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प्यार का खेल, इज्जत की जंग-हिन्दी हास्य कविता


 नये वर्ष के अवसर पर

शहर के नंबर वन

आशिक माशुका के जोड़े को

चुनकर उसे सम्मानित करने की

खबर बड़े जोर से एक महीन पहले ही छाई।

ग्यारह महीने से जो मजे उठा रहे थे

ब्रेिफक्र होकर,  प्यार के मौसम में

सभी की नींद सम्मान ने उड़ाई।

कुछ आशिकों का शक था

अपनी माशुका के साथ इनाम मिलने का,

कुछ माशुकाओं को भी विश्वास नहीं था

अपने जोड़दार के साथ

अपना नाम का फूल शहर में खिलने का,

सभी अपने इश्क के पैगामों में

लिखने वाले संबोधन बदल रहे थे,

जो एक समय में रचाते थे कई प्रसंग

एक  इश्क के व्रत में बहल रहे थे,

प्रविष्टी भरने के अंतिम दिन तक

सभी रच रहे थे

फार्म में भरने के लिये अपने इतिहास,

कुछ गमगीन हो गये तो कुछ करने लगे परिहास,

इश्क करने वाले आशुक बन गये योद्धा,

माशुकायें बन गयीं, संस्कारों की पुरोधा,

दे रहे थे सभी एक दूसरे को नर्ववर्ष की बधाई,

पर अंदर ले रहे थे, जंग के लिये अंगराई।

नये साल में पिछले एक वर्ष के

आशिक माशुका के जोड़े को

इनाम देने के नाम पर चली

इश्क की जंग में 

उथल पुथल से कई दिल टूटे

कहीं माशुका तो कहीं आशिक रूठे,

नहीं रहा कोई रिश्ता स्थाई।

एक दिन प्रतियोगिता के स्थगित

होने की खबर आई।

पता चला युवा आयोजक की पुरानी माशुका ने

अपने नये आशिक के साथ

प्रतियोगिता के लिये अपनी प्रविष्टी दर्ज कराई,

कर ली थी जिसने उसके दुश्मन से सगाई।

नयी माशुका  की एक सहेली को

छोड़ गया था उसका आशिक

उसने भी उसके यहां गुहार लगाई।

नयी माशुका  ने सार्वजनिक रूप से

इस नाटक करने पर कर दी

युवा आयोजक की ठुकाई।

टूट गया वह, उसने बंद कर दिया यह सम्मान

पर शहर में जहां जहां खेला जाता था

इश्क का खेल

सभी जगह जंग के मैदान में नज़र न आई।

नोट-यह एक काल्पनिक हास्य कविता मनोरंजन की दृष्टि से लिखी गयी है। इसक किसी घटना या व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है। किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।

 
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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इंसान कभी बंदर नहीं रहा होगा-व्यंग्य आलेख (insan aur bandar-hindi hasya vyangya)


आदमी कभी बंदर रहा होगा-इस सिद्धांत पर यकीन नहीं होता। दरअसल बरसों पहले यह पश्चिमी सिद्धांत पढ़ा था कि आदमी पहले बंदर था या इसे यूं कहें कि बंदर धीरे धीरे आदमी बन गया। दरअसल हमने चालीस बरसों से किसी बंदर को आदमी बनते हुए नहीं देखा। कहा जाता है कि आदमी की बुद्धि इस सृष्टि में सबसे तीव्र है इसलिये ही वह पशु और पक्षियों तथा अन्य जीवों पर नियंत्रण कर लेता है और जिसमें बंदर भी शामिल है।
कई बार हमने बंदर को देखा है। उसे कभी हमलावर नहीं पाया। हमारे देश में कई ऐसे पवित्र स्थान हैं जहां बंदरों के झुंड के झुंड रहते हैं। वहां उनका आचरण आदमी से मेल नहीं खाता नजर नहीं आता। बंदर शरारती होते हैं पर खूंखार नहीं। आदमी अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर कब खूंखार हो जाये कहना कठिन है।
इस सिद्धांत को न मानने के अनेक तर्क हैं। सबसे पहला तो यह है कि इंसान अगर बंदर था तो वह वर्तमान स्थिति में कभी नहीं आता। इधर हमने अध्यात्मिक ग्रंथ भी छान मारे पर कहीं इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि आदमी पहले कभी बंदर था। वैसे यह खोज पश्चिम की है इसलिये इस पर आपत्ति करना आसान नहीं है पर उनके इस सिद्धांत में अविश्वास के कारण है। एक तो यह है कि सृष्टि के प्रारंभ में ही सभी प्रकार के जीव प्रकट हो गये थे। सभी का चाल चलन, रहन सहन, आयु और स्वभाव के मूल तत्व कभी नहीं बदले। इसी स्वभाव के वशीभूत हर जीवन अपने कर्म करता है।

एक बार हम दूसरे कोटा (राजस्थान)शहर गये। वहां मंगलवार को हनुमान जी के मंदिर पर प्रसाद चढ़ाया और हाथ में उसका लिफाफा लिये परिक्रमा लगाने गये। परिक्रमा के बीच में मंदिर के पीछे एक बंदर आया और हमारे हाथ से वह लिफाफा ऐसे लेकर चलता बना जैसे कि उसको देने ही आये थे। बाद में हमने देखा कि वह आराम से अपने परिवार के साथ वह खा रहा है।
हम यह कहें कि उसने छीना तो यह एक अपराध की तरह है। उस समय वह इतने आराम से ले गया कि हाथ से जाने के बाद हमें पता लगा कि वह तो लिफाफा ले गया।
हम मंदिर के बाहर निकले तो वहां अनेक भिखारी प्रसाद मांग रहे थे। हमारे हाथ से लिफाफा जा चुका था इसलिये हम तो चुपचाप चले आये। घर आकर मेजबान से कहा तो उन्होंने कहा-‘हां, ऐसा होता है। कई लोगों के साथ ऐसा हुआ है पर हम भी कई बार वहां गये पर ऐसी घटना नहीं हुई।
कुछ दिन पहले एक मंदिर के बाहर एक औरत चिल्ला रही थी। कोई उसका पर्स उसके हाथ से छीनकर भाग गया था। वह चिल्लाती रही पर जब तक किसी का ध्यान इस ओर जाता तब तक छीनने वाला लोगों की नजरों से ओझल हो गया।
तब हमें उस बंदर की याद आयी। हम सोच रहे थे कि ‘क्या उसके द्वारा हमारे हाथ से प्रसाद का लेना क्या छीनना कहा जा सकता है?’
उत्तर भी हमने दिया ‘नहीं’।
इंसान दो ही काम कर सकता है-भीख मांगना या छीनना। भीख मांगने और छीनने वाला भी इंसान है पर इसी इंसान की फितरत है कि अगर कोई इंसान बंदर की तरह आराम से चीज ले जाये तो हल्ला मचा देगा। भीख देगा पर यह नहीं चाहेगा कि कोई उसकी चीज को अपनी समझकर ले जाये। छीन जाये अलग बात है। आशय यह है कि लेनदेन में सहजता का भाव तो नहीं रह सकता जैसे कि बंदर द्वारा हमारे हाथ से प्रसाद लेने पर हुआ था। हमने जरा भी प्रतिवाद नहीं किया। सोचा भूखा होगा? फिर आये भी तो वानरराज हनुमान जी के मंदिर में थे। अगर वहां कोई इंसान होता तो उससे प्रतिवाद कर वह लिफाफा वापस लेते पर बंदर से हमें स्वयं ही डर लग रहा था कि कहीं हमला कर भाग गया तो कहां उसे पकड़ पायेंगे?
तब ही हमेें इस बात पर यकीन हो गया था कि इंसान कभी बंदर नहीं रहा। बंदर के पीछे हम नहीं भाग सकते पर वह हमारे पीछे भाग सकता है। वह हमसे डरता है पर हमेशा नहीं! हां, हम उससे हमेशा डरते हैं।
बंदर की पतली टांगें और हाथ तथा देह की लंबाई चैड़ाई देखकर नहीं लगता कि उसकी कोई पीढ़ी आगे इंसान भी बन सकती है। बंदर में अपने भोजन का संचय करने की प्रवृत्ति नहीं होती। इंसान में तो वह इतनी विकट है कि उसका कहीं अंत नहीं है। सोने के लिये बिस्तरा और खाने के लिये रोटी चाहिये पर इंसान को उससे भी चैन कहां? उसे तो बैंक खाते में भी एक बड़ा आंकड़ा चाहिये जिससे देखकर उसका मन हमेशा अपने साहूकार होने के भ्रम में जीता रहे।
जब भी हम कहीं बंदर देखते हैं तब सोचते हैं कि क्या कभी इंसान भी ऐसा रहा होगा? तमाम तरह के विचार मंथन किये पर इस सिद्धांत को मन नहीं मानता। बंदर शरारती होता है पर अपराधी नहीं।
हम एक बार एक उठावनी कार्यक्रम में गये थे। वहां पर एक स्कूटर के पास खड़े थे जिस पर बंदर चढ़ा और हमारा चश्मा लेकर पास ही खड़े मकान की गैलरी पर बनी लोहे की सींखचों से चिपक कर बैठ गया। एक लड़का उसे पत्थर मारकर वह चश्मा वापस लेने का प्रयास करने लगा। वहां खड़े एक आदमी ने कहा कि ’कोई खाने वाली चीज फैंको तो उसे लेने के चक्कर में वह चश्मा नीचे फैंक देगा।’

तब एक बिस्कुट लेकर उसकी तरफ उछाला गया। उसे पकड़ने के चक्कर में वह चश्मा उसके हाथ से छूट गया और हमने नीचे उसे लपक लिया। वह बिस्कुट भी नीचे आ गिरा पर हमने उसे स्कूटर पर रख दिया और वहां से हट गये और वह उसे लेकर चला गया। उसने उस चश्मे को नष्ट करने का प्रयास नहीं किया बस उसे पकड़े रहा। तब उसकी इस शरारत पर हमें हंसी आयी। तब भी यही ख्याल आया कि इंसान कभी बंदर नहीं रहा होगा।
एक आदमी ने हमें एक बात बताई थी पता नहीं वह सच है कि झूठ। उसने बताया था कि भुटटे लगाने वाले खेतिहर यह दुआ करते हैं कि कोई बंदर उनके खेत पर आये। होता यह है कि बंदर एक भुट्टा उठाकर अपनी कांख में दबाता है फिर दूसरा तोड़ता है। बंदर इस तरह बहुत से भुट्टे तोड़कर खेत स्वामी की मेहनत बचाता है। आखिर तक उसकी कांख में एक ही भुट्टा बना रहता है। कुछ न कहो कहीं से बंदिरया की आवाज आये तो वह भी छोड़ कर चलता बने। इंसान ऐसा कभी नहीं रहा होगा।
बंदरों की मस्ती देखते ही बनती है। इंसान प्रकृत्ति की मस्ती को समझता नहीं है बल्कि उसे उजाड़ कर कागजी मुद्रा में परिवर्तित कर वह बहुत प्रसन्न होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि इंसान कभी बंदर नहीं रहा होगा। यह सच है कि इस सृष्टि में परिवर्तित होते रहते हैं। कई प्रकार के जीव बनते और बिगड़ते हैं, पर उनके स्वरूप में बदलाव नहीं आता। यह स्वरूप उनका मूल स्वभाव निर्धारित करता है। हो सकता है कि इंसानों जैसे बंदर रहे हों पर उनसे यह इंसान बना होगा यह संभव नहीं है। वह मिट गये होंगे पर इंसान नहीं बने होंगे। इंसान तो शुरु से ऐसा था और ऐसा ही रहा होगा। जीवों के मूल स्वभाव में परिवर्तन नहीं होता भले ही वह मिट जाते हों।
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भटकाव-व्यंग्य कविता


कभी इधर लटका
कभी उधर अटका
परेशान मन देह को
लेकर जब भटका
तब आत्मा ने कहा
‘रे, मन क्यों तू देह
को हैरान किये जा रहा है
बुद्धि तो है खोटी
अहंकार में अपनी ही गा रहा है
सम्मान की चाह में
ठोकरें खा रहा है
लेकर सर्वशक्तिमान का नाम
क्यों नहीं बैठ जाता
मेरे से बात कर
मैं हूं इस देह को धारण करने वाली आत्मा’
सुन कर मन गुर्राया और बोला
‘मैं तो इस देह का मालिक हूं
जब तक यह जिंदा है
इसके साथ रहूंगा
यह वही करेगी जो
इससे मैं कहूंगा
तू अपनी ही मत हांक
पहले अपनी हालत पर झांक
मैं तो देह के साथ ही
हुआ था पैदा
शरण तू लेने आयी थी
इस देह में
मूझे भटकता देख मत रो
ओ! भटकती आत्मा।’

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मनोरंजन और खेल का अर्थशास्त्र-हास्य व्यंग्य


क्रिकेट का अर्थशास्त्र कई लोगों की समझ में नहीं आया। एक समय क्रिकेट के दीवाने इस देश में बहुत थे पर उनको इस खेल से कुछ लेना था तो केवल दिल की खुशी-क्योंकि देश के प्रति जज्बात जुड़े होत थे। मगर अब दीवानगी जिन युवाओं को है वह केवल इसलिये है क्योंकि वह वैसा ही अमीर क्रिकेट खिलाड़ी बनना चाहते हैं जैसे कि वह पर्दे पर देखते हैं। बाकी जो लोग देख रहे हैं वह केवल टाईम पास की दृष्टि से देखते हैं इनमें वह भी लोग हैं जिनका इस खेल से मोहभंग हो गया था पर बीस ओवरीय विश्व कप के बाद वह फिर इस खेल की तरफ आकृष्ट हुए हैं। जहां तक क्रिकेट में देश प्रेम ढूंढने वाली बात है तो वह बेकार है।

पूरे विश्व में सभी जगह मंदी का प्रकोप है। सभी कंपनियां मंदी को रोना रो रही हैं पर क्रिकेट के प्रयोजन के लिये वह सब तैयार हैं। सच बात तो यह है कि क्रिकट अब केवल एक खेल नहीं हैं बल्कि एक व्यवसाय है। इसमें जो खिलाड़ी आ रहे हैं वह खेल प्रेम की वजह से कम कमाने की भावना से अधिक सक्रिय हैं। जब किसी नये खिलाड़ी को लोग देखते हैं तो कहते हैं कि‘ देखो आ गया नया माडल’।
कभी क्रिकेट की बात याद आती है तो अपनी दीवानगी अब अजीब लगती है। विश्व कप 2007 प्रारंभ होने से पूर्व जब भारतीय टीम वेस्टइंडीज रवाना हो रही थी तब ही उसके बुरे लक्षण दिखने लगे थे पर भारतीय प्रचार माध्यम है कि मान ही नहीं रहे थे। वह लगे थे बस इस बात पर कि भारतीय टीम जीतेगी और जरूर जीतेगी। उस समय भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाडि़यों की शारीरिक भाषा देखकर ही लग रहा था कि वह पस्त टीम के सदस्य है। मैंने उस समय कृतिदेव फोंट में एक लेख लिखा था ‘क्रिकेट में सब चलता है यार,’। यूनिकोड में होने के कारण उसे लोग पढ़ नहीं पाये और अब वह पता नहीं कहां है। बहरहाल उसमें इस खेल से जो मुझे निराशा हुई थी उसकी खुलकर चर्चा की थी। इस खेल पर जितना मैंने समय खर्च किया उतना अगर वह साहित्य लेखन में खर्च करता तो शायद बहुत बड़े उपन्यास लिख लिये होते। उस समय मुझे अपने ब्लाग लिखने के तरीके के बारे में अधिक मालुम नहीं था। इधर विश्व कप प्रतियोगिता शुरु होने वाली थी और मैं उस पर ही लिखता जा रहा था। शीर्षक तो मैंने ब्लागस्पाट पर लिखे पर अपनी अन्य सामग्री कृतिदेव में लिखी। ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर अंग्रेजी फोंट की जगह कृतिदेव फोंट सैट कर दिये जिससे मेरे पाठ मुझे तो पढ़ाई आते थे पर दूसरों को समझ में नहीं आते थे। यही हाल वर्डप्रेस के ब्लागों का भी था। उसे अपने UTF-8 में कृतिदेव में लिखकर प्रकाशित कर देता था। वह भी मेरे पढ़ाई में आते थे पर बाकी लोग उनको देखकर नाराज हो गये। उन्होंने मुझसे संवाद कायम किया पर मेरे जवाब उनकी समझ से परे थे।
इसी उठापटक के चलते भारतीय टीम हार गयी। मैंने सोचा था कि ब्लाग तैयार कर लूं फिर जमकर दूसरे दौर के क्रिकेट मैच देखूंगा पर वाह री किस्मत! वह पहले ही ढेर हो गयी। तब पहला बड़ा पाठ ‘मेमनों ने किया शेरों का शिकार‘ यह लेख मैंने लिखा’। नारद ने अपने यहां एक विशेष स्तंभ बनाया था जो क्रिकेट के पाठ अपने यहां रख लेता था। मेरे पाठ वहां पर देखकर अन्य ब्लाग लेखक मित्र भड़क गये। होते होते मैंने ब्लाग स्पाट का हिंदी टूल समझ लिया और पहला पाठ पढ़ने योग्य वह भी क्रिकेट पर लिखा। उससे एक पाठक खुश हो गया पर उसने एक बड़े खिलाड़ी के लिये अभद्र शब्द लिख दिया। मैंने वह अभद्र शब्द हटाने की वजह से अपना पूरा पाठ ही हटा लिया।

उसके बाद ब्लाग लिखने की राह पर चलते गये तो लगा कि अच्छा ही हुआ अब जबरदस्ती क्रिकेट में मन नहीं लगाना पड़ेगा। इससे इतना दुःख हुआ कि टीम की हार के बाद प्रचार माध्यमों की हालत देखकर अच्छा लगा। उन्होंने क्रिकेट खिलाडि़यों के विज्ञापन ही हटा लिये। यह क्रम करीब आठ महीने चला पर जैसे ही बीस ओवरीय विश्व कप भारत ने जीता तो प्रचार माध्यमों को संजीवनी मिल गयी। भारत के तीन कथित महान खिलाडि़यों को फिर से येनकेन प्रकरेण टीम में लाया गया जो बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता में शामिल नहीं हुए। उस प्रतियोगिता में भारत के जीतनं पर यह आशंका हो गयी थी कि एक बार प्रचार माध्यम फिर क्रिकेट को भुनाना चाहेंगें। वही हुआ भी। एक बेकार सी कविता‘बीस का नोट पचास में नहीं चलेगा’ इसी उद्देश्य से लिखी गयी थी कि अब उन तीन खिलाडि़यों को फिर से अवसर मिलेगा जिनको टीम से हटाने की बात चल रही है। हैरानी की बात यह है कि आज जब उस कविता को देखता हूं तो मुझे स्वयं ही बेसिरपैर की लगती है पर वह फिर जबरदस्त हिट लेती है। फिर मैं सोचता हूं कि अगर वह बेसिरपैर की है तो भला इस क्रिकेट नाम के खेल का कौनसा सिर पैर है। यह न तो खेल लगता है न कोई व्यापार। हर कोई इसका अपने हिसाब से उपयोग कर रहा है। कभी कभी कुछ महान हस्तियां क्रिकेट के विकास की बात करती है पर क्या इस खेल को भला किसी विकास या प्रचार की आवश्यकता है?
आज हालत यह है कि जिस दिन मुझे पता लग जाता है कि क्रिकेट मैच है उस दिन कोई भी टीवी समाचार चैनल खोलने की इच्छा नहीं होती सिवाय दिल्ली दूरदर्शन के। वजह मैच वाले दिन टीवी चैनल एक घंटे मेें से कम से कम तीस मिनट तो मैच पर लगाते ही हैं-बाकी के लिये लाफ्टर शो और फिल्म के समाचार उनके पास तो वेेस ही होते हैं। टीम जीत जाती है तो अगले दिन अखबार के मुखपृष्ठ देखते ही नीचे वाली खबरों में ध्यान स्वतः चला जाता है क्योंकि पता है कि ऊपर जो खबर है वह मेरे पढ़ने लायक नहीं है। वहां किसी बड़े खिलाड़ी का गेंद फैंकते या बल्लेबाजी करते हुए बड़ा फोटो होता है। एक दिवसीय मैंचों की विश्व रैकिंग में भारत नंबर एक पर पहुंच गया है इस पर सभी अखबारों ने प्रसन्नता जाहिर की है। ठीक है 2006 में शर्मनाक हार को भुलाने के लिये उनको कोई तो बहाना चाहिये।
दरअसल अनेक लोगों का मन तब ही इस खेल से विरक्त होने लगा था जब टीम के सदस्यों पर फिक्सिंग वगैरह की आरोप टीम के पुराने सदस्यों ने ही लगाये थे। कुछ खिलाडि़यों पर प्रतिबंध भी लगा। सच क्या है कोई नहीं जानता। क्या क्रिकेट जनता के पैसों से चल रहा है या विज्ञापन उसका आधार है? कोई नहीं जानता। कुछ लोगों को यह खेल अब अपने ऊपर जबरन थोपना लगता है क्योंकि उनको समाचार चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओं पर वह सब सामग्री देखनी पड़ती है जिसे वह देखना नहीं चाहते।
फिर भी वह देखते हैं। वह बिचारे करें भी क्या? सभी लोगों को समय काटने के लिये ब्लाग लिखना तो आता नहीं। हालांकि अनेक लोग यह सवाल तो करते ही हैं कि आखिर इस मंदी में भी यह क्रिकेट चल कैसे रहा है? लोगों के पास न तो चिंतन और मनन का समय है और न क्षमता कि इसके क्रिकेट के अर्थशास्त्र पर दृष्टिपात करें। इसलिये क्रिकेट है कि बस चल रहा है तो चल रहा है।
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अपने अपने धर्म से ऊबते लोग -आलेख चिंत्तन


धर्म और अध्यात्म दो प्रथक विषय हैं। धर्म ऐसे रीति रिवाजों, कर्मकांडों और पूजा पद्धतियों से मिलकर बनाया गया एक बृहद विषय है जो सांसरिक कार्यों के लिये किसी समूह विशेष से जोड़ता है और जिसे मन चाहे ढंग से बदला भी जा सकता है। उसमें अध्यात्मिक शांति ढूंढना एक निरर्थक प्रयास है।
पहले तो अध्यात्म का मतलब समझ लें। अध्यात्म वह निराकार स्वरूप है जो इस पंच तत्वों से बनी इस देह में स्थित है। मन, बुद्धि और अहंकार तीन ऐसी प्रकृतियां हैं जो इसमें स्वाभाविक रूप से पैदा होकर उसका संचालन करती हैं पर वह अध्यात्म का भाग कतई नहीं है। अध्यात्मिक ज्ञान जीवन के सत्य का ज्ञान है जिसे कभी बदला नहीं जा सकता। हां, यह सच है कि बुद्धि और मन की क्रियाओं से ही अध्यात्म को समझा जा सकता है पर उसके लिये यह आवश्यक है कि कोई ज्ञानी हमारा गुरू बन जाये और इस बात का आभास कराये। वह भी मिल सकता है पर उसके लिये हमें पहले संकल्प करना पड़ता है। अध्यात्म शिक्षा की सबसे बड़ी पुस्तक या कहें इकलौती केवल श्रीगीता ही है जिसमें अध्यात्म ज्ञान पूर्णतः शामिल है। सांसरिक विषयों का ज्ञान तो नहीं दिया गया पर उसके मूल तत्व-जिनको विज्ञान भी कहा जाता है-बताये गये हैं। सीधे कहें तो वह दुनियां की एकमात्र पुस्तक है जिसमें अध्यात्म ज्ञान और सांसरिक विज्ञान एक साथ बताया गया है। अध्यात्मिक ज्ञान का आशय है स्वयं को जानना। स्वयं को जान लिया तो संसार को जान लिया।
धर्म प्रसन्न कर सकता है तो निराश भी। उससे मन को शांति भी मिल सकती है और अशांति भी। कभी उसमें अगर आसक्ति हो सकती है तो विरक्ति भी हो सकती है। एक धर्म से विरक्ति हो तो दूसरे में आसक्ति की मनुष्य तलाश करता है मगर कुछ दिन बात वहां से भी उकता जाता है और कहीं उससे तनाव भी झेलना पड़ता है क्योंकि छोड़ने से पुराना समूह नाराज होता है और विरक्ति का भाव दिखाने से नया। ऐसे में आदमी अकेला पड़ने की वजह से तनाव को झेलता है।
आखिर यह सब क्यों लिखा जा रहा है। आज एक अंग्रेजी ब्लाग देखा जिसमें लेखक अपने धर्म से विरक्ति होकर तमाम तरह की निराशा व्यक्त कर रहा था। वह अपने सर्वशक्तिमान की दरबार में हमेशा जाता था। अपनी पवित्र पुस्तक पढ़ता था। उससे उसका मन कभी नहीं भरा। एक समय उसके अंदर खालीपन आता गया। उसने अपने धार्मिक कर्मकांड छोड़ दिये और अच्छा इंसान बनने के लिये उसने दूसरों की सहायता करने का काम शुरु किया। उसने दुनियां के सभी धर्म को एक मानते हुए उन पर तमाम तरह की निराशा अपने पाठ में व्यक्त की। दूसरे की सहायता कर वह अपने अंदर खुशी अनुभव करता है यह अच्छी बात है पर फिर भी कहीं न कहीं खालीपन दिखाई देता है। अध्यात्म ज्ञान के अभाव में यह भटकाव स्वाभाविक है।

लेखक उसकी बात का जवाब इसलिये नहीं दे पाया क्योंकि एक तो अंग्रेजी नहीं आती। दूसरे यह कि 119 टिप्पणियां प्राप्त उस पाठ में वह लेखक दूसरों की बात का जवाब भी दे रहा था। सीधे कहें तो जीवंत संपर्क बनाये हुए था। उन टिप्पणियों में भी लगभग ऐसे ही सवाल उठाये गये जैसे लेखक ने कही थी। तात्पर्य यह था कि लेखक का पाठ केवल उसके विचारों का ही नहीं वरन् दुनियां के अनेक लोगों की मानसिक हलचल का प्रतिबिंब था। ऐसे में एक अलग से विचार लिखना आवश्यक लगा। आजकल अनुवाद टूलों की उपलब्धता है और हो सकता है कि उस ब्लाग लेखक की दृष्टि से हमारा पाठ भी गुजर जाये और न भी गुजरे तो उस जैसे विचार वालें अन्य लोग इसे पढ़ तो सकते हैं।
इस ब्लाग/पत्रिका का लेखक आखिर क्या कहना चाहता था? यही कि भई, धर्म छोड़ने या पकड़ने की चीज नहीं है। भले ही हम दोनों का धर्म अलग है पर फिर भी यही सलाह दे रहा हूं कि, अपना धर्म छोड़ने की बात मत कहो। चाहे सर्वशक्तिमान की दरबार में जाते हो बंद मत करो। अच्छा काम करना शुरु किया है जारी रखो। बस सुबह उठकर थोड़ा प्राणायम करने के बाद ध्यान आदि करो। अपनी पवित्र पुस्तक पढ़ते हो पढ़ो पर अगर श्रीगीता का अंग्रेजी अनुवाद कहीं मिल जाये तो उसे पढ़ो। नहीं समझ में आये तो हमसे चर्चा करो। गुरू जैसे तो हम नहीं है पर चर्चा कर कुछ समझाने का प्रयास करेंगे। हम हिंदी में लिखेंगे तुम गूगल टूल से अंग्रेजी में अनुवाद कर पढ़ना।’
मगर यह सब नहीं लिखा क्योंकि हमें लगा कि कहीं उसने वार्तालाप प्रारंभ कर दिया तो बहुत कठिन होगा अंग्रेजी में जवाब देना। तब सोचा कि चलो इस विषय पर लिखना आवश्यक है। वजह यह थी कि 119 टिप्पणियों में भी दुनियां के सभी धर्मों को एक मानकर यह बात कही गयी थी। उसमें भारतीय धर्म को मानने वाले केवल एक आदमी की टिप्पणी थी जिसमें केवल वाह वाह की गयी थी। अन्य धर्मों के लोग उसकी बात से सहमत होते नजर आ रहे थे।

यह ब्लाग देखकर लगा कि लोग धर्म से इसलिये ऊब जाते हैं क्योंकि उनमें केवल सांसरिक कर्मकांडों की प्रेरणा से स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग बताया जाता है पर अध्यात्म शांति का कोई उपाय उनमें नहीं है। वैसे तो भारत में उत्पन्न धर्म भी कम उबाऊ नहीं है पर अध्यात्म चर्चा निरंतर होने के कारण लोगों को उसका पता नहीं है चलता फिर हमारे महापुरुषों-भगवान श्रीराम चंद्र जी, श्री कृष्ण जी, श्रीगुरुनानक देवजी ,संत कबीर,कविवर रहीम तथा अन्य-ने जीवन के रहस्यों को उजागर करने के साथ अध्यात्मिक ज्ञान का संदेश भी दिया और नित उनकी चर्चा के कारण लोग अपने मन को प्रसन्न रखने का प्रयास करते हैं। केवल धर्मकांडों में लिप्त रहने से उत्पन्न ऊब उनको अंदर तनाव अधिक पैदा नहीं कर पाती हालांकि नियमित अभ्यास के कारण उनको अनेक बार तनाव से बचने का उपाय नजर नहीं आता।
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यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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