शैतान ने दी साधू के आश्रम पर दस्तक
और कहा
‘महाराज क्या ध्यान लगाते हो
भगवान के दिए शरीर को क्यों सुखाते हो
लो लाया हूँ टीवी मजे से देखो
कभी गाने तो कभी नृत्य देखो
इस दुनिया को भगवान् ने बनाया
चलाता तो मैं हूँ
इस सच से भला मुहँ क्यों छुपाते हो’
साधू ने नही सुना
शैतान चला गया
पर कभी फ्रिज तो कभी एसी ले आया
साधू ने कभी उस पर अपना मन नहीं ललचाया
एक दिन शैतान लाया कंप्यूटर
और बोला
‘महाराज यह तो काम की चीज है
इसे ही रख लो
अपने ध्यान और योग का काम
इसमें ही दर्ज कर लो
लोगों के बहुत काम आयेगा
आपको कुछ देने की मेरी
इच्छा भी पूर्ण होगी
आपका परोपकार का भी
लक्ष्य पूरा हो जायेगा
मेरा विचार सत्य है
इसमें नहीं मेरी कोई माया’
साधू ने इनकार करते हुए कहा
‘मैं तुझे जानता हूँ
कल तू इन्टरनेट कनेक्शन ले आयेगा
और छद्म नाम की किसी सुन्दरी से
चैट करने को उकसायेगा
मैं जानता हूँ तेरी माया’
शैतान एकदम उनके पाँव में गिर गया और बोला
‘महाराज, वाकई आप ज्ञानी और
ध्यानी हो
मैं यही करने वाला था
सबसे बड़ा इन्टरनेट तो आपके पास है
मैं इसलिये आपको कभी नहीं जीत पाया’
साधू उसकी बात सुनकर केवल मुस्कराया
दीपक भारतदीप द्धारा
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भारत में भी शादी के बाद तलाक की घटनायें बढ़ रही हैं। पहले जब बुजुर्ग लोगों के श्रीमुख से पश्चिमी देशों के मुकाबले अपने देश की संस्कृति, संस्कार और स्वभाव के श्रेष्ठ होने की बात सुनते थे तो उनका तर्क यही होता था कि वहां तलाक ज्यादा होते हैं, वहां की लड़कियां बिना विवाह के मां बन जाती हैं, या फिर विदेशों में लोग माता पिता तथा गुरु की इज्जत नहीं करते थे। उस समय के बच्चे आज बड़े हो गये हैं पर उनके तर्क भी आज इसी तरह के रहते हैं मगर अब यह तर्क खोखले लगते हैं।
देश की सच्चाई से मुंह फेर कर तर्क करना इस देश के बौद्धिक और अबौद्धिक दोनों समाजों की आदत हो गयी है। दरअसल इन बुजुर्गों ने ही अपने बच्चों को पाश्चात्य सभ्यता को आधुनिकता का पर्याय मानकर उस अपनाने दिया। उस पर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से संवरते हुए अपनी औलाद के संस्कारों को फलते फूलते देखकर बहुत प्रसन्न हुए पर आज जब उन्हें पश्चिमी सभ्यता की वजह से अकेले पन का दंड भोगना पड़ता है तब भी वह इस सच से मुंह फेरकर अपने देश की कथित संस्कृति की रक्षा करने की बात करते हैं। सवाल यह है कि आखिर इस संस्कृति की रक्षा कौन करे? सभी का एक ही ध्येय है कि हमारे बच्चे अंग्रेजी में पढ़कर बड़े बने जिससे हमारी नाक समाज में ऊंची हो। उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह कि वह उनको गुलामी के लिये-यानि नौकरी करने के लिये-तैयार करते हैं और फिर रोते हैं कि उनके बच्चे पूछ नहीं रहे। अब यह सोचने की बात है कि जब बच्चा दूसरे की गुलामी में चला गया तो फिर उससे अपने पारिवारिक सांस्कृतिक विरासत से जुड़े रहने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। किसी का बच्चा अमेरिका में है तो किसी का जर्मनी में तो किसी का ब्रिटेन में। इसे लोग बड़ी शान से बताते हैं पर उनका अकेलापन उनके चेहरे से झलकने लगता है।
जब देश में तलाक की संख्या बढ़ रही है तब मुहूर्त देखकर शादी करने की बात भी अब शक के दायरे में आ जाती हैै। पहले के बुजुर्ग दावा करते थे कि हमारे यहां शादियां मुहूर्त देखकर की जाती हैं इसलिये इतने तलाक नहीं होते। मगर शादियां तो अब भी मुहूर्त देखकर होती हैं। फिर ऐसा क्या हो रहा है। दरअसल पहले स्त्रियां इतनी मुखर नहीं थी। अपने घर के कष्ट झेलकर खामोश रहती थीं। उस समय के बुजुर्ग पुरुष अंदर ही अंदर घुट रही नारी को खुश मानकर ही ऐसे दावे करते थे। अब हालात बदल गये। अंग्रेजी माया के चक्कर ने जहां कथित रूप से इस देश को सभ्य बनाया तो लोगो में मुखरता भी आयी। पुरुष पश्चिमी संस्कृति से ओतप्रोत स्त्रियों को ही अपनी पत्नी के रूप में पसंद करने लगे। सो पश्चिम की खुशियों के साथ उससे जुड़ी बीमारियां भी यहां आ गयीं। सच है यार, खुशियों के फूलों के साथ कांटे भी जुड़े रहते हैं। गुलाब की चाहत में पौद्या लगायेंगे तो उसमें कांटे भी आयेंगे। कमल लगाना है तो कीचड़ का जमाव करना ही होगा।
यह सब बकवास हमने योग का मतलब समझाने के लिये लिखी है। योग हर इंसान करता है-सहज योग और असहज योग। जब आदमी स्वयं योग करता है तब वह सहज योग की प्रवृत्ति में स्थित होता है पर जब बिना सोचे समझे चलता जाता है तब वह असहज योग को धारण किये होता है। लोग अपने हाल पर कभी सहज होने का प्रयास करते हैं पर अन्य असहजतायें उनके चेहरे पर छायी हुई होती है। खुश होने या दिखने के लिये आदमी जूझता रहता है पर उसके नसीब में नहीं होती। सहज योग का अर्थ है कि अपने ऊपर हमारा नियंत्रण होता है जबकि असहजयोग की स्थिति में स्थिति हम पर नियंत्रण करती है। गुलाब के साथ कांटे होने की सच्चाई को जब हम अपने सहज योग से देखते हैं तो तनाव कर होता है पर जब हम असहज होते हैं तो वह हमारा पीछा हमेशा करती है।
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पुराने समय के राजाओं महाराजाओं की आलोचना खूब होती है पर उनकी कुछ विशेषतायें अब याद आती हैं। इन राजाओं ने अपने रहने के लिये महल और किले बनवाये तो जनता के पीने के लिये जलाशय, मनोरंजन के लिये बड़े बड़े उद्यान तथा अन्य सुविधाओं क लिये इमारतों का निर्माण करवाया। जिस काम को हाथ में लिया उसे पूरा कराया। सत्ता के केंद्र बिन्दू राजा ही थे इसलिये जनता से कर वसूलने के अलावा साहूकारों से पैसा वसूलने के लिये उनको हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। विपत्ति का समय होता तो जमींदार और साहूकार उनको स्वयं धन देते थे और बदले में कोई काम करने के लिये कहने का साहस उनमें नहीं होता था क्योंकि वह जानते थे कि राजा सुरक्षित है तो राज्य भी सुरक्षित होगा जो कि उनके लिये फलदायी है। इसलिये भ्रष्टाचार नाम को भी नहीं होता अलबत्ता राजाओं और बादशाहों की विलासिता के चर्चे होते थे जिसका लाभ उठाकर कुछ दरबारी अपने लिये विलासिता की साधन जुटाते थे।
कहने को हमारे देश में लोकतंत्र है। वैसे तो हमारे देश के अधिकतर कर्णधार आम परिवारों से है इसलिये लोकतंत्र के सही अर्थों में काम करने का प्रयास करते हैं पर इसके बावजूद कुछ ऐसे हैं जिनका व्यवहार राजशाही जैसा होता है। इस पर लंबी बहस हो सकती है। मुख्य बात यह है कि पुराने राजा अपने निर्मित इमारत या पार्क के बनवाने के बाद उस पर अपना नाम लिखवाने का कोई प्रयास नहीं करते थे। इतिहास उनका नाम स्वयं दर्ज करता रहा है। वह पैसा भले ही अपने खजाने से देते थे जो जनता से एकत्रित होता था मगर राजाओं के लिये वह एक निजी संपत्ति की तरह होता था पर फिर भी निर्माण कार्य कराने पर निजत्व के प्रचार की वैसी आदत नहीं थी। जबकि आज देश में अनेक जगह पत्थरों पर नये राजाओं के नाम लिखे मिल जाते है। लोकतंत्र में धन जनता का होता है और उसे किसी भी तरह किसी की निजी संपत्ति नहीं माना जा सकता।
कई जगह तो ऐसे पत्थर भी मिल जायेंगे जिनके निर्माण कार्य अभी तक शुरु नहीं हुए होंगे जबकि उनको लगे बरसों हो गये। कई जगह ऐसे पत्थर भी मिल जायेंगे जिनके निर्माण कार्य हुए पर उनका अस्तित्व अब नहीं भी हो गये पर पत्थरों की चमक कायम है। ‘इस सड़क का निर्माण कार्य की शुरुआत अमुक के कर कमलों से हुई’, जबकि सड़क बनी और वह अब गड्ढों में भी तब्दील हो गयी, मगर पत्थर है कि चमक रहा है। इसका कारण यह है कि और कुछ हो न हो उद्घाटन के समय पत्थर बहुत मजबूत लगाया जाता है ताकि उद्घाटनकर्ता नाराज न हो। दरअसल अर्थशास्त्री एडमस्मिथ लोकतंत्र के बारे में कहता है कि उसमें राज्य क्लर्क चलाते हैं, ऐसे दृश्य देखकर उसकी बात याद आती है। पत्थर लगवाने वाले नये राजाओं में कुछ स्वयं प्रबंध कौशल में इतना माहिर नहीं होते नतीजा यह है कि उनके सीधे नियंत्रण में रहने वाले मातहत केवल तात्कालिक रूप से उनको प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं और इसी कारण पत्थर अच्छे लग जाते हैं। बाकी काम के बारे में तो जनता ही जानती है पर उसकी बात सुनता कौन है। यही कारण है कि अनेक बुजुर्ग कभी पुराने राजाओं तो कभी अंग्रेज शासन को याद करते हैं। ऐसे में नये राजाओ में जो अर्थशास्त्र, प्रबंध तथा अध्यात्म की विधा में पारंगत हैं वही कुशलता से काम करन जनता का भला कर पाते हैं। वैसे कहा जाता है कि भले लोग समाज सेवा में सक्रिय नहीं हो रहे इसलिये जिन लोगों को अपने अंदर सामर्थ्य अनुभव हो उनहें सार्वजनिक जीवन में सक्रिय होना चाहिये बिना इस बात की परवाह किये कि भले लोगों के लिये सफलता संदिग्ध है।
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हैरानी है इस बात पर कि
समलैंगिकों के मेल पर लोग
आजादी का जश्न मनाते हैं,
मगर किसी स्त्री पुरुष के मिलन पर
मचाते हैं शोर
उनके नामों की कर पहचान,
पूछतें हैं रिश्ते का नाम,
सभ्यता को बिखरता जताते हैं।
कहें दीपक बापू
आधुनिक सभ्यता के प्रवर्तक
पता नहीं कौन हैं,
सब इस पर मौन हैं,
जो समलैंगिकों में देखते हैं
जमाने का बदलाव,
बिना रिश्ते के स्त्री पुरुष के मिलन
पर आता है उनको ताव,
मालुम नहीं शायद उनको
रिश्ते तो बनाये हैं इंसानों ने,
पर नर मादा का मेल होगा
तय किया है प्रकृति के पैमानों ने,
फिर जवानी के जोश में हुए हादसों पर
चिल्लाते हुए लोग, क्यों बुढ़ाये जाते हैं।
———-
योगी कभी भोग नहीं करेंगे
किसने यह सिखाया है,
जो न जाने योग,
वही पाले बैठे हैं मन के रोग,
खुद चले न जो कभी एक कदम रास्ता
वही जमाने को दिखाया है।
जानते नहीं कि
भटक जाये योगी,
बन जाता है महाभोगी,
पकड़े जाते हैं जब ऐसे योगी
तब मचाते हैं वही लोग शोर
जिन्होंने शिष्य के रूप में अपना नाम लिखाया है।
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उसकी पुकार पर सर्वशक्तिमान प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा तो वह बोला
‘सर्वशक्तिमान आप तो सब जानते है। आप हमारी मनोकामना पूरी करो इसलिये आपको मानते हैं। मैं ऊंचा उठना चाहता हूं । जमीन पर कीड़ों की तरह बरसों से रैंगते हुए बोर हो गया हूं। मुझे दायें बायें ऊपर नीचे बंगला, गाड़ी, दौलत और शौहरत के पर लगा दो ताकि आकाश में उड़ सकूं। यह जीना भी क्या जीना है?’
सर्वशक्तिमान ने मुस्कराते हुए कहा-‘मैंने तो इस तरह के पर बनाये ही नहीं जिनका नाम बंगला,गाड़ी,दौलत और शौहरत हो। लगता है कि तुम इंसानों ने ही बनाये हैं इसलिये ऐसे पंख तो तुम इस धरती पर ही ढूंढो। जहां तक मेरी जानकारी है ऐसे पर नहीं बल्कि बोझ है जिनके पास होते हैं वह इंसान उनके बचाने की सोचकर और जिनके पास नहीं होते वह उसके ख्वाबों का बोझ ढोता हुआ जमीन पर वैसे ही रैंगता है जैसे कीड़े। जो जीव आकाश में उड़ते हैं वह कभी ऐसी कामना भी नहीं करते। उड़ने के लिये आजादी जरूरी है पर तुम तो बोझ मांग रहे हो और वह मैं तुम्हें नहीं दे सकता।’
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