहीं था। उनको भारतीय अध्यात्म का पितृपुरुष भी कहा जा सकता है। इसका मतलब यह है कि उनके बाद जो हुए वह पुत्र पुरुष हुए। मतलब यहां ब्रह्मा के पुत्र पुरुष तो बन सकते हैं पर भारत के पितृपुरुष नहीं बन सकते। सो प्रचार माध्यम आये दिन नये पितृपुरुष प्रस्तुत करते है क्योंकि पुत्र पुरुष में अधिक प्रभाव नहीं दिखता। यहां पुरुष से आशय संपूर्ण मानव समाज से है न कि केवल लिंग भेद से। स्पष्टत करें तो स्त्री के बारे में भी कह सकते हैं कि वह पुत्री बन सकती है पर गायत्री माता नहीं। गायत्री माता का मंत्र जापने से जो मानसिक शांति मिलती है पर उसकी चर्चा यहां नहीं कर रहे हैं।
अंग्रेजी में भारतीय गरीबी पर उपन्यास लिखकर पुरस्कार प्राप्त करने वाली एक लेखिका ने कहा कि ‘इतिहास में जम्मू-कश्मीर कभी भारत का हिस्सा नहीं रहा।’
उसने यह पहली बार नहीं कहा पर जो स्थिति बनी है उससे लगता है कि दोबारा वह शायद ही यह बयान दोहराये। कथित न्याय के लिये संघर्षरत वह लेखिका केवल प्रचार माध्यमों के सहारे ही प्रचार में बनी रहती है। दरअसल उसके बयान का महत्व इसलिये बना क्योंकि कश्मीर के एक अलगाववादी नेता के साथ उसने दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस की थी। इसके लिये धन कहां से आया पता नहीं। मगर जिस साज सज्जा से यह सब हुआ उसमें पर्दे के पीछे धन का काम अवश्य रहा होगा। यह लेख उन कथित महान लेखिका को यह समझाने के लिये नहीं लिखा जा रहा कि वह जम्मू कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग स्वीकार करने की कृपा करें। उनके बयान का प्रतिवाद करने का हमारा कोई इरादा नहीं है।
हम तो बात कर रहे हैं उस इतिहास की जिसको उनके सहायक प्रचार माध्यमों ने जोरशोर से सुनाया। कुछ लोगों ने तो यह भी लिखा है कि अंग्रेजों के आने से पहले यह भारत भी कहां था? इतनी सारी रियासतों को जबरन मिलाकर देश बनाया गया। चलिये यह भी मान लेते हैं क्योंकि हमें अब इतिहास पर नज़़र डालनी होगी।
इतिहास बताता है कि आज का भारत बहुत छोटा है इससे अधिक पर तो अनेक राजा राज्य कर चुके हैं। एक समय किसी भारतीय राजा की ईरान तो दूसरे की तिब्बत तक राज्य सीमा बताई गयी है। उसके पश्चात् जो राजा हुआ आपस में लड़ते रहे यह भी सच है। विदेशियों को आने का मौका मिला। मुगल और अंग्रेज सबसे अधिक शासन करने वाले माने जाते हैं। जिस डूंरड लाईन को पार कर वह काबुल तक नहीं जा सके वहां तक भारतीय राजा राज्य कर चुके थे। इतिहास में पाकिस्तान भी भारत का हिस्सा था। मतलब यह कि सिंध, पंजाब, ब्लूचिस्तान और सीमा प्रांत भी कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं रहे। अस्पष्ट रूप से पाकिस्तान की बजा रही वह लेखिका इससे भी मुंह फेर ले तो उससे भी शिकायत नहीं है। इतिहास गवाह है कि ईरान के राजा ने सिंध के राजा दाहिर को परास्त किया था। इस संबंध में भी बताया जाता है कि ईरान के एक आदमी पर अधिक भरोसा करना उसे ले डूबा। उसके बाद ईरान के राजा ने उसकी स्त्रियों का हरण किया-नारीवादी होने के नाते उस लेखिका को यह बात भी पढ़नी चाहिए।
गरीबों के साथ अन्याय, मजदूरों का शोषण, स्त्री के मजबूरी के विषय पर अपनी आवाज बुलंद करने वाले अनेक लेखक लेखिकाऐं तमाम तरह के नारे चुन लेते हैं। समस्याओं का हल तो उनके पास नहीं था है और न होगा। इसका कारण यह है कि हर मनुष्य अपने आप में एक ईकाई है और उसकी समस्याओं का सामूहिक अस्तित्व होता ही नहीं है। जो समस्यायें सामूहिक हैं वह गरीब और मध्यम वर्ग दोनों के लिये एक समान है। कहीं कहीं अमीर भी उसका शिकार होता है। जब भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ तब आज पाकिस्तान के कथित रूप से हिस्सा कहला रहे पंजाब और सिंध से जो हिन्दू भारत आये उनमें की कई अमीर थे और वहां से तबाह होकर यहां आये। इस विभाजन में कहने को भले ही किसी को जिम्मेदार माना जाये पर हकीकत यह कि कहीं न कहीं इसके पीछे आधुनिक कंपनी पूंजीवाद भी जिम्ममेदार थां मतलब यह कि जिस अमेरिकी और ब्रिटेन के सम्राज्य को कोसा जा रहा है वह कहीं ने कहीं से केवल कंपनी अमीरों का ही बनाया हुआ है। कंपनी नाम का यह दैत्य भारत की आज़ादी से पूर्व ही सक्रिय है। इसी समूह से जुड़े लोग बूकर जैसे पुरस्कार बनाते हैं जो अपने समर्थित बुद्धिजीवियों को दिये जाते हैं। वरना लेखकों या रचनाकारों को पुरस्कार की क्या जरूरत! क्या वेदव्यास या बाल्मीकी को कोई बूकर या नोबल मिला था या वह ऐसी आशा करते थे। रहीम, कबीर, मीरा, तुलसी जैसे रचनाकर अपनी क्षेत्रीय भाषा में रचनायें कर विश्व भर में लोकप्रिय हैं। कोई अंग्रेजी या अन्य लेखक उनके पासंग नहीं दिखता। मुश्किल यह है कि समाज को नयापन देकर पैसा बटोरने के प्रयास करने वाले बाज़ार तथा उसके प्रचारकों के पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है कि वह विदेशी पुरस्कारों तथा भाषाओं का सम्मान करें ताकि उनका धंधा चलता रहे। यह बूकर पुरस्कार भी भारत के इतिहास में नहीं है।
अमेरिका और ब्रिटेन सहित पश्चिमी देशों ने नोबल, बूकर, तथा सर जैसे खिताब बना रखे हैं जिनके प्रयास में कुछ बुद्धिमान भारतीय अंग्रेजी में लिख लिख कर मर गये पर मन है कि मानता नहीं। उनके यहां अमिताभ बच्चन जैसा अभिनेता नहीं है इसलिये ऑस्कर लेकर आने वाले अभिनेताओं को उनसे बड़ा साबित करने की भारतीय प्रचार माध्यम नाकाम कोशिश करते हैं। अलबत्ता लेखन जगत में वह कामयाब हो जाते हैं क्योंकि हिन्दी के लेखकों के पास कोई स्वतंत्र साधन नहीं है और बाज़ार और उसके प्रचार समूह से समझौता कर ही वह चल पता है ऐसे में उसकी मौलिकता तथा स्वतंत्रता दाव पर लग जाती है। यही कारण है कि उनको अंग्रेजी को पाठकों को विदेशी भाषा के देशी लेखक या उनके पाठ हिन्दी में प्रस्तुत करना पड़ते हैं। सम सामयिक घटनाओं को लिखा साहित्य नहीं होता मगर लिखने वाले साहित्यकार कहलाते हैं। दूसरे का लिखा पढ़ने वाला टीवी एंकर पत्रकार नहीं होता मगर कहलता है। एक उपन्यास लिखकर कोई महान लेखक नहीं होता क्योंकि सतत लिखना ही उनको महान बनाता है मगर यहां तो एक उपन्यास लिखकर ही एक लेखिका महान बनी फिर रही है।
सीधी बात कहें कि इतिहास पर बहस अनंत हो सकती है। उस लेखिका ने बाद में कहा कि ‘जम्मू कश्मीर के बारे में मैंने वही कहा जो लाखों लोग रोज कहते हैं। मैं तो अन्याय के विरुद्ध बोल रही हूं।’
यह बयान बदलने की तरह है। पहले आप इतिहास की आड़ लेते हैं जब मामला दर्ज होता है तो आप लोगों के कहने की आड़ लेते हैं। इसका मतलब यह कि आपने इतिहास नहीं पढ़ा। जिस तरह की वह लेखिका हैं वह शायद ही किसी का लिखा पढ़ती हों ऐसे में इतिहास जैसा बृहद विषय पढ़ा होगा संदेह की बात है। रहा न्याय के लिये अन्याय से लड़ने की बात! उस पर भी सवाल यह है कि केवल उत्तर पूर्व तथा जम्मू कश्मीर जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों में ही उनको अन्याय दिखता है। उन जैसे अन्य लोगों को मध्य भारत में सब कुछ ठीक ठाक लगता है। क्या यहंा इस तरह का अन्याय नहीं होता! शायद डर है कि कहीं अगर पूरे भारत में न्याय की मांग का विषय पूरे भारत में फैला तो फिर पूरे देश के सारे प्रदेशों में ही कहीं अलगाववाद न फैल जाये। फिर कहीं सारे देश का विभाजन हो गया तो फिर पूंजी, समाज तथा राजनीति के जिन शिखरों के सहारे खड़े बुद्धिजीवियों का भी बंटाढार हो जायेगा तब वह उनका प्रायोजन कैसे करेंगें।
आखिरी बात यह कि इतिहास में वीसा या पासपोर्ट भी नहीं था। राजाओं की जंग होती थी पर सामान्य लोगों का आवागमन बाधित होता था इसका प्रमाण नहीं मिलता था। अब भारत का आदमी बिना सरकारी सहायता के लाहौर, कराची या सक्खर नहीं जा सकता जहां हिन्दू धर्म के अनेक पवित्र स्थान है। कश्मीर हिमालयीन क्षेत्र है जहां से आम भारतीय भावनात्मक रूप से जुड़ा रहा है। यहां तमाम तीर्थ हैं ऐसे में यह भारतीय जनमानस के हृदय का अभिन्न अंग हमेशा रहा है। लेखिका और उनके सहयोगी जो बकवास कर रहे हैं वह इस बात को समझ लें कि आम आदमी का पारगमन बाधित हुआ है जिसके कारण वह सरकारी महकमों का मोहताज हो गया है। यही अन्याय का कारण भी है। अगर दम है तो फिर सारी दुनियां में पासपोर्ट तथा वीजा मुक्त आवागमन के लिये आंदोलन करो। कतरनों में ज़माने का कल्याण नहीं होगा। स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि दूसरे को छोड़कर अपने ही लोग शोषण करें बल्कि आम आदमी हर जगह स्वतंत्र रूप से जा सके यही न्याय का प्रमाण है। जम्मू कश्मीर में धारा 370 लगी है जिससे वहां शेष भारत का आदमी मकान नहीं खरीद सकता जबकि वहां का आदमी कहीं भी खरीद सकता है। क्या इसमें अन्याय जैसा कुछ नहीं है। मतलब यह कि इतिहास और आम इंसान से न्याय का प्रश्न उससे अधिक गहरे हैं जितने वह लेखिका और उसके समर्थक बता रहे हैं। चलते चलते हमारे मन में एक प्रश्न तो रह ही गया कि भारतीय अध्यात्म ग्रंथों में कहीं अरुधंती नाम की महिला का उल्लेख मिलता है पर याद नहीं आ रहा वह कौन है?
हां, इतना जरूरी है कि हम यह देख सकते हैं कि एक विदेशी पुरस्कार प्राप्त लेखिका को हमारे ही देश के प्रचार माध्यम ब्रह्मज्ञानी की तरह प्रचारित कर रहे हैं जो कि हास्यास्पद है।
हां, इतना जरूरी है कि हम यह देख सकते हैं कि एक विदेशी पुरस्कार प्राप्त लेखिका को हमारे ही देश के प्रचार माध्यम ब्रह्मज्ञानी की तरह प्रचारित कर रहे हैं जो कि हास्यास्पद है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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