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आर्थिक सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र में स्वेदशी सिद्धांत ही अपनाना बेहतर-हिन्दी चिंत्तन लेख


                              विश्व में अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं के दबाव में जब से कथित उदारीकरण का दौर प्रारंभ हुआ है तब से अनेक देशों पर जनकल्याण कार्यों से दूर हटने का दबाव बढ़ गया है। ग्रीस यानि यूनान यानि दुनियां की प्राचीन सभ्यताओं में भारत के समकक्ष देश ने अंतर्राष्ट्रीय दबाव के बावजूद अपनी अर्थव्यवस्था में बदलाव करने से इंकार कर दिया है।  वहां की जनता ने जनमत संग्रह में अपनी सरकार का समर्थन कर यह साबित किया कि वह विश्व से अलग रहना स्वीकार कर सकती है पर अपनी राज व्यवस्था को अस्थिर नहीं कर सकती।  इधर चीन की अर्थव्यवस्था को लेकर भी अनेक संदेह पैदा हो गये हैं क्योंकि वहां का शेयर बाज़ार ढह गया है।

                              हमारा हमेशा मानना रहा है कि भारतीय समाज, अर्थतंत्र तथा धार्मिक व्यवस्था कभी विदेशी सिद्धांतों पर नहीं चल सकती। भारत में राज्य व्यवस्था प्रजा हित के लिये मानी जाती है जबकि पश्चिमी विचारधारायें समाज को टुकड़ों में बांटकर उनका हित करने के सिद्धांत पर आधारित हैं।  अब वह समय आ गया है कि भारत के आर्थिक, रणनीति तथा धार्मिक क्षेत्र पर नियंत्रण करने वाले विद्वान स्वदेशी नीतियों पर विचार करना प्रारंभ कर दें। अनेक सामाजिक तथा इतिहास विशेषज्ञ यूनान और भारतीय सभ्यता को प्राचीन तथा वैज्ञानिक मानते हैं।  यह अलग बात है कि अर्थ, धर्म, कला तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में व्यवसायिक प्रवृत्ति के लोगों ने अनेक बदलाव कर दोनों सभ्याताओं को नष्ट करने का प्रयास किया है। इतना ही संयुक्त राष्ट्र संघ कहने के लिये ही निष्पक्ष है पर उसकी गतिविधियों में  अमेरिका का दबाव स्पष्टतः दिखता है जो विभिन्न देशों पर अनुचित दबाव के रूप में प्रकट होता है।  इतना ही नहीं एक धर्म विशेष के प्रति उसका रुझान भी देखा गया है।

                              देखा जाये तो धर्म का संबंध केवल आचरण से है पर पश्चिम के अनेक लोगों ने सर्वशक्तिमान का मध्यस्थ होने के नाम पर लोगों की बुद्धि हरण करने के लिये व्यवसायिक तथा राजनीतिक दोहन के लिये अव्यवहारिक सिद्धांतों का निर्माण किया। मूलतः राजसी प्रवृत्तियों पर आधार इन पश्चिमी विचारधाराओं में राजा, व्यापारी और अस्त्र शस्त्रधारी को ही समाज का नियंत्रण करने का अधिकार सौंपा गया। जबकि हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार हर मनुष्य को स्वविवेक से जीवन जीने का अधिक है।

हमारे देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है।  अध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली समुदाय यहीं है पर सबसे बड़ी कमी आत्मविश्वास की है जिसके कारण यह पाश्यात्य सभ्यता को पांव पसारने का अवसर मिला है। जिस तरह विश्व में उथल पुथल मची है उसे देखते हुए भारत में अब स्वदेशी आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक विचाराधारा की राह पर चलने का निर्णय लेना ही चाहिये।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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नालंदा से समझने का प्रयास करें-हिन्दी चिंत्तन लेख


                              नालंदा में एक विद्यालय के छात्रावास से लापता दो छात्रों के शव एक तालाब में मिलने के बाद उग्र भीड़ ने निदेशक को पीट पीट कर मार डाला। बाद में छात्रों की मृत्यु पाश्च जांच क्रिया से पता चला कि बच्चों की मौत पानी में डूबने से हो गयी थी। जबकि मृत छात्रों की मृत्यु से गुस्साये लोग यह संदेह कर रहे थे कि छात्रावास के अधिकारियों ने उनकी हत्या करवा कर तालाब में फैंका या फिंकवाया होगा। हमें दोनों पक्षों के मृतक के परिवारों से हमदर्दी है पर इस घटना पर जिस तरह प्रचार माध्यम सतही विश्लेषण कर रहे हैं उससे लगता नहीं कि कोई गहरे चिंत्तन से निष्कर्ष निकल रहा हो।

                              यह घटना समाज में आम जनमानस में राज्य के प्रति कमजोर होते सद्भाव का परिणाम है। इस सद्भाव के कम होने के कारणों का विश्लेषण करना ही होगा।  मनुष्य समाज में राज्य व्यवस्था का बना रहने अनिवार्य माना गया ताकि कमजोर पर शक्तिशाली, निर्धन पर धनिक और प्रभावशाली लोग अपने से कमतर पर अनाचार न कर सकें।  हम प्रचार माध्यमों पर आ रहे समाचारों और विश्लेषणों को देखें तो यह संदेश निरंतर आता रहा है कि प्राकृत्तिक रूप से इस सिद्धांत पर समाज चल रहा है जिसमें हर तालाब में बड़ी मछली छोटी को खा जाती है। मनुष्य में राज्य व्यवस्था का निर्माण इसी सिद्धांत के प्रतिकूल किया गया है।

                              अनेक प्रकार ऐसी घटनायें भी हुईं है कि जिसमें किसी जगह वाहन से टकराकर पदचालकों की मृत्यु हो जाने पर भीड़ आक्रोश में आकर वाहन जला देता है। कहीं वाहन चालक को भी मार देती।  इस तरह की खबरें तो रोज आती हैं। इन्हें सहज मान लेना ठीक नहीं है। आखिर हम जिस सामाजिक व्यवस्था में सांस ले रहे हैं कहीं न कहीं उसका आधार राज्य प्रबंध ही है।  भीड़तंत्र का समर्थन करना अपनी जड़ें खोदना है पर सवाल यह है कि आक्रोश में आकर लोग इसे भूल क्यों जाते हैं? क्या उनमें इस विश्वास की कमी हो गयी है कि गुनाहगार को सजा मिलना सरल नहीं है इसलिये वह समूह में यह काम कर डालें जिसकी अपेक्षा बाद में नहीं की जा सकती।

              दूसरी बात हमें देश के आर्थिक, सामाजिक तथा प्रतिष्ठत शिखर पुरुषों से भी कहना है कि उन्हें अब चिंता करना ही चाहिये। आमजन को केवल दोहन के लिये समझना उनकी भूल होगी।  उन्हें शिखर समाज में आर्थिक, सामाजिक तथा सद्भाव का वातावरण बनाये के लिये मिलते हैं।  अगर कहीं तनाव बढ़ा है तो उन्हें भी आत्ममंथन करना ही होगा।  समाज में विश्वास का संकट सभी वर्गों के लिये तनाव का कारण बनता है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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योग साधना करते समय दृढ़ संकल्प धारण करें-21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष हिन्दी चिंत्तन लेख


                                                              21 जून 2015 विश्व योग दिवस पर भारत में ओम के जाप तथा सूर्यनमस्कार को लेकर चल रही बहस थम चुकी है।  भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा से अलग मान्यता वाले समूहों के संगठनों ने अंततः योग के प्रति सद्भाव दिखाने का निर्णय लिया है। यह सद्भाव अलग से चर्चा का विषय है पर यह भी सच है कि  आज के लोकतांत्रिक युग में धार्मिक, सामाजिक तथा कला संस्थायें भले ही कितनी भी दम क्यों न भरें सत्ता प्रतिष्ठान के संकेतों की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।  जब पूरा विश्व बिना बहस के योग दिवस मनाने के लिये तैयार हुआ है तब भारतीय समाज का कोई एक या दो समुदाय अपनी अलग पहचान दिखाने की जिद्द नहीं कर सकता।  वैसे भारत का हर नागरिक अपने देश से प्रेम करता है पर उसे समुदायों में बांटने वाले शिखर पुरुष अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये प्रथक पहचाने दिखाने का पाखंड करते हैं।  आपस में ही तयशुदा वाद विवाद कर यह साबित करने का प्रयास ही करते हैं कि वह अपने समाज के खैरख्वाह है।

                                    मुख्य विषय यह है कि योग भारतीय समाज के दिनचर्या का अभिन्न भाग बन जाये इसके लिये अभी भी बहुत प्रयास की आवश्यकता है। चाहे भी जिस समुदाय के साथ साधक जुड़ा हो उसे यह समझ लेना चाहिये कि इस समय जो पूरे विश्व में वातावरण है उसमें सहज जीवन जीने के लिये योग साधना अत्यंत जरूरी है।  अन्य तरह के व्यायाम से दैहिक लाभ होते हैं पर योग साधना में प्राणों पर  ध्यान रखने से मानसिक तथा वैचारिक रूप से दृढ़ता आती है जो वर्तमान समय में सबसे अधिक जरूरी है। योग साधना का पूर्ण लाभ उसके प्रति समर्पण भाव होने पर ही मिलता है। ‘मुझे प्रतिदिन योग साधना करना ही है’ यह संकल्प धारण करने के बाद इस विषय पर प्रतिकूल तर्कों पर कभी ध्यान नहीं देना चाहिये।  प्रचार माध्यमों में विश्व योग दिवस पर बहस को निष्पक्ष दिखाने के नाम पर अनेक आलोचकों को भी बुलाया गया। एक तरह से योग को राजसी विषय बनाकर उसका व्यवसायिक उपयोग हुआ।

हमारा मानना है कि योग साधना की परंपरा भारतीय समाज से संरक्षित होने पर ही निरंतर जारी रह सकती है। हालांकि यह बरसों से चल रही है पर बीच बीच में इसका प्रवाह थम जाता है।  आमतौर से यह माना जाता था कि योग तो केवल सन्यासियों के लिये है। भारत के अनेक योगियों ने निरंतर इसे जनमानस में स्थापित करने के लिये तप किया जिससे  कि आज योग विषय  प्रकाश की तरह पूरे विश्व के अंधेरे से लड़ रहा है।  एक बात दूसरी भी कही जाती थी कि योग केवल सिद्ध पुरुष ही कर सकते हैं या हर योग चमत्कारी सिद्ध होता है।  यह दोनों ही भ्रम है। योग साधना कोई भी सामान्य मनुष्य कर सकता है पर उसका दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक लाभ कर्ता को ही होता है वह दूसरे को अपना फल भेंट नहीं कर सकता।  इसलिये इसे करने पर स्वयं को सिद्ध भी नहीं समझना चाहिये। एक साधक की तरह हमेशा जुड़े रहकर ही योग साधना का आनंद उठा सकता है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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योग साधकों के लिये श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन जरूरी-21 जून विश्व योग दिवस पर विशेष लेख


     21 जून को पूरे विश्व में योग दिवस मनाया जा रहा है। भारतीय योग साधना का आधार  ग्रंथ पंतजलि साहित्य हैं। इसमें योग के आठ भागों का संक्षिप्त पर पूर्ण वर्णन है। मूलतः पतंजलि योग सूत्र एकांत में साधना के लिये ही हैं।  एक योगी प्रातः धर्मभाव से साधना करने के बाद अर्थ, काम तथा मोक्ष के समय में क्या करे इसके लिये इसमें कोई वर्णन नहीं है। यही कारण है कि योग विशारद सहज योग की प्रेरक श्रीमद्भागवत् गीता का योग विद्या के लिये उल्लेख तथा प्रचार  करते हैं। इतना ही नहीं अनेक विद्वान तो योग साधना के विषय में प्रथम स्थान श्रीमद्भागवत गीता तथा दूसरा पतंजलि योग साहित्य को देते हैं। एक योग विशारद के लिये दोनों का अध्ययन ही उन्हें पूर्णता प्रदान करता है।

   हम यह भी कह सकते हैं कि पतंजलि योग की प्रेरणा से सन्यासी ही साधना करेंगे या फिर साधक सन्यासी हो जायेगा क्योंकि उसमें सांसरिक विषयों के प्रति योग भाव से सक्रिय रहने की प्रेरणा  का अभाव प्रतीत होता  है। मनुष्य समाज में अधिकतर लोग सन्यास शब्द से परे रहना चाहते हैं इसलिये ही शायद पतंजलि योग जनमानस में स्थान नहीं बना पाया।  श्रीमद्भागवत् गीता में निष्काम कर्म, निष्प्रयोजन दया तथा इंद्रियों के विषयों से संबंध के जो सिद्धांत प्रतिपादित किये गये उससे सहज योग का जो प्रारूप सामने आया, उसने ही भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को पूर्ण बना दिया। चारों वेदों का सार भी इसी श्रीगीता में समाया हुआ है इसलिये यह कहा जा सकता है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का सबसे श्रेष्ठ ग्रंथ श्रीमद्भागवत् गीता ही है। अपने अभ्यास से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पतंजलि योग साहित्य के साथ श्रीमद्भागवत् गीता का अध्ययन किया जाना अत्यंत रुचिकर तथा प्रेरणादायी होता है। पतंजलि योग के आधार पर अभ्यास से देह, मन और बुद्धि पवित्र होती है तो  श्रीमद्भागवत गीता की प्रेरणा से हमारी इंद्रियां ज्ञानयुक्त होने पर विषयों से अत्यंत सावधानी से संबंध बनाती हैं। इससे जीवन सहज होता है। वैसे तो देखा जाये योग सभी कर रहे हैं पर ज्ञानी सहज तो अज्ञानी असहज योग में लिप्त हो जाते हैं। भोजन सभी करते हैं पर ज्ञानी सुपाच्य भोजन अपनी देह संचालन की दृष्टि से करते हैं पर अज्ञानी जीभ के स्वाद अभक्ष्य पदार्थों उदरस्थ कर विकार अंदर लाते हैं।  ज्ञानी सोते समय प्रतिदिन मोक्ष प्राप्त करते हैं जबकि अज्ञानी मोक्ष के लिये पूरा जीवन भटकते हैं। बोलते ज्ञानी भी हैं पर उनके शब्द अंदर और बाहर सुखद वातावरण बनाते हैं पर अज्ञानी न केवल अंदर कलुषित सोच वाले होते हैं, बाहर भी वही फैलाते हैं। जिस तरह जिसका कर्म और व्यवहार है वैसा ही फल वह पाता है-इसकी प्रेरणा श्रीमद्भागवत गीता से मिलती है।

    भारतीय योग साधना के वैश्विक प्रचार में हमें पाश्चात्य प्रभाव वाली विचाराधारा मानने वालों के  दबाव में आकर श्रीमद्भागवत गीता उल्लेख करना बंद नहीं करना चाहिये। हम देख रहे हैं कि ओम शब्द तथा सूर्यनमस्कार के प्रति भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा न मानने वाले लोग विरोधी स्वर उठा रहे हैं तो योग प्रचारक भी उनके दबाव में आकर ओम सूर्यनमकस्कार तथा श्रीगीता से प्रथक होकर साधना का प्रचार कर रहे हें। हमारे विचार से यह अजीब किस्म का है। बहरहाल अभी तो योग विद्या का किसी भी तरह वैश्विक पटल पर स्थापित करने का प्रयास जारी रखना चाहिये। अंततः आगे पूरे विश्व को समझाने में भारतीय योग विशारद सफल हो जायेंगे कि ओम शब्द, सूर्यनमस्कार तथा श्रीगीता योग साधना का अभिन्न हिस्सा है।

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क्ति और शक्ति-कविता

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जहां भक्ति नहीं है

वहां शक्ति नहीं है

क्षीण हैं जहां चिंत्तन

आसक्ति वहीं है।

कहें दीपक बापू योगाभ्यास से

मूर्तिमान मनुष्य का विवेक

होता चलायमान

रक्त का कण कण

करता मधुर गान

शब्द होता सुंदर जहां

भक्ति और शक्ति वहीं है

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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सपनों का बाज़ार-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


शांति के लिये

कबूतर उड़ाते

विकास के लिये

सपनों का बाज़ार लगाते हैं।

सोते हैं आरामदायक बिस्तर पर

बेघरों के लिये चिंत्तन करते

अपने महल दर्शनीय बनाते है।

कहें दीपक बापू जनहित पर

समाज सेवकों की सेना

चली आ रही है,

प्रजा शब्दों से ही

छली जा रही है,

सभी अपने इष्ट का रूप

बताते सर्वश्रेठ

नाम लेकर नामा कमाते हैं।

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विश्वास कोई रस्म नहीं है

जिसे निभाया जाये।

सहायता कोई गीत नहीं

करने के बाद जिसे गाया जाये।

आशा कोई आकाश में

लटका फल नहीं है

जो गिर कर हाथ आ जाये।

कहें दीपक बापू अहंकार पर

सवारी करते हैं लोग

पांव जमीन पर नहीं होते,

वीरता का करते दिखावा

दिल में डर रहे होते,

आत्म प्रचार में लगे बकवादी

कोई नहीं ऐसा जो अपने

कौशल का प्रमाण साथ लाये।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

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