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प्रबंध भी एक कला है-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन लेख (managemnt a art-hindi satire thought article)


          देखा जाये तो अपना देश अब गरीबों का देश भले ही है पर गरीब नहीं है। सोने की चिड़िया पहले भी था अब भी है। यह अलग बात है कि अभी तक तो यह चिड़ियायें पैदा होकर विदेशों में घोंसला बना लेती और अपने यहां लोग हाथ मलते। कहने को तो यह भी कहा जाता है कि यहां कभी दूध की नदियां बहती थी अब भी बहती हैं पर उनमें दूघ कितना असली है और कितना नकली यह अन्वेषण का विषय है।
          हम दरअसल स्विस बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन और केरल के पद्मनाभ मंदिर में मिले खजाने की बात कर रहे हैं। इस खबर ने हमारे दिलोदिमाग के सारे तार हिला दिये हैं कि पदम्नाभ मंदिर में अभी तक एक लाख करोड़ के हीरे जवाहरात, कीमती सिक्के और सोने के आभूषण मिले हैं। अभी कुछ अन्य कमरे खोले जाने हैं और यकीनन यह राशि बढ़ने वाली है। हम मान लेते हैं कि वहां चार लाख करोड़ से कुछ कम ही होगी। यह आंकड़ा स्विस बैंक में जमा भारतीयों की रकम का भी बताया जाता है। वैसे इस पर विवाद है। कोई कहता है कि दो लाख करोड़ है तो कोई कहता तीन तो कोई कहता है कि चार लाख करोड़। हम मान लेते हैं कि स्विस बैंकों में जमा काला धन और मंदिर में मिला लगभग बराबर की राशि का होगा। न हो तो कम बढ़ भी हो सकता है।
         हमें क्या? हम न स्विस बैंकों की प्रत्यक्ष जानकारी रखते हैं न ही पद्मनाभ मंदिर कभी गये हैं। सब अखबार और टीवी पता लगता है। जब लाख करोड़ की बात आती है तो लगता है कि दो अलग राशियां होंगी। तीन लाख करोड़ यानि तीन लाख और एक करोड़-यह राशियां मिलाकर पढ़ना कठिन लगता है। । अक्ल ज्यादा काम करती नहीं। करना चाहते भी नहीं क्योंकि अगर आंकड़ों में उलझे तो दिमाग काम करना बंद कर देगा।
          इधर खबरों पर खबरें इस तरह आ रही हैं कि पिछली खबर फलाप लगती है। सबसे पहले टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले की बात सामने आयी। एक लाख 79 हजार करोड़ का घोटाला बताया गया। फिर स्विस बैंक के धन पर टीवी और अखबार में चले सार्वजनिक विवाद में चार लाख करोड़ के जमा होने की बात आई। विवाद और आंदोलन के चलते साधु संतों की संपत्ति की बात भी सामने आयी। हालांकि उनकी संपत्तियां हजार करोड़ में थी पर उनकी प्रसिद्धि के कारण राशियां महत्वपूर्ण नहीं थी। फिर पुट्टापर्थी के सत्य सांई बाबा की संपत्ति की चर्चा भी हुई तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गयी। चालीस हजारे करोड़ का अनुमान किया गया। यह रकम बहुत छोटी थी इसलिये स्विस बैंकों की दो से चार लाख करोड़ का मसला लगातार चलता रहा। अब पद्मनाभ मंदिर के खजाने मिलने की खबर से उस पर पानी फिर गया लगता है।
         पिछले कुछ दिनों से अनेक महानुभाव यह कह रहे हैं कि विदेशों में जमा भारत का धन वापस आ जाये तो देश का उद्धार हो जाये। अनेक लोग इस रकम का अर्थव्यवस्था के लिये अत्यंत महत्व बताते हुए अनेक तरह की विवेचना कर रहे हैं। अब पद्मनाभ मंदिर के नये खजाने की राशि के लिये भी यही कहा जा रहा है। ऐसे में हमारा कहना है कि जो महानुभाव विदेशों से काले धन को भारत लाने के लिये जूझ रहे हैं वह अपने प्रयास अब ऐसे उपलब्ध धन के सही उपयोग करने के लिये लगा दें। वैसे भी हमारे देश के सवौच्च न्यायालय ने विदेशों से काला धन लाने के लिये अपने संविधानिक प्रयास तेज कर दिये हैं इसलिये निज प्रयास अब महत्वहीन हो गये हैं। वैसे केरल के पद्मनाभ मंदिर का खजाना भी न्यायालीयन प्रयासों के कारण सामने आया है। यकीनन आगे यह देश के खजाने में जायेगा। उसके बाद न्यायालयीन प्रयासों की सीमा है। धन किस तरह कहां और कब खर्च हो यह तय करना अंततः देश के प्रबंधकों का है। ऐसे में उनकी कुशलता ही उसका सही उपयोग में सहयोग कर सकती है।
            यहीं आकर ऐसी समस्या शुरु होती है जिसे अर्थशास्त्र में भारत में कुशल प्रबंध का अभाव कहा जाता है। अगर आप देश की आर्थिक स्थिति की बात करें तो भूतकाल और वर्तमान काल में धन की बहुतायात के प्रमाण हैं। प्रकृति की कृपा से यहां दुनियां के अन्य स्थानों से जलस्तर बेहतर है इसलिये खेती तथा पशुपालन अधिक होता है। असली सोना तो वह है जो श्रमिक पैदा करता है यह अलग बात है कि उसके शोषक उसे धातु के सोने के बदलकर अपने पास रख लेते हैं। जब तक हिमालाय है तब तब गंगा और यमुना बहेगी और विंध्याचल है तो नर्मदा की कृपा भी रहेगी। मतलब भविष्य में भी यहां सोना उगना है पर हमारे देश के लोगों का प्रेम तो उस धातु के सोने से है जो यहां पैदा ही नहीं होता। मुख्य समस्या यह है कि हमारे देश में सामाजिक सामंजस्य कभी नहीं रहा दावे चाहे हम जितने भी करते रहें। जिसे कहीं धन, पद और बल मिला वह राज्य करना चाहता है। इससे भी वह संतुष्ट नहीं होता। मेरा राज्य है इसके प्रमाण के लिये शोषण और हिंसा करता है। राज्य का पद उपभोग के लिये माना जाता हैं जनहित करने के लिये नहीं। जनहित का काम तो भगवान के भरोसे है। किसी को एक रोटी की जगह दो देने की बजाय जिसके पास एक उसकी आधी भी छीनने का प्रयास किया जाता है यह सोचकर कि पेट भरना तो भगवान का काम है हमें तो अपना संसार निभाना है इसलिये किसी की रोटी छीने।
              भारतीय अध्यात्म में त्याग और दान की अत्यंत महिमा इसलिये ही बतायी गयी है कि धनिक, राजपदवान, तथा बाहबली आपने से कमजोर की रक्षा करें। भारतीय मनीषियों से पूर्वकाल में यह देखा होगा कि प्रकृति की कृपा के चलते यह देश संपन्न है पर यहां के लोग इसका महत्व न समझकर अपने अहंकार में डूबे हैं इसलिये उन्होंने समाज क सहज भाव से संचालन के सूत्र दिये। हुआ यह कि उनके इन्हीं सूत्रों को रटकर सुनाने वाले इसका व्यापार करते हैं। कहीं धर्म भाव तो कहीं कर्मकांड के नाम पर आम लोगों को भावनात्मक रूप से भ्रमित कर उसके पसीने से पैदा असली सोने को दलाल धातु के सोने में बदलकर अपनी तिजोरी भरने लगते हैं। वह अपने घर भरने में कुशल हैं पर प्रबंधन के नाम पर पैदल हैं। अलबत्ता समाज चलाने का प्रबंधन हथिया जरूर लेते हैं। जाति, भाषा, धर्म, व्यापार, समाज सेवा और जनस्वास्थ्य के लिये बने अनेक संगठन और समूह है पर प्रबंधन के नाम पर बस सभी लूटना जानते हैं। जिम्मेदारी की बात सभी करते हैं पर जिम्मेदार कहीं नहीं मिलतां
    हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि देश गरीब इसलिये नहीं है यहां धन नहीं है बल्कि उसका उपयेाग करना लोगों को नहीं आता। भ्रष्टाचार आदत नहीं शौक है। मजबूरी नहीं जिम्मेदारी है। जिसके पास राजपद है अगर वह उपरी कमाई न करे तो उसका सम्मान कहंीं नहीं रहता।
         स्विस बैंक हो या पद्मनाभ का मंदिर हमारे देश के खजाने की रकम बहुत बड़ी है। कुछ लोग तो कहते हैं कि ऐसे खजाने देश में अनेक जगह मिल सकते हैं। उनकी रकम इतनी होगी कि पूरे विश्व को पाल सकते हैं। यही कारण है कि विदेशों के अनेक राजा लुटेरे बनकर यहां आये। मुख्य सवाल यह है कि हमें पैसे का इस्तेमाल करना सीखना और सिखाना है। इसे हम प्रबंध योग भी कह सकते हैं। पतंजलि येाग में कहीं प्रबंध योग नहीं बताया जाता है पर अगर उसे कोई पढ़े और समझे तो वह अच्छा प्रबंध बन सकता है। मुख्य विषय संकल्प का है और वह यह कि पहले हम अपनी जिम्मेदारी निभाना सीखें। त्याग करना सीधें। संपत्ति संचय न करें। जब हम कोई आंदेालन और अभियान चलाते हैं तो स्पष्टतः यह बात हमारे मन में रहती है कि कोई दूसरा हमारा उद्देश्य पूरा करे। जबकि होना यह चाहिए कि हम आत्मनियंत्रित होकर काम करें।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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राजनीतिक शास्त्र के मूल तत्वों के ज्ञान के बिना जनहित संभव नहीं-हिन्दी लेख (janhit aur rajniti-hindi lekh)


           जिस तरह भारत के धार्मिक आंदोलनों, अभियानों तथा संगठनों की स्थिति रही है कि उनके शिखर पुरुष श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान अल्प होने के बावजूद समाज का नेतृत्त करने लगते हैं। वही स्थिति सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों की भी है। वही अगर आप पिछले पचास साठ वर्षों से देश की स्थिति का अवलोकन करें तो पता चलेगा कि हमारे देश के अनेक संत माया मोह से परे रहने का उपदेश देते हुए अपने आश्रमों को महलनुमा तो अपने संगठन को लगभग कंपनी में बदल दिया है। दोनों हाथों  से माया बटोरी है। उन्होंने भारतीय अध्यात्म के ग्रंथों से अनेक पाठ रट लिये हैं उनको संस्कृत के श्लोक याद हैं। बड़े बड़े ग्रंथों का अध्ययन उन्होंने किया है। स्पष्टतः वह धर्म के वह व्यवसायी हैं जिनका अध्यात्मिक ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में अनेक महानायकों की कहानियां हैं उनका वह सरसपूर्ण ढंग से सुनाकर वाहवाही लूटते हैं पर तत्वज्ञान तथा ध्यान के प्रेरणा न देने का प्रयास करते हैं न ही ऐसा चाहते हैं क्योकि इससे उनके अनुयायी उनसे बड़े सिद्ध बन सकते है।। वह विफल रहते हैं। उनके ढेर सारे शिष्य अपने गुरुओं का बखान करते करते थकते नहीं है पर उनसे क्या सीख और कितना उस पर अमल कर रहे हैं यह कोई नहीं बता पाता। इनमें अनेक तो सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर भी बोलने का लोभ नहीं छोड़ पाते क्योंकि इससे प्रचार माध्यमों मे बने रहने का अवसर भी मिलता है।
        ऐसा लगता है कि भारतीय समाज पूर्वकाल में श्रमशील रहा होगा। अपने मानसिक तनाव की मुक्ति के लिये वह सांसरिक विषयों से इतर गतिविधियों में संलग्न रहने के लिये बौद्धिक विशेषज्ञों की शरण लेता होगा। ऐसे में मनोरंजन से उकताने के बाद उसे अध्यात्मिक विषय अत्यंत रुचिकर लगे होंगे क्योंकि न वह केवल मनोंरजन बल्कि ज्ञानबर्द्धक होने के साथ ही लंबे समय तक आत्मिक शांति के लिये उनका ज्ञान अत्यंत उपयेागी है। इसी कारण ही हमारे देश का अध्यात्मिक ज्ञान सर्वाधिक संपन्न बन गया क्योकि तपस्वियों, ऋषियों तथा ज्ञानियों ने जहां अनेक खोजें की तो समाज ने उनको स्वीकार भी किया। समाज अध्यात्मिक का मुरीद बना तो अल्पज्ञानियों के लिये यह व्यवसाय चुनने का एक महत्वपूर्ण साधन भी बना। प्राचीन तपस्पियों, ऋषियों और मुनियों ने जहां अपने सत्य ज्ञान से प्रसिद्धि प्राप्त करने के साथ ही अपना शिष्य समाज बनाकर अध्यात्मिक ग्रंथेां में देवत्व का दर्जा हासिल किया तो वहां समाज भी उनका गुणगायक बन गया।
           सर्वशक्तिमान का बनाया यह संसार अत्यंत अद्भुत है। इसमें सारी भौतिकता उसके संकल्प के आधार पर ही स्थित है पर वह सर्वशक्तिमान किसी को दिखता नहीं है। यह संसार अपने रूप बदलता है। बनता है और नष्ट होता है। विकास और विनाश के इस चक्र को कोई समझ नहंी पाया। संसार नश्वर है पर चमकदार है इसलिये कुछ लोग यहां अपनी देह, नाम तथा व्यवसाय की चमक बनाये रखने के लिये समाज से परे होकर उसका शीर्ष बनना चाहते हैं। ऐसे में भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के ग्रंथों की विषय सामग्री सरस तथा मनोरंजक होने के साथ ही ज्ञानवर्द्धक होन के पेशेवर धार्मिक लोगों के लिये बहुत सहायक होती है। जिसे ज्ञान चुनना है वह ज्ञान चुने जिसे मनोरंजन करना है वह मनोरंजन करे।
        इनमें कुछ लोग लोग तो समाज पर आर्थिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक शासन करना चाहते हैं और तब पैसे, पद और प्रतिष्ठा का उनका मोह अनंत हो जाता है। इसकी भूख शांत नहीं होती। जिस तरह सामान्य आदमी की भूख रोटी से मिट जाती है विशिष्टता की छवि रखने वाले आदमी की भूख उससे नहीं मिटती बल्कि पैसा, प्रतिष्ठा और पद का मोह उसे हमेशा पागल बनाये रहता है। इसमें भी कुछ आदमी ऐसे होते हैं जो समाज को पागल बनाये रखते हैं। उनका एकमात्र लक्ष्य समाज से परे बने अपने शिखर की रक्षा करना होता है। इसलिये वह दूसरे के सृजन को अपने नाम करना चाहते हैं। यहीं से शुरु होता है उनका अभियान जो अंततः निष्काम बौद्धिक लोगों लिये के अनुसंधान का विषय बन जाता है।
धार्मिक आंदोलनों की तरह सामाजिक और राजनीतिक विषयों के अनेक आंदोलन ऐसे हैं जिनको उनके शीर्ष पुरुष कथित रूप से जनप्रिय बताकर भ्रमित करते हैं। आज के बाज़ार और प्रचार से प्रायोजित अनेक ऐसे आंदोलन हैं जो प्रचारित हैं पर उनसे जनहित कितना हुआ या होगा यह अभी भी विचार का विषय है। हम यहां राजनीतिज्ञों के आंदोलनों की बात न कर उन लोगों के राजनीिितक आंदोलनों की बात करेंगे जिनको गैर राजनीतिक लोग प्रारंभ करते है। वह एक तरफ कहते हैं कि उनका आंदोलन गैर राजनीतिक है पर उसकी कोई दूसरी संज्ञा नहीं बताते-जैसे कि सामाजिक आंदोलन, नैतिक आंदोलन या शैक्षणिक आंदोलन। मजे की बात यह है कि उनकी मांगे सरकार से होती हैं जिनका नेतृत्व राजनीतिक लोग करते हैं। ऐसे में आंदोलनों के शीर्ष पुरुषों के बौद्धिक चिंत्तन पर ध्यान जाना जरूरी है। वह कहें या न कहें उनके आंदोलनों में कहीं न कहीं राजनीतिक तत्व रहता है-चाहे उनकी मांगों में हो या उनके पूरे होने में। दूसरी बात यह कि समाज में सर्वजन हित के लिये केाई भी कार्य राजनीतिक परिधि में आता है। मनुष्य नाम की ईकाई का समाज के रूप में परिवर्तन इसलिये ही होता है कि कम से कम वह अन्य जीवों की तरह हिंसक या अनुशासनहीनता का बर्ताव न करे। अगर कोई व्यक्ति अध्यात्मिक विषयों  में महारती है तो वह समाज के भले के लिये न काम कर मनुष्य के हित के लिये काम करता है। वह स्वयं पर अनुसंधान करता है फिर उसकी जानकारी दूसरे को देकर अपने मनुष्य के दायित्व का निर्वाह करता हे। वह मनुष्य को समाज मानकर नहीं बल्कि इकाई दर इकाई संपर्क बनाता है। जहां समाज मानकर मनुष्य को ईकाई दर इकाई मानकर काम किया जाता है वहां राजनीतिक क्षमतायें होना आवश्यक है।
हम कौटिल्य का अर्थशास्त्र या मनु स्मृति को देखें तो वहां मनुष्य को इकाई मानकर संबोधित किया गया है न कि समाज मानकर। उसमें मनुष्य निर्माण के लिये संदेश दिये गये हैं। यह मानकर कि अगर मनुष्य के व्यक्त्तिव का निर्माण होगा तो समाज स्वयं ही अपनी राह चलेगा। कहीं न कहीं यह स्वीकार किया गया है कि समूचा मनुष्य समुदाय एक जैसा नहीं हो सकता। इसलिये उसमें जितने बेहतर लोग होंगे  उतना ही वह चमकदार भी होगा । इसके विपरीत भारतीय आंदोलक पुरुष समाज को संबोधित करते हुए अपनी बात करते हैं। वह यह नहीं बताते कि मनुष्य क्या करे? वह कहते हैं कि समाज यह करे तो सरकार वह करे। यह हवा में तीर चलाने जैसा है। वह समाज में व्यक्ति निर्माण के लिये अपनी भूमिका निभाने से कतराते हैं। भले ही वह सामाजिक नेता होने का दावा करें पर अपनी भूमिका को राजपुरुष की तरह देखना चाहते हैं। यह उनके राजनीतिक अल्पज्ञान का प्रमाण है। अध्यात्मिक पुरुष की छवि सौम्य और शांत होती है। उसकी सक्रियता में आकर्षण नहीं होता जबकि राजपुरुष की छवि में आक्रामकता, सुंदरता तथा प्रभावी छवि है और इसलिये हर कोई उसी तरह दिखना चाहता है।
        हम यहां कुछ आंदोलनों की चर्चा करना चाहेंगे जो जनमानस के लिये महत्वपूर्ण रहे हैं। सबसे पहले सामाजिक कार्यकर्ता श्री अन्ना हजारे और विश्व प्रसिद्ध  योग  शिक्षक बाबा रामदेव के आंदोलन की बात करना अच्छा रहेगा। मूलतः दोनों  ही राजनीतिक क्षेत्र के नहीं है। दोनों ही अपनी छवि महात्मा गांधी की तरह बनाना चाहते हैं। दोनों ही यह कहते हैं कि वह कोई सरकारी पद ग्रहण नहीं करेंगे और न ही चुनाव लड़ेंगे। गैर राजनीतिक दिखने वाले उनके आंदोलनों के विषय बिना राजनीतिक दावपैंचों के सिद्ध नहीं हो सकते यह उनको कोई न समझा पा रहा है। वजह दोनेां ही राजनीति के पश्चिमी सिद्धांतों का अनुकरण कर रहे हैं जिसमें आंदोलन एक विषय और सरकार चलाना दूसरा विषय माना जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि राजधर्म का मतलब वह क्या समझते हैं जो दूसरों को बता रहे हैं। चलिये वह जानते भी होंगे फिर कोई बड़ा पद लेने की बात से इंकार क्यों करते हैं? क्या सरकारी पद केवल उपभोग के लिये होता है। विश्व भर की लोकतंत्रिक सरकारों में बैठे उच्च पदासीन लोग क्या राजसुख भोगने आते हैंे। क्या पद लेना केवल प्रतिष्ठा का प्रतीक है और दायित्व निभाकर दूसरों के सामने प्रस्तुत करने का कोई सिद्धांत वहां नहीं है।
       हैरानी की बात है कि भारतीय जनमानस उनके पद ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की वैसे ही प्रशंसा करता है जैसे भीष्म पितामह की। यह सभी लोग क्या भीष्मपितामह बनना चाहते है पर याद रखना चाहिए कि उन्होंने इस प्रंतिज्ञा को निभाया तो उसकी वजह से अंततः महाभारत युद्ध हुआ। अगर वह स्वयं राजा के पद पर बैठते तो न पांडु राजा बनते और न ही धृतराष्ट के पुत्र पांडवों के साथ युद्ध करते। भीष्म पितामह अपने राज्य की रक्षा करने के वचन से बंधे रहे पर अंततः उनको युद्ध में प्राण गंवाने पड़े। इस एक घटना को भारतीय इतिहास मंें हमेशा मिसाल नहीं माना जाता क्योंकि राजकाज का जिम्मा निभाने में तो हमारे आदर्श भगवान श्रीराम माने जाते हैं। राज्य का त्याग उन्होंने किया पर वापस लौटकर फिर वापस सिंहासन पर विराजे और प्रजा हित के लिये काम किया।
        श्री अन्ना हजारे ने कहा था कि वह दूसरा स्वतंत्रता संग्राम लड़ रहे हैं तब यह विचार सभी लोगों के मन में आया होगा कि महात्मा गांधी के स्वतंत्रता संग्राम भारत को पूर्णता नहीं दिला सका शायद तभी वह ऐसी बात कही हैं। बात निकली है तो श्री महात्मा गांधी जैसे पुण्यात्मा के विचार पर प्रतिविचार आयेगा और हम उसे व्यक्त करने से पीछे नहीं हटेंगे। महात्मा गांधी ने अंग्र्रेजों से आजादी दिलाने का बीड़ा उठाया यह स्वीकार्य है पर उसके बाद राज्य कौन संभालेगा इसकी जिम्मेदारी कौन तय करने वाला था? महात्मा गांधी ने क्या ऐसी गांरटी ली थी कि अंग्रेजों के बाद राज्य चलाने वाले अपने काम में दक्ष होंगे! भारत एक विशाल देश था और उसे दो टुकड़ों में बांटा गया। इसके बावजूद आज का भारत बहुत विशाल था? उसका राजकाज कैसे चलेगा और कौन चलायेगा इसकी भूमिका क्या महात्मा गांधी ने तय की थी? उन्होंने अपने आंदोलन के दौरान सुखद भारत की कल्पना व्यक्त की पर उसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभाना क्या सत्ता का सुख भोगना समझा? यह पलायन माना जाये कि त्याग?
         वह परिवार, समाज, और राष्ट चलाने के सिद्धांतों पर खूब बोले होंगे पर आजादी के बाद के भारत में उन्होंने सक्रिय भागीदारी न देकर क्या जनता के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह किया था? सरकार और राजकाज कोई स्वचालित मशीन नहीं है जिसके साथ खिलवाड़ किया जाये। उसके लिये कुशल लोग होना चाहिऐं। मूल बात यह है कि महात्मा गाीधी अंग्रेजों के हाथ से राजकाज लेकर जिन स्वदेशी लोगों को दे रहे थे उनके ज्ञान पर उनको केवल विश्वास था या उन्होंने उसे प्रमाणिक रूप देखाय भी था? आज अन्ना कहते हैं कि हम काले अंग्रेजों के राज्य को झेल रहे हैं तो सीधे महात्मा गांधी के आंदोलन का विचार आता है। जब उनको कोई राज्य का पद लेना नहंी था तो फिर वह स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के नेता क्यों बने? क्या वह मानते थे कि अं्रग्रेजों ने जिस व्यवस्था को बनाया है उसमें सरकार तो स्वतः चलेगी और उच्च पद तो केवल भोगने के लिये हैं उनमें कोई जिम्मेदारी नहीं होगी?
          हम तो यह मानते हैं सरकार या राजकाज चलाना अंततः राजनीति ज्ञान के बिना संभव नहीं है। आप अगर उसमें कोई पद लेना नहीं चाहते तो इसका मतलब यह है कि आप में कुशलता की कमी है। उसके बाद आप राज्य में परिवर्तन के लिये कोई आंदोलन  चलाना चाहते हैं और पद भी लेना नहीं चाहते तो इसके तीन मतलब यह हैं। एक तो यह कि अप्रत्यक्ष रूप से राजकाज आपका ही रहेगा पर उसमें कमीपेशी होने पर अपनी जिम्मेदारी से भाग सकते हैं। दूसरा यह कि आपका मानना है कि राज्य तो भगवान भरोसे चलता है हम जिसे बिठायेंगे वह सुख भोगने के साथ हमें भी पूजता रहेगा। तीसरी स्थिति यह है कि आपमें आत्मविश्वास नहीं है कि आप सरकार या राज चला पायेंगे।
          ऐसे में कुछ निष्कर्ष भी निकल सकते हैं जो त्यागी आंदोलक पुरुषों और उनके समर्थकों को शायद अच्छे न लगें। एक तो यह कि गैरराजनतिक लोगों दो कारणों से ही राज्य पद त्यागते हैं। एक तो वह बहुत चालाक हैं क्योंकि इससे बिना जिम्मेदारी के वह राजसुख या सम्मान पाते हैंे या उनके पास राजनीतिक शास्त्र के ज्ञान का अभाव है। पहली स्थिति में तो उनको आंदोलक पुरुष होने का हक है क्योंकि राजनीतिक सिद्धांत इस कुटिलता की अनुमति देते हैं कि अगर कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदारी न लेकर अप्रत्यक्ष रूप से राजहित करता है तो कोई बात नहीं है पर दूसरी स्थिति में उनको इसका अधिकार नहीं है कि वह कथित रूप से एक अकुशल प्रशासक को हटाकर दूसरा स्थापित करें। अगर उनके पास कोई बेहतर विकल्प नहीं है और न ढूंढने की क्षमता से भी परे हैं तो उनके कथित गैरराजनीतिक आंदोलन संशय के घेरे में आयेंगै। इससे अच्छा है तो वह आंदोलन ही न चलायें और अगर चलायें तो समय आने पर राज्य चलाने के लिये व्यवस्था से जुड़कर उनको आदर्श स्थापित करें।
           अर्थशास्त्र में हमने भारतीय अर्थव्यवस्था के समस्याओं के बारे में पढ़ा है कि अकुशल प्रबंध का यहंा अभाव है। मतलब यह कि हमें कुशल प्रबंधक चाहिये जो व्यवस्था चला सकें। जो आदर्श की बात करें तो उसे व्यवस्था में आकर काम करते हुए साबित करे। अगर हम भ्रष्टाचार की बात करें तो वह अकुशल प्रबंध का एक हिस्सा होने के साथ ही परिणाम है। हम परिणाम बदलना चाहते हैं यानि भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं पर कुशल प्रबंध के बिना यह संभव नहीं है। बीमारी हटाने के लिये दवा चाहिये न कि हम नारे लगाते रहें कि बीमारी भाग जाओ नहीं तो हम आते हैं। मैं पद नहीं लूंगा मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा मेरा किसी राजनीतिक दल से संबंध नहीं रहेगा जैसी बातें कहते हुए राजनीतिक आंदोलक पुरुष वैसे ही हैं जैसे कोई डाक्टर तमाम तरह के शारीरिक परीक्षण कराकर मरीज को बीमारी का नाम बताकर पर दवा देने की बात आने पर कहीं दूसरे डाक्टर के पास भेज देता है। हम ऐसे आंदोलक पुरुषों की ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठाते क्योंकि वह प्रमाणिक है पर राजनीति शास्त्र के ज्ञान का अभाव उनमें साफ दिखाई देता है। इसलिये वह राजनीतिक खेल में ऐसे दर्शक की भूमिका निभाना चाहते हैं जो खिलाड़ी को सलाह देता रहे और जीतने पर अपनी वाह वाही स्वयं करे और हार हो तो दोष खिलाड़ी को दे। ऐसा आम तौर से हम गांवों में चौपालों और शहरों में बाजा़ारों में शतरंज और ताश खेलने वाली महफिलों में देखते हैं।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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ओसामा बिन लादेन कब मरा-हिन्दी लेख (death of osama bin laden,what truth and lie-hindi lekh)


               इस्लामिक उग्रवाद के आधार स्तंभ ओसामा  बिन लादेन के मारे जाने की खबर इतनी बासी लगी कि उस पर लिखना अपने शब्द बेकार करना लगता है।  अगर अमेरिका और लादेन के बीच चल रहे पिछले दस वर्षों से चल रहे संघर्ष के बारे में प्रचार माध्यमों में प्रकाशित तथा प्रसारित समाचारों पर दृष्टिपात करते हैं तो हमारा अनुमान है कि वह दस साल पहले ही मर चुका है क्योंकि उसके जिंदा रहने के कोई प्रमाण अमेरिका और उसकी खुफिया एजेंसी सीआईऐ नहीं दे सकी थी। उसके मरने के प्रमाण नहीं मिले या छिपाये गये यह अलग से चर्चा का विषय हो सकता है। थोड़ी देर के लिये मान लें कि वह दस साल पहले नहीं मारा गया तो भी बाद के वर्षों में भी उसके ठिकानों पर ऐसे अमेरिकी हमले हुए जिसमें वह मर गया होगा। यह संदेह उसी अमेरिका की वजह से हो रहा है जिसकी सेना के हमले बहुत अचूक माने जाते हैं।
                 अगर हम यह मान लें कि ओसामा बिन लादेन अभी तक नहीं मरा  था  तो यह शक होता है कि अमेरिका का एक बहुत बड़ा वर्ग उसे जिंदा रखना चाहता था ताकि उसके आतंक से भयभीत देश उसके पूंजीपतियों के हथियार खरीदने के लिये मजबूर हो सकें। यह रहस्य तो सैन्य विशेषज्ञ ही उजागर कर सकते हैं कि इन दस वर्षों में अमेरिका के हथियार निर्माताओं को इस दस वर्ष की अवधि में ओसामा बिन लादेन की वजह से कितना लाभ मिला? इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि उसे दस वर्ष तक प्रचार में जिंदा रखा गया। अमेरिका के रणीनीतिकार अपनी शक्तिशाली सेना की नाकामी का बोझ केवल अपने आर्थिक हितो की वजह से ढोते रहे।
                  आज से दस वर्ष पूर्व अमेरिका के अफगानिस्तान पर हम हमले के समय ओसामा बिन लादेन के मारे जाने की खबर आयी थी। वह प्रमाणित नहीं हुई पर सच बात तो यह है कि उसके बाद फिर न तो ओसामा बिन लादेन का कोई वीडियो आया न ही आडियो। जिस तरह का ओसामा बिन लादेन प्रचार का भूखा आदमी था उससे नहीं लगता कि वह बिना प्रचार के चुप बैठेगा। कभी कभी उसकी बीमारी की खबर आती थी। इन खबरों से तो ऐसा लगा कि ओसामा चलती फिरती लाश है जो स्वयं लाचार हो गया है। उन  समाचारों पर शक भी होता था क्योंकि कभी उसके अफगानिस्तान में छिपे होने की बात कही जाती तो कभी पाकिस्तान में इलाज करने की खबर आती।
                          अब अचानक ओसामा बिन लादेन की खबर आयी तो वह बासी लगी। उसके बाद अमेरिका के राष्टपति बराक हुसैन ओबामा के राष्ट्र के नाम संबोधन सुनने का मौका मिला। उसमें ओसामा बिन लादेन के धर्मबंधुओं को समझाया जा रहा था कि अमेरिका उनके धर्म के खिलाफ नहीं है। अगर हम प्रचार माध्यमों की बात करें तो यह लगता है कि इस समय अमेरिका में बराक ओबामा की छवि खराब हो रही है तो उधर मध्य एशिया में उसके हमलों से ओसामा बिन लादेन  के धर्मबंधु पूरी दुनियां में नाराज चल रहे हैं। लीबिया में पश्चिमी देशों के हमल जमकर चल रहे हैं। सीरिया  और मिस्त्र में भी अमेरिका अपना सीधा हस्तक्षेप करने की तैयारी मे है। देखा जाये तो मध्य एशिया में अमेरिका की जबरदस्त सक्रियता है जो पूरे विश्व में ओसामा बिन लादेन के धर्म बंधुओं के लिये विरोध का विषय है। बराक ओबामा ने जिस तरह अपनी बात रखी उससे तो लगता है कि वह ने केवल न केवल एक धर्म विशेष लोगों से मित्रता का प्रचार कर रहे थे बल्कि मध्य एशिया में अपनी निरंतर सक्रियता  से उनका ध्यान भी हटा रहे थे। उनको यह अवसर मिला या बनाया गया यह भी चर्चा का विषय है।
                  अमेरिका में रविवार छुट्टी का दिन था। लोगों के पास मौज मस्ती का समय होता है और वहां के लोगों को यह एक रोचक और दिलखुश करने वाला विषय मिल गया और प्रचार माध्यमों में उनका जश्न दिखाया भी गया। अमेरिका की हर गतिविधि पर नज़र रखने वाले किसी भी घटना के वार और समय में बहुत दिलचस्पी रखते हैं। सदाम हुसैन को फांसी रविवार को दी गयी थी तब कुछ विशेषज्ञों ने अनेक घटनाओं को हवाला देकर शक जाहिर किया था कि कहीं यह प्रचार के लिये फिक्सिंग तो नहीं है क्योकि ऐसे मौकों पर अमेरिका में छुट्टी का दिन होता है और समय वह जब लोग नींद से उठे होते हैं या शाम को उनकी मौजमस्ती का समय होता है।
                    जब से क्रिकेट  में फिक्सिंग की बात सामने आयी है तब से हर विषय में फिक्सिंग के तत्व देखने वालों की कमी नहीं है। स्थिति तो यह है कि फुटबाल और टेनिस में भी अब लोग फिक्सिंग के जीव ढूंढने लगे हैं। अमेरिका की ऐसी घटनाओं पर विश्लेषण करने वाले वार और समय का उल्लेख करना नहीं भूलते।
                        पहले की अपेक्षा अब प्रचार माध्यम शक्तिशाली हो गये है इसलिये हर घटना का हर पहलु सामने आ ही जाता है। अमेरिका इस समय अनेक देशों में युद्धरत है और वह अफगानिस्तान से अपनी सेना  वापस बुलाना चाहता है। संभव है कि ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद उसे यह सहुलियत मिल जायेगी कि वहां के रणनीतिकार अपनी जनता को सेना की वापसी का औचित्य बता सकेंगे। अभी तक  वह अफगानिस्तान में अपनी सेना बनाये रखने का औचित्य इसी आधार पर सही बताता रहा था कि ओसाबा अभी जिंदा है। अलबत्ता सेना बुलाने का यह मतलब कतई नहीं समझना चाहिए कि अफगानितस्तान से वह हट रहा है। दरअसल उसने वहां उसी तरह अपना बौद्धिक, आर्थिक तथा प्रशासनिक वर्चस्व स्थापित कर दिया होगा जिससे बिना सेना ही वह वहां का आर्थिक दोहन करे जैसे कि ब्रिटेन अपने उपनिवेश देशों को आज़ाद करने के बाद करता रहा है। सीधी बात कहें तो अफगानिस्तान के ही लोग अमेरिका का डोली उठाने वाले कहार बन जायेंगे।        
                     ओसामा बिन लादेन एकदम सुविधा भोगी जीव था। यह संभव नहीं था कि जहां शराब और शबाब की उसकी मांग जहां पूरी न होती हो वह वहां जाकर रहता। उसके कुछ धर्मबंधु भले ही प्रचार माध्यमों के आधार पर उसे नायक मानते रहे हों पर सच यह है कि वह अय्याश और डरपोक जीव था। वह युद्ध के बाद शायद ही कभी अफगानिस्तान में रहा हो। उसका पूरा समय पाकिस्तान में ही बीता होगा। अमेरिकी प्रशासन के पाकिस्तानी सेना में बहुत सारे तत्व हैं और यकीनन उन्होंने ओसामा बिन लादेन को पनाह दी होगी। वह बिना किसी पाकिस्तानी सहयोग  के इस्लामाबाद के निकट तक आ गया और वहां आराम की जिंदगी बिताने लगा यह बात समझना कठिन है। सीधा मतलब यही है कि उसे वहां की लोग ही लाये और इसमें सरकार का सहयोग न हो यह सोचना भी कठिन है। वह दक्षिण एशिया की कोई भाषा नहीं जानता इसलिये यह संभव नही है कि स्थानीय सतर पर बिना सहयोग के रह जाये। अब सवाल यह भी है कि पाकिस्तानी सेना बिना अमेरिका की अनुमति के उसे वहां कैसे पनाह दे सकती थी। यकीनन कहीं न कहीं फिक्सिंग की बू आ रही है। अमेरिका उसके जिंदा रहते हुए अनेक प्रकार के लाभ उठाता रहा है। ऐसे में संभव है कि उसने अपने पाकिस्तानी अनुचरों से कहा होगा कि हमें  तो हवा में बमबारी करने दो और तुम लादेन को कहीं रख लो। किसी को पता न चले, जब फुरतस मिलेगी उसे मार डालेंगे। अब जब उसका काम खत्म हो गया तो उसे इस्लामाबाद में मार दिया गया।
                        खबरें यह है कि कुछ मिसाइलें दागी गयीं तो डान विमान से हमले किये गये। अमेरिका के चालीस कमांडो आराम से लादेन के मकान पर उतरे और उसके आत्मसमर्पण न करने पर उसे मार डाला। तमाम तरह की कहानिया बतायी जा रही हैं पर उनमें पैंच यह है कि अगर पाकिस्तान को पता था कि लादेन उनके पास आ गया तो उन्होंने उसे पकड़ क्यों नहीं लिया? यह ठीक है कि पाकिस्तान एक अव्यवस्थित देश है पर उसकी सेना इतनी कमजोर नहीं है कि वह अपने इलाके में घुसे लादेन को जीवित न पकड़ सके। बताया जाता है कि अंतिम समय में पाकिस्तान के एबटबाद में सैन्य अकादमी के बाहर ही एक किलोमीटर दूर एक बड़े बंगले में रह रहा था। पाकिस्तान का खुफिया तंत्र इतना हल्का नहीं लगता है कि उसे इसकी जानकारी न हो। अगर पाकिस्तान की सेना या पुलिस अपनी पर आमादा हो जाती तो उसे कहीं भी मार सकती थी। ऐसे में एक शक्तिशाली सेना दूसरे देश को अपने देश में घुस आये अपराधी की सूचना भर देने वाली एक  अनुचर संस्था  बन जाती है और फिर उसकी सेना  को हमले करने के लिए  आमंत्रित  करती है। इस तरह पाकिस्तान ने सारी गोटिया बिछायीं और अमेरिकी सेना को ही ओसामा बिन लादेन को मारे का श्रेय दिलवाया जिसको न मार पाने के आरोप को वह दस बर्षों से ढो रही थी। लादेन अब ज्यादा ताकतवर नहीं रहा होगा। उसे सेना क्या पाकिस्तानी पुलिस वाले ही धर लेते अगर उनको अनुमति दी जाती । ऐसा लगता है कि अमेरिका ने चूहे को मारने के लिये तोपों का उपयोग  किया है।
                   यह केवल अनुमान ही है। हो सकता है कि दस वर्ष या पांच वर्ष पूर्व मर चुके लादेन को अधिकारिक मौत प्रदान करने का तय किया गया हो। अभी यह सवाल है कि यह तय कौन करेगा कि करने वाला कौन है? बिना लादेन ही न1 इसका निर्णय तो आखिर अमेरिका ही करेगा। हालांकि नज़र रखने वाले इस बात की पूरी तहकीकात करेंगे। सब कुछ एक कहानी की तरह लग रहा है क्योंकि लादेन की लाश की फोटो या वीडियो दिखाया नहीं गया। कम उसका पोस्टमार्टम हुआ कब उसका डीएनए टेस्ट किया गया इसका भी पता नहीं चला। आनन फानन में उसका अंतिम संस्कार समंदर में इस्लामिक रीति से किया गया। कहां, यहा भी पता नहीं। भारतीय प्रचार माध्यम इस कहानी की सच्चाई पर यकीन करते दिख रहे हैं। उनको विज्ञापन दिखाने के लिये यह कहानी अच्छी मिल गयी। हमारे पास भीअविश्वास का कोई कारण नहीं पर इतना तय है कि इस विषय पर कुछ ऐसे तथ्य सामने आयेंगे कि इस कहानी पेंच दिखने लगेंगे।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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आर.एस.एस. से भारत का प्रबुद्ध वर्ग दूर क्यों हुआ-हिन्दी लेख


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने 10 नवंबर को अपने ही कुछ मुद्दों को लेकर देश भर में प्रदर्शन किया जो शायद इस किस्म का पहला आयोजन था । हम यहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के इस प्रदर्शन के मुद्दों पर चर्चा नहीं कर रहे क्योंकि वह तात्कालिक विषयों के साथ ही राजनीतिक रूप से महत्व के हैं। न ही हम यहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का समर्थन या विरोध कर रहे हैं। चूंकि उसके सदस्य अपने  संगठन को सामाजिक संगठन मानते हैं इसलिये हम इस संगठन का भारतीय जनमानस में जो छबि उस पर विचार कर रहे हैं।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की छबि एक ऐसे सामाजिक संगठन की रही है जो राजनीति को समाज का ही एक हिस्सा मानकर उसमें भी दखल रखता है पर दिखना नहीं चाहता। उससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि यह संगठन कभी प्रत्यक्ष किसी सामाजिक या राजनीतिक गतिविधि में सक्रिय रहने के लिये प्रसिद्ध नहीं है। सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में वह अपने सक्रिय स्वयं सेवकं तथा अनुवर्ती  संगठन बनाकर काम करता है जो कि नीति निर्धारण तथा कार्यशैली में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के उच्च नेत्त्व के मार्गदर्शन का अनुसरण करते हैं-सच क्या है पता नहीं पर प्रचार माध्यमों में ऐसा ही दिखता है। इसे हम यूं भी कहें कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मूल में बौद्धकता का प्रभाव है जिसमें सार्वजनिक सक्रियता या एक्शन न के बराबर दृष्टिगोचर होती है बस! उसकी उपस्थिति का आभास किया जाता है। अगर कोई सक्रियता दिखाई देती है तो वह बौद्धिक शिविर या महत्वपूर्ण पर्वों पर पथ संचालन तक ही सीमित है। लंबे समय तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक अदृश्य बौद्धिक संस्था के रूप में सक्रिय है पर समय की मांग है कि सक्रिय भूमिका या एक्शन के माध्यम से भी जनमानस को प्रभावित कर अपना संगठन आगे बढ़ाया जाये-ऐसा विचार उसके कुछ बुद्धिमान लोगों ने किया है। 10 नवंबर को उसके स्वयं सेवक जिस प्रदर्शन में भाग लिया  वह एक तरह का नया व्यवहार है पर इसके प्रभाव दूरगामी होंगे यह तय है और क्योंकि माना जाता है संघ के कर्ताधर्ता कोई भी कार्य या योजना भविष्य के दीर्घकालीन  परिणामों को दृष्टिगत रखते हुए ही प्रारंभ करता है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने अनुवर्ती  संगठनों के माध्यम से कार्य करने में इतना कुशल है कि अगर उसके आलोचक विरोध न करें तो शायद भारतीय जनमानस और युवा वर्ग में उसका वह स्थान न रहे जो कि नैपथ्य की बौद्धिकता से अधिक सार्वजनिक सक्रियता या एक्शन से प्रभावित होता है। राष्ट्रीय स्वयं संघ को इसका लाभ यह मिलता है कि किसी अभियान या आंदोलन में सक्रियता से अगर सब ठीक है तो उसे श्रेय मिलता है पर अगर कुछ नाकामी है तो वह अपने  अनुवर्ती  सगंठनों के पदाधिकारियों को जवाबदेही के लिये आगे कर देता है। इससे संघ को यह लाभ तो हुआ कि उसकी छबि हमेशा धवल रही पर इसका नुक्सान यह हुआ कि प्रचार के इस युग में सक्रियता या एक्शन न होने की वजह से वह नयी पीढ़ी की दृष्टि से ओझल होता जा रहा है। यह तो उसके आलोचक गाहेबगाहे उसका विरोध कर उसका नाम जनमानस में बनाये हुए हैं वरना अपने स्वयं सेवकों के सहारे उसका प्रचार नगण्य है हालांकि वह समाज में चेतना लाने का काम करते हैं।
संघ के कर्णधार अपनी गिरती सदस्य संख्या से चिंतित हैं और उसे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। यह स्थिति तब है जब आज भी भारतीय जनमानस और पुराने प्रबुद्ध वर्ग में उसकी छबि धवल और बौद्धिकता से संपन्न मानी जाती है। आज भी पुरानी पीढ़ी के अनेक प्रबुद्ध लोग हैं जो संघ  का नाम सम्मान से लेते हैं। तब ऐसा क्या हो गया कि संघ अपनी घटती साख तथा सदस्य संख्या जैसी समस्याओं से जूझ रहा है।
यह कहना तो ठीक नहीं है कि संघ के बुद्धिमान लोग उन सच्चाईयों से अवगत नहीं है जिनसे यह समस्यायें पैदा हुई हैं पर प्रचार से दूर रहने वाले इस संगठन के मंचों से ऐसा होने का प्रमाण नहीं मिलता। समूचे भारत में आधुनिक समाज का सपना देखने वाले संघ के बुद्धिमान नियंत्रणकर्ता यह तय नहीं कर पा रहे कि संघ को अनुवर्ती  संगठनों के माध्यम से आगे बढ़ायें या स्वयं यह काम करें। जब वह आज अपनी शाखाओं में युवा सदस्यों की कम संख्या देखते हैं तो निराशा उनको होती होगी पर यह भूल जाते हैं कि उसके अनुवर्ती  संगठन ही उसके प्रतिद्वंद्वी हैं क्योंकि वह नेपथ्य में नहीं वरन् लोगों की आंखों के सामने सक्रिय या एक्शन करते नज़र आते हैं। धर्म, शिक्षा, राजनीति, श्रम संगठन तथा साहित्य संस्थाओं में सक्रिय संघ के नाम लेकर ही चल रहे हैं जिसकी धवल छबि से उनको समाज  सहानुभूति के साथ युवा वर्ग के  सदस्य  मिल भी जाते हैं। संघ ने जो 10 नवंबर को प्रदर्शन किया उसमें भी इन्ही अनुवर्ती  संगठनों के कर्ताधर्ताओं ने ही कार्यकर्ता जुटाये होंगे इसमें संदेह नहीं है क्योंकि उनके मंचों पर धर्म से जुड़ी संस्थाओं के लोग भी बैठे थे। इस देश में प्रबुद्ध वर्ग के अनेक ऐसे लोग हैं जो संघ के अस्तित्व बने रहने की आवश्यकता इस देश के प्रबुद्ध वर्ग के अनेक लेखक, बुद्धिजीवी और जागरुक नागरिक अनुभव करते हैं पर उससे पूरे होने वाले लक्ष्य वह नहीं जानते। अगर जानते हैं तो कहते नहीं है क्योंकि संघ में दोतरफा संवाद का अभाव है और उच्च स्तर से निर्णय लेकर नीचे नियमित सदस्यों तथा अनुवर्ती  संगठनों का संचालन किया जाता है-ऐसा इससे जुड़े लोग कहते हैं। यह तब तक ही ठीक था जब राजनीति और शिक्षा में सक्रिय उसके अनुवर्ती   संगठन सीमित लक्ष्य और साधनों से काम रहे थे। अब वह सभी आर्थिक, सामाजिक, राजनीति तथा सदस्य की दृष्टि से इतने शक्तिशाली हो गये हैं कि संघ का आकर्षण उनके फीका पड़ जाता है। रामजन्मभूमि आंदोलन के चलते उसके धार्मिक संगठनों ने बहुत प्रचार पाया और यही संघ के लिये परेशानी का सबब बना। उसके बाद तो संघ के अनुवांषिक संगठनों ने भारत में राजनीति, धर्म, व्यापार तथा समाज के क्षेत्र में अपनी छबि बनायी और उसका भौतिक लाभ भी लेकर शक्ति अर्जित की। मगर याद रखने लायक बात यह है कि केवल संघ के नियमित सदस्यों की बौद्धिकता या उसके अनुवर्ती  संगठनों की आक्रमकता की वजह से यह रथ नहीं चला बल्कि देश के अनेक स्वंतत्र, मौलिक तथा निष्कामी बुद्धिजीवियों ने संघ और उसके  अनुवर्ती   संगठनों को निस्वार्थ सहानुभूति दी। संघ के आलोचक खुलकर यह बात कहते हैं कि उसने कोई ऐजेंडा नहीं बनाया बल्कि जो प्रचार में आया उसे जब्त कर लिया। मतलब यह कि देश के अनेक स्वतंत्र बुद्धिजीवियों का ऐजेंडा स्वाभाविक रूप से संघ से मिल गया। देखते देखते राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सत्ता के गलियारों में एक ताकत बन गया मगर नेपथ्य में रहने की उसकी परंपरा ने उसे यहीं घोखा दिया। भारत ही नहीं विश्व जनमानस  का यह स्वभाव है कि वह नेपथ्य की बजाय पर्दे पर सक्रिय या एक्शन करने वाले पात्र को ही मान्यता देता है। राष्ट्रीय स्वयं संघ के बुद्धिमान लोग कह सकते हैं कि हमारा सत्ता से क्या लेना देना? मगर क्या इसे सभी मान लेंगे, यह नहीं माना  जा सकता है।
मगर जब आप समाज को सुधारने की बात कहते हैं तो सत्ता उसका एक साधन हुआ करती है और अध्यात्म तथा समाज पर दृष्टि रखने वाले प्रबुद्ध वर्ग को आप भरमा नहीं सकते। फिर भारत जैसे देश में जहां अनेक राजा भगवान का दर्जा प्राप्त कर गये वहां इस तरह की बात जमती नहीं। दूसरी बात यह कि जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने सदस्यों को समाज पर नियंत्रण करने वाली संस्थाओं में जाने के लिये उतार रहा है तब वह इस बात को भूल रहा था कि लोग उसकी साख के कारण  उसके   अनुवर्ती  संगठनों को समर्थन दे रहे हैं। भले ही संघ के कर्ताधर्ता यह दावा करते हैं कि उसके  अनुवर्ती  संगठन स्वतंत्र रूप से काम करते हैं पर स्वतंत्र और मौलिक प्रबुद्ध वर्ग के लिये यह कथन अधिक महत्व नहीं रखता था क्योंकि वह मानकर चल रहा था कि संघ अपने अनुवर्ती  संगठनों पर नियंत्रण करेगा दिखाने के लिये कुछ भी कहा जा रहा हो-दूसरे शब्दों में कहें तो यह उसके प्रति ही यह एक बहुत बड़ा विश्वास था। बाद में दखल न देने के दावे ने उसकी दृढ़ छबि को हानि पहुंचाई क्योंकि निष्पक्ष तथा स्वतंत्र प्रबुद्ध वर्ग उसे अप्रत्यक्ष से दखल देता हुए देखना चाहते थे।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कर्ताधर्ता इस बात का अनुमान करते नहीं दिखते कि उनके सदस्यों से अधिक संख्या तो उनके ऐसे समर्थकों की रही है जो उसके कार्यक्रमों या शाखाओं में आते ही नहीं बल्कि आम आदमी के बीच आम आदमी की तरह अपनी दिनचर्या निभाते हैं। उन्हें लाभ की कोई चाहत नहीं थी बल्कि देश में एक मज़बूत समाज देखना की इच्छा ने उनके अंदर संघ के प्रति सहानुभूति पैदा की। यही वर्ग उसके प्रति उदासीन हो गया है। एक तरह से कहें तो आम आदमी और संघ के कार्यकर्ता का अंतर भी अनेक जगह खत्म हो गया था।
ऐसे ही संघ को आज जब भारतीय जनमानस की उदासीनता का सामना करना पड़ रहा है तो कहना पड़ता है कि समय बलवान है। यहां संघ की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठते हैं। जब संघ और उसके अनुवर्ती संगठन शिखर पर थे तब उनके आकर्षण की वजह से युवा पीढ़ी उनकी तरफ गयी और यकीनन इसका प्रभाव उसकी शाखाओं में जाने वाले सदस्यों की कमी के रूप में प्रकट हुआ होगा। दूसरा यह भी राज्य और समाज पर नियंत्रण के दौरान ऊंच नीच होता है और उसका परिणाम उनमें काम करने वालों को भोगना होता है पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मामले में अपने ही अनुवर्ती  संगठनों के असंतोष दुष्प्रभाव उसे ही झेलना पड़ा। मतलब संघ के कर्ताधर्ता भले ही राजनीति की काज़ल काली कोठरी से दूर रहने का दावा करते रहे हों पर उनके समर्थक इसे मानने को राजी नहीं थे। देश के स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा मौलिक विचारों के प्रबुद्ध लोगों का मानना था कि न केवल इस संगठनों पर काबू रखे बल्कि वह दिखे भी। वह चाहते थे कि संघ से बड़ा उसका  अनुवर्ती संगठन नहीं होना चाहिए। मगर कहते हैं कि राजकाज तो काज़ल की कोठरी है वहां से कोई सफेद नहीं निकल सकता। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के  अनुवर्ती संगठनों को न केवल अपने सदस्यों बल्कि स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा मौलिक विचारों वाले बुद्धिजीवियों का समर्थन मिला पर उन्होंने इस बात की परवाह नहीं की न संघ इसके लिये उनको बाध्य कर सका।
देखते देखते क्या हो गया? संघ के कार्यकर्ता सम्मानीय होते थे। उनसे मित्रता होना अच्छी बात समझी जाती थी। मगर इधर  अनुवर्ती  संगठनों में ऐसे लोग आ गये तो बौद्धिकता से अधिक शक्ति  के पूजक हैं। अगर हम घटनाओं का विस्तार करेंगे तो अंबार लग जायेगा पर संक्षेप में इतना कह सकते हैं कि देश के प्रबुद्ध वर्ग ने देखा कि अब राष्ट्रीय स्वयं संघ संघ के पुराने और बौद्धिक कार्यकर्ताओं से समाज को कोई मदद नहीं मिल सकती और उसके आनुवांषिक संगठनों की ताकत इतनी बढ़ गयी है जिसकी मस्ती में उनकी कार्यशैली वैसी हो गयी जिनकी आलोचना संघ का बौद्धिक वर्ग करता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कर्ताधर्ता भूल गये कि वह अपने अनुवर्ती  संगठनों को दिखावे की स्वतंत्रता देना देश के स्वतंत्र और निष्पक्ष प्रबुद्ध वर्ग को स्वीकार्य है पर वास्तविकता में वह न है और न होना चाहिए। मतलब यह कि  अनुवर्ती  संगठनों की शक्ति बढ़ी तो संघ की भी बढ़ती दिखना चाहिये। संघ प्रत्यक्ष रूप से कहीं दखल न दे पर अप्रत्यक्ष रूप से दिखना चाहिए। ऐसा हुआ कि नहीं पर यह तय है कि संघ की साख पर ही उसके संगठन आगे बढ़े थे और अगर उन पर कुछ दाग लगे तो संघ उससे बच नहीं सकता। जब संघ अपने अनुवर्ती  संगठनों को आगे बढ़ा रहा था तब प्रबुद्ध वर्ग उसे आगे बढ़ता देख रहा था। उसकी इस कार्यशैली पर कोई आपत्ति नहीं थी पर इसका मतलब यह नहीं कि संघ का यह दावा कि उसके अनुवर्ती  संगठन स्वतंत्र है मान ली जाये-प्रबुद्ध वर्ग यह स्वीकार कर भी नहीं सकता क्योंकि वह संघ की साख पर ही उनको अपनी सहानुभूति दे रहे था। सीधी बात कहें कि संघ कितना भी कहे वह अनुवर्ती  संगठनों को स्वतंत्र दे पर उसका नियंत्रक वही दिखना चाहिये।
स्थिति आज भी यही है कि संघ के अनुवर्ती  संगठनों के आलोचक संघ को निशाना बनाते हैं तब उसके समर्थक खामोश बैठ जाते हैं। पुराना प्रबुद्ध वर्ग तो यह सोचकर निराश हो जाता है कि संघ भले ही प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय नहीं दिख रहा था पर अप्रत्यक्ष रूप से उसे दृढ़तापूर्वक अपनी भूमिका निभानी थी तो नया वर्ग तो वैसे भी सक्रियता या एक्शन देखकर प्रभावित होता है ऐसे में संघ की सदस्य संख्या और साख में कमी दर्ज हुई तो कोई आश्चर्य नहीं है। ऐसे में संघ के  अनुवर्ती  संगठनों के कुछ सदस्यों के हिंसा में लिप्त होने के आरोप उसके लिये चिंता की बात है क्योंकि जो लक्ष्य राजनीतिक शक्ति होने पर प्राप्त किये जा सकते हैं उसके लिये हिंसा की आवश्यकता नहीं है-भारतीय जनमानस इतना मूर्ख नहीं है कि वह यह बात नहीं जानता। संघ के कर्ताधर्ता जानते हैं कि यह समाज ऐसी हिंसा को मान्यता नहीं देता। यही कारण है कि संघ के कार्यधर्ता इस बात को मान रहे हैं कि उनका हिंसा में विश्वास नहीं है। हालांकि जनमानस में विश्वास बढ़ाने के लिये उनको अभी बहुत कुछ करना है। अभी इस विषय पर इतना ही लिख रहे हैं। अगली कड़ी भी लिखी जा सकती है अगर इसका कोई सख्त विरोध नहीं हुआ। यहां संघ समर्थक इस बात का ध्यान रखें कि यह एक स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा मौलिक लेखक का पाठ है जो संघ का कार्यकर्ता नहीं रहा पर उसके कार्यक्रमों के समाचारों में बाहर बैठकर रुचि लेता रहा है। इस लेखक का संघ को सिखाने या समझाने का कोई इरादा भी नहीं है। यह एक चर्चा है तो मन में आयी लिख दी। ऐसा लगता है कि कुछ छूट रहा है और उसे अगली कड़ी में लिखने का प्रयास करेंगे। कब मालुम नहीं।

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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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एक लेखिका को ब्रह्मज्ञानी साबित करने की कोशिश-हिन्दी लेख


पश्चिम से पुरस्कार प्राप्त होने के बाद भारत के अंग्रेजी लेखक हिन्दी प्रचार माध्यमों के चहेते हो जाते हैं। उनके बयान भारतीय प्रचार माध्यम-टीवी, अखबार तथा रेडियो-ब्रह्मवाणी की तरह प्रस्तुत करने के लिए तरसते हैं। भारत में भगवान ब्रह्मा के बाद कोई दूसरा नहीं हुआ क्योंकि कुछ कहने सुनने को बचा ही नहीं था। उनको भारतीय अध्यात्म का पितृपुरुष भी कहा जा सकता है। इसका मतलब यह है कि उनके बाद जो हुए वह पुत्र पुरुष हुए। मतलब यहां ब्रह्मा के पुत्र पुरुष तो बन सकते हैं पर भारत के पितृपुरुष नहीं बन सकते। सो प्रचार माध्यम आये दिन नये पितृपुरुष प्रस्तुत करते है क्योंकि पुत्र पुरुष में अधिक प्रभाव नहीं दिखता। यहां पुरुष से आशय संपूर्ण मानव समाज से है न कि केवल लिंग भेद से। स्पष्टत करें तो स्त्री के बारे में भी कह सकते हैं कि वह पुत्री बन सकती है पर गायत्री माता नहीं। गायत्री माता का मंत्र जापने से जो मानसिक शांति मिलती है पर उसकी चर्चा यहां नहीं कर रहे हैं।
अंग्रेजी में भारतीय गरीबी पर उपन्यास लिखकर पुरस्कार प्राप्त करने वाली एक लेखिका ने कहा कि ‘इतिहास में जम्मू-कश्मीर कभी भारत का हिस्सा नहीं रहा।’
उसने यह पहली बार नहीं कहा पर जो स्थिति बनी है उससे लगता है कि दोबारा वह शायद ही यह बयान दोहराये। कथित न्याय के लिये संघर्षरत वह लेखिका केवल प्रचार माध्यमों के सहारे ही प्रचार में बनी रहती है। दरअसल उसके बयान का महत्व इसलिये बना क्योंकि कश्मीर के एक अलगाववादी नेता के साथ उसने दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस की थी। इसके लिये धन कहां से आया पता नहीं। मगर जिस साज सज्जा से यह सब हुआ उसमें पर्दे के पीछे धन का काम अवश्य रहा होगा। यह लेख उन कथित महान लेखिका को यह समझाने के लिये नहीं लिखा जा रहा कि वह जम्मू कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग स्वीकार करने की कृपा करें। उनके बयान का प्रतिवाद करने का हमारा कोई इरादा नहीं है।
हम तो बात कर रहे हैं उस इतिहास की जिसको उनके सहायक प्रचार माध्यमों ने जोरशोर से सुनाया। कुछ लोगों ने तो यह भी लिखा है कि अंग्रेजों के आने से पहले यह भारत भी कहां था? इतनी सारी रियासतों को जबरन मिलाकर देश बनाया गया। चलिये यह भी मान लेते हैं क्योंकि हमें अब इतिहास पर नज़़र डालनी होगी।
इतिहास बताता है कि आज का भारत बहुत छोटा है इससे अधिक पर तो अनेक राजा राज्य कर चुके हैं। एक समय किसी भारतीय राजा की ईरान तो दूसरे की तिब्बत तक राज्य सीमा बताई गयी है। उसके पश्चात् जो राजा हुआ आपस में लड़ते रहे यह भी सच है। विदेशियों को आने का मौका मिला। मुगल और अंग्रेज सबसे अधिक शासन करने वाले माने जाते हैं। जिस डूंरड लाईन को पार कर वह काबुल तक नहीं जा सके वहां तक भारतीय राजा राज्य कर चुके थे। इतिहास में पाकिस्तान भी भारत का हिस्सा था। मतलब यह कि सिंध, पंजाब, ब्लूचिस्तान और सीमा प्रांत भी कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं रहे। अस्पष्ट रूप से पाकिस्तान की बजा रही वह लेखिका इससे भी मुंह फेर ले तो उससे भी शिकायत नहीं है। इतिहास गवाह है कि ईरान के राजा ने सिंध के राजा दाहिर को परास्त किया था। इस संबंध में भी बताया जाता है कि ईरान के एक आदमी पर अधिक भरोसा करना उसे ले डूबा। उसके बाद ईरान के राजा ने उसकी स्त्रियों का हरण किया-नारीवादी होने के नाते उस लेखिका को यह बात भी पढ़नी चाहिए।
गरीबों के साथ अन्याय, मजदूरों का शोषण, स्त्री के मजबूरी के विषय पर अपनी आवाज बुलंद करने वाले अनेक लेखक लेखिकाऐं तमाम तरह के नारे चुन लेते हैं। समस्याओं का हल तो उनके पास नहीं था है और न होगा। इसका कारण यह है कि हर मनुष्य अपने आप में एक ईकाई है और उसकी समस्याओं का सामूहिक अस्तित्व होता ही नहीं है। जो समस्यायें सामूहिक हैं वह गरीब और मध्यम वर्ग दोनों के लिये एक समान है। कहीं कहीं अमीर भी उसका शिकार होता है। जब भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ तब आज पाकिस्तान के कथित रूप से हिस्सा कहला रहे पंजाब और सिंध से जो हिन्दू भारत आये उनमें की कई अमीर थे और वहां से तबाह होकर यहां आये। इस विभाजन में कहने को भले ही किसी को जिम्मेदार माना जाये पर हकीकत यह कि कहीं न कहीं इसके पीछे आधुनिक कंपनी पूंजीवाद भी जिम्ममेदार थां मतलब यह कि जिस अमेरिकी और ब्रिटेन के सम्राज्य को कोसा जा रहा है वह कहीं ने कहीं से केवल कंपनी अमीरों का ही बनाया हुआ है। कंपनी नाम का यह दैत्य भारत की आज़ादी से पूर्व ही सक्रिय है। इसी समूह से जुड़े लोग बूकर जैसे पुरस्कार बनाते हैं जो अपने समर्थित बुद्धिजीवियों को दिये जाते हैं। वरना लेखकों या रचनाकारों को पुरस्कार की क्या जरूरत! क्या वेदव्यास या बाल्मीकी को कोई बूकर या नोबल मिला था या वह ऐसी आशा करते थे। रहीम, कबीर, मीरा, तुलसी जैसे रचनाकर अपनी क्षेत्रीय भाषा में रचनायें कर विश्व भर में लोकप्रिय हैं। कोई अंग्रेजी या अन्य लेखक उनके पासंग नहीं दिखता। मुश्किल यह है कि समाज को नयापन देकर पैसा बटोरने के प्रयास करने वाले बाज़ार तथा उसके प्रचारकों के पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है कि वह विदेशी पुरस्कारों तथा भाषाओं का सम्मान करें ताकि उनका धंधा चलता रहे। यह बूकर पुरस्कार भी भारत के इतिहास में नहीं है।
अमेरिका और ब्रिटेन सहित पश्चिमी देशों ने नोबल, बूकर, तथा सर जैसे खिताब बना रखे हैं जिनके प्रयास में कुछ बुद्धिमान भारतीय अंग्रेजी में लिख लिख कर मर गये पर मन है कि मानता नहीं। उनके यहां अमिताभ बच्चन जैसा अभिनेता नहीं है इसलिये ऑस्कर लेकर आने वाले अभिनेताओं को उनसे बड़ा साबित करने की भारतीय प्रचार माध्यम नाकाम कोशिश करते हैं। अलबत्ता लेखन जगत में वह कामयाब हो जाते हैं क्योंकि हिन्दी के लेखकों के पास कोई स्वतंत्र साधन नहीं है और बाज़ार और उसके प्रचार समूह से समझौता कर ही वह चल पता है ऐसे में उसकी मौलिकता तथा स्वतंत्रता दाव पर लग जाती है। यही कारण है कि उनको अंग्रेजी को पाठकों को विदेशी भाषा के देशी लेखक या उनके पाठ हिन्दी में प्रस्तुत करना पड़ते हैं। सम सामयिक घटनाओं को लिखा साहित्य नहीं होता मगर लिखने वाले साहित्यकार कहलाते हैं। दूसरे का लिखा पढ़ने वाला टीवी एंकर पत्रकार नहीं होता मगर कहलता है। एक उपन्यास लिखकर कोई महान लेखक नहीं होता क्योंकि सतत लिखना ही उनको महान बनाता है मगर यहां तो एक उपन्यास लिखकर ही एक लेखिका महान बनी फिर रही है।
सीधी बात कहें कि इतिहास पर बहस अनंत हो सकती है। उस लेखिका ने बाद में कहा कि ‘जम्मू कश्मीर के बारे में मैंने वही कहा जो लाखों लोग रोज कहते हैं। मैं तो अन्याय के विरुद्ध बोल रही हूं।’
यह बयान बदलने की तरह है। पहले आप इतिहास की आड़ लेते हैं जब मामला दर्ज होता है तो आप लोगों के कहने की आड़ लेते हैं। इसका मतलब यह कि आपने इतिहास नहीं पढ़ा। जिस तरह की वह लेखिका हैं वह शायद ही किसी का लिखा पढ़ती हों ऐसे में इतिहास जैसा बृहद विषय पढ़ा होगा संदेह की बात है। रहा न्याय के लिये अन्याय से लड़ने की बात! उस पर भी सवाल यह है कि केवल उत्तर पूर्व तथा जम्मू कश्मीर जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों में ही उनको अन्याय दिखता है। उन जैसे अन्य लोगों को मध्य भारत में सब कुछ ठीक ठाक लगता है। क्या यहंा इस तरह का अन्याय नहीं होता! शायद डर है कि कहीं अगर पूरे भारत में न्याय की मांग का विषय पूरे भारत में फैला तो फिर पूरे देश के सारे प्रदेशों में ही कहीं अलगाववाद न फैल जाये। फिर कहीं सारे देश का विभाजन हो गया तो फिर पूंजी, समाज तथा राजनीति के जिन शिखरों के सहारे खड़े बुद्धिजीवियों का भी बंटाढार हो जायेगा तब वह उनका प्रायोजन कैसे करेंगें।
आखिरी बात यह कि इतिहास में वीसा या पासपोर्ट भी नहीं था। राजाओं की जंग होती थी पर सामान्य लोगों का आवागमन बाधित होता था इसका प्रमाण नहीं मिलता था। अब भारत का आदमी बिना सरकारी सहायता के लाहौर, कराची या सक्खर नहीं जा सकता जहां हिन्दू धर्म के अनेक पवित्र स्थान है। कश्मीर हिमालयीन क्षेत्र है जहां से आम भारतीय भावनात्मक रूप से जुड़ा रहा है। यहां तमाम तीर्थ हैं ऐसे में यह भारतीय जनमानस के हृदय का अभिन्न अंग हमेशा रहा है। लेखिका और उनके सहयोगी जो बकवास कर रहे हैं वह इस बात को समझ लें कि आम आदमी का पारगमन बाधित हुआ है जिसके कारण वह सरकारी महकमों का मोहताज हो गया है। यही अन्याय का कारण भी है। अगर दम है तो फिर सारी दुनियां में पासपोर्ट तथा वीजा मुक्त आवागमन के लिये आंदोलन करो। कतरनों में ज़माने का कल्याण नहीं होगा। स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि दूसरे को छोड़कर अपने ही लोग शोषण करें बल्कि आम आदमी हर जगह स्वतंत्र रूप से जा सके यही न्याय का प्रमाण है। जम्मू कश्मीर में धारा 370 लगी है जिससे वहां शेष भारत का आदमी मकान नहीं खरीद सकता जबकि वहां का आदमी कहीं भी खरीद सकता है। क्या इसमें अन्याय जैसा कुछ नहीं है। मतलब यह कि इतिहास और आम इंसान से न्याय का प्रश्न उससे अधिक गहरे हैं जितने वह लेखिका और उसके समर्थक बता रहे हैं। चलते चलते हमारे मन में एक प्रश्न तो रह ही गया कि भारतीय अध्यात्म ग्रंथों में कहीं अरुधंती नाम की महिला का उल्लेख मिलता है पर याद नहीं आ रहा वह कौन है?
हां, इतना जरूरी है कि हम यह देख सकते हैं कि एक विदेशी पुरस्कार प्राप्त लेखिका को हमारे ही देश के प्रचार माध्यम ब्रह्मज्ञानी की तरह प्रचारित कर रहे हैं जो कि हास्यास्पद है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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