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अफगानिस्तान के राष्ट्रपति करजई ने गद्दाफी की तरह अमेरिका से वैर बांधा-हिन्दी लेख (afaganistan,america,pakistan and hamid karjai-hindi lekh)


          गद्दाफी की मौत ने अमेरिका के मित्र राजनयिको को हक्का बक्का कर दिया है। भले ही गद्दाफी वर्तमान समय में अमेरिका का मित्र न रहा हो पर जिस तरह अपने अभियान के माध्यम से राजशाही को समाप्त कर लीबिया के राष्ट्रपति पद पर उसका आगमन हुआ उससे यह साफ लगता है कि विश्व में अपनी लोकतंत्र प्रतिबद्धताओं को दिखाने के लिये उसे पश्चिमी राष्ट्रों ने समर्थन दिया था। ऐसा लगता है कि फ्रांस के ज्यादा वह करीब था यही कारण संक्रमणकाल के दौरान उसके फ्रांस जाने की संभावनाऐं सामने आती थी। संभवत अपनी अकड़ और अति आत्मविश्वास के चलते उसने ऐसा नहीं किया । ऐसा लगता है कि उसका बहुत सारा धन इन पश्चिमी देशों रहा होगा जो अब उनको पच गया है। विश्व की मंदी का सामना कर रहे पश्चिमी देश अब इसी तरह धन का जुगाड़ करेंगे और जिन लोगों ने अपना धन उनके यहां रखा है उनके सामने अब संशय उपस्थित हो गया होगा। प्रत्यक्ष विश्व में कोई अधिक प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दे रही पर इतना तय है कि अमेरिका को लेकर उसके मित्र राजनेताओं के हृदय में अनेक संशय चल रहे होंगे। मूल में वह धन है जो उन्होंने वहां की बैंकों और पूंजीपतियों को दिया है। हम पर्दे पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक दृश्य देखते हैं पर उसके पीछे के खेल पहले तो दिखाई नहीं देते और जब उनका पता लगता है तो उनकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाता है। इन सबके बीच एक बात तय हो गयी है कि अमेरिका से वैर करने वाला कोई राजनयिक अपने देश में आराम से नहंी बैठ सकता। ऐसे में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने अमेरिका और भारत से युद्ध होने पर पाकिस्तान का साथ देने की बात कहकर गद्दाफी के मार्ग पर कदम बढ़ा दिया है। उसका यह कदम इस बात का प्रमाण है कि उसे राजनीतिक ज्ञान नहीं है। वह घबड़ाया हुआ है और ऐसा अफलातूनी बातें कह रहा है जिसके दुष्परिणाम कभी भी उसके सामने आ सकते हैं।
        यह हैरानी की बात है कि जिन देशों के सहयोग से वह इस पद पर बैठा है उन्हें ही अपने शत्रुओ में गिन रहा है। इसका कारण शायद यह है कि अमेरिकी सेना अगले एक दो साल में वहां से हटने वाली है और करजई का वहां कोई जनाधार नहीं है। जब तक अमेरिकी सेना वहां है तब तक ही उसका राष्ट्रपति पद बरकरार है, उसके बाद वह भी नजीबुल्लाह की तरह फांसी  पर लटकाया जा सकता है। उसने किस सनक में आकर पाकिस्तान को मित्र बना लिया है यह तो पता नहीं पर इतना तय है कि वहां  की खुफिया संस्था आईएसआई अपने पुराने बदले निकाले बिना उसे छोड़ेगी नहीं। अगर वह इस तरह का बयान नहीं देता तो यकीनन अमेरिका नहीं तो कम से कम भारत उसकी चिंता अवश्य करता। भारत के रणनीतिकार पश्चिमी राष्ट्रों से अपने संपर्क के सहारे उसे राष्ट्रपति पद से हटने के बाद किसी दूसरे देश में पहुंचवा सकते थे पर लगता है कि पद के मोह ने उसे अंधा कर दिया है। अंततः यह उसके लिये घातक होना है।
         अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हटेगी पर वैकल्पिक व्यवस्था किये बिना उसकी वापसी होगी ऐसी संभावना नहीं है। इस समय अमेरिका तालिबानियों से बात कर रहा है। इस बातचीत से तालिबानी क्या पायेंगे यह पता नहीं पर अमेरिका धीरे धीरे उसमें से लोग तोड़कर नये तालिबानी बनाकर अपनी चरण पादुकाओं के रूप में अपने लोग स्थापित करने करने के साथ ही किसी न किसी रूप में सैन्य उपस्थिति बनाये रखेगा। अमेरिका दुश्मनों को छोड़ता नहीं है और जब तक स्वार्थ हैं मित्रों को भी नहीं तोड़ता। लगता है कि अमेरिका हामिद करजई का खेल समझ चुका है और उसके दोगलेपन से नाराज हो गया है। जिस पाकिस्तान से वह जुड़ रहा है उसका अपने ही तीन प्रदेशों में शासन नाम मात्र का है और वहां के बाशिंदे अपने ही देश से नफरत करते हैं। फिर जो क्षेत्र अफगानिस्तान से लगे हैं वहां के नागरिक तो अपने को राजनीतिक रूप से पंजाब का गुलाम समझते हैं। अगर पाकिस्तान को निपटाना अमेरिका के हित में रहा और उसने हमला किया तो वहीं के बाशिंदे अमेरिका के साथ हो लेंगे भले ही उनका जातीय समीकरण हामिद करजई से जमता हो। अमेरिका उसकी गीदड़ भभकी से डरेगा यह तो नहीं लगता पर भारत की खामोशी भी उसके लिये खतरनाक है। भारत ने संक्रमण काल में उसकी सहायता की थी। इस धमकी के बाद भारतीय जनमानस की नाखुशी को देखते हुए यहां के रणनीतिकारों के लिये उसे जारी रखना कठिन होगा। ऐसे में अफगानिस्तान में आर्थिक रूप से पैदा होने वाला संकट तथा उसके बाद वहां पैदा होने वाला विद्रोह करजाई को ले डूबेगा। वैसे यह भी लगता है कि पहले ही भारत समर्थक पूर्व राष्ट्राध्यक्षों की जिस तरह अफगानिस्तान में हत्या हुई है उसके चलते भी करजई ने यह बयान दिया हो। खासतौर से नजीबुल्लाह को फांसी देने के बाद भारत की रणनीतिक क्षमताओं पर अफगानिस्तान में संदेह पैदा हुआ है। इसका कारण शायद यह भी है कि भारत को वहां के राजनीतिक शिखर पुरुष केवल आर्थिक दान दाता के रूप में एक सीमित सहयोग देने वाला देश मानते हैं। सामरिक महत्व से भारत उनके लिये महत्वहीन है। इसके लिये यह जरूरी है कि एक बार भारतीय सेना वहां जाये। भारत को अगर सामरिक रूप से शक्तिशाली होना है तो उसे अपने सैन्य अड्डे अमेरिका की तरह दूसरे देशों में स्थापित करना चाहिए। खासतौर से मित्र पड़ौसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को सामरिक उपस्थिति के रूप में विश्वास दिलाना चाहिए कि उनकी रक्षा के लिये हम तत्पर हैं। यह मान लेना कि सेना की उपस्थिति रहना सम्राज्यवाद का विस्तार है गलत होगा। हमारे यहां कुछ विद्वान लोग इराक और अफगानिस्तान में अमेरिकी सुना को उपनिवेशवाद मानते हैं पर वह यह नहीं जानते कि अनेक छोटे राष्ट्र अर्थाभाव और कुप्रबंधन के कारण बाहर के ही नहीं वरन् आंतरिक खतरों से भी निपटने का सामर्थ्य नहीं रखते। वहां के राष्ट्राध्यक्षों को विदेशों पर निर्भर होना पड़ता है। ऐसे में वह विदेशी सहायक के मित्र बन जाते हैं। भारत का विश्व में कहीं कोई निकटस्थ मित्र केवल इसलिये नहीं है क्योंकि यहां की नीति ऐसी है जिसमें सैन्य उपस्थिति सम्राज्य का विस्तार माना जाता है। सच बात तो यह है आर्थिक रूप से शक्तिशाली होने का कोई मतलब नहीं है बल्कि सामरिक रूप से भी यह दिखाना आवश्यक है कि हम दूसरे की मदद कर सकते हैं तभी शायद हमारे लिये खतरे कम होंगे वरना तो हामिद करजई जैसे लोग चाहे जब साथ छोड़कर नंगे भूखे पाकिस्तानी शासकों के कदमों में जाकर बैठेंगे। यह बात अलग बात है कि ऐसे लोग अपना बुरा हश्र स्वयं तय करते हैं।

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लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

देशप्रेम की आड़ में साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का मनोरंजन-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन


प्रचार माध्यम लगातर बता रहे हैं कि मोहाली में भारत पाकिस्तान के बीच क्रिकेट का महामुकाबला हो रहा है। कुछ लोग तो उसे फायनल तक कह रहे हैं। बाज़ार के सौदागर और उनके अनुचर प्रचार माध्यम इस मुकाबले के नकदीकरण के लिये जीजान से जुट गये हैं। दरअसल यह क्रिकेट पीसीबी  (pakistan cricket board) और बीसीसीआई (bhartiya cricket control  board) नामक दो क्लबों की टीमों का मैच है। पीसीबी पाकिस्तान तथा बीसीसीआई भारत की स्वयंभू क्रिकेट नियंत्रक संस्थाऐं जिनको अंतर्राष्ट्रीय क्र्रिकेट परिषद नामक एक अन्य संस्था लंदन से नियंत्रित करती है। यह सभी संस्थायें किसी सरकार ने बनाई जिनको देश का प्रतिनिधित्व करने वाला माना जाता है। यह सरकारें इन संस्थाओं पर अपना कोई विचार लाद नहीं सकती क्योंकि यह अंतर्राष्ट्रीय खेल नियमों पर चलती हैं।
कहते हैं कि ‘झूठ के पांव नहीं होते हैं’। साथ ही यह भी कहा जाता है कि एक ही झूठ सौ बार बोला जाये तो वह सच लगने लगता है। पुराने कथनों कें ऐसे विरोधाभास ही उनके सतत चर्चा का कारण बनते हैं। जहां जैसा देखो पुराना कथन दोहरा दो। अब हम कहते हैं कि एक झूठ हजार बार बोलो तो वह महान सत्य और लाख बार बोलो तो शाश्वत सत्य हो जाता है। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों का समाज पर ऐसा जबरदस्त प्रभाव है कि उनकी बात की काट करना लगभग असंभव है और उनके फैलाये जा रहे भ्रम देखकर तो यही लगता है कि पुरानी ढेर सारी कहानियां भी शायद ऐसे ही कल्पना के आधार पर लिखी गयीं और उनके सतत प्रचार ने उनको ऐसा बना दिया कि लोग उसमें वर्णित नायकों तथा नायिकाओं को काल्पनिक कहने पर ही आपत्ति करने लगते हैं।
अब तो हद हो गयी है कि प्रचार माध्यमों ने एक खिलाड़ी को क्रिकेट का भगवान बना दिया जिसका प्रतीक बल्ला है। हमें इस पर भी आपत्ति नहीं है। वैसे कुछ मित्र समूहों में जब इस पर आपत्ति की तो मित्रगण नाराज हो गये तब तय किया कि यह आपत्ति बंद करना चाहिए। दूसरे की आस्था पर चोट पहुंचाने की क्रिया को हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तामस बुद्धि का प्रमाण मानता हैै। हमने बंद किया पर क्रिकेट के भगवान के भक्तों ने हद ही पार कर दी। उसके चलते हुए बल्ले की तुलना भगवान श्रीराम के टंकारते हुए धनुष तथा भगवान श्रीकृष्ण के घूमते हुए चक्र से कर डाली। हमें इस पर गुस्सा नहीं आया पर आपत्ति तो हुई। हमारा कहना है कि जब तुम्हारे क्रिकेट भगवान क पास बल्ला है तो उसके साथ धनुष तथा चक्र क्यों जोड़ रहे हो? भगवान श्रीराम तथा श्रीकृष्ण का नाम क्यों जोड़ रहे हो?
यह प्रयास ऐसा ही है जैसे कि एक झूठ को लाख बार बोलकर शाश्वत सत्य बनाया जाये। यह झूठ को पांव लगाने का यह एक व्यर्थ प्रयास है। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण का नाम एक कृत्रिम भगवान को पांव लगाने की कोशिश से अधिक कुछ नहीं है। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने न तो अपने कर्म की फीस ली और न ही विज्ञापनों में अभिनय किया। सांसरिक रूप से दोनों त्यागी रहे। उनके भगवान तो फीस लेकर खेलते हैं, विज्ञापन में बताते है कि अमुक वस्तु या सेवा उपयोगी है उस पर पैसा खर्च करें। क्रिकेट के भगवान की छवि भोग, अहंकार तथा मोह को बढ़ाने वाली है और जिन भगवान श्रीराम तथा कृष्ण का वह नाम लेकर उसे चमका रहे हैं वह त्याग का प्रतीक हैं।
हैरानी की बात है कि किसी ने इस आपत्ति नहीं की। किसी वस्तु पर भगवान की तस्वीर देखकर लोग अपनी आस्था का रोना लेकर बैठ जाते हैं। किसी भारतीय भगवान का चेहरा लगाकर कोई नृत्य करता है तो उस पर भी आवाजें उठने लगती हैं। तब ऐसा लगता है कि हम भारतीय धर्म को लेकर कितना सजग हैं। जब किसी की क्रिकेट खिलाड़ी या फिल्म अभिनेता के साथ भगवान का नाम जोड़ा या कामेडी शो मे अध्यात्मिक के भगवान का नाम आता है तब सभी की जुबान तालु से क्यों चिपक जाती है? सीधा जवाब है कि धार्मिक उन्माद बढ़ाने वाला भी यह बाज़ार है जो ऐसे अवसरों पर पैसा खर्च करता है तो उनका उपयोग करने वाला भी यही बाज़ार है। बाज़ार और उसके प्रचारतंत्र के जाल में आम आदमी अपनी बुद्धि सहित कैद है भले ही अपने अंदर चेतना होने का वह कितना दावा करे। आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में आंदोलन, अभियान तथा आंतक का आधार ही अर्थ है। यह अलग बात है कि अज्ञानी लोग उसमें धर्म, जाति, भाषा तथा क्षेत्रीय आधार पर उनका विश्लेषण करते हैं। वैचारिक समंदर में लोग उथले जल में ही तार्किक उछलकूद करते नज़र आते हैं।
पाकिस्तान के नाम से खेलने वाली पीसीबी तथा भारत के नाम से खेलने वाली बीसीसीआई की टीमों के मैच में देशभक्ति का दांव लगता है। अपने अध्यात्मिक दर्शन से दूर लोग इस मैच के प्रति ऐसे मोहित हो रहे हैं जैसे कि इससे कोई बहुत बड़ा चमत्कार सामने आने वाला है। मैच को जंग बताकर दोनों तरफ से बोले जा रहे वाक्यों को तीर या तलवार की तरह चलता दिखाया जा रहा है। भविष्यवक्ता अपने अपने हिसाब से भविष्यवाणी बता रहे हैं। मतलब प्रयास यही है कि क्रिकेट के नाम पर अधिक से अधिक पैसा लोगों की जेब से निकलवाया जाये। हैरानी की बात है कि एक तरफ कुछ खिलाड़ियों पर क्रिकेट मैचों में सट्टेबाजों से मिलकर खेल तथा परिणाम प्रभावित करने के आरोप लगते हैं। एक चैनल ने तो यह भी कहा है कि मोहाली का भारत पाकिस्तान मैच भी फिक्स हो सकता है। इसके बावजूद लोग मनोरंजन के लिये यह मैच देखना चाहते हैं। भारतीय दर्शक पीसीबी की टीम को अपनी टीम से हारते देखना चाहते हैं। यह मनोरंजन है यह मन में मौजूद अहंकार के भाव से उपजी साम्राज्यवादी प्रवत्ति है। हां, अपने कुल, शहर, प्रदेश तथा देश को विजेता देखने की इच्छा साम्राज्यवादी की प्रवृत्ति नहीं तो और क्या कही जा सकती है। कुछ लोग इसे देशभक्ति कहते हैं पर तब यह सवाल उठता है कि जिन भारतीयों को फिक्सिंग का दोषी पाया गया उनका क्या किया? देश के नाम से खेले जा रहे मैच में हार की फिक्सिंग करना आखिर क्या कहा जाना चाहिए? हम यहां देशद्रोह जैसा शब्द उपयोग नहीं कर सकते क्योंकि हमारा मानना है कि यह एक मनोरंजन का व्यापार है और उसमें देश, जाति, भाषा या धार्मिक समूहों के सिद्धांत लागू नहीं होते।
हमने इसे मनोरंजन का व्यापार भी इसलिये कहा क्योंकि जब मैचों के इनाम बंटते हैं तब उद्घोषक बताते हैं कि इसमें अमुक खिलाड़ी ने दर्शकों का ढेर सारा मनोरंजन किया। तब मनोरंजन में देशप्रेम जैसा शब्द ठीक नहीं लगता। एक चैनल तो बता रहा था कि ‘26/11 के बाद पहली बार पाकिस्तानी टीम भारत पहुंची है।’
हम अक्सर देखते हैं कि कोई आदमी कोई उपलब्धि पाकर घर लौटता है तो शहर के लोग उसका स्वागत करने पहुंचते हैं और कहते हैं कि ‘वह कामयाबी के बाद पहली बार घर आ रहा है।’
तब क्या यह माने कि 26/11 को मुंबई में हुई हिंसा ऐसा वाक्या है जिसका श्रेय पाकिस्तानी यानि पीसीबी की टीम को जाता है और मोहली पहुंचने पर उनका अभिनंदन किया गया। देश में क्रिकेट जुनून नहीं जुआ और सट्टा की गंदी आदत है जिससे क्रिकेट खेल के माध्यम से भुनाया जा रहा है मगर इसका मतलब यह नहीं कि जोश में आकर कुछ भी कहा दिया जाये। इसमें कोई संशय नहीं है कि 26/11 का हादसा भयानक था और पीसीबी की क्रिकेट टीम को उससे नहीं जोड़ना चाहिए। हम भी नहीं जोड़ते पर यह काम तो उसी बाज़ार के वही प्रचाकर कर रहे हैं जो आजकल के क्रिकेट से जमकर पैसा कमा रहे हैं।
यकीनन साम्राज्यवाद की प्रवृत्ति मनोरंजन करते हुए भी मन में रहती है यह बात अब समझ में आने लगी है। लोग पाकिस्तानी या पीसीबी की क्रिकेट टीम को हारते देखना चाहते हैं कि उसके प्रति दुश्मनी का भाव रखते है, मगर फिल्मों में पाकिस्तानी गायकों को सुनते हैं। टीवी चैनलों पर पाकिस्तानी अभिनेता और अभिनेत्रियां आकर छा जाते हैं तब देशप्रेम कहां चला जाता है। उस यही बाज़ार और प्रचारक मित्रता का गाना गाने लगते हैं। आम आदमी में चिंतन क्षमता की कमी है और वह वही जाता है जहां प्रचारक उसे ले जाते हैं। मनोरंजन में साम्राज्यवाद की प्रवृत्ति उसे इस बाज़ार का गुलाम बनाती है जो कभी दुश्मन तो कभी दोस्त बनने को मज़बूर करती है।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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क्रिकेट में यह कैसी राजनीति-आलेख (cricket aur politics-hindi article)


भारत की एक व्यवसायिक प्रतियोगिता में पाकिस्तान खिलाड़ियों की नीलामी न होने पर देश के अनेक बुद्धिजीवी चिंतित है। यह आश्चर्य की बात है।
पाकिस्तान और भारत एक शत्रु देश हैं-इस तथ्य को सभी जानते हैं। एक आम आदमी के रूप में तो हम यही मानेंगे। मगर यह क्या एक नारा है जिसे हम आम आदमियों का दिमाग चाहे जब दौड़ लगाने के लिये प्रेरित किया जाता है और हम दौड़ पड़ते हैं। अगर कोई सामान्य बुद्धिजीवी पाकिस्तान के आम आदमी की तकलीफों का जिक्र करे तो हम उसे गद्दार तक कह देते हैं पर उसके क्रिकेट खिलाड़ियों तथा टीवी फिल्म कलाकारों का स्वागत हो तब हमारी जुबान तालू से चिपक जाती है।
दरअसल हम यहां पाकिस्तान के राजनीतिक तथा धार्मिक रूप से भारत के साथ की जा रही बदतमीजियों का समर्थन नहीं कर रहे बल्कि बस यही आग्रह कर रहे हैं कि एक आदमी के रूप में अपनी सोच का दायरा नारों की सीमा से आगे बढ़ायें।
अगर हम व्यापक अर्थ में बात करें तो भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों का आशय क्या है? दो ऐसे अलग देश जिनके आम इंसान एक दूसरे के प्रति शत्रुता का भाव रखते हैं-इसलिये दोनों को आपस में मिलाने की बात कही जाती है पर मिलाया नहीं जाता क्योंकि एक दूसरे की गर्दन काट डालेंगे।
मगर खास आदमियों का सोच कभी ऐसा नहीं दिखता। भारत में अपने विचार और उद्देश्य संप्रेक्षण करने यानि प्रचारात्मक लक्ष्य पाने के लिये फिल्म, टीवी, अखबार और रेडियो एक बहुत महत्वपूर्ण साधन हैं। इन्हीं से मिले संदेशों के आधार पर हम मानते हैं कि पाकिस्तान हमारा शत्रु है। मगर इन्हीं प्रचार माध्यमों से जुड़े लोग पाकिस्तान से ‘अपनी मित्रता’ की बात करते हैं और समय पड़ने पर यह याद दिलाना नहीं भूलते कि वह शत्रु राष्ट्र है।
भारत के फिल्मी और टीवी कलाकार पाकिस्तान में जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं तो अनेक खेलों के खिलाड़ी भी वहां खेलते हैं-यह अलग बात है कि अधिकतर चर्चा क्रिकेट की होती है। पाकिस्तानी कलाकारो/खिलाड़ियों से उनके समकक्ष भारतीयों की मित्रता की बात हम अक्सर उनके ही श्रीमुख से सुनते हैं। इसके अलावा अनेक बुद्धिजीवी, लेखक तथा अन्य विद्वान भी वहां जाते हैं। इनमे से कई बुद्धिजीवी तो देश के होने वाले हादसों के समय टीवी पर ‘पाकिस्तानी मामलों के विशेषज्ञ’ के रूप में चर्चा करने के लिये प्रस्तुत होते हैं। इनके तर्कों में विरोधाभास होता है। यह पाकिस्तान के बारे में अनेक बुरी बातें कर देश का दिल प्रसन्न करते हैं वह यह कभी नहीं कहते कि उससे संबंध तोड़ लिया जाये। सीधी भाषा में बात कहें तो जिन स्थानों से पाकिस्तान के विरोध के स्वर उठते हैं वह मद्धिम होते ही ‘पाकिस्तान शत्रु है’ के नारे लगाने वाले दोस्ती की बात करने लगते हैं। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की बारे में सभी जानते हैं। इतना ही नहीं मादक द्रव्य पदार्थो, फिल्मों, क्रिकेट से सट्टे से होने वाली कमाई का हिस्सा पाकिस्तान में बैठे एक भारतीय माफिया गिरोह सरदार के पास पहुंचता है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह इन आतंकवादियों को धन मुहैया कराता है। अखबारों में छपी खबरें बताती हैं कि जब जब सीमा पर आतंक बढ़ता है तब दोनों के बीच अवैध व्यापार भी बढ़ता है। अंतराष्ट्रीय व्यापार अवैध हो या वैध उसका एक व्यापक आर्थिक आधार होता है और यह तय है कि कहीं न कमाई की लालच दोनों देशों में ऐसे कई लोगों को है जिनको भारत की पाकिस्तान के साथ संबंध बने रहने से लाभ होता है। अब यह संबंध बाहर कैसे दिखते हैं यह उनके लिये महत्वपूर्ण नहीं है। पाकिस्तान में भारतीय फिल्में दिखाई जा रही हैं। यह वहां के फिल्मद्योग के लिये घातक है पर संभव है भारतीय फिल्म उद्योग इसकी भरपाई वहां के लोगों को अपने यहां कम देखकर करना चाहता है। भारत में होने वाली एक व्यवसायिक क्रिकेट प्रतियोगिता में पाकिस्तान खिलाड़ियों का न चुने जाने के पीछे क्या उद्देश्य है यह अभी कहना कठिन है पर उसे किसी की देशभक्ति समझना भारी भूल होगी। दरअसल इस पैसे के खेल में कुछ ऐसा है जिसने पाकिस्तानी खिलाड़ियों को यहां नहीं खरीदा गया। एक आम आदमी के रूप में हमें कुछ नहीं दिख रहा पर यकीनन इसके पीछे निजी पूंजीतंत्र की कोई राजनीति होगी। एक बात याद रखने लायक है कि निजी पूंजीतंत्र के माफियाओं से भी थोड़े बहुत रिश्ते होते हैं-अखबारों में कई बार इस गठजोड़ की चर्चा भी होती है। भारत का निजी पूंजीतंत्र बहुत मजबूत है तो पाकिस्तान का माफिया तंत्र-जिसमें उसकी सेना भी शामिल है-भी अभी तक दमदार रहा है। एक बात यह भी याद रखने लायक है कि भारत के निजी पूंजीतंत्र की अब क्रिकेट में भी घुसपैठ है और भारत ही नहीं बल्कि विदेशी खिलाड़ी भी यहां के विज्ञापनों में काम करते हैं। संभव है कि पाकिस्तान के खिलाड़ियों की इन विज्ञापनों में उपस्थिति भारत में स्वीकार्य न हो इसलिये उनको नहीं बुलाया गया हो-क्योंकि अगर वह खेलने आते तो मैचों के प्रचार के लिये कोई विज्ञापन उनसे भी कराना पड़ता और 26/11 के बाद इस देश के आम जन की मनोदशा देखकर इसमें खतरा अनुभव किया गया हो।
ऐसा लगता है कि विश्व में बढ़ते निजी पूंजीतंत्र के कारण कहीं न कहीं समीकरण बदल रहे हैं। पाकिस्तान के रणनीतिकार अभी तक अपने माफिया तंत्र के ही सहारे चलते रहेे हैं और उनके पास अपना कोई निजी व्यापक पूंजीतंत्र नहीं है। यही कारण है कि उनको ऐसे क्षेत्रों में ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जहां सफेद धन से काम चलता है। पाकिस्तानी रुपया भारतीय रुपये के मुकाबले बहुत कमजोर माना जाता है।
वैसे अक्सर हम आम भारतीय एक बात भूल जाते हैं कि पाकिस्तान की अपनी कोई ताकत नहीं है। भारतीय फिल्म, टीवी, रेडियो और अन्य प्रचार माध्यम पाकिस्तान की वजह से उसका गुणगान नहीं करते बल्कि मध्य एशिया में भारत के निजी पूंजीतंत्र की गहरी जड़े हैं और धर्म के नाम पर पाकिस्तान उनके लिये वह हथियार है जो भारत पर दबाव डालने के काम आता है। जब कहीं प्रचार युद्ध में पाकिस्तान भारत से पिटने लगता है तब वह वहीं गुहार लगाता है तब उसके मानसिक जख्मों पर घाव लगाया जाता है। मध्य एशिया में भारत के निजी पूंजीतंत्र की जड़ों के बारे में अधिक कहने की जरूरत नहीं है।
कहने का अभिप्राय यह है कि हम आम आदमी के रूप में यह मानते रहें कि पाकिस्तान का आम आदमी हमारा शत्रु है मगर खास लोगों के लिये समय के अनुसार रुख बदलता रहता है। एक प्रतिष्ठत अखबार में पाकिस्तान की एक लेखिका का लेख छपता रहता है। उससे वहां का हालचाल मालुम होता है। वहां आतंकवाद से आम आदमी परेशान है। भारत की तरह वहां भी महंगाई से आदमी त्रस्त है। हिन्दूओं के वहां हाल बहुत बुरे हैं पर क्या गैर हिन्दू वहां कम दुःखी होगा? ऐसा सोचते हुए एक देश के दो में बंटने के इतिहास की याद आ जाती है। अपने पूर्वजों के मुख से वहां के लोगों के बारे में बहुत कुछ सुना है। बंटवारे के बारे में हम लिख चुके हैं और एक ही सवाल पूछते रहे हैं कि ‘आखिर इस बंटवारे से लाभ किनको हुआ था।’ जब इस पर विचार करते हैं तो कई ऐसे चित्र सामने आते हैं जो दिल को तकलीफ देते हैं। एक बाद दूसरी भी है कि पूरे विश्व के बड़े खास लोग आर्थिक, सामाजिक, तथा धार्मिक उदारीकरण के लिये जूझ रहे हैं पर आम आदमी के लिये रास्ता नहीं खोलते। पैसा आये जाये, कलाकर इधर नाचें या उधर, और टीम यहां खेले या वहां फर्क क्या पड़ता है? यह भला कैसा उदारीकरण हुआ? हम तो यह कह रहे हैं कि यह सभी बड़े लोग वीसा खत्म क्यों नहीं करते। अगर ऐसा नहीं हो सकता तो उसके नियमों का ढीला करें। वह ऐसा नहीं करेंगे और बतायेंगे कि आतंकवादी इसका फायदा ले लेंगे। सच्चाई यह है कि आतंकवादियों के लिये कहीं पहुंचना कठिन नहीं है पर उनका नाम लेकर आम आदमी को कानूनी फंदे में तो बंद रखा जा सकता है। कुल मिलाकर भारत पाकिस्तान ही नहीं बल्कि कहीं भी किन्हीं देशों की दोस्ती दुश्मनी केवल आम आदमी को दिखाने के लिये रह गयी लगती है। उदारीकरण केवल खास लोगों के लिये हुआ है। अगर ऐसा नहीं होता तो भला आई.पी.एल. में पाकिस्तान के खिलाड़ियों की नीलामी पर इतनी चर्चा क्यों होती? एक बात यहां उल्लेख करना जरूरी है कि क्रिक्रेट की अंतर्राष्ट्रीय परिषद के अध्यक्ष के अनुसार इस खेल को बचाने के लिये भारत और पाकिस्तान के बीच मैच होना जरूरी है। इस पर फिर कभी।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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पाकिस्तान की पैंतरेबाजी और उसके मित्र देश-आलेख


किसी भी राष्ट्र का सम्मान न तब तक नहीं बढ़ सकता जब तक वह दूसरों से मदद लेता है और जब वह दान लेने लगे तो समझ लेना चाहिये कि वह पतन के गर्त में गिर चुका है। पाकिस्तान की स्थिति भी कुछ वैसे ही है पर लगता है कि वह मदद और दान एक तरह हफ्ता वसूली की तरह ले रहा है।

आजकल पाकिस्तान पर दानदाता देशों का विशेष अनुग्रह हो गया है। वैसे तो पाकिस्तान को अनेक देश घोषित अघोषित रूप से सहायता देते रहे हैं पर उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता था। मुंबई पर हमले के पश्चात् पूरे विश्व में उसकी कड़ी प्रतिक्रिया हुूई और उसके लिये पूरी दुनियां ने पाकिस्तान को जिम्मेदार माना। इससे उसको सहायता देने वाले देशों के लिये उसको बड़ी राशियां देना कठिन हो गया। फिर यह भी सभी जानते हैं कि पाकिस्तान को मिली ऐसी सहायता आतंकवादियों तक ही पहुंच जाती है। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति करीब छःह महीने से खराब है और उसे बीच में चीन ने राहत देकर दिवालिया होने से बचाया था। अब अमेरिका आगे आया है और उसके मित्र देश अब उसकी मदद कर रहे हैं पर अब इसे दान का नाम दिया जा रहा है। हुआ यह है कि पाकिस्तान की मदद को लालायित यह देश पिछले कुछ दिनों से अपना खजाना उसके लिये खोल नहंीं पा रहे थे क्योंकि इससे उनके कर्णधारों की अपने देश में जनता की नजरों में छबि खराब हो जाती। फिर भारतीय जनता की नजरें भी सभी पर लगी हुई हैं। मगर विश्व में अमीर देशों को तो बस पाकिस्तान की मदद का नशा है सो अब इस मदद को नाम दिया गया है ‘दान’। यानि अपने देश और विश्व के लोगों को भ्रमित करना। मदद से थोड़ी संवेदना कम हो जाती है और अब तो पाकिस्तान का नाम जिस तरह से विश्व में जाने लगा है उससे हर जगह आम आदमी उससे घृणा करता है। ऐसे में दान शब्द से आदमी की भावनायें थोड़ा अलग हो जाती हैं कि क्योंकि ‘दान’ करना एक अच्छा काम माना जाता है। फिर ‘दान’ देने वाले देशों के लोग शायद विश्व में अपनी ‘दानदाता’ वाली छबि से शायद खुश होंगे। फिर भारत के लोग भी ‘दान’ को लेकर शायद ही गुस्से का इजहार करें-ऐसा अनुमान किया जा रहा होगा।

आखिर यह क्या हो रहा है? एक तरफ पाकिस्तान के नाकाम राष्ट्र होने का भय सभी को सता रहा है। पाकिस्तान के पास जो परमाणु बम हैं उसका वह अब भावनात्मक रूप से उपयोग कर रहा है। हालत यह है कि सर्वाधिक परमाणू बम रखने वाल अमेरिका तक उसके बमों से घबड़ाया हुआ है। अब जापान ने भी पाकिस्तान को दान देने का फैसला किया। यह आश्चर्य की बात है कि विश्व का हर बड़ा देश पाकिस्तान को दान देने के लिये तैयार बैठा है। वैसे एक बात मजे की है कि पाकिस्तान के कर्णधारों ने विश्व से कोई ऐसी अपील नहंी की है कि उसे दान दिया जाये। हो सकता है कि ऐसे में भारतीय जनता भी कुछ विचार कर सकती।

सच बात तो यह है कि पाकिस्तान के रणनीतिकारों ने पूरे विश्व के देशों को चक्करघिन्नी बना दिया है। सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्या हो गया है कि पाकिस्तान को दान पर दान दिया जा रहा है। एक अखबार में यह विश्लेषण छपा था कि अमेरिका अब केवल अपना ध्यान अलकायदा से संघर्ष पर केंद्रित करना चाहता है। तालिबान को उसने अपने लक्ष्य से परे कर दिया है। इसलिये संभव है यह दान कथित रूप से तालिबान को अलकायदा से अलग करने के काम आ सकता है। तालिबान से केवल अफगानिस्तान और भारत को परेशानी है और अभी तक आतंकवाद पर साझे संघर्ष करने के दावे करने वाले विश्व के अमीर और बड़े राष्ट्रों ने अब अपनी नीति बदल ली हैं। वह तालिबान और अलकायदा को अलग करना चाहते हैं। अब यह कहना कठिन है पर अभी तक समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर जो विश्लेषण हमने देखें हैं उससे नहीं लगता कि इसमें कोई बहुत जल्दी सफलता मिल पायेगी। तालिबान के पास जो मानवीय शक्ति है उसका उपयोग अलकायदा अपने धन और तकनीकी कौशल के कारण अपने सहायक के रूप में करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि तालिबान से जुड़े अधिकतर लोग धन के कारण उसमेंे हैं पर दूसरा सच यह भी कि लड़ना उनकी प्रवृत्ति है। पाकिस्तान के जिन इलाकों में तालिबान सक्रिय है उसकी उपस्थिति का कारण यह है कि वहां लोगों की अशिक्षा और गरीबी के कारण उनका उपयोग करने के सुविधा होती है। इसके अलावा वह इलाके बहुत सुंदर और उपजाऊ हैं जहां सूखे मेवे पैदा होता है। अलकायदा के लोग मध्य एशिया से आकर वहां ऐश की जिंदगी जीते हैं और तालिबान को आर्थिक सहायता देकर उसे अपनी सुरक्षा के लिये उपयोग करते है। दरअसल अलकायदा और तालिबान तो बस नाम भर है वहां के स्थानीय निवासियों की जुझारु प्रवृति विश्व विख्यात है जो अपने विरोधी पर कभी हिंसा के रूप में प्रकट होती है। आपने डूरंड लाईन का नाम सुना होगा। उसे कभी अंग्रेज पार नहीं कर पाये और इसलिये अफगानिस्तान कभी उनके हाथ नहीं आया। जब तालिबान और अलकायदा नहीं थे तब भी वहां पाकिस्तान का संविधान नहीं चलता था और आगे भी चलेगा इसकी संभावना नहीं है। इन जुझारु जातियों का खौफ पाकिस्तान के हर शहर में रहता है। आजादी से पहले भी अनेक नृशंस हत्यााओं का जिक्र अनेक बुजुर्ग करते रहे हैं। आदमी को काट देना वहां कोई कठिन काम नहीं माना जाता। अलकायदा और तालिबान ने तो वहां के लोगो की अशिक्षा,गरीबी और जुझारु प्रवृति को भुनाया है न कि बनाया है-कम से विद्वानों की अभी तक जो विश्लेषण हैं वह तो यही बताते हैं।
बहरहाल अब पाकिस्तान अपने हालत बनाने के लिये दान ले रहा है और वह यही दान अब उन लोगों तक पहुंचेगा जो हिंसा में लिप्त हैं। यह पैसा लेने वालों को दान और मदद की अंतर से कोई मतलब नहंीं हैं। वह भी जानते हैं पड़ौसी देश भारत के दबाव की वजह से यह हो रहा है। आतंकवाद के विरुद्ध संयुक्त संघर्ष की बात करने वाले देशों के चरित्र की यही असलियत है कि वह उसी आतंकवादी समूह को अपने विरुद्ध मानते हैं जिसकी गतिविधियां उनको त्रस्त करती हैं और दूसरे के विरुद्ध सक्रिय आतंकवादी गिरोह उनको मित्र लगते हैं या वह उसकी उपेक्षा कर देते हैं। जबकि यह सभी को पता है इन आतंकवादियों के गिरोह आपस में मिले हुए हैं। मदद हो या दान, मजे में रहेगा पाकिस्तान। उसे अपने मनोमुताबिक धन मिल रहा है तो वह क्यों आतंकवाद को समाप्त करना चाहेगा।
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कोई अपने गिरेबान में नहीं झांक रहा है-आलेख


इन पंक्तियों के लेखक की अखबार में प्रकाशित पहली कविता ही आतंक के विरुद्ध थी। यह कविता एक प्रतिष्ठत अखबार में आज से सत्ताईस वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थी। अगर देश में आतंकवाद के पनपने की बात करें तो वह तीस वर्ष से अधिक का हो चुका है। इसमें हजारों जाने जा चुकी है और घर बरबाद हो चुुके हैं। हां, तीस वर्ष से आतंकवाद का दर्द झेलने वाले लोग इसके बदलते चेहरों को भी जानते हैं और हर घटना पर उनका मन रोता है। इन आतंकवादी घटनाओं में जिन लोगों ने अपने लोग खोये उनमें से फिर कितने बसे या फिर अभी तक बरबादी के दौर से गुजर रहे हैं इसका कोई हिसाब नहीं दे पाता। देखा यह गया है कि अनेक प्रचार माध्यम इन घटनाओं को बढ़चढ़ कर छापते हैं। उनकी सामग्री में आतंकी और उनके आश्रय दाताओं का वर्णन निरंतर होता है पर जिन लोगों ने इन घटनाओं में हानि उठायी और फिर उसकी वह भरपायी कर पाये कि नहीं इसकी चर्चा कहीं न होती। फिल्मों में भी आतंकियों को प्रभामंडित किया गया पर पीडि़तों पर कोई फिल्म नहीं बनी। सहित्य और पत्रकारिता के अनेक महानुभावों ने भी खूब लिखा पर आतंकियों पर ही,,पीडि़तों पर वह भी खामोश रहे।

आशय यह है कि इस देश के अनेक लोग हैं जिन्होंने यहां फैलते आतंकवाद का जन्म और उसका पालन पोषण होते देखा है। नयी पीढ़ी के अनेक लोग तो केवल उन्हीं घटनाओं के बारे जानते होंगे जो जो उनके सामने हो रहीं हैं पर वह अपनी पूरानी पीढ़ी के लोगों से पूछे तो उनको कई हृदय विदारक घटनाओं की जानकारी मिल जायेगी। अब यह कहना बेकार है कि यह घटना बड़ी है या यह छोटी। अगर कहीं किसी गरीब, सामान्य श्रेणी या प्रसिद्धिहीन व्यक्ति की मौत को छोटी और किसी अमीर,विशिष्ट श्रेणी या प्रसिद्ध व्यक्ति की मौत को बड़ी घटना कहा जायेगा तो उससे अनेक तरह के विवाद खड़े होंगे और कोई भी आंदोलन निरर्थक हो सकता है। उसी तरह छोटे और बड़े शहर का भेद भी कम परेशानी वाला नहीं है।
आंतकवाद का दर्द देश हर वर्ग और प्रदेश के आदमी ने भोगा है। घटना कहंी भी हो वहां मौजूद रहने वाला व्यक्ति उसी शहर या क्षेत्र का हो यह जरूरी नहीं है। कई लोग अपने घर स परे दूसरे शहर में भी आतंकी हिंसा का शिकार होते हैं।
जिन लोगों ने आतंकवाद से उपजी पीड़ा को निरंतर अनुभव किया है वह कोई भेद नहीं करते और यही कारण है प्रचार माध्यम किसी खास घटना को लेकर उस पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं तो ऐसे प्रबंुद्ध लोग उसे केवल व्यवसायिक भाव ही मानते हैं-इससे यह नहीं समझना चाहिये कि उनके द्वारा प्रचारित घटना के प्रति उनके मन में कोई पीड़ा नहीं है। कहते हैं कि निरंतर झेलते हुए दर्द भी एक आदत बन जाती है और फिर आदमी उसकी शिकायत नहीं करते। इस देश के प्रबुद्ध लोगों की हालत भी कुछ ऐसी हो गयी है और वह किसी एक घटना पर अपने दर्द की ऐसी अभिव्यक्ति नहीं कर पाते जैसे नये लोग कर जाते हैं।

नयी पीढ़ी के अनेक लोगों को आतंकवाद तो बस एक नारे की तरह लगता होगा जिसमें बेकसूरों की जान जाती है पर उसके प्रायोजकों के बारे में नहीं पता जिनसे प्रचार माध्यम स्वयं भी बचते हैं। शायद नयी पीढ़ी के अनेक लोगों को यह सुनकर आश्चर्य होगा कि इस देश के अनेक हिस्सों में व्याप्त आतंकवादियों के आश्रयदाता इस देश में भी रहते हैं और गाहे बगाहे उनका जिक्र कुछ प्रचार माध्यम करते हैं पर उनका होता कुछ नहीं है। आम आदमी उनका नाम पढ़कर भूल जाते हैं। कहते हैं कि जनता की याद्दाश्त कमजोर होती है पर इस देश में पत्रकारिता और साहित्य से जुड़े मूर्धन्य लोग भी इस बीमारी का शिकार है। इस लेखक को तो यही लगता है कि अनेक लोग सत्य लिखते नहीं है और अगर कोई और लिखे तो उससे मूंह फेर जाते है या फिर याद नहीं रखते।

हालांकि यह भी एक सच्चाई है कि आतंकवाद अब सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गया है क्योंकि आधुनिक विज्ञान ने अगर इंसान को शक्तिशाली बनाया है तो शैतान ने भी कोई कम ताकत नहीं पायी।
हिंदी के ब्लाग जो लोग पढ़ रहे हैं वह इस बात को समझ सकते हैं कि इस आतंकवाद पर इस देश के प्रबुद्ध वर्ग का क्या रवैया है? यह एक कड़वा सच है कि आतंकवाद ने रूप बदले हैं पर कम नहीं हुआ। उसमें निरंतर वृद्धि होती रही। प्रचार माध्यम समय के अनुसार उसमें अपना नजरिया बदलते रहते हैंं-अगर कहा जाये तो वह अपने व्यवसाय के हिसाब से लोगों में जज्बात बनाते और बिगाड़ कर उनसे अपनी आय अर्जित करते हैं।
भारत एक बृहद देश है और उसने अनेक युद्ध और आतंकी घटनायें झेली हैं। अभी हाल ही में जब भारत ने चंद्रयान आकाश में भेजा था तो उससे कई अन्य देशोंं का मूंह सूख गया है और वह उसे एक कमजोर राष्ट्र प्रमाणित करना चाहते हैं। अपने देश में अचानक आतंकी अपराधों में वृद्धि इस बात को दर्शाती है कि अनेक अन्य देशों की सरकारों, खुफिया ऐजेंसियों और अपराधियों के समूह ने इस देश के अस्थिर करने का मन बना लिया है। दरअसल अभी भी उनकी मानसिक परेशानी यही है कि उनके इतने आक्रमणों के बावजूद यह देश बिखरने की बजाय तरक्की क्यों करता जा रहा है? ऐसे लोगों का प्रतिकार करने वाली सरकारें,खुफिया एजेंसी या अन्य संस्थाऐं अपनी गोपनीय प्रतिबद्धताओं के कारण कई बातें सरेआम कह नहीं पातीं इसलिये लोगों की उसकी तरफ नजर नहीं जाती और वह अपने विचार बनाने लगते हैं। जबकि यह वास्तविकता है कि सभी संस्थायें सक्रिय रहती हैं।

प्रचार माध्यम अपना संयम खो रहे हैं। सच बात तो यह है कि वह जिस लोकतंत्र को चुनौती वह दे रहे हैं उसी के आधार पर उनका व्यापार टिका है। तमाम लोग तरह तरह की बातें कर रहे हैं पर कोई अपने गिरेबान में नहीं झांक रहा है। ऐसा लगता है कि कुछ हस्तियां अब अवतार बनने की कोशिश कर रहीं हैं। वह आतंक के विरुद्ध जो अपना जोश और पीडि़तों के प्रति जो सहानुभूति दिखा रहे हैं उसमें कितना सच है और कितना दिखावा अभी इस पर बहस नहीं छिड़ी है और अगर अधिक हुआ तो इस पर भी चर्चा शुरू हो जायेगी। ऐसी हस्तियों को यह सोच लेना चाहिये कि ऐसी आतंकी घटनायें कोई पहली बार नहीं हुई और जो पहले हुईं उसका दर्द भी देश ने भुला दिया। कभी न कभी उस घटना का भी असर कम होगा पर तब उनके जोश और सहानुभूति पर सवाल उठे तो उनके लिये भी जवाब देना कठिन हो जायेगा। बेहतर यही है कि आतंकी घटनाओं पर संयमित प्रतिक्रिया दी जाये क्योंकि जब लोग किसी एक जगह पर हुई घटना पर बहस करते हैं तब आतंकी दूसरी जगह करने की योजना बना रहे होते हैं। अगर असंयमित प्रतिक्रियाओं से कहीं आतंक से लड़ने वाली अधिकारिक संस्ंथाओं का ध्यान बंटा तो उसका लाभ आतंकियों को ही मिल सकता है।
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