आर्थिक विकास के साथ सामाजिक अपराध बढ़ना स्वाभाविक-हिन्दी संपादकीय (arthik vikas aur apradh-hindi editorial)


क्या गजब समय है। पहले लूट की खबरें अखबारों में पढ़ते थे। फिर टीवी चैनलों पर यह लुटने वाले लोगों के और कभी कभी लुटेरों के बयान सुनते और देखते थे। अब तो लूट के दृश्य बिल्कुल रिकार्डेड देखने को मिलने लगे हैं जो लूट के स्थान पर लगे कैमरों में समा जाते हैं-इनको सी.सी.डी. कैमरा भी कहा जाता है।
पहले जयपुर में और अब मुंबई के एक जौहरी के यहां ऐसे लूट की फिल्में देखने को मिलीं। इस संसार में अपराध कोई नया नहीं है और न ही खत्म हो सकता है पर व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह तो उठते ही है न! कहा जाता है कि
इधर उधर की बात न कर, बता यह काफिले क्यों लुटे,
राहजनों की राहजनी का नहीं, रहबर की रहबरी का सवाल है।
दूसरी बात यह है कि अपराध के तौर तरीके बदल रहे हैं। उससे अधिक बदल रहा है अपराध करने वाले वर्ग का स्वरूप! पहले जब हम छोटे थे तब चोरी, डकैती, तथा पारिवारिक मारपीट के अपराधों में उस वर्ग के लोगों के नाम पढ़ने और सुनने को मिलते थे जिनको अशिक्षित, निम्न वर्ग तथा श्रमिक वर्ग से संबंधित समझा जाता था। अब स्थिति उलट होती दिखती है-शिक्षित, उच्च,धनी वर्ग तथा बौद्धिक समुदाय से जुड़ें लोग अपराधों में लिप्त होते दिख रहे हैं और कथित रूप से परंपरागत निम्न वर्ग उससे दूर हो गया लगता है। कम से कम बरसों से समाचार पत्र पढ़ते हुए इस लेखक का तो यही अनुभव रहा है। ऐसे में देश के आर्थिक, सामाजिक तथा बौद्धिक विकास को लेकर भी तमाम तरह के प्रश्न उठते हैं।
वैसे एक बात दूसरी भी है कि विकास का अपराध से गहरा संबंध है-कम से कम विकसित पश्चिमी देशों के अपराधों का ग्राफ देखकर तो यही लगता है और भारत के सामान्य लोगों को भी यह सब देखने के लिये तैयार हो ना चाहिए। जब समाज अविकसित था तब लोग मजबूरी वश अपराध करते थे पर विकास होते हुए यह दिख रहा है कि मजबूरी की बजाय लोग एय्याशी तथा विलासिता की चाहत पूरी करने के लिये ऐसा कर रहे हैं। इधर ऐसे भी समाचार पढ़ने को मिले कि क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाले भी इस तरह के अपराध करने लगे हैं। क्रिकेट के सट्टे का अपराध तथा सामाजिक संकट में क्या भूमिका है इसका आंकलन किया जाना चाहिऐ और स्वैच्छिक संगठनों को इस पर सर्वे अवश्य करना चाहिये क्योंकि जिस तरह समाचार हम टीवी और अखबारों में पढ़ते हैं उससे लगता है कि कहंी न कहीं इसके दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं।
जिन लोगों को सी.सी.डी कैमरे पर लूटपाट करते हुए देखा वह कोई लाचार या मजबूर नहंी लग रहे थे। विकास के साथ अपराध आधुनिक रूप लेता है, ऐसा लगने लगा है। विकास होने के साथ समाज के एक वर्ग के पास ऐशोआराम की ढेर सारी चीजें हैं। दूसरी बात यह है कि धन का असमान वितरण हो रहा है। संक्षिप्त मार्ग से धनी बनने की चाहत अनेक युवकों को अपराध की तरफ ले जा रही है। फिर दूसरी बात यह है कि अपराधियों का महिमा मंडन संगठित प्रचार माध्यमों द्वारा ऐसा किये जा रहा है जैसे कि वह कोई शक्तिशाली जीव हैं। इधर फिल्मों में अपराधों से लड़ने वाले सामान्य नागरिकों को बुरा हश्र दिखाकर आदमी आदमी को डरपोक बना दिया है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि अनेक फिल्में तो अपराधियों के पैसे से उनका रास्ता साफ करने के लिये बनी। यही कारण है वास्तविकस दृश्यों इतने सारे लोगों के बीच अपराधी सभी को धमका रहा है पर कोई उसका प्रतिरोध करने की सोचता नहीं दिखता। अगर ऐसी में भीड़ पांच लोग ही आक्रामक हो जायें तो लुटेरों की हालत पस्त हो जाये पर ऐसा होता नहीं। इसका कारण यह है कि आधुनिक शिक्षा आदमी को कायर बनाती है और ऐसे में वह या तो सब कुछ होते हुुए देखता है या करता है। करता इसलिये है कि उसे पता है कि यहां कायरों की फौज खड़ी है और खामोश इसलिये रहता है कि कहीं इस तरह युद्ध करने की प्रेरणा ही लोगों को नहीं मिलती। फिर समाज का ढर्रा यह है कि वह बहादूरों के लिये सम्मानीय न रहा है। अनेक बार देश के सैनिकों की विधवाओं के बुरे हालों को समाचार आते रहते हैं तब मन विदीर्ण हो जाता है। दरअसल अपराध का संगठनीकरण हो गया है और कहीं न कहीं उसे आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य आधारों पर खड़े शिखर पुरुषों का संरक्षण मिल रहा है। अनेक शिखर पुरुष तो सफेदपोश बनकर घूम रहे हैं और उनके मातहत अपराध कर उनकी शरण में चले जाते हैं। ऐसे में सामान्य आदमी यह सोचकर चुप हो जाता है कि घटनास्थल अपराधी को तो यहां निपटा दें पर उसके बाद उसके आश्रयदाता कहीं बदला लेने की कार्यवाही न करें।
सामान्य आदमी की निष्क्रियता के अभाव में ऐसे अपराध रोकना संभव नहीं है क्योंकि सभी जगह आप पुलिस नहीं खड़ा कर सकते। ऐसे में समाज चेतना में लगे संगठनों को अब इस बात पर विचार करना चाहिए कि किस तरह सामान्य नागरिक की भागीदारी अपराधी को रोकने के लिये बढ़े। इसके लिये यह जरूरी है कि अपराध करना या उसको प्रश्रय देना एक जैसा माना जाना चाहिये। इसके साथ ही अपराध रोकने वाली संस्थाओं को इस बात के लिये प्रेरित करना चाहिये कि वह अपराधियों से लड़ने वालो नागरिकों को संरक्षण दें तभी विकास दर के साथ अपराधों की बढ़ती दर पर अंकुश लग सकेगा।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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