जिस तरह भारत के धार्मिक आंदोलनों, अभियानों तथा संगठनों की स्थिति रही है कि उनके शिखर पुरुष श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान अल्प होने के बावजूद समाज का नेतृत्त करने लगते हैं। वही स्थिति सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों की भी है। वही अगर आप पिछले पचास साठ वर्षों से देश की स्थिति का अवलोकन करें तो पता चलेगा कि हमारे देश के अनेक संत माया मोह से परे रहने का उपदेश देते हुए अपने आश्रमों को महलनुमा तो अपने संगठन को लगभग कंपनी में बदल दिया है। दोनों हाथों से माया बटोरी है। उन्होंने भारतीय अध्यात्म के ग्रंथों से अनेक पाठ रट लिये हैं उनको संस्कृत के श्लोक याद हैं। बड़े बड़े ग्रंथों का अध्ययन उन्होंने किया है। स्पष्टतः वह धर्म के वह व्यवसायी हैं जिनका अध्यात्मिक ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में अनेक महानायकों की कहानियां हैं उनका वह सरसपूर्ण ढंग से सुनाकर वाहवाही लूटते हैं पर तत्वज्ञान तथा ध्यान के प्रेरणा न देने का प्रयास करते हैं न ही ऐसा चाहते हैं क्योकि इससे उनके अनुयायी उनसे बड़े सिद्ध बन सकते है।। वह विफल रहते हैं। उनके ढेर सारे शिष्य अपने गुरुओं का बखान करते करते थकते नहीं है पर उनसे क्या सीख और कितना उस पर अमल कर रहे हैं यह कोई नहीं बता पाता। इनमें अनेक तो सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर भी बोलने का लोभ नहीं छोड़ पाते क्योंकि इससे प्रचार माध्यमों मे बने रहने का अवसर भी मिलता है।
ऐसा लगता है कि भारतीय समाज पूर्वकाल में श्रमशील रहा होगा। अपने मानसिक तनाव की मुक्ति के लिये वह सांसरिक विषयों से इतर गतिविधियों में संलग्न रहने के लिये बौद्धिक विशेषज्ञों की शरण लेता होगा। ऐसे में मनोरंजन से उकताने के बाद उसे अध्यात्मिक विषय अत्यंत रुचिकर लगे होंगे क्योंकि न वह केवल मनोंरजन बल्कि ज्ञानबर्द्धक होने के साथ ही लंबे समय तक आत्मिक शांति के लिये उनका ज्ञान अत्यंत उपयेागी है। इसी कारण ही हमारे देश का अध्यात्मिक ज्ञान सर्वाधिक संपन्न बन गया क्योकि तपस्वियों, ऋषियों तथा ज्ञानियों ने जहां अनेक खोजें की तो समाज ने उनको स्वीकार भी किया। समाज अध्यात्मिक का मुरीद बना तो अल्पज्ञानियों के लिये यह व्यवसाय चुनने का एक महत्वपूर्ण साधन भी बना। प्राचीन तपस्पियों, ऋषियों और मुनियों ने जहां अपने सत्य ज्ञान से प्रसिद्धि प्राप्त करने के साथ ही अपना शिष्य समाज बनाकर अध्यात्मिक ग्रंथेां में देवत्व का दर्जा हासिल किया तो वहां समाज भी उनका गुणगायक बन गया।
सर्वशक्तिमान का बनाया यह संसार अत्यंत अद्भुत है। इसमें सारी भौतिकता उसके संकल्प के आधार पर ही स्थित है पर वह सर्वशक्तिमान किसी को दिखता नहीं है। यह संसार अपने रूप बदलता है। बनता है और नष्ट होता है। विकास और विनाश के इस चक्र को कोई समझ नहंी पाया। संसार नश्वर है पर चमकदार है इसलिये कुछ लोग यहां अपनी देह, नाम तथा व्यवसाय की चमक बनाये रखने के लिये समाज से परे होकर उसका शीर्ष बनना चाहते हैं। ऐसे में भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के ग्रंथों की विषय सामग्री सरस तथा मनोरंजक होने के साथ ही ज्ञानवर्द्धक होन के पेशेवर धार्मिक लोगों के लिये बहुत सहायक होती है। जिसे ज्ञान चुनना है वह ज्ञान चुने जिसे मनोरंजन करना है वह मनोरंजन करे।
इनमें कुछ लोग लोग तो समाज पर आर्थिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक शासन करना चाहते हैं और तब पैसे, पद और प्रतिष्ठा का उनका मोह अनंत हो जाता है। इसकी भूख शांत नहीं होती। जिस तरह सामान्य आदमी की भूख रोटी से मिट जाती है विशिष्टता की छवि रखने वाले आदमी की भूख उससे नहीं मिटती बल्कि पैसा, प्रतिष्ठा और पद का मोह उसे हमेशा पागल बनाये रहता है। इसमें भी कुछ आदमी ऐसे होते हैं जो समाज को पागल बनाये रखते हैं। उनका एकमात्र लक्ष्य समाज से परे बने अपने शिखर की रक्षा करना होता है। इसलिये वह दूसरे के सृजन को अपने नाम करना चाहते हैं। यहीं से शुरु होता है उनका अभियान जो अंततः निष्काम बौद्धिक लोगों लिये के अनुसंधान का विषय बन जाता है।
धार्मिक आंदोलनों की तरह सामाजिक और राजनीतिक विषयों के अनेक आंदोलन ऐसे हैं जिनको उनके शीर्ष पुरुष कथित रूप से जनप्रिय बताकर भ्रमित करते हैं। आज के बाज़ार और प्रचार से प्रायोजित अनेक ऐसे आंदोलन हैं जो प्रचारित हैं पर उनसे जनहित कितना हुआ या होगा यह अभी भी विचार का विषय है। हम यहां राजनीतिज्ञों के आंदोलनों की बात न कर उन लोगों के राजनीिितक आंदोलनों की बात करेंगे जिनको गैर राजनीतिक लोग प्रारंभ करते है। वह एक तरफ कहते हैं कि उनका आंदोलन गैर राजनीतिक है पर उसकी कोई दूसरी संज्ञा नहीं बताते-जैसे कि सामाजिक आंदोलन, नैतिक आंदोलन या शैक्षणिक आंदोलन। मजे की बात यह है कि उनकी मांगे सरकार से होती हैं जिनका नेतृत्व राजनीतिक लोग करते हैं। ऐसे में आंदोलनों के शीर्ष पुरुषों के बौद्धिक चिंत्तन पर ध्यान जाना जरूरी है। वह कहें या न कहें उनके आंदोलनों में कहीं न कहीं राजनीतिक तत्व रहता है-चाहे उनकी मांगों में हो या उनके पूरे होने में। दूसरी बात यह कि समाज में सर्वजन हित के लिये केाई भी कार्य राजनीतिक परिधि में आता है। मनुष्य नाम की ईकाई का समाज के रूप में परिवर्तन इसलिये ही होता है कि कम से कम वह अन्य जीवों की तरह हिंसक या अनुशासनहीनता का बर्ताव न करे। अगर कोई व्यक्ति अध्यात्मिक विषयों में महारती है तो वह समाज के भले के लिये न काम कर मनुष्य के हित के लिये काम करता है। वह स्वयं पर अनुसंधान करता है फिर उसकी जानकारी दूसरे को देकर अपने मनुष्य के दायित्व का निर्वाह करता हे। वह मनुष्य को समाज मानकर नहीं बल्कि इकाई दर इकाई संपर्क बनाता है। जहां समाज मानकर मनुष्य को ईकाई दर इकाई मानकर काम किया जाता है वहां राजनीतिक क्षमतायें होना आवश्यक है।
हम कौटिल्य का अर्थशास्त्र या मनु स्मृति को देखें तो वहां मनुष्य को इकाई मानकर संबोधित किया गया है न कि समाज मानकर। उसमें मनुष्य निर्माण के लिये संदेश दिये गये हैं। यह मानकर कि अगर मनुष्य के व्यक्त्तिव का निर्माण होगा तो समाज स्वयं ही अपनी राह चलेगा। कहीं न कहीं यह स्वीकार किया गया है कि समूचा मनुष्य समुदाय एक जैसा नहीं हो सकता। इसलिये उसमें जितने बेहतर लोग होंगे उतना ही वह चमकदार भी होगा । इसके विपरीत भारतीय आंदोलक पुरुष समाज को संबोधित करते हुए अपनी बात करते हैं। वह यह नहीं बताते कि मनुष्य क्या करे? वह कहते हैं कि समाज यह करे तो सरकार वह करे। यह हवा में तीर चलाने जैसा है। वह समाज में व्यक्ति निर्माण के लिये अपनी भूमिका निभाने से कतराते हैं। भले ही वह सामाजिक नेता होने का दावा करें पर अपनी भूमिका को राजपुरुष की तरह देखना चाहते हैं। यह उनके राजनीतिक अल्पज्ञान का प्रमाण है। अध्यात्मिक पुरुष की छवि सौम्य और शांत होती है। उसकी सक्रियता में आकर्षण नहीं होता जबकि राजपुरुष की छवि में आक्रामकता, सुंदरता तथा प्रभावी छवि है और इसलिये हर कोई उसी तरह दिखना चाहता है।
हम यहां कुछ आंदोलनों की चर्चा करना चाहेंगे जो जनमानस के लिये महत्वपूर्ण रहे हैं। सबसे पहले सामाजिक कार्यकर्ता श्री अन्ना हजारे और विश्व प्रसिद्ध योग शिक्षक बाबा रामदेव के आंदोलन की बात करना अच्छा रहेगा। मूलतः दोनों ही राजनीतिक क्षेत्र के नहीं है। दोनों ही अपनी छवि महात्मा गांधी की तरह बनाना चाहते हैं। दोनों ही यह कहते हैं कि वह कोई सरकारी पद ग्रहण नहीं करेंगे और न ही चुनाव लड़ेंगे। गैर राजनीतिक दिखने वाले उनके आंदोलनों के विषय बिना राजनीतिक दावपैंचों के सिद्ध नहीं हो सकते यह उनको कोई न समझा पा रहा है। वजह दोनेां ही राजनीति के पश्चिमी सिद्धांतों का अनुकरण कर रहे हैं जिसमें आंदोलन एक विषय और सरकार चलाना दूसरा विषय माना जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि राजधर्म का मतलब वह क्या समझते हैं जो दूसरों को बता रहे हैं। चलिये वह जानते भी होंगे फिर कोई बड़ा पद लेने की बात से इंकार क्यों करते हैं? क्या सरकारी पद केवल उपभोग के लिये होता है। विश्व भर की लोकतंत्रिक सरकारों में बैठे उच्च पदासीन लोग क्या राजसुख भोगने आते हैंे। क्या पद लेना केवल प्रतिष्ठा का प्रतीक है और दायित्व निभाकर दूसरों के सामने प्रस्तुत करने का कोई सिद्धांत वहां नहीं है।
हैरानी की बात है कि भारतीय जनमानस उनके पद ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की वैसे ही प्रशंसा करता है जैसे भीष्म पितामह की। यह सभी लोग क्या भीष्मपितामह बनना चाहते है पर याद रखना चाहिए कि उन्होंने इस प्रंतिज्ञा को निभाया तो उसकी वजह से अंततः महाभारत युद्ध हुआ। अगर वह स्वयं राजा के पद पर बैठते तो न पांडु राजा बनते और न ही धृतराष्ट के पुत्र पांडवों के साथ युद्ध करते। भीष्म पितामह अपने राज्य की रक्षा करने के वचन से बंधे रहे पर अंततः उनको युद्ध में प्राण गंवाने पड़े। इस एक घटना को भारतीय इतिहास मंें हमेशा मिसाल नहीं माना जाता क्योंकि राजकाज का जिम्मा निभाने में तो हमारे आदर्श भगवान श्रीराम माने जाते हैं। राज्य का त्याग उन्होंने किया पर वापस लौटकर फिर वापस सिंहासन पर विराजे और प्रजा हित के लिये काम किया।
श्री अन्ना हजारे ने कहा था कि वह दूसरा स्वतंत्रता संग्राम लड़ रहे हैं तब यह विचार सभी लोगों के मन में आया होगा कि महात्मा गांधी के स्वतंत्रता संग्राम भारत को पूर्णता नहीं दिला सका शायद तभी वह ऐसी बात कही हैं। बात निकली है तो श्री महात्मा गांधी जैसे पुण्यात्मा के विचार पर प्रतिविचार आयेगा और हम उसे व्यक्त करने से पीछे नहीं हटेंगे। महात्मा गांधी ने अंग्र्रेजों से आजादी दिलाने का बीड़ा उठाया यह स्वीकार्य है पर उसके बाद राज्य कौन संभालेगा इसकी जिम्मेदारी कौन तय करने वाला था? महात्मा गांधी ने क्या ऐसी गांरटी ली थी कि अंग्रेजों के बाद राज्य चलाने वाले अपने काम में दक्ष होंगे! भारत एक विशाल देश था और उसे दो टुकड़ों में बांटा गया। इसके बावजूद आज का भारत बहुत विशाल था? उसका राजकाज कैसे चलेगा और कौन चलायेगा इसकी भूमिका क्या महात्मा गांधी ने तय की थी? उन्होंने अपने आंदोलन के दौरान सुखद भारत की कल्पना व्यक्त की पर उसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभाना क्या सत्ता का सुख भोगना समझा? यह पलायन माना जाये कि त्याग?
वह परिवार, समाज, और राष्ट चलाने के सिद्धांतों पर खूब बोले होंगे पर आजादी के बाद के भारत में उन्होंने सक्रिय भागीदारी न देकर क्या जनता के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह किया था? सरकार और राजकाज कोई स्वचालित मशीन नहीं है जिसके साथ खिलवाड़ किया जाये। उसके लिये कुशल लोग होना चाहिऐं। मूल बात यह है कि महात्मा गाीधी अंग्रेजों के हाथ से राजकाज लेकर जिन स्वदेशी लोगों को दे रहे थे उनके ज्ञान पर उनको केवल विश्वास था या उन्होंने उसे प्रमाणिक रूप देखाय भी था? आज अन्ना कहते हैं कि हम काले अंग्रेजों के राज्य को झेल रहे हैं तो सीधे महात्मा गांधी के आंदोलन का विचार आता है। जब उनको कोई राज्य का पद लेना नहंी था तो फिर वह स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के नेता क्यों बने? क्या वह मानते थे कि अं्रग्रेजों ने जिस व्यवस्था को बनाया है उसमें सरकार तो स्वतः चलेगी और उच्च पद तो केवल भोगने के लिये हैं उनमें कोई जिम्मेदारी नहीं होगी?
हम तो यह मानते हैं सरकार या राजकाज चलाना अंततः राजनीति ज्ञान के बिना संभव नहीं है। आप अगर उसमें कोई पद लेना नहीं चाहते तो इसका मतलब यह है कि आप में कुशलता की कमी है। उसके बाद आप राज्य में परिवर्तन के लिये कोई आंदोलन चलाना चाहते हैं और पद भी लेना नहीं चाहते तो इसके तीन मतलब यह हैं। एक तो यह कि अप्रत्यक्ष रूप से राजकाज आपका ही रहेगा पर उसमें कमीपेशी होने पर अपनी जिम्मेदारी से भाग सकते हैं। दूसरा यह कि आपका मानना है कि राज्य तो भगवान भरोसे चलता है हम जिसे बिठायेंगे वह सुख भोगने के साथ हमें भी पूजता रहेगा। तीसरी स्थिति यह है कि आपमें आत्मविश्वास नहीं है कि आप सरकार या राज चला पायेंगे।
ऐसे में कुछ निष्कर्ष भी निकल सकते हैं जो त्यागी आंदोलक पुरुषों और उनके समर्थकों को शायद अच्छे न लगें। एक तो यह कि गैरराजनतिक लोगों दो कारणों से ही राज्य पद त्यागते हैं। एक तो वह बहुत चालाक हैं क्योंकि इससे बिना जिम्मेदारी के वह राजसुख या सम्मान पाते हैंे या उनके पास राजनीतिक शास्त्र के ज्ञान का अभाव है। पहली स्थिति में तो उनको आंदोलक पुरुष होने का हक है क्योंकि राजनीतिक सिद्धांत इस कुटिलता की अनुमति देते हैं कि अगर कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदारी न लेकर अप्रत्यक्ष रूप से राजहित करता है तो कोई बात नहीं है पर दूसरी स्थिति में उनको इसका अधिकार नहीं है कि वह कथित रूप से एक अकुशल प्रशासक को हटाकर दूसरा स्थापित करें। अगर उनके पास कोई बेहतर विकल्प नहीं है और न ढूंढने की क्षमता से भी परे हैं तो उनके कथित गैरराजनीतिक आंदोलन संशय के घेरे में आयेंगै। इससे अच्छा है तो वह आंदोलन ही न चलायें और अगर चलायें तो समय आने पर राज्य चलाने के लिये व्यवस्था से जुड़कर उनको आदर्श स्थापित करें।
अर्थशास्त्र में हमने भारतीय अर्थव्यवस्था के समस्याओं के बारे में पढ़ा है कि अकुशल प्रबंध का यहंा अभाव है। मतलब यह कि हमें कुशल प्रबंधक चाहिये जो व्यवस्था चला सकें। जो आदर्श की बात करें तो उसे व्यवस्था में आकर काम करते हुए साबित करे। अगर हम भ्रष्टाचार की बात करें तो वह अकुशल प्रबंध का एक हिस्सा होने के साथ ही परिणाम है। हम परिणाम बदलना चाहते हैं यानि भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं पर कुशल प्रबंध के बिना यह संभव नहीं है। बीमारी हटाने के लिये दवा चाहिये न कि हम नारे लगाते रहें कि बीमारी भाग जाओ नहीं तो हम आते हैं। मैं पद नहीं लूंगा मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा मेरा किसी राजनीतिक दल से संबंध नहीं रहेगा जैसी बातें कहते हुए राजनीतिक आंदोलक पुरुष वैसे ही हैं जैसे कोई डाक्टर तमाम तरह के शारीरिक परीक्षण कराकर मरीज को बीमारी का नाम बताकर पर दवा देने की बात आने पर कहीं दूसरे डाक्टर के पास भेज देता है। हम ऐसे आंदोलक पुरुषों की ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठाते क्योंकि वह प्रमाणिक है पर राजनीति शास्त्र के ज्ञान का अभाव उनमें साफ दिखाई देता है। इसलिये वह राजनीतिक खेल में ऐसे दर्शक की भूमिका निभाना चाहते हैं जो खिलाड़ी को सलाह देता रहे और जीतने पर अपनी वाह वाही स्वयं करे और हार हो तो दोष खिलाड़ी को दे। ऐसा आम तौर से हम गांवों में चौपालों और शहरों में बाजा़ारों में शतरंज और ताश खेलने वाली महफिलों में देखते हैं।
दीपक भारतदीप द्धारा
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हिन्दी में प्रकाशित किया गया
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इस्लामिक उग्रवाद के आधार स्तंभ ओसामा बिन लादेन के मारे जाने की खबर इतनी बासी लगी कि उस पर लिखना अपने शब्द बेकार करना लगता है। अगर अमेरिका और लादेन के बीच चल रहे पिछले दस वर्षों से चल रहे संघर्ष के बारे में प्रचार माध्यमों में प्रकाशित तथा प्रसारित समाचारों पर दृष्टिपात करते हैं तो हमारा अनुमान है कि वह दस साल पहले ही मर चुका है क्योंकि उसके जिंदा रहने के कोई प्रमाण अमेरिका और उसकी खुफिया एजेंसी सीआईऐ नहीं दे सकी थी। उसके मरने के प्रमाण नहीं मिले या छिपाये गये यह अलग से चर्चा का विषय हो सकता है। थोड़ी देर के लिये मान लें कि वह दस साल पहले नहीं मारा गया तो भी बाद के वर्षों में भी उसके ठिकानों पर ऐसे अमेरिकी हमले हुए जिसमें वह मर गया होगा। यह संदेह उसी अमेरिका की वजह से हो रहा है जिसकी सेना के हमले बहुत अचूक माने जाते हैं।
अगर हम यह मान लें कि ओसामा बिन लादेन अभी तक नहीं मरा था तो यह शक होता है कि अमेरिका का एक बहुत बड़ा वर्ग उसे जिंदा रखना चाहता था ताकि उसके आतंक से भयभीत देश उसके पूंजीपतियों के हथियार खरीदने के लिये मजबूर हो सकें। यह रहस्य तो सैन्य विशेषज्ञ ही उजागर कर सकते हैं कि इन दस वर्षों में अमेरिका के हथियार निर्माताओं को इस दस वर्ष की अवधि में ओसामा बिन लादेन की वजह से कितना लाभ मिला? इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि उसे दस वर्ष तक प्रचार में जिंदा रखा गया। अमेरिका के रणीनीतिकार अपनी शक्तिशाली सेना की नाकामी का बोझ केवल अपने आर्थिक हितो की वजह से ढोते रहे।
आज से दस वर्ष पूर्व अमेरिका के अफगानिस्तान पर हम हमले के समय ओसामा बिन लादेन के मारे जाने की खबर आयी थी। वह प्रमाणित नहीं हुई पर सच बात तो यह है कि उसके बाद फिर न तो ओसामा बिन लादेन का कोई वीडियो आया न ही आडियो। जिस तरह का ओसामा बिन लादेन प्रचार का भूखा आदमी था उससे नहीं लगता कि वह बिना प्रचार के चुप बैठेगा। कभी कभी उसकी बीमारी की खबर आती थी। इन खबरों से तो ऐसा लगा कि ओसामा चलती फिरती लाश है जो स्वयं लाचार हो गया है। उन समाचारों पर शक भी होता था क्योंकि कभी उसके अफगानिस्तान में छिपे होने की बात कही जाती तो कभी पाकिस्तान में इलाज करने की खबर आती।
अब अचानक ओसामा बिन लादेन की खबर आयी तो वह बासी लगी। उसके बाद अमेरिका के राष्टपति बराक हुसैन ओबामा के राष्ट्र के नाम संबोधन सुनने का मौका मिला। उसमें ओसामा बिन लादेन के धर्मबंधुओं को समझाया जा रहा था कि अमेरिका उनके धर्म के खिलाफ नहीं है। अगर हम प्रचार माध्यमों की बात करें तो यह लगता है कि इस समय अमेरिका में बराक ओबामा की छवि खराब हो रही है तो उधर मध्य एशिया में उसके हमलों से ओसामा बिन लादेन के धर्मबंधु पूरी दुनियां में नाराज चल रहे हैं। लीबिया में पश्चिमी देशों के हमल जमकर चल रहे हैं। सीरिया और मिस्त्र में भी अमेरिका अपना सीधा हस्तक्षेप करने की तैयारी मे है। देखा जाये तो मध्य एशिया में अमेरिका की जबरदस्त सक्रियता है जो पूरे विश्व में ओसामा बिन लादेन के धर्म बंधुओं के लिये विरोध का विषय है। बराक ओबामा ने जिस तरह अपनी बात रखी उससे तो लगता है कि वह ने केवल न केवल एक धर्म विशेष लोगों से मित्रता का प्रचार कर रहे थे बल्कि मध्य एशिया में अपनी निरंतर सक्रियता से उनका ध्यान भी हटा रहे थे। उनको यह अवसर मिला या बनाया गया यह भी चर्चा का विषय है।
अमेरिका में रविवार छुट्टी का दिन था। लोगों के पास मौज मस्ती का समय होता है और वहां के लोगों को यह एक रोचक और दिलखुश करने वाला विषय मिल गया और प्रचार माध्यमों में उनका जश्न दिखाया भी गया। अमेरिका की हर गतिविधि पर नज़र रखने वाले किसी भी घटना के वार और समय में बहुत दिलचस्पी रखते हैं। सदाम हुसैन को फांसी रविवार को दी गयी थी तब कुछ विशेषज्ञों ने अनेक घटनाओं को हवाला देकर शक जाहिर किया था कि कहीं यह प्रचार के लिये फिक्सिंग तो नहीं है क्योकि ऐसे मौकों पर अमेरिका में छुट्टी का दिन होता है और समय वह जब लोग नींद से उठे होते हैं या शाम को उनकी मौजमस्ती का समय होता है।
जब से क्रिकेट में फिक्सिंग की बात सामने आयी है तब से हर विषय में फिक्सिंग के तत्व देखने वालों की कमी नहीं है। स्थिति तो यह है कि फुटबाल और टेनिस में भी अब लोग फिक्सिंग के जीव ढूंढने लगे हैं। अमेरिका की ऐसी घटनाओं पर विश्लेषण करने वाले वार और समय का उल्लेख करना नहीं भूलते।
पहले की अपेक्षा अब प्रचार माध्यम शक्तिशाली हो गये है इसलिये हर घटना का हर पहलु सामने आ ही जाता है। अमेरिका इस समय अनेक देशों में युद्धरत है और वह अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाना चाहता है। संभव है कि ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद उसे यह सहुलियत मिल जायेगी कि वहां के रणनीतिकार अपनी जनता को सेना की वापसी का औचित्य बता सकेंगे। अभी तक वह अफगानिस्तान में अपनी सेना बनाये रखने का औचित्य इसी आधार पर सही बताता रहा था कि ओसाबा अभी जिंदा है। अलबत्ता सेना बुलाने का यह मतलब कतई नहीं समझना चाहिए कि अफगानितस्तान से वह हट रहा है। दरअसल उसने वहां उसी तरह अपना बौद्धिक, आर्थिक तथा प्रशासनिक वर्चस्व स्थापित कर दिया होगा जिससे बिना सेना ही वह वहां का आर्थिक दोहन करे जैसे कि ब्रिटेन अपने उपनिवेश देशों को आज़ाद करने के बाद करता रहा है। सीधी बात कहें तो अफगानिस्तान के ही लोग अमेरिका का डोली उठाने वाले कहार बन जायेंगे।
ओसामा बिन लादेन एकदम सुविधा भोगी जीव था। यह संभव नहीं था कि जहां शराब और शबाब की उसकी मांग जहां पूरी न होती हो वह वहां जाकर रहता। उसके कुछ धर्मबंधु भले ही प्रचार माध्यमों के आधार पर उसे नायक मानते रहे हों पर सच यह है कि वह अय्याश और डरपोक जीव था। वह युद्ध के बाद शायद ही कभी अफगानिस्तान में रहा हो। उसका पूरा समय पाकिस्तान में ही बीता होगा। अमेरिकी प्रशासन के पाकिस्तानी सेना में बहुत सारे तत्व हैं और यकीनन उन्होंने ओसामा बिन लादेन को पनाह दी होगी। वह बिना किसी पाकिस्तानी सहयोग के इस्लामाबाद के निकट तक आ गया और वहां आराम की जिंदगी बिताने लगा यह बात समझना कठिन है। सीधा मतलब यही है कि उसे वहां की लोग ही लाये और इसमें सरकार का सहयोग न हो यह सोचना भी कठिन है। वह दक्षिण एशिया की कोई भाषा नहीं जानता इसलिये यह संभव नही है कि स्थानीय सतर पर बिना सहयोग के रह जाये। अब सवाल यह भी है कि पाकिस्तानी सेना बिना अमेरिका की अनुमति के उसे वहां कैसे पनाह दे सकती थी। यकीनन कहीं न कहीं फिक्सिंग की बू आ रही है। अमेरिका उसके जिंदा रहते हुए अनेक प्रकार के लाभ उठाता रहा है। ऐसे में संभव है कि उसने अपने पाकिस्तानी अनुचरों से कहा होगा कि हमें तो हवा में बमबारी करने दो और तुम लादेन को कहीं रख लो। किसी को पता न चले, जब फुरतस मिलेगी उसे मार डालेंगे। अब जब उसका काम खत्म हो गया तो उसे इस्लामाबाद में मार दिया गया।
खबरें यह है कि कुछ मिसाइलें दागी गयीं तो डान विमान से हमले किये गये। अमेरिका के चालीस कमांडो आराम से लादेन के मकान पर उतरे और उसके आत्मसमर्पण न करने पर उसे मार डाला। तमाम तरह की कहानिया बतायी जा रही हैं पर उनमें पैंच यह है कि अगर पाकिस्तान को पता था कि लादेन उनके पास आ गया तो उन्होंने उसे पकड़ क्यों नहीं लिया? यह ठीक है कि पाकिस्तान एक अव्यवस्थित देश है पर उसकी सेना इतनी कमजोर नहीं है कि वह अपने इलाके में घुसे लादेन को जीवित न पकड़ सके। बताया जाता है कि अंतिम समय में पाकिस्तान के एबटबाद में सैन्य अकादमी के बाहर ही एक किलोमीटर दूर एक बड़े बंगले में रह रहा था। पाकिस्तान का खुफिया तंत्र इतना हल्का नहीं लगता है कि उसे इसकी जानकारी न हो। अगर पाकिस्तान की सेना या पुलिस अपनी पर आमादा हो जाती तो उसे कहीं भी मार सकती थी। ऐसे में एक शक्तिशाली सेना दूसरे देश को अपने देश में घुस आये अपराधी की सूचना भर देने वाली एक अनुचर संस्था बन जाती है और फिर उसकी सेना को हमले करने के लिए आमंत्रित करती है। इस तरह पाकिस्तान ने सारी गोटिया बिछायीं और अमेरिकी सेना को ही ओसामा बिन लादेन को मारे का श्रेय दिलवाया जिसको न मार पाने के आरोप को वह दस बर्षों से ढो रही थी। लादेन अब ज्यादा ताकतवर नहीं रहा होगा। उसे सेना क्या पाकिस्तानी पुलिस वाले ही धर लेते अगर उनको अनुमति दी जाती । ऐसा लगता है कि अमेरिका ने चूहे को मारने के लिये तोपों का उपयोग किया है।
यह केवल अनुमान ही है। हो सकता है कि दस वर्ष या पांच वर्ष पूर्व मर चुके लादेन को अधिकारिक मौत प्रदान करने का तय किया गया हो। अभी यह सवाल है कि यह तय कौन करेगा कि करने वाला कौन है? बिना लादेन ही न1 इसका निर्णय तो आखिर अमेरिका ही करेगा। हालांकि नज़र रखने वाले इस बात की पूरी तहकीकात करेंगे। सब कुछ एक कहानी की तरह लग रहा है क्योंकि लादेन की लाश की फोटो या वीडियो दिखाया नहीं गया। कम उसका पोस्टमार्टम हुआ कब उसका डीएनए टेस्ट किया गया इसका भी पता नहीं चला। आनन फानन में उसका अंतिम संस्कार समंदर में इस्लामिक रीति से किया गया। कहां, यहा भी पता नहीं। भारतीय प्रचार माध्यम इस कहानी की सच्चाई पर यकीन करते दिख रहे हैं। उनको विज्ञापन दिखाने के लिये यह कहानी अच्छी मिल गयी। हमारे पास भीअविश्वास का कोई कारण नहीं पर इतना तय है कि इस विषय पर कुछ ऐसे तथ्य सामने आयेंगे कि इस कहानी पेंच दिखने लगेंगे।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior
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एक प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री ने टीवी चैनल के संपादकों के साथ बातचीत करते हुए जो कहा उस पर तमाम तरह की टिप्पणियां और विचार देखने को मिले। उनके उत्तरों की विवेचना करने वाले अनेक बुद्धिमान अपने अपने हिसाब से टिप्पणियां दे रहे हैं पर हम उनसे किये गये सवालों पर दृष्टिपात करना चाहेंगे।
श्री वेद प्रकाश वैदिक ने प्रधानमंत्री से किये गये सवालों पर सवाल उठाये हैं जो दिलचस्प हैं। उन्होंने सबसे पहला सवाल यह किया कि क्या सवाल करने के लिये भ्रष्टाचार का मुद्दा ही था? नेपाल, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर इन संपादकों पत्रकारों के दिमाग में कोई विचार नहीं क्यों नहीं आया जबकि उनसे जुड़े मुद्दे भी अहम थे। यह सही है कि भ्रष्टाचार का मुद्दा इस देश के आमजन में चर्चित है पर पत्रकार या संपादक आम आदमी से कुछ ऊंचे स्तर के बौद्धिक स्तर के माने जाते हैं। अगर वह केवल इसीलिये इस मुद्दे पर अटके रहे क्योंकि दर्शक इसी में ही भटक रहे हैं तो फिर हमें कुछ नहीं कहना है पर उनको यह पता नहीं हेाना चाहिए कि उनके समाचार चैनलों के दर्शक तो आम आदमी के रूप में हम जैसे निठल्ले ही हैं जो समाचार देखने में रुचि रखने के साथ ही संपादकों और पत्रकारों के विश्लेषणों को सुनकर अपना समय गंवाते हैं।
एक बात तय रही है कि इस देश में लेखन, संपादन तथा समाचार संकलन की कला में दक्ष होने से कोई पत्रकार या संपादक नहीं बनता क्योंकि यहां व्यक्तिगत संबंध और व्यवसायिक जुगाड़ का होना आवश्यक है। जुगाड़ से कोई बन जाये तो उसे अपनी विधा में पारंगत होने की भी कोई आवश्कयता नहीं है। बस, जनता के बीच पहले किसी विषय की चर्चा अपने माध्यमों से कराई जाये फिर उस पर ही बोला और पूछा जाये। ऐसा करते हुए अनेक महान पत्रकार बन गये हैं। पहले समाचार पत्र पत्रिकाओं में जलवे पेल रहे थे अब टीवी पर भी प्रकट होने लगे हैं। श्री वेद प्रकाश वैदिक अंग्रेजी की पीटीआई तथा हिन्दी की भाषा समाचार एजेंसी जुड़े रहे हैं और शायद पत्रकारिता के लिए एक ऐसे स्तंभ हैं जिनसे सीखा जा सकता है पर उनकी तरह नेपथ्य में बैठकर अध्ययन और ंिचतन करने की इच्छा और अभ्यास होना आवश्यक है। वह भी पर्दे पर दिखते हैं पर इसके लिये लालायित नहंी दिखते। न ही उनकी बात सुनकर ऐसा लगता है कि कोई पुरानी बात कह रहे हैं। यही कारण है कि कभी कभी ही उनके दर्शन टीवी पर हो जाते हैं। मगर जिनको अपना चेहरा रोज दिखाना है उनके लिए चिंतन, अध्ययन और मनन करना एक फालतू का विषय है। इसलिये इधर उधर से सुनकर अपनी बात कर वाह वाह करवा लेते हैं।
प्रधानमंत्री से पूछा गया कि ‘भारत में विश्व कप क्रिकेट कप हो रहा है, आप अपने देश की टीम को शुभकामनाऐ देना चाहेंगे।’
अब बताईये कोई प्रधानमंत्री इसका क्या जवाब क्या ना में देगा।
दूसरा सवाल यह कि आप का पसंदीदा खिलाड़ी कौन है?
सवालकर्ता भद्र महिला शायद यह आशा कर रही थीं कि वह टीवी चैनलों की तरह कुछ खिलाड़ियों को महानायक बनाकर विज्ञापनदाताओं का अपना काम सिद्ध कर देंगी।
मगर प्रधानमंत्री ने हंसकर इस सवाल को टालते हुए कहा कि किसी एक दो खिलाड़ी का नाम लेना ठीक नहीं है।
एक महान देश के प्रधानमंत्री से ऐसे ही चतुराईपूर्ण उत्तर की आशा करना चाहिए। वह पूरे देश के प्रधानमंत्री हैं और किसी एक खिलाड़ी का नाम लेने का अर्थ था कि बाकी खिलाड़ियों को दुःख देना। मगर यहां सवालकर्ता के स्तर पर विचार करना पड़ता है। क्रिकेट पर प्रधानमंत्री से इतनी महत्वपूर्ण सभा में सवाल करना इस बात को दर्शाता है कि लोकप्रिय विषयों के आसपास ही हमारे प्रचार समूहों के बौद्धिक चिंतक घूम रहे हैं। कहते हैं कि आत्ममुग्धता की स्थिति बहुत खराब है। क्रिकेट का प्रचार माध्यम चाहे कितना भी करते हों पर अब यह इतने महत्व का विषय नहीं रहा कि भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों की समक्ष इसे रख जा सके। इसकी जगह उनसे किसी विदेशी विषय पर ऐसा सवाल भी किया जा सकता था जिसे सुनकर देश के लोग कुछ चिंतन कर सकते। यह सवाल एक महिला पत्रकार ने किया था। ऐसे में नारीवादियों को आपत्ति करना चाहिए कि क्या महिला पत्रकार होने का मतलब क्या केवल यही है कि केवल हल्के और मनोरंजन विषय उठाकर दायित्व निभाने की पुरानी परंपरा निभाया जाये। क्या किसी महिला पत्रकार के लिये कोई बंधन है कि वह राजनीतिक विषय नहीं उठा सकती।
प्रधानमंत्री इस प्रेस कांफ्रेंस में बहुत संजीदगी से पेश आये पर टीवी चैनलों के संपादकों और पत्रकारों ने इसे एक प्रायोजित सभा बना दिया। विज्ञापनों के कारण शायद उनको आदत हो गयी है कि वह हर जगह प्रायोजित ढंग से पेश आते हैं। एक औपाचारिक प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने प्रधानमंत्री जैसे उच्च पर बैठे व्यक्ति से जिस तरह उन्होंने सवाल किये उससे तो ऐसा लगा जैसे कि वह अपने स्टूडियो में बैठे हों। इतना बड़ा देश और इतने व्यापक विषय होते हुए भी केवल दो मुद्दों उसमें भी एक क्रिकैट का फालतू सवाल शामिल हो तो फिर क्या कहा जा सकता है। भारत में लोग गरीब हैं पर प्रचार माध्यमों के स्वामी और कार्यकर्ता तो अच्छा खासा कमा रहे हैं। उनसे तो अन्य देशों के लोग ईर्ष्या करते होंगे, खासतौर से यह देखकर उनसे कमतर भारतीय प्रचार स्वामी और और कार्यकर्ता कहीं अधिक धनी हैं।
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लेखक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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