मूलतः हिन्दी धर्म को एक धर्म नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति माना जाता है। जब हम हिन्दू समाज की बात करें तो यह बात ध्यान रखना चाहिए कि उसके धर्म ग्रंथों में कहीं भी धर्म का कोई नाम नहीं दिया गया। कहते हैं कि सनातन धर्म से ही हिन्दू धर्म बना है पर यह नाम भी कहीं नहीं मिलता। दरअसल हम जिन भारतीय ग्रंथों को धार्मिक कहते हैं वह अध्यात्मिक हैं जिसमें तत्वज्ञान के साथ ही सांसरिक विषयों से भी संबंधित ज्ञान-विज्ञान का व्यापक वर्णन मिलता है। यह अलग बात है कि उसमें तत्वज्ञान का सर्वाधिक महत्व है।
चूंकि मानव का एक मन है। वह उसे भटकाता है इसलिये अनेक बातें मनोरंजक ढंग से कही गयी हैं जिनका संदेश अनेक प्रकार की कहानियों में मिलता है। वही तत्वज्ञान के भी उनमें दर्शन होते हैं पर उसके साथ कहानियां नहीं होती। यह अलग बात है कि अगर कोई मनुष्य इस तत्वज्ञान का समझ ले तो वह मनोरंजन का मोहताज नहीं होता क्योंकि हर क्षण वह जीवन का आनंद लेता है। मनोरंजन की आयु क्षणिक होती है। एक विषय से मनुष्य ऊबता है तो दूसरे में रमने की उसमें इच्छा बलवती होती है। विषयों में लिप्त व्यक्ति केवल उनसे ही मनोरंजन पाता है जबकि तत्वज्ञानी बिना लिप्त हुए आनंदित रहता है। उसे कभी ऊब नहीं होती।
भारतीय अध्यात्म का सार श्रीमद्भागवत गीता में सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया गया है। उसमें कोई सांसरिक विषय नहीं पर सारे संसार की समझ उसे पढ़ने पर स्वतः आ जाती है। स्थिति यह हो जाती है कि किसी विषय में निरंतर लिप्त होने वाला आदमी अपने कार्य में इतना ज्ञानी नहीं होता जितना तत्वज्ञानी दूर बैठकर सारा सत्य जान लेता है। कर्म तथा गुण के तत्व का जानने वाले ज्ञानी हर प्रकार की क्रिया के परिणाम को सहजता से जान लेते हैं। आम आदमी इसे सिद्धि मानते हैं पर तत्वाज्ञानियों के लिये यह ज्ञान और विज्ञान का विषय अत्यंत सहज हो जाता है। वह अपने सिद्ध होने का दावा नहीं करते न ही किसी चमत्कार का प्रदर्शन करते हैं। धर्म उनके लिये कोई मनुष्य से परे दिखने वाला कोई विषय नहीं बल्कि चरित्र और व्यवहार का प्रमाण देने वाला एक संकेतक होता है।
पश्चिम में अनेक धर्म प्रचलित हैं पर भारत भूमि से संबंध रखने वाले धर्मों में अध्यात्म की ऐसी जानकारियां हैं जिनका वैज्ञानिक महत्व है पर अंग्रेजी के प्रभाव में फंसे भारतीय समाज ने उसे भुला दिया है। यह अलग बात है कि यहां के लोगों में अभी भी उसकी स्मृतियां शेष हैं जिस कारण यदाकदा सच्चे साधु संतों के दर्शन हो जाते हैं। इन साधु संतों को न प्रचार से मतलब है न ही शिष्यों के संग्रह में रुचि होती है। इस कारण लोग उनके संपर्क में नहीं आते। इसकी वजह से धर्म प्रचार का व्यवसायिक उपयोग करने वालो संत का रूप धरकर उनके पास पहुंच जाते हैं। इस व्यवसायिक प्रचारकों को नाम तथा नामा दोनों ही मिलता है। अगर तत्वज्ञान की दृष्टि से देखें तो इन प्रचारकों का कोई दोष नहीं है। आम आदमी का भी दोष नहीं क्योंकि उसके पास तत्वज्ञान का अभाव है। अगर हमारे समाज में श्रीमद्भागवत गीता का पाठ्य पुस्तकों में आम प्रचलन होता तो शायद यह स्थिति नहीं होती। हालांकि यह भी केवल अनुमान है क्योंकि देखा तो यह भी जाता है कि श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान देने वाले संत भी उसमें वर्णित धर्म व्यवहार से परे ही प्रतीत होते हैं।
सच बात तो यह है कि लोग मनोरंजन के लिये मोहताज हैं और उनको बहलाने वाले धर्म, कला, फिल्म, राजनीति तथा शिक्षा के क्षेत्र में अलग व्यवसायिक प्रवृत्तियों वाले कुछ चालाक लोग सक्रिय है। अनेक जगह तो धर्म के नाम भी ऐसी गतिविधियां दिखने को मिलती हैं जिनका धर्म से कोई संबंध नहीं होता। जिन धुनों की गीतों के लिये उपयोग किया जाता है धर्मभीरुओं के भरमाने के लिये उन्हीं पर भजन बनाये जाते हैं। संगीत मानव मन की कमजोरी तो धर्म भी मजबूरी है उसका शिकार आम आदमी किस तरह हो सकता है इसे मनोरंजन के व्यापारी अच्छी तरह जानते हैं। यह मनोरंजन अधिक देर नहीं टिकता। इसके विपरीत तत्वज्ञानी संसार की इन्हीं गतिविधियों पर हमेशा हंसते हुए आनंद लेते हैं। सांसरिक आदमी मनोरंजन में लिप्त फिल्म और टीवी के साथ संगीत में लीन होकर अपना उद्धार ढूंढता है तो ज्ञानी उसे देखकर हंसता है। आम आदमी कल्पित कहानियों में कभी हास्य तो कभी गंभीर कभी वीभत्स तो कभी श्रृंगार रस की नदी में बहकर मनोरंजन करता है तो ज्ञानी उसके भटकाव की असली कहानी का आनंद उठाता है। एक सांसरिक मनुष्य और ज्ञानी में बस अंतर इतना ही है कि एक मनोरंजन के लिये बाहर साधन ढूंढता है जो क्षणिक और अप्रभावी होता है तो दूसरा अपने अंदर से ही प्राप्त कर आनंद स्थापित कर अपनी शक्ति और ज्ञान दोनों ही बढ़ाता है।