राजसी पुरुष सुशासन से ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं-हिन्दी चिंत्तन लेख


            इस समय भारत के कुछ धार्मिक ठेकेदार अपने समूहों को प्रसन्न करने के लिये बेतुके बयान दे रहे हैं पर हम यहां केवल भारतीय धर्म से संबद्ध लोगों की बात करें।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार ज्ञानी को देशकाल, समय, क्षेत्र तथा समाज की वर्तमान स्थिति देखकर अपना विचार व्यक्त करना चाहिये। जो ऐसा नहीं करता वह ज्ञानी नहीं है।

            हमारे भारतीय धर्म के कुछ कथित विद्वान समाज में चार, आठ अथवा दस पुत्र पैदा करने का जो ज्ञान बघार रहे हैं क्या वह उन्हें पता नहीं है कि जन्म पुत्र और पुत्री दोनों में से किसी का भी हो सकता है।  हमने समाज में ऐसे लोग भी देखे हैं कि जिनको छह बच्चे हुए जो लड़के थे। ऐसे भी देखे कि सात लड़कियां एक ही क्रम में हुईं।  अनेक कथित धार्मिक ठेेकेदार भारतीय नारियों से पुत्र देने की मांग कर रहे हैं।  इनमें से तो कुछ इतने बड़े हैं कि उनकी पहचान महान व्यक्तित्व की है।  कितने शर्म की बात है कि यह नारियों से नर की मांग कर रहे हैं पर यह भूल जाते हैं कि नर ही नर पैदा हुए तो फिर आगे कौन जन्म का आधार बनेगा? हिन्दू समाज में नारियों की संख्या कम हो गयी है शायद उन्हें इसका पता नहीं है। मध्यम वर्ग के लड़कों के लिये लड़कियां अत्यंत कम हो गयी हैं।  हमारे कुछ प्रदेशों में नारियों से नर की संख्या इतनी अधिक है कि वहां वधु दिलाने के चुनावी सभाओं में वादे तक किये जाते हैं।

            टीवी और समाचार पत्रों में प्रचार पाने तथा अपने शिष्यों में अपने धर्म का रक्षक दिखने की कामना करने वाले ऐसे कथित धार्मिक ठेकेदार इतने अज्ञानी हो सकते हैं यह आज तक नहीं पता था। वह कहते हैं कि हर क्षेत्र के लिये हमें पुत्र दो। धर्म की रक्षा के लिये आबादी बढ़ाओ। जब तक प्रचार माध्यम सीमित थे अनेक लोगों ने धर्म नाम पर अपनी पवित्र छवि बना ली पर अब उनकी व्यापकता के चलते अब पता लग रहा है कि वैचारिक रूप से वह कितने निम्न स्तर के हैं।      विवादास्पर बयानों से यह प्रचार माध्यम  में बहसों का केंद्र तो बनते हैं पर उद्घोषक इन्हें मूर्ख  तथा सांप्रदायिक कहते हुए थकते नहीं है। कभी कभी तो लगता है कि बाज़ार और प्रचार प्रबंधकों से प्रायोजित  यह धार्मिक नायक एक पूर्ववत योजना के तहत अपने धनदाता स्वामियों को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं।

            हम यह कहते हुए थकते नहीं हैं कि भारत में कभी सनातन या हिन्दू धर्म मानने वाले ही लोग थे। अब पश्चिम से आई धार्मिक विचाराधाराओं के बढ़ते प्रभाव पर हम चिंता कर रह हैं तो यह भी विचार करना चाहिये कि हमारे हिन्दू धर्म से ही जैन, सिख तथा बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुआ है। इस पर मनन करना चाहिये।  दरअसल हमारे यहां की शासन व्यवस्था हमेशा ही विवादों का केंद्र रही हैं। पहले राजशाही को कोसते थे तो अब आधुनिक लोकतंत्र पर भी अनेक लोग प्रश्न उठा रहे हैं।  एक अध्यात्मिक साधक होने के नाते हमारा विचार है कि हमारे देश की समस्या यह है कि राजसी कर्म में-जिसमें शासन, व्यापार तथा समाज सेवा जैसे विषय भी शािमल हैं-शिखर पर पहुंचे लोग तामसी वृतियों में लिप्त हो जाते हैं। जब हम राज धर्म की बात करते हैं तो शासन, व्यापार तथा सामाजिक संस्थाओं में इसका पालन होना आवश्यक है। हमारे यहां अहंकार की भावना से बहुत कम ऐसे राजसी पुरुष हैं जो किसी लघु को प्रगति की राह पर चलाकर उच्चतक शिखर पर पहुंचाकर गौरव अनुभव करें। अधिकतर तो किसी को छोटा दिखाकर अपनी श्रेष्ठता का आनंद लेना चाहते हैं।  इसी प्रवृत्ति ने समाज में हमेशा वैमनस्य का भाव स्थापित कर रखा है।

            कहा जाता है कि भारत विश्व का अध्यात्मिक गुरु है।  सच है क्योंकि हमारे ऋषियों, मुनियों तथा तवस्वियों ने जिस ज्ञान रहस्य का संचय किया वह अनुपम है पर इसके पीछे यह भी देखना चाहिये कि उन्हें ऐसा अज्ञानी समाज मिला जिसे देखकर वह अनुसंधान कर सके।  जिस तरह गुलाब का फूल कांटों तथा कमल का फूल कीचड़ में खिलता है उसी तरह ज्ञान की अनुभूति अज्ञान के अंधेरे में होती है। हमारे यहां माया की भौतिक उपलब्धि भी परमात्मा की कृपा से जोड़ी जाती है। यही कारण है कि भौतिक रूप से संपन्न स्वयं को महान भक्त प्रमाणित करने के लिये प्रयासरत रहते हैं। अपना वैभव हजम नहीं होता और वह समाज के सामने उसका प्रदर्शन कर वैमनस्य बढ़ाते हैं।  बड़े और छोटे वर्गों के बीच समन्वय का काम राज्य का है और यकीन मानिए कहीं न कहीं विदेशी धार्मिक विचाराधाराओं का आना हमारे राजसी पुरुषों की नाकामी का प्रमाण है। हम यह कहते हैं कि हमारे यहां भारतीय धर्म मानने वालों की संख्या कम हो रही है तो इसके पीछे हमारे आर्थिक और सामाजिक कारण हैं।  उन्हें दूर किये बिना आबादी बढ़ाने का विचार करना व्यर्थ है।  जितनी बड़ी संख्या में अभी भी हैं पहले उनको सामाजिक रूप से तो स्थापित कर लें तब भविष्य का विचार करें।  इसलिये प्रयास यह करना चाहिये कि सुशासन एक नारा बनकर नहीं रहे वरन् उसे प्रजा के बीच चलते हुए दिखना चाहिए। कम से कम जैसे योग तथा ज्ञान साधक को इसके अलावा कोई मार्ग नहीं दिखता। इन कथित धर्म के ठेकेदारों को अगर अपनी नेकनीयती प्रमाणित करनी है तो बजाय वह आबादी बढ़ने का नारा देने के राजसी पुरुषों को भ्रष्टाचार से दूर रहने तथा सार्वजनिक जीवन में सादगी अपना का संदेश देना चाहिये। यही आज की सबसे बड़ी जरूरत है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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