हाथ जलने के डर से
दियासलाई नहीं जलायेंगे
तो फिर रौशनी भी नहीं पायेंगे।
चूहों की तरह अंधेरे में छिपने की
आदत हो गयी तो
हर जगह बिल्लियों के आंतक तले
अपना जीवन बितायेंगे।
कभी न कभी तो लड़ना होगा,
चूहे का वेश छोड़ इंसान बनना होगा
आग जलने दो अनाचार के खिलाफ
वह ताकतवार होंगे तो हम मर जायेंगे,
अगर कमजोर हुए तो छोड़ देंगे सांस
फैसला होना चाहिये
जीते तो अमर हो जायेंगे।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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रास्ते पर खींचता हुआ
सरियों से लदा ठेला,
पसीने से अंग अंग जिसका नहा रहा है,
कई जगह फटे हुए कपड़ों से
झांक रहा है उसका काला पड़ चुका बदन,
मगर उस मजदूर की तस्वीर
बाज़ार में बिकती नहीं है,
इसलिये प्रचार में दिखती नहीं है।
सफेद चमचमाता हुआ वस्त्र पहने,
वातानुकूलित वाहनों में चलते हुए,
गर्म हो या शीतल हवा भी
जिसका स्पर्श नहीं कर सकती,
काले शीशे की पीछे छिपा जिसका चेहरा
कोई आसानी से देख नहीं सकता
वही टीवी के पर्दे पर लहरा रहा है,
क्योंकि मुश्किल से दिखता है
इसलिये बिक रहा है महंगे भाव
सभी की नज़र ज़मी वहीं है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com
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दिल लगाने के ठिकाने
अब नहीं ढूंढते
क्योंकि दिल्लगी बाज़ार की शय बन गयी है,
मोहब्बत का पाखंड अब
खुश नहीं कर पाता
क्योंकि जहां बहता है जज़्बातों का दरिया
वह मतलब की बर्फ जम गयी है।
———
आसमान के उड़ने की चाहत में
इतनी ऊंची छलांग मत लगाओ
कि जमीन पर गिरने पर
शरीर को इतने घाव लग जायें
जिन्हें भर न पाओ।
दूर जाना अपने मकसद के लिये उतना ही
कि साबित अपने ठिकाने पर लौट आओ।
———
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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