poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हस्ती अंकुशमात्रेण वाजी हस्तेन ताडयते।
श्रृङगी लगुडहस्तेन खङगहस्तेन दुर्जनः।।
हिंदी में भावार्थ-जिस तरह अंकुश से हाथी तथा चाबुक से घोड़ा, बैल तथा अन्य पशु नियंत्रित किये जाते हैं वैसे ही दुष्ट से निपटने के लिये खड्ग हाथ में लेना ही पड़ता है।
तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा धनगर्जिते।
साधवः परसम्पतिौ खलः परविपत्तिषुः।।
हिंदी में भावार्थ-विद्वान अच्छा भोजन, मेघों की गर्जना से मोर तथा साधु लोग दूसरों की संपत्ति देखकर प्रसन्न होते हैं वैसे ही दुष्ट लोग दूसरों को संकट में फंसा देखकर हंसते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में भांति भांति प्रकार के लोग हैं। जो ज्ञानी और विद्वान है उनको रहने, खाने,पीने और पहनने के लिये अच्छी सुविधा मिल जाये तो वह संतुष्ट हो जाते हैं। जो सच्चे साधु और सज्जन हैं वह दूसरों की भौतिक उपलब्धियों देखकर प्रसन्न होते हैं क्योंकि उनकी मान्यता होती है कि आसपास के लोग प्रसन्न होंगे तो उनके स्वयं के पास अच्छा वातावरण रहेगा और वह शांति से रह सकेंगे। इसके विपरीत कुछ लोग दुष्ट प्रवृत्ति के भी होते हैं जो स्वयं तो विपत्ति में पड़े रहते हैं पर उनका खेद तब कम हो जाता है जब कोई दूसरा भी विपत्ति मेें पड़ता है। ऐसे लोग अपने दुःख से अधिक दूसरे के सुख से अधिक दुःखी होती हैं। इसके अलावा अपने सुःख से अधिक दूसरे का दुःख उनको अधिक प्रसन्न करता है।
वैसे तो जीवन में हिंसा कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि फिर प्रतिहिंसा का सामना करने पर स्वयं को भी कष्ट उठाना पड़ा सकता है, पर इस संसार में कुछ ऐसे दुष्ट लोग भी हैं जिनको कितना भी समझाया जाये वह दैहिक आक्रमण से बाज नहीं आते। उनसे शांति और अहिंसा की अपील निरर्थक साबित होती है। ऐसे लोगों से मुकाबला करने के लिये अपने अस्त्रों शस्त्रों तथा अन्य साधनों उपयोग करने में कोई झिझक नहीं करना चाहिये। ऐसे लोगों के लिये धर्म और ज्ञान एक निरर्थक वस्तु हैं। देहाभिमान से ग्रस्त ऐसे लोगों के विरुद्ध लड़ना पड़े तो संकोच त्याग देना चाहिए।
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1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
chankya niti, hindi article, sahitya, sandesh, आध्यात्म, ज्ञान, धर्म, समाज, हिंदी साहित्य
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3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
अर्थसिद्धि परामिच्छन् धर्ममेवादितश्चरेत्।
न हि धर्मदपैत्यर्थः स्वर्गलोकादिवामृतम्।।
हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद विदुर कहते हैं कि जिस मनुष्य के हृदय में अर्थ प्राप्त करने की इच्छा है उसे धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए। जिस तरह स्वर्ग से अमृत दूर नहीं होता उसी प्रकार धर्म से अर्थ को अलग नहीं किया जा सकता।
यस्यात्मा विरतः पापाद कल्याणे च निवेशितः।
तेन स्र्वमिदं बुद्धम् प्रकृतिर्विकृतिश्चय वा।।
हिंदी में भावार्थ-नीति विशारद विदुर कहते हैं कि जिसकी बुद्धि पाप से परे होकर कल्याण के मार्ग पर आ जाये वह इस संसार में हर वस्तु कि प्रकृतियों और विकृतियों को अच्छी तरह से जान लेता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह कहना गलत है धर्म के मार्ग पर अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। धर्म-ईमानदारी, सहजता, परमार्थ, और अपने कर्तव्य से प्रतिबद्धता-का परिणाम ही अर्थ की प्राप्ति ही है। यह अलग बात है कि जल्दी अमीर बनने या आवश्यकता से अधिक धनार्जन के के लिये लोग अपने जीवन में आक्रामक और बेईमानी की प्रवृत्ति अपना लेते हैं। इस संसार में ऐसे लोग भी है जो बेईमानी से धन कमाकर कथित रूप से प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं। ऐसे लोगों के व्यक्तित्व का आकर्षण समाज के युवाओं को आकर्षित करता है पर उनको यह समझ लेना चाहिये कि बेईमान और भ्रष्ट लोगों को धन, प्रतिष्ठा और बाहुबल की शक्ति की वजह से सामने कोई कुछ नहीं कहता पर पीठ पीछे सभी लोग उनके प्रति घृणा का भाव दिखाने से नहीं चूकते। फिर भ्रष्ट और बेईमान लोग का धन जिस तरह बर्बाद होता है उसे भी देखना चाहिये।
नीति विशारद विदुर जी के अनुसार जिस व्यक्ति ने ज्ञान प्राप्त कर लिया वह इस संसार में व्यक्तियों, वस्तुओं और स्थितियों की प्रकृतियों और विकृतियों को अच्छी तरह समझ जाते हैं। इस ज्ञान से वह विकृतियेां से परे रहने में सफल रहते हैं और प्रकृतियां उनका स्वतः ही मार्ग प्रशस्त करती हैं।
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1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
1.देश, काल, विद्या एवं अन्यास में लिप्त अपराधियों की शक्ति को देखते हुए राज्य को उन्हें उचित दण्ड देना चाहिए। सच तो यह है कि राज्य का दण्ड ही राष्ट्र में अनुशासन बनाए रखने में सहायक तथा सभी वर्गों के धर्म-पालन कि सुविधाओं की व्यवस्था करने वाला मध्यस्थ होता है।
2.सारी प्रजा के रक्षा और उस पर शासन दण्ड ही करता है, सबके निद्रा में चले जाने पर दण्ड ही जाग्रत रहता है। भली-भांति विचार कर दिए गए दण्ड के उपयोग से प्रजा प्रसन्न होती है। इसके विपरीत बिना विचार कर दिए गए अनुचित दण्ड से राज्य की प्रतिष्ठा तथा यश का नाश हो जाता है।
3.यदि अपराधियों को सजा देने में राज्य सदैव सावधानी से काम नहीं लेता, तो शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर लोंगों को उसी प्रकार नष्ट कर देते हैं, जैसे बड़ी मछ्ली छोटी मछ्ली को खा जाती है। संसार के सभी स्थावर-जंगम जीव राजा के दण्ड के भय से अपने-अपने कर्तव्य का पालने करते और अपने-अपने भोग को भोगने में समर्थ होते हैं ।
*अक्सर एक बात कही जाती है की हमारे देश को अंग्रेजों ने सभ्यता से रहना सिखाया और इस समय जो हम अपने देश को सुद्दढ और विशाल राष्ट्र के रूप में देख रहे हैं तो यह उनकी देन है. पर हम अपने प्राचीन मनीषियों की सोच को देखे तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि वह राज्य, राजनीति और प्रशासनिक कार्यप्रणाली से अच्छी तरह वाकिफ थे, मनु स्मृति में राजकाज से संबंधित विषय सामग्री होना इस बात का प्रमाण है. एक व्यसनी राजा और उसके सहायक राष्ट्र को तबाह कर देते हैं. अगर राजदंड प्रभावी नहीं या उसमें पक्षपात होता है तो जनता का विश्वास उसमें से उठ जाता है. यह बात मनु स्मृति में कही गयी है.