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विकिलीक्स के संचालक की गिरफ्तारी में अमेरिका का खेल


विकिलीक्स का संस्थापक जूलियन असांजे को अंततः लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया। जैसे ही उसके ब्रिटेन में होने की जानकारी जग जाहिर हुई तभी यह अनुमान लगा कि उसकी आज़ादी अब चंद घंटे की है। वह जिस कथित सम्राज्यवादी अमेरिका से पंगा ले रहा था उसका सहयोगी ब्रिटेन उसे नहीं पकड़ेगा इसकी संभावना तो वैसे भी नगण्य थी पर अगर वह किसी अन्य देश में भी होता तो पता मिलने पर उसे गिरफ्तार होना ही था। मतलब यह कि वह अज्ञातवास में रहकर ही बचा रह सकता था।
इस दुनियां के सारे देश अमेरिका से डरते हैं। एक ही संभावना असांजे की आज़ादी को बचा सकती थी वह यह कि क्यूबा में वह अपना ठिकाना बना लेता। जहां तक अमेरिका की ताकत का सवाल है तो अब कई संदेह होने लगे हैं। कोई भी देश अमेरिका से पंगा नहीं लेना चाहता। अब इसे क्या समझा जाये? सभी उसके उपनिवेश हैं? इसका सहजता से उत्तर दिया जा सकता है कि ‘हां,।’
मगर हम इसे अगर दूसरे ढंग से सोचे तो ऐसा भी लगता है कि अमेरिका स्वयं भी कोई स्वतंत्र देश नहीं है। अमेरिका स्वयं ही दुनियां भर के पूंजीपतियों, अपराधियों तथा कलाकर्मियों (?) का उपनिवेश देश है जो चाहते हैं कि वहां उनकी सपंत्ति, धन तथा परिवार की सुरक्षा होती रहे ताकि वह अपने अपने देशों की प्रजा पर दिल, दिमाग तथा देह पर राज्य कर धन जुटाते रहें। चाहे रूस हो या चीन चाहे फ्रांस हो, कोई भी देश अमेरिकी विरोधी को अपने यहां टिकने नहीं दे सकता। जब ताकतवर और अमीर देशों के यह हाल है तो विकासशील देशों का क्या कहा जा सकता है जिनके शिखर पुरुष पूरी तरह से अमेरिका के आसरे हैं।
वैसे तो कहा जाता है कि अमेरिका मानवतावाद, लोकतंत्र तथा स्वतंत्र अभिव्यक्ति का सबसे ताकतवर ठेकेदार है पर दूसरा यह भी सच है कि दुनियां भर के क्रूरतम शासक उसकी कृपा से अपने पदों पर बैठ सके हैं। ईदी अमीन हो या सद्दाम हुसैन या खुमैनी सभी उसके ऐसे मोहरे रहे हैं जो बाद में उसके विरोधी हो गये। ओसामा बिन लादेन के अमेरिकी संपर्कों की चर्चा कम ही होती है पर कहने वाले तो कहते हैं कि वह पूर्व राष्ट्रपति परिवार का -जो हथियारों कंपनियों से जुड़ा है-व्यवसायिक साझाीदार भी रहा है। शक यूं भी होता है कि उसके मरने या बचने के बारे में कोई आधिकारिक जानकारी अमेरिका नहीं देता यह कहते हुए कि उसके पास नहीं है। जिस तरह अमेरिका की ताकत है उसे देखते हुए यह बात संदेहजनक लगती है कि उसे लादेन का पता नहीं है। स्पष्टतः कहीं न कहीं अपने हथियार नियमित रूप से बेचने के लिये वह उसका नाम जिंदा रखना चाहता है। इस बहाने अपने हथियारों का अफगानिस्तान में गाहे बगाहे प्रयोग कर विश्व बाज़ार में वह अपनी धाक भी जमाता रहता है। उसके कई विमान, टैंक, मिसाइल तथा अन्य हथियारों का नाम वहीं प्रयोग करने पर ही प्रचार में आता है जो अन्य देश बाद में खरीदते हैं।
जूलियन असांजे की विकीलीक्स से जो जानकारियां आईं वह हमारे अनुमानों का पुष्टि करने वाली तो थीं पर नयी नहीं थी। इस पर अनेक लोगों को संदेह था कि यह सब फिक्सिंग की तहत हो रहा है। अब असांजे की गिरफ्तारी से यह तो पुष्टि होती है कि वह स्वतंत्र रूप से सक्रिय था। असांजे मूलतः आस्ट्रेलिया का रहने वाला हैकर है। वह प्रोग्रामिंग में महारथ हासिल कर चुका है मगर जिस तरह उसने विकीलीक्स का संचालन किया उससे एक बात तो तय हो गयी कि आने वाले समय में इंटरनेट अपनी भूमिका व्यापक रूप से निभाएगा। अलबत्ता दुनियां भर में गोपनीयता कानून बने हुए हैं जो उसके लिये संकट होगा। गोपनीयता कानूनों पर बहस होना चाहिए। दरअसल अब गोपनीय कानून भ्रष्ट, मूर्ख, निक्कमे तथा अपराध प्रवृत्ति के राज्य से जुड़े पदाधिकारियों के लिये सुरक्षा कवच का काम कर रहे हैं-ईमानदार अधिकारियों को उसकी जरूरत भी नहीं महसूस होती। फिर आजकल के तकनीकी युग में गोपनीय क्या रह गया है?
मान लीजिये किसी ने ताज़महल की आकाशीय लोकेशन बनाकर सेफ में बंद कर दी। उसे किसी छाप दिया तो कहें कि उसने गोपनीय दस्तावेज चुराया है। आप ही बताईये कि ताज़महल की लोकेशन क्या अब गोपनीय रह गयी है। अजी, छोड़िये अपना घर ही गोपनीय नहीं रहा। हमने गूगल से अपने घर की छत देखी थी। अगर कोई नाराज हो जाये तो तत्काल गूगल से जाकर हमारे घर की लोकेशन उठाकर हमारी छत पर पत्थर-बम लिखते हुए डर लगता है-गिरा सकता है। सीधी सी बात है कि गोपनीयता का मतलब अब वह नहीं रहा जो परंपरागत रूप से लिया जाता है। फिर अमेरिका की विदेश मंत्राणी कह रही हैं कि उसमें हमारी बातचीत देश की रणनीति का हिस्सा नहीं है तब फिर गोपनीयता का प्रश्न ही कहां रहा?
बहरहाल अब देखें आगे क्या होता है? असांजे ने जो कर दिखाया है वह इंटरनेट लेखकों के लिये प्रेरणादायक बन सकता है। सच बात तो यह है कि उसकी लड़ाई केवल अमेरिका से नहीं थी जैसा कि कुछ लोग मानते हैं। दरअसल विश्व उदारीकरण के चलते पूंजी, अपराध तथा अन्य आकर्षक क्षेत्रों के लोग अब समूह बनाकर या गिरोहबंद होकर काम करने लगे हैं। मूर्ख टाईप लोगों को वह बुत बनाकर आगे कर देते हैं और पीछे डोरे की तरह उनको नचाते हैं। अमेरिका के रणनीतिकारों की बातें सुनकर हंसी अधिक आती है। यहां यह भी बता दें कि उनमें से कई बातें पहले ही कहीं न कहीं प्रचार माध्यमों में आती रहीं हैं। ऐसा लगता है कि दुनियां भर के संगठित प्रचार माध्यम जो ताकतवर समूहों के हाथ में है इस भय से ग्रसित हैं कि कहीं इंटरनेट के स्वतंत्र लेखक उनको चुनौती न देने लगें इसलिये ही असांजे जूलियन को सबक सिखाने का निर्णय लिया गया है। यही कारण है कि एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति के मसीहा अमेरिका की शहर पर दूसरे मसीहा ब्रिटेन में उसे गिरफ्तार किया गया। अमेरिका को उसका मोस्ट वांटेड उसे कितनी जल्दी मिल गया यह भी चर्चा का विषय है खास तौर से तब जब उसने एक भी गोली नहीं दागी हो। जहां तक उसके प्रति सदाशयता का प्रश्न है तो भारत के हर विचारधारा का रचनाकार उसके प्रति अपना सद्भाव दिखायेगा-कम से कम अभी तक तो यही लगता है। हमारे जैसे आम और मामूली आदमी के लिये केवल बैठकर तमाशा देखने के कुछ और करने का चारा भी तो नहीं होता।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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विवाह विच्छेद के नियम आसान होना चाहिये-आलेख


कुछ ऐसी घटनाएँ अक्सर समाचारों में सुर्खियाँ बनतीं है जिसमें पति अपनी पत्नी की हत्या कर देता है
१। क्योंकि उसे संदेह होता है की उसके किसी दूसरे आदमी से उसके अवैध संबंध हैं।
२।या पत्नी उसके अवैध संबंधों में बाधक होती है।
इसके उलट भी होता है। ऐसी घटनाएँ जो अभी तक पाश्चात्य देशों में होतीं थीं अब यहाँ भी होने लगीं है और कहा जाये कि यह सब अपनी सभ्यता छोड़कर विदेशी सभ्यता अपनाने का परिणाम है तो उसका कोई मतलब नहीं है। यह केवल असलियत से मुहँ फेरना होगा और किसी निष्कर्ष से बचने के लिए दिमागी कसरत से बचना होगा।
हम कहीं न कहीं सभी लोग पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण कर ही रहे हैं। फिर भी समाज में बदनामी का डर रहता है इसलिए पुराने आदर्शों की बात करते हैं पर विवाह और जन्म दिन के अवसर पर हम सब भूलकर उसी ढर्रे पर आ जाते हैं जिस पर पश्चिम चल रहा है।
मैं एक दार्शनिक की तरह समाज को जब देखता हूँ तो कई लोगों को ऐसे तनावों में फंसा पाता हूँ जिसमें आदमी का धन और समय अधिक नष्ट होता देखता हूँ। कई माँ-बाप अपने बच्चों की शादी कराकर अपने को मुक्त समझते हैं पर ऐसा होता नहीं है। लड़कियों की कमी है पर लड़के वालों के अंहकार में कमी नहीं है। हम इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि लडकी के बाप के रूप में आदमी झुकता है लड़के के बाप के रूप में अकड़ता है। अपने आसपास जब कुछ लोगों को बच्चों के विवाह के बाद भी उनके तनाव झेलते हुए पाता हूँ तो हैरानी होती है।

रिश्ते करना सरल है और निभाना और मुश्किल है और उससे अधिक मुश्किल है उनको तोड़ना। कई जगह लडकी भी लड़के के साथ रहना नहीं चाहती पर लड़के वाले दहेज़ और अन्य खर्च की वापसी न करनी पड़े इसलिए मामले को खींचते हैं। कई जगह कामकाजी लडकियां घरेलू तनाव से बहुत परेशान होती हैं और वह अपने पति से अलग होना चाहतीं है पर यह काम उनको कठिन लगता है। लंबे समय तक मामला चलता है। कुछ घर तो ऐसे भी देखे हैं कि जिनका टूटना तय हो जाता है पर उनका मामला बहुत लंबा चला जाता है। दरअसल अधिकतर सामाजिक और कानूनी कोशिशे परिवारों को टूटने से अधिक उसे बचाने पर केन्द्रित होतीं है। कुछ मामलों में मुझे लगा कि व्यर्थ की देरी से लडकी वालों को बहुत हानि होती है। अधिकतर मामलों में लडकियां तलाक नहीं चाहतीं पर कुछ मामलों में वह रहना भी नहीं चाहतीं और छोड़ने के लिए तमाम तरह की मांगें भी रखतीं है। कुछ जगह लड़किया कामकाजी हैं और पति से नहीं बनतीं तो उसे छोड़ कर दूसरा विवाह करना चाहतीं है पर उनको रास्ता नहीं मिल पाता और बहुत मानसिक तनाव झेलतीं हैं। ऐसे मामले देखकर लगता है कि संबंध विच्छेद की प्रक्रिया बहुत आसान कर देना चाहिए। इस मामले में महिलाओं को अधिक छूट देना चाहिऐ। जहाँ वह अपने पति के साथ नहीं रहना चाहतीं वह उन्हें तुरंत तलाक लेने की छूट होना चाहिए। जिस तरह विवाहों का पंजीयन होता है वैसे ही विवाह-विच्छेद को भी पंजीयन कराना चाहिए। जब विवाह का काम आसानी से पंजीयन हो सकता है तो उनका विच्छेद का क्यों नहीं हो सकता।

कहीं अगर पति नहीं छोड़ना चाहता और पत्नी छोड़ना चाहती है उसको एकतरफा संबंध विच्छेद करने की छूट होना चाहिए। कुछ लोग कहेंगे कि समाज में इसे अफरातफरी फ़ैल जायेगी। ऐसा कहने वाले आँखें बंद किये बैठे हैं समाज की हालत वैसे भी कौन कम खराब है। अमेरिका में तलाक देना आसान है पर क्या सभी तलाक ले लेते हैं। देश में तलाक की संख्या बढ रही हैं और दहेज़ विरोधी एक्ट में रोज मामले दर्ज हो रहे हैं। इसका यह कारान यह है कि संबंध विच्छेद होना आसान न होने से लोग अपना तनाव इधर का उधर निकालते हैं। वैसे भी मैं अपने देश में पारिवारिक संस्था को बहुत मजबूत मानता हूँ और अधिकतर औरतें अपना परिवार बचाने के लिए आखिर तक लड़ती है यह भी पता है पर कुछ अपवाद होतीं है जो संबध विच्छेद आसानी से न होने से-क्योंकि इससे लड़के वालों से कुछ नहीं मिल पाता और लड़के वाले भी इसलिए नहीं देते कि उसे किसी के सामने देंगे ताकि गवाह हों-तमाम तरह की नाटकबाजी करने को बाध्य होतीं हैं। कुछ लड़कियों दूसरों के प्रति आकर्षित हो जातीं हैं पर किसी को बताने से डरती हैं अगर विवाह विच्छेद के प्रक्रिया आसान हो उन्हें भी कोई परेशानी नहीं होगी।

कुल मिलकर विवाह नाम की संस्था में रहकर जो तनाव झेलते हैं उनके लिए विवाह विच्छेद की आसान प्रक्रिया बनानी चाहिऐ। हालांकि देश के कुछ धर्म भीरू लोग जो मेरे आलेख को पसंद करते है वह इससे असहमत होंगें पर जैसा मैं वाद और नारों से समाज नहीं चला करते और उनकी वास्तविकताओं को समझना चाहिऐ। अगर हम इस बात से भयभीत होते हैं तो इसका मतलब हमें अपने मजबूत समाज पर भरोसा नहीं है और उसे ताकत से नियंत्रित करना ज़रूरी है तो फिर मुझे कुछ कहना नहीं है-आखिर साठ साल से इस पर कौन नियंत्रण कर सका।

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हास्य व्यंग्य-अपना अपना राग-hasya vyangya


देश के बुद्धिजीवियों के लिये इस समय कुछ न कुछ लिखने के लिये ऐसा आ ही जाता है जिसमें उनको संकुचित ज्ञान को व्यापक रूप से प्रस्तुत करने का अवसर मिल जाता है। देश में निरंतर हो रही आतंकी घटनाओं ने विचाराधारा पर अनेक भागों में बंटे बुद्धिजीवियों को अपने दृष्टिकोण से हर हादसे पर विचार व्यक्त करने का अवसर दिया है। घटना से पीडि़त लोगो के परिवारों के हाल पर कोई नहीं लिख रहा पर हादसों के आधार पर बहसों के दौर शुरू हो गये हैं।

पिछले कई दिनों से लग रहा था कि विचाराधारा के आधार पर लिखने पढ़ने वालों के दिल लद गये और अब कुछ नवीनतम और सत्य लिखकर नाम कमाया जा सकता है पर हमारे जैसे लोगों के दिन न पहले आये और न आयेंगे। हम तो सामाजिक और वैचारिक धरातल पर जो समाज में कहानियां या विषय वास्तव में रहते हैं उस पर लिखने के आदी हैं। विचाराधारा के लोग न केवल पूर्वाग्रह से सोचते हैं बल्कि किसी भी घटना पर संबंधित पक्ष की मानसिकता की बजाय अपने अंदर पहले से ही तय छबि के आधार पर आंकलन कर अपना निष्कर्ष प्रस्तुत कर देते हैं। चूंकि समाज पर बड़े लोगों का प्रभाव है इसलिये उनके पास अपनी विचारधारा के आधार पर इन बुद्धिजीवियों का समूह भी रहता है। इन्हीं बड़े लोगों का सभी जगह नियंत्रण है और अखबार और टीवी चैनल पर उनके समर्थक बुद्धिजीवियेां को ही प्रचार मिलता है। ऐसे मेें शुद्ध सामाजिक एवं वैचारिक आधार वाले समदर्शी भाव वाले लेखक के लिये कहीं अपनी बात कहने का मंच ही नहीं मिल पाता।

इधर अंतर्जाल पर लिखना शुरू किया तो पहले तो अच्छी सफलता मिली पर अब तो जैसे विचारधारा पर आधारित सक्रिय बुद्धिजीवियों को देश मेंं हो रहे हादसों ने फिर अपनी जमीन बनाने का अवसर दे दिया। अब हम लिखें तो लोग कहते हैं कि तुम उस ज्वलंत विषय पर क्यों नहीं लिखते! हमने गंभीर चिंतन,आलेख और कविताओं को लिखा। मगर फिर भी फ्लाप! क्योंकि हम किसी का नाम लेकर उसे मुफ्त में प्रचार नहीं दे सकते। वैसे तो समाज को बांटने के प्रयासों के प्रतिकूल जब हमने पहले लिखा तो खूब सराहना हुई। वाह क्या बात लिखी! अब लगता है कि हमारे दिल लद रहे हैंं।
तब ऐसा लग रहा था कि समाज अब भ्रम से निकलकर सच की तरफ बढ़ रहा है पर हादसों ने फिर वैचारिक आधार पर बंटे बुद्धिजीवियों को अपनी बात कहने का अवसर दे दिया। यह बुद्धिजीवी बात तो एकता की करते हैं मगर उससे पहले समाज को बांट कर दिखाना उनकी बाध्यता है। उनके तयशुदा पैमाने हैं कि अगर दो धर्म, जातियों या भाषाओं के बीच विवाद हो तो एक को सांत्वना दो दूसरे को फटकारो। ऐसा करते हुए यह जरूर देखते हैं कि उनके आका किसको सांत्वना देने से और किसको फटकारने से खुश होंगे।

एकता, शांति और प्रेम का संदेश देते समय छोड़ मचायेंगे। इतिहास की हिंसा को आज के संदर्भ में प्रस्तुत कर अहिंसा की बात करेंगे।

जिस धर्म के समर्थक होंगे उसे मासूम और जिसके विरोधी होंगे उसके दोष गिनायेंगे। मजाल है कि अपने समर्थक धर्म के विरुद्ध एक भी शब्द लिख जायें। जिस जाति के समर्थक होंगे उसे पीडि़त और जिसके विरोधी हों उसे शोषक बना देंगे। यही हाल भाषा का है। जिसके समर्थक होंगे उसको संपूर्ण वैज्ञानिक, भावपूर्ण और सहज बतायेंगे और जिसके विरोधी हों तो उसकी तो वह हालत करेंगे जो वह पहचानी नहीं जाये।
मतलब उनका केंद्र बिंदु समर्थन और विरोध है और इसलिये उनके लेखक में आक्रामकता आ जाती है। ऐसे में समदर्शिता का भाव रखने वाले मेरे जैसे लोग सहज और सरल भाषा में लिखकर अधिक देरी तक सफल नहीं रह सकते। इनकी आक्रामकता का यह हाल है कि यह किसी को राष्ट्रतोड़क तो किसी को जोड़क तक का प्रमाणपत्र देते हैं। बाप रे! हमारी तो इतनी ताकत नहीं है कि हम किसी के लिये ऐसा लिख सकें।

इन बुद्धिजीवियों ने ऐसे इतिहास संजोकर रखा है जिस पर यकीन करना ही मूर्खता है क्योंकि इनके बौद्धिक पूर्वजों ने अपना नाम इतिहास में दर्ज कराने के लिये ऐसी किताबें लिख गये जिसको पढ़कर लोग उनकी भ्रामक विचाराधारा पर उनका नाम रटते हुए आगे बढ़ते जायेंं। ऐसा तो है नहीं कि सौ पचास वर्ष पूर्व हुए बुद्धिजीवी कोई भ्रमित नहीं रहे होंगे बल्कि हमारी तो राय है कि उस समय ऐसे साधन तो थे नहीं इसलिये अधिक भ्रमित रहे होंगे। फिर वह कोई देवता तो थे नहीं कि हर बात सच मान जी जाये पर उनके समर्थक इतने यहां है कि उनसे विरोधी बुद्धिजीवी वर्ग के ही लोग लड़ सकते हैं। समदर्शी भाव वाले विद्वान के लिये तो उनसे दो हाथ दूर रहना ही बेहतर है। अगर नाम कमाने के चक्कर में हाथ पांव मारे तो पता पड़ा कि सभी विचारधारा के बुद्धिजीवी कलम लट्ठ की तरह लेकर पीछे पड़ गये।
इतिहास के अनाचार, व्याभिचार और अशिष्टाचार की गाथायें सुनाकर यह बुद्धिजीवी समाज में समरसता का भाव लाना चाहते हैं। ऐसे में अगर किसी प्राचीन महान संत या ऋषि का नाम उनके सामने लो तो चिल्ला पड़ते हैं-अरे, तुझे तो पुराने विषय ही सूझते हैं।‘

अब यह बुद्धिजीवी क्या करते हैं उसे भी समझ लें
किसी जाति का नाम लेंगे और उसको शोषित बताकर दूसरी जाति को कोसेंगे। मतलब शोषक और और शोषित जाति का वर्ग बनायेंगे। फिर जायेंगे शोषित जाति वाले के पास‘उठ तू। हम तेरा उद्धार करेंगे। चल संघर्ष कर।’

फिर शोषक जाति वाले के पास जायेंगे और कहेंगे-‘हम बुद्धिजीवी हैं हमारा अस्तित्व स्वीकारा करो। हमसे बातचीत करो।’

तय बात है। फिर चंदे और शराब पार्टी के दौर चलते हैं। इधर आश्वासन देंगे और उधर सिंहासन लेंगे। अब अगर यह समाज को बांट कर समाज को नहीं चलायेंगे तो फिर इनका काम कैसे चलेगा।

ऐसे ही धर्म के लिये भी करेंगे। एक धर्म को शोषक बताकर उसे मानने वाले से कहेंगे-‘उठ तो अकेला नहीं है हम तेरे साथ हैं। उठ अपने धर्म के सम्मान के लिये लड़। तू चाहे जो गलती कर हम तुझे और तेरे धर्म को भले होने का प्रमाणपत्र देंगे।’

दूसरे धर्म वाले के पास तो वह जाते ही नहीं क्योंकि उसके लिये प्रतिकूल प्रमाणपत्र तो वह पहले ही तैयार कर चुके होते हैं। फिर शुरू करेंेगे इधर आश्वासन देने और उधर सिंहासन-यानि सम्मान और को पुरस्कार आदि-लेने का काम।’

मतलब यही है कि अब फिर वह दौर शुरू हो गया है कि हम जैसे समदर्शी भाव के लेखक गुमनामी के अंधेरे में खो जायें, पर यह अंतर्जाल है यहां सब वैसा नहीं है जैसा लोग सोचते हैं। यही वजह है कि लिखे जा रहे हैं। समदर्शिता के भाव में जो आनंद है वह पूर्वाग्रहों में नहीं है-अपने लेखन के अनुभव से यह हमने सीखा है। इसमें इनाम नहीं मिलते पर लोगों की वाह वाह दिल से मिलती है। अगर प्रकाशन जगत ने हमें समर्थन दिया होता तो शायद हम भी कहीं विचाराधाराओं की सेवा करते होते। ऐसी कोशिश यहां भी हो रही है पर यहां हर चीज वैसी नहीं है जैसे लोग सोचते हैं। सो लिखे जा रहे हैं। वैसे इन बुद्धिजीवियों का ज्ञान तो ठीक ठाक है पर अपना चिंतन और मनन करने का सामथर्य उनमें नहीं है। वैसे उनके आका यह पसंद भी नहीं करते कि कोई अपनी सोचे। हां, अब तो अंतर्जाल पर भी चरित्र प्रमाण पत्र बांटने का काम शुरू हो गया है। देखते हैं आगे आगे होता है क्या। यह आश्वासन और सिंहासन का खेल है हालांकि समाज का आदमी इसे देखता है पर उसका निजी जीवन अब इतना कठिन है कि वह इसमें दिलचस्पी नहीं लेता।

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यह कविता इस ब्लॉग

‘दीपक भारतदीप की शब्द प्रकाश-पत्रिका’

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जिसने ढूंढें हैं सहारे


आकाश में चमकते सितारे भी
नहीं दूर कर पाते दिल का अंधियारा
जब होता है वह किसी गम का मारा
चन्द्रमा भी शीतल नहीं कर पाता
जब अपनों में भी वह गैरों जैसे
अहसास की आग में जल जाता
सूर्य की गर्मी भी उसमें ताकत
नहीं पैदा कर पाती
जब आदमी अपने जज्बात से हार जाता
कोई नहीं देता यहाँ मांगने पर सहारा

इसलिए डटे रहो अपनी नीयत पर
चलते रहो अपनी ईमान की राह पर
इन रास्तों की शकल तो कदम कदम पर
बदलती रहेगी
कहीं होगी सपाट तो कहीं पथरीली होगी
अपने पाँव पर चलते जाओ
जीतता वही है जो उधार की बैसाखियाँ नहीं माँगता
जिसने ढूढे हैं सहारे
वह हमेशा ही इस जंग में हारा
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क्रिकेट फ्लॉप
फिल्म फ्लॉप
सपनों के सौदागर कर रहे विलाप
क्रिकेट में खेलना ही पर्याप्त नहीं
गेंद और बल्ले की जंग में
अब मनोरंजन व्याप्त नहीं
खिलाडियों को फिल्म के अभिनेताओं की तरह
रेम्प पर नचवाओ
खिलाडियों को नाचना भी आता  है
लोगों को बताओ
उन्हें लगातार बह्काओ
नहीं आयेगा पीछा खर्च करने अपने आप

खिलाडियों का मैदान में खेलना
अब पर्याप्त नहीं है
जब तक दर्शकों में हीरो की
छबि व्याप्त नहीं है
इसलिए मैदान में लगाओ
किसी हीरो की छाप
फ्लाप होने की तरह बढ़ रहे हीरो
क्रिकेट भी देखते हैं
खिलाडियों को भी रंगीन चश्में से देखते हैं
उनकी फिल्में भी देखते रहो
क्रिकेट को अभी भी सहते रहो
हिट बनाने का यह नया फार्मूला है
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