पक्षी और मनुष्य स्वभाव में समानता-रहीम दर्शन के आधार पर चिंत्तन


      कहा जाता है कि इस संसार में मनुष्य तथा अन्य जीवों में  भूख, भय, प्रेम तथा क्रोध जैसी प्रवृत्तियां एक समान रहती हैं।  यह अलग बात है कि अन्य जीवों के विपरीत मनुष्य मंें बुद्धि अधिक होती है इसलिये उसके दोषों भी अन्य से अधिक मात्रा में प्रकट होते हैं। जहां दूसरे जीव अपने पर आक्रमण होने पर प्रतिकार करते हैं वहीं मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये अकारण ही बैर भी बांधकर दूसरे पर हमला करता है। यह हमला वह अस्त्र शस्त्र या वाणी किसी प्रकार का भी हो सकता है।

      अन्य जीवों की तरह सामान्य मनुष्य भी स्वार्थी होता है। वह अपने ही स्वार्थ के अनुसार अन्य को अच्छा या बुरा कहता है। जिससे स्वार्थ पूरा होता है उसके लिये वह स्तुति गान प्रस्तुत करता है और जिससे कोई काम न निकलता हो उसकी निंदा में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता।  जिस तरह पक्षियों में हंस श्रेष्ठ होता है उसी तरह मनुष्य में ज्ञानी भी हंस कहलाता है। ज्ञानी मनुष्य यह सब जानते हैं पर इसकी चर्चा किसी से न कर अपना काम करते हैं।  संभव हो तो निष्प्रयोजन किसी पर दया कर ही देते हैं।  वह इसकी परवाह नहीं करते कि कोई उनकी प्रशंसा करे।

कविवर रहीम कहते हैं कि

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स्वारथ रचत रहीम सब, औगुनहूं जग मांहिं।

बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ बूवर छांहि।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-लोग अपने स्वार्थ के अनुसार ही वचन बोलते के साथ दूसरे में गुण दोष ढूंढते हैं। अनेक लोग रथ की टेढ़ी मेढ़ी छाया को अशुभ कहते हैं पर जब धूप हो तो उसकी छाया में बैठ जाते हैं।

सरवर के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम।

पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-सामान्य तौर से पक्षी एक जैसे ही होते हैं। उनकी किसी एक सरोवर से प्रीति नहीं होती जहां उनको जल मिल सकता है उसी जगह वह अपना स्थान बना लेते हैं।

      इस संसार में सभी लोग बुरे नहीं होते। सच तो यह है कि यह संसार उपभोग में रत मनुष्यों की वजह से नहीं वरन् त्यागियों की वजह से चल रहा है। कुछ लोग दूसरों की मदद करने को तत्पर रहते हैं। इतना ही नहीं वह किसी लाभ की आशा नहंी करते।  कुछ लोग मदद इस भाव से भी करते हैं कि उसके प्रतिफल में धन या सम्मान मिलेगा उन्हें तब  जरूर निराशा हाथ लगती है जब वह किसी का काम करते हैं और वह उनको न प्रतिफल देता है न सम्मान का भाव दर्शाता है।  इतना ही नहीं किसी एक व्यक्ति की दस बार सहायता करें पर एक बार न करने पर वह शत्रु बन जाता है। तब अकारण ही मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न होता है।

कहा जाता है कि नेकी कर दरिया में डाल।  भले ही प्रशंसा या प्रतिफल न मिले पर जब हमारे सामने कोई पीड़ित आये तो उसकी सहायता निष्काम भाव से यह इस विचार के साथ करना  चाहिये कि एक मनुष्य होने के नाते हमारा यह कर्तव्य है। किसी प्रकार की प्रशंसा या पैसे की आशा नहीं करना चाहिये। दूसरी बात यह कि कोई हमारी निंदा करता है तो उस पर ध्यान भी नहीं देना चाहिये क्योंकि जिसका हमसे कोई स्वार्थ पूरा नहीं होता उससे प्रशंसा की आशा करना ही व्यर्थ है। वैसे भी मनुष्य समाज में  अकारण किसी की निंदा तो कोई भी करता है प्रशंसा करने के लिये तैयार नहीं होता।  अनेक लोग तो अपने को श्रेष्ठ साबित करने के लिये दूसरे के कमतर होने का प्रचार करते हैं। इसलिये किसी के कहने पर ध्यान देने की बजाय अपने कर्म में लगे रहना चाहिये।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

 

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

 

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