दुनियां के पांच बड़े देशों में से तीन ने-अमेरिका, फ्रांस, और ब्रिटेन-अपने मित्र देशों के साथ मिलकर लीबिया पर हमला कर दिया है। अगर भारत में होली का पर्व नहीं होता तो आज शायद यही विषय चर्चा के केंद्र में रहता-कम से कम हम जैसे फोकटिया दर्शकों और चिंतकों का तो यही मानना है। जिन दो बड़े देशों ने इस हमले से पहले लीबिया से मुंह फेरा है वह एक चीन दूसरा रूस। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में लीबिया पर हमले के लिये हरी झंडी दिलाने वाले प्रस्ताव पर यह दोनों देश अपने मित्रों के साथ अनुपस्थित रहे जबकि कुछ दिनों पहले तक दोनों ही गद्दाफी और लीबिया को राजनीतिक तौर से खुला समर्थन दे रहे थे।
भारतीय समाचार पत्रों, चैनलों तथा बुद्धिमान लोगों की पूरी खुफियगिरी धरी की धरी रह गयी। इस हमले से पहले किसी ने ऐसे हमले का अनुमान नहीं बताया गया। इधर सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव पास हुआ और उधर मित्र देश हमले के लिये चल पड़े और बमबारी शुरु कर दी। लीबिया की आम जनता के कथित यह पक्षधर वहां सामान्य नागरिक को नहीं मारेंगी इसकी कोई गारंटी नहीं है। भारतीय समाचार पत्र पत्रिकाऐं तथा टीवी चैनल होली और क्रिकेट से फुरसत नहीं पा सके। क्या करें, दिन को चौबीस घंटे से बढ़़ाकर अड़तालीस का नहीं कर सकते। ऐसा भी नहीं है कि चंद्रमा से कहें कि इतना पास आ गये हो तो जरा रात को बड़ा कर दो यानि कि दिन हो ही नहीं ताकि हम रात्रिकालीन समय का भी दिन का तरह उपयोग कर सके। न ही यह कह सकते हैं कि इधर धरती की ओट में इस तरह छिप जाओ कि दिन का दिन ही रहे ताकि रात्रि न होने से लोग निद्रा की बीमारी से मुक्त होकर उनके विज्ञापन देखते रहें।
इस समय होली तथा क्रिकेट में विज्ञापनों से भारतीय समाचार माध्यमों को जोरदार कमाई हो रही है। इधर कामेडी के भी एक नहीं चार चार सर्कस शुरु हो गये हैं। फिल्मी अभिनेता अब छोटे पर्दे पर कामेडी करने के लियेे उतर आये हैं। समाचार चैनल अपना आधा घंटा कामेडी के नाम कर मनोरंजन चैनलों को विस्तापिरत रूप बन गये हैं। मतलब यह कि वह हर मिनट कमाई कर रहे हैं इसलिये उनके पास फुरसत कहां कि लीबिया पर हमले के विषय का इस्तेमाल करें।
रविवार का दिन और वह भी होली का। क्रिकेट का मैच हो तो फिर कहना ही क्या? पूरा दिन विज्ञापन के लिये है। कमबख्त, यह लीबिया का विषय कहां फिट करें। जापान की सुनामी में कमाया अभी ठिकाने लगा नहंी है। पहले रेडियम फैलने की बात चली। जापान में गर्म हो रहे परमाणु संयंत्र को इंसानी प्रयास ठंडा नहीं कर पा रहे थे पर प्रकृति को दया आ गयी। भूकंप तथा सुनामी परेशान लोगों के लिये प्रकृति ने वहां बर्फबारी कर दी। इतनी ठंड कर दी कि परमाणु संयंत्र अब ठंडे हो गये। पंच तत्वों ने जहां पहले संकट खड़ा किया वही उसको निपटान करने भी आये। भारत में प्रचार माध्यमों पर सुनामी जारी रही क्योकि होली, क्रिकेट और कामेडी को दौर चल रहा है।
भारतीय टीवी चैनलों का कहना था कि ‘जापान की सुनामी की आड़ में गद्दाफी ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली क्योंकि उसने दुनियां का ध्यान हटते ही अपने लोगों पर बमबारी कर दी।’
यहां तक कहा कि गद्दाफी का सुनामी ने बचाया। यह सब बकवास था। भारतीय समाचार टीवी चैनल सोचते हैं कि उनकी आंख अगर बंद है तो सारा संसार सो रहा है। यह शुतुरमुर्गीय दृष्टिकोण होली का सबसे बड़ा मजाक है। जिस समय भारतीय चैनल क्रिकेट और होली में व्यस्त थे तभी सुरक्षापरिषद में लीबिया पर उड़ान पर प्रतिबंध का प्रस्ताव पास हुआ और हमला भी हो गया। इस समय भारतीय प्रचार माध्यमों के पास विज्ञापनों की सुनामी का प्रकोप है इसलिये वह लीबिया पर हमले के विषय पर बासी बहस शायद तब करेंगे जब वर्तमान विषयों से मुक्ति पा लेंगे।
सचिन के सैंकड़े का सैंकड़ा लगेगा या नहीं! बीसीसीआई की क्रिकेट टीम जीतकर अपने प्रशंसकों को होली का तोहफा देगी या नहीं! धोनी अपने नये स्पिनर को खिलायेंगे या नहीं! होली और क्रिकेट पर बहस में उलझे टीवी चैनलों के पास इतना समय कहां से आ सकता है कि वह लीबिया पर अमेरिकी हमले का अध्ययन करें जिसके परिणाम भारत को आगे अवश्य प्रभावित करेंगे। लीबिया के शिखर पुरुष गद्दाफी ने भारत से समर्थन पाने के लिये जबरदस्त कोशिश की थी। क्यों? भारत को सुरक्षा परिषद में अस्थाई सदस्यता मिलने पर ढेर सारी प्रसन्नता दिखाने वाले बुद्धिजीवियों अपने चिंतन से इस बात को समझ नहीं पाये कि अपने विरुद्ध सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव पर भारत का समर्थन पाने के लिये ही गद्दाफी ने यह सब किया। प्रसंगवश चीन और सोवियत संघ के साथ भारत भी अनुपस्थित रहा। तय बात है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में इसका व्यापक प्रभाव होगा। वैसे लीबिया भारत के लिये तेल की दृष्टि से व्यवसायिक हितों वाला भले ही रहा हो पर राजनीतिक दृष्टि से कभी अधिक निकट नहीं रहा। इसके बावजूद भारत का उसके प्रति जो रवैया है उसके प्रति विश्व का दृष्टिकोण कैसा रहेगा, यह आगे देखने वाली बात होगी।
संभव है कि सारे प्रायोजित राजनीतिक विशेषज्ञ होली खेलने के बाद क्रिकेट में व्यस्त हों या फिर टीवी चैनल वाले सोचते हों कि अभी तो मुफ्त में काम चल रहा है तो क्यों गैर मनोरंजक विशेषज्ञों पर पैसा खर्च किया जाये? वैसे यह विशेषज्ञ उनसे पैसा लेते होंगे इसमें भी शक है क्योंकि प्रचार माध्यमों की वजह से उनको मूल्यवान कार्य और कार्यक्रम मिलते हैं। फिर लीबिया जैसा जटिल विषय एकदम प्रतिक्रिया देने लायक बन भी नहीं सकता क्योंकि उससे पहले बुद्धिजीवियों को अपने शिखर पुरुषो के इशारे का इंतजार होगा जिनके पास होली की वजह से फुरसत अभी नहीं होगी। हमारे देश में गद्दाफी का विरोध तो प्रगतिशील और जनवादी बुद्धिजीवी वैसे भी कर रहे थे पर चूंकि मामला अमेरिकी हमले का है तो उनको अपने दृष्टिकोण पर फिर से विचार करना पड़ेगा। दक्षिणपंथियों के लिये वैसे भी गद्दाफी कोई प्रिय व्यक्ति नहीं रहा है। ऐसे में हमें इंतजार है कि लीबिया पर विचाराधाराओं से जुड़े बुद्धिजीवियों की क्या प्रतिक्रिया होती है? आशा है होली और क्रिकेट से फुरसत पाने के बाद इन प्रचार माध्यमों को अपनी विज्ञापन की नदी के सतत प्रवाह के लिये यह शुतुरमुर्गीय दृष्टिकोण बदलना ही पड़ेगा।
————
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
5हिन्दी पत्रिका
६.ईपत्रिका
७.दीपक बापू कहिन
८.शब्द पत्रिका
९.जागरण पत्रिका
१०.हिन्दी सरिता पत्रिका