प्राकृतिक सौन्दर्य हैं मौन


रात्री में चन्दा बिखेरता
अब भी पहले की तरह
शीतल चांदनी
पर उसका आनन्द उठाएँ कौन
दूरदर्शन और कम्प्यूटर से
अपनी आखें लेकर जूझता आदमी
बाहर है प्राकृतिक सौन्दर्य
खङा है मौन

प्रथम किरणों के साथ
जीवन का संदेश देता सूर्य
रात को देर तक सोकर
सुबह देर बिस्तर छोड़ें आदमी
प्रात:काल नमन करे कौन
शीतल और शुध्द पवन
आवारा फिरती है
वातानुकूलित कमरों में
उसका है प्रवेश वर्जित
सुखद अनुभूति पाए कौन
कई सदियों से शहर के बीच
बहती है नदी की धारा
अपने शहर में ही हो गया
आदमी अब परदेशी
उसका हमसफ़र बने कौन

प्राणवायु का सर्जन कर
उस बिखेर रहा है
बरगद का पेड
जीवंत ह्रदय की प्रतीक्षा में
खड़ा है मौन
जीने की चाह है सभी को
सुख और आनन्द भी मांगें
पर इनका मतलब
समझा पाता कौन
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