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एक लेखिका को ब्रह्मज्ञानी साबित करने की कोशिश-हिन्दी लेख


पश्चिम से पुरस्कार प्राप्त होने के बाद भारत के अंग्रेजी लेखक हिन्दी प्रचार माध्यमों के चहेते हो जाते हैं। उनके बयान भारतीय प्रचार माध्यम-टीवी, अखबार तथा रेडियो-ब्रह्मवाणी की तरह प्रस्तुत करने के लिए तरसते हैं। भारत में भगवान ब्रह्मा के बाद कोई दूसरा नहीं हुआ क्योंकि कुछ कहने सुनने को बचा ही नहीं था। उनको भारतीय अध्यात्म का पितृपुरुष भी कहा जा सकता है। इसका मतलब यह है कि उनके बाद जो हुए वह पुत्र पुरुष हुए। मतलब यहां ब्रह्मा के पुत्र पुरुष तो बन सकते हैं पर भारत के पितृपुरुष नहीं बन सकते। सो प्रचार माध्यम आये दिन नये पितृपुरुष प्रस्तुत करते है क्योंकि पुत्र पुरुष में अधिक प्रभाव नहीं दिखता। यहां पुरुष से आशय संपूर्ण मानव समाज से है न कि केवल लिंग भेद से। स्पष्टत करें तो स्त्री के बारे में भी कह सकते हैं कि वह पुत्री बन सकती है पर गायत्री माता नहीं। गायत्री माता का मंत्र जापने से जो मानसिक शांति मिलती है पर उसकी चर्चा यहां नहीं कर रहे हैं।
अंग्रेजी में भारतीय गरीबी पर उपन्यास लिखकर पुरस्कार प्राप्त करने वाली एक लेखिका ने कहा कि ‘इतिहास में जम्मू-कश्मीर कभी भारत का हिस्सा नहीं रहा।’
उसने यह पहली बार नहीं कहा पर जो स्थिति बनी है उससे लगता है कि दोबारा वह शायद ही यह बयान दोहराये। कथित न्याय के लिये संघर्षरत वह लेखिका केवल प्रचार माध्यमों के सहारे ही प्रचार में बनी रहती है। दरअसल उसके बयान का महत्व इसलिये बना क्योंकि कश्मीर के एक अलगाववादी नेता के साथ उसने दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस की थी। इसके लिये धन कहां से आया पता नहीं। मगर जिस साज सज्जा से यह सब हुआ उसमें पर्दे के पीछे धन का काम अवश्य रहा होगा। यह लेख उन कथित महान लेखिका को यह समझाने के लिये नहीं लिखा जा रहा कि वह जम्मू कश्मीर को भारत का अविभाज्य अंग स्वीकार करने की कृपा करें। उनके बयान का प्रतिवाद करने का हमारा कोई इरादा नहीं है।
हम तो बात कर रहे हैं उस इतिहास की जिसको उनके सहायक प्रचार माध्यमों ने जोरशोर से सुनाया। कुछ लोगों ने तो यह भी लिखा है कि अंग्रेजों के आने से पहले यह भारत भी कहां था? इतनी सारी रियासतों को जबरन मिलाकर देश बनाया गया। चलिये यह भी मान लेते हैं क्योंकि हमें अब इतिहास पर नज़़र डालनी होगी।
इतिहास बताता है कि आज का भारत बहुत छोटा है इससे अधिक पर तो अनेक राजा राज्य कर चुके हैं। एक समय किसी भारतीय राजा की ईरान तो दूसरे की तिब्बत तक राज्य सीमा बताई गयी है। उसके पश्चात् जो राजा हुआ आपस में लड़ते रहे यह भी सच है। विदेशियों को आने का मौका मिला। मुगल और अंग्रेज सबसे अधिक शासन करने वाले माने जाते हैं। जिस डूंरड लाईन को पार कर वह काबुल तक नहीं जा सके वहां तक भारतीय राजा राज्य कर चुके थे। इतिहास में पाकिस्तान भी भारत का हिस्सा था। मतलब यह कि सिंध, पंजाब, ब्लूचिस्तान और सीमा प्रांत भी कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं रहे। अस्पष्ट रूप से पाकिस्तान की बजा रही वह लेखिका इससे भी मुंह फेर ले तो उससे भी शिकायत नहीं है। इतिहास गवाह है कि ईरान के राजा ने सिंध के राजा दाहिर को परास्त किया था। इस संबंध में भी बताया जाता है कि ईरान के एक आदमी पर अधिक भरोसा करना उसे ले डूबा। उसके बाद ईरान के राजा ने उसकी स्त्रियों का हरण किया-नारीवादी होने के नाते उस लेखिका को यह बात भी पढ़नी चाहिए।
गरीबों के साथ अन्याय, मजदूरों का शोषण, स्त्री के मजबूरी के विषय पर अपनी आवाज बुलंद करने वाले अनेक लेखक लेखिकाऐं तमाम तरह के नारे चुन लेते हैं। समस्याओं का हल तो उनके पास नहीं था है और न होगा। इसका कारण यह है कि हर मनुष्य अपने आप में एक ईकाई है और उसकी समस्याओं का सामूहिक अस्तित्व होता ही नहीं है। जो समस्यायें सामूहिक हैं वह गरीब और मध्यम वर्ग दोनों के लिये एक समान है। कहीं कहीं अमीर भी उसका शिकार होता है। जब भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ तब आज पाकिस्तान के कथित रूप से हिस्सा कहला रहे पंजाब और सिंध से जो हिन्दू भारत आये उनमें की कई अमीर थे और वहां से तबाह होकर यहां आये। इस विभाजन में कहने को भले ही किसी को जिम्मेदार माना जाये पर हकीकत यह कि कहीं न कहीं इसके पीछे आधुनिक कंपनी पूंजीवाद भी जिम्ममेदार थां मतलब यह कि जिस अमेरिकी और ब्रिटेन के सम्राज्य को कोसा जा रहा है वह कहीं ने कहीं से केवल कंपनी अमीरों का ही बनाया हुआ है। कंपनी नाम का यह दैत्य भारत की आज़ादी से पूर्व ही सक्रिय है। इसी समूह से जुड़े लोग बूकर जैसे पुरस्कार बनाते हैं जो अपने समर्थित बुद्धिजीवियों को दिये जाते हैं। वरना लेखकों या रचनाकारों को पुरस्कार की क्या जरूरत! क्या वेदव्यास या बाल्मीकी को कोई बूकर या नोबल मिला था या वह ऐसी आशा करते थे। रहीम, कबीर, मीरा, तुलसी जैसे रचनाकर अपनी क्षेत्रीय भाषा में रचनायें कर विश्व भर में लोकप्रिय हैं। कोई अंग्रेजी या अन्य लेखक उनके पासंग नहीं दिखता। मुश्किल यह है कि समाज को नयापन देकर पैसा बटोरने के प्रयास करने वाले बाज़ार तथा उसके प्रचारकों के पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है कि वह विदेशी पुरस्कारों तथा भाषाओं का सम्मान करें ताकि उनका धंधा चलता रहे। यह बूकर पुरस्कार भी भारत के इतिहास में नहीं है।
अमेरिका और ब्रिटेन सहित पश्चिमी देशों ने नोबल, बूकर, तथा सर जैसे खिताब बना रखे हैं जिनके प्रयास में कुछ बुद्धिमान भारतीय अंग्रेजी में लिख लिख कर मर गये पर मन है कि मानता नहीं। उनके यहां अमिताभ बच्चन जैसा अभिनेता नहीं है इसलिये ऑस्कर लेकर आने वाले अभिनेताओं को उनसे बड़ा साबित करने की भारतीय प्रचार माध्यम नाकाम कोशिश करते हैं। अलबत्ता लेखन जगत में वह कामयाब हो जाते हैं क्योंकि हिन्दी के लेखकों के पास कोई स्वतंत्र साधन नहीं है और बाज़ार और उसके प्रचार समूह से समझौता कर ही वह चल पता है ऐसे में उसकी मौलिकता तथा स्वतंत्रता दाव पर लग जाती है। यही कारण है कि उनको अंग्रेजी को पाठकों को विदेशी भाषा के देशी लेखक या उनके पाठ हिन्दी में प्रस्तुत करना पड़ते हैं। सम सामयिक घटनाओं को लिखा साहित्य नहीं होता मगर लिखने वाले साहित्यकार कहलाते हैं। दूसरे का लिखा पढ़ने वाला टीवी एंकर पत्रकार नहीं होता मगर कहलता है। एक उपन्यास लिखकर कोई महान लेखक नहीं होता क्योंकि सतत लिखना ही उनको महान बनाता है मगर यहां तो एक उपन्यास लिखकर ही एक लेखिका महान बनी फिर रही है।
सीधी बात कहें कि इतिहास पर बहस अनंत हो सकती है। उस लेखिका ने बाद में कहा कि ‘जम्मू कश्मीर के बारे में मैंने वही कहा जो लाखों लोग रोज कहते हैं। मैं तो अन्याय के विरुद्ध बोल रही हूं।’
यह बयान बदलने की तरह है। पहले आप इतिहास की आड़ लेते हैं जब मामला दर्ज होता है तो आप लोगों के कहने की आड़ लेते हैं। इसका मतलब यह कि आपने इतिहास नहीं पढ़ा। जिस तरह की वह लेखिका हैं वह शायद ही किसी का लिखा पढ़ती हों ऐसे में इतिहास जैसा बृहद विषय पढ़ा होगा संदेह की बात है। रहा न्याय के लिये अन्याय से लड़ने की बात! उस पर भी सवाल यह है कि केवल उत्तर पूर्व तथा जम्मू कश्मीर जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों में ही उनको अन्याय दिखता है। उन जैसे अन्य लोगों को मध्य भारत में सब कुछ ठीक ठाक लगता है। क्या यहंा इस तरह का अन्याय नहीं होता! शायद डर है कि कहीं अगर पूरे भारत में न्याय की मांग का विषय पूरे भारत में फैला तो फिर पूरे देश के सारे प्रदेशों में ही कहीं अलगाववाद न फैल जाये। फिर कहीं सारे देश का विभाजन हो गया तो फिर पूंजी, समाज तथा राजनीति के जिन शिखरों के सहारे खड़े बुद्धिजीवियों का भी बंटाढार हो जायेगा तब वह उनका प्रायोजन कैसे करेंगें।
आखिरी बात यह कि इतिहास में वीसा या पासपोर्ट भी नहीं था। राजाओं की जंग होती थी पर सामान्य लोगों का आवागमन बाधित होता था इसका प्रमाण नहीं मिलता था। अब भारत का आदमी बिना सरकारी सहायता के लाहौर, कराची या सक्खर नहीं जा सकता जहां हिन्दू धर्म के अनेक पवित्र स्थान है। कश्मीर हिमालयीन क्षेत्र है जहां से आम भारतीय भावनात्मक रूप से जुड़ा रहा है। यहां तमाम तीर्थ हैं ऐसे में यह भारतीय जनमानस के हृदय का अभिन्न अंग हमेशा रहा है। लेखिका और उनके सहयोगी जो बकवास कर रहे हैं वह इस बात को समझ लें कि आम आदमी का पारगमन बाधित हुआ है जिसके कारण वह सरकारी महकमों का मोहताज हो गया है। यही अन्याय का कारण भी है। अगर दम है तो फिर सारी दुनियां में पासपोर्ट तथा वीजा मुक्त आवागमन के लिये आंदोलन करो। कतरनों में ज़माने का कल्याण नहीं होगा। स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि दूसरे को छोड़कर अपने ही लोग शोषण करें बल्कि आम आदमी हर जगह स्वतंत्र रूप से जा सके यही न्याय का प्रमाण है। जम्मू कश्मीर में धारा 370 लगी है जिससे वहां शेष भारत का आदमी मकान नहीं खरीद सकता जबकि वहां का आदमी कहीं भी खरीद सकता है। क्या इसमें अन्याय जैसा कुछ नहीं है। मतलब यह कि इतिहास और आम इंसान से न्याय का प्रश्न उससे अधिक गहरे हैं जितने वह लेखिका और उसके समर्थक बता रहे हैं। चलते चलते हमारे मन में एक प्रश्न तो रह ही गया कि भारतीय अध्यात्म ग्रंथों में कहीं अरुधंती नाम की महिला का उल्लेख मिलता है पर याद नहीं आ रहा वह कौन है?
हां, इतना जरूरी है कि हम यह देख सकते हैं कि एक विदेशी पुरस्कार प्राप्त लेखिका को हमारे ही देश के प्रचार माध्यम ब्रह्मज्ञानी की तरह प्रचारित कर रहे हैं जो कि हास्यास्पद है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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हिन्दी वाले अंग्रेज-हिन्दी चिंतन लेख (hindi wale angrej-hindi article)


कभी कभी तो लगता है कि अपना ही दिमाग चल गया है। संभव है कंप्यूटर पर काम करते हुए यह हुआ हो या लगातार लिखने की वजह से अपने अंदर कुछ अधिक आत्मविश्वास आ गया है जो हर किसी की बात गलत नज़र आती है। यही कारण है कि अंग्रेजी भाषा और रोमन लिपि को लेकर अपने दिमाग में देश के विद्वानों के मुकाबले सोच उल्टी ही विचरण कर रही है। विद्वान लोगों को बहुत पहले से ही अं्रग्रेजी में देश का भविष्य नज़र आता रहा है पर हमें नहंी दिखाई दिया। अपनी जिंदगी का पूरा सफर बिना अंग्रेजी के तय कर आये। इधर अंतर्जाल पर आये तो रोमनलिपि में हिन्दी लिखने की बात सामने आती है तब हंसी आती है।
सोचते हैं कि लिखें कि नहीं। इसका एक कारण है। हमारे एक मित्र पागलखाने में अपने एक अन्य मित्र के साथ उसके रिश्तेदार के साथ देखने गये थे। वहां उन्होंने अपना मानसिक संतुलन जांचने के वाले दस प्रश्न देखे जो वहां बोर्ड पर टंगे थे। उसमें लिखा था कि अगर इन प्रश्नों का जवाब आपके मन में ‘हां’ आता है तो समझ लीजिये कि आपको मानसिक चिकित्सा की आवश्यकता है। उनमें एक यह भी था कि आपको लगता है कि आप हमेशा सही होते हैं बाकी सभी गलत दिखते हैं।’
यानि अगर हम यह कहें कि हम सही हैं तो यह मानना पड़ेगा कि हमें मानसिक चिकित्सा की आवश्यकता है। अगर हम यह कहें कि देश के सभी लोगों का भविष्य अंग्रेजी से नहीं सुधर सकता या रोमन लिपि में हिन्दी लिखने वाली बात बेकार है तो यह विद्वानों के कथनों के विपरीत नज़र आती है। तब क्या करें?
श्रीमद्भागवत गीता में भी एक बात कही है कि‘बहुत कम ज्ञानी भक्त होते है।’ हजारों में कोई एक फिर उनमें भी कोई एक! मतलब अकेले होने का मतलब मनोरोगी या पूर्ण ज्ञानी होना है। अपने पूर्ण ज्ञानी होने को लेकर कोई मुगालता नहीं है इसलिये किसी आम राय के विरुद्ध अपनी बात लिखने से बचते हैं। मगर कीड़ा कुलबुलाता है तो क्या करें? तब सोचते हैं कि लेखक हैं और ज्ञानी न होने के विश्वास और मनोरोगी होने के संदेह से परे होकर लिखना ही पड़ेगा।
इस देश का विकास अंग्रेजी पढ़ने से होगा या जो अंग्रेजी पढ़ेंगे वही आगे कामयाब होंगे-यह नारा बचपन से सुनते रहे। पहले अखबार पढ़कर और अब टीवी चैनलों की बात सुनकर अक्सर सोचते हैं कि क्या वाकई हमारे देश के कथित बुद्धिजीवियों को देश की आम जनता की मानसिकता का ज्ञान है। तब अनुभव होता है कि अभी तक जिन्हें श्रेष्ठ बुद्धिजीवी समझते हैं वह बाजार द्वारा प्रयोजित थे-जो या तो कल्पित पात्रों के कष्टों का वर्णन कर रुलाते हैं या बड़े लोगों के महल दिखाकर ख्वाब बेचते रहे हैं।
बचपन में विवेकानंद की जीवनी पढ़ी थी। जिसमे यह लिखा था कि शिकागो में जैसे ही उन्होंने धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा ‘ब्रदर्स एंड सिस्टर’
वैसे ही सारा हाल तालियों से गूंज उठा। उसके बाद तो उनकी जीवनी में जो लिखा था वह सभी जानते हैं। उन महान आत्मा पर हम जैसा तुच्छ प्राणी क्या लिख सकता है? मगर इधर अंतर्जाल पर उनके प्रतिकूल टिप्पणी पढ़ने का अवसर मिला तो दुःख हुआ। भाई लोग कोई भी टिप्पणी किसी भी सज्जन के बारे में लिख जाते हैं-अब यह पता नहीं उनकी बात कितनी सच कितली झूठ।
बहरहाल इस स्वामी विवेकानंद की जीवन के प्रारंभ में ही इस तरह का वर्णन अब समझ में आता है।
ऐसा लगता है कि उन महान आत्मा का जीवन परिचय प्रस्तुत करते हुए बाजार द्वारा लोगों को यह प्रायोजित संदेश दिया गया कि ‘भई, अंग्रेजी पढ़ लिखकर ही आप अमेरिका या ब्रिटेन को फतह कर सकते हो।’
बात यहीं नहीं रुकी। कोई अमेरिका में नासा में काम कर रहा है तो उससे भारत का क्या लाभ? ब्रिटेन के हाउस और कामंस में कोई भारतीय जाता है तो उससे आम भारतीय का क्या वास्ता? इस बारे में रोज कोई न कोई समाचार छपता है? मतलब यह कि यहां आपके होने या होने का केाई मतलब नहीं है।
दरअसल अंग्रेजी के विद्वान-अब तो हिन्दी वाले भी उनके साथ हो गये हैं-कहीं न कहीं अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये अमेरिका और ब्रिटेन के सपने यहां बेचते हैं। कुछ लोगों ने तो यह टिप्पणी भी की है कि अंग्रेजी में विज्ञान है और उससे जानने के लिये उसका ज्ञान होना जरूरी है। अब तो हमारे दिमाग में यह भी सवाल उठने लगा है कि आखिर अंग्रेजी में कौनसा विज्ञान है? चिकित्सा विज्ञान! आधुनिक चिकित्सकों के पास जाने में हमें खौफ लगता है इसलिये ही रोज योग साधना करते हैं। एक नहीं दसियों मरीजों के उदाहरण अपनी आंखों से देखे हैं जिन्होंने डाक्टरों ने अधिक बीमार कर दिया। यह रिपोर्ट, वह रिपोर्ट! पहले एड्स बेचा फिर स्वाइन फ्लू बेचा। मलेरिया या पीलिया की बात कौन करता है जो यहां आम बीमारी है। परमाणु तकनीक पर लिखेंगे तो बात बढ़ जायेगी। भवन निर्माण तकनीकी की बात करें तो यह इस देश में अनेक ऐसे पुल हैं जो अंग्रेजों से पहले बने थे। लालकिला या ताजमहल बनने के समय कौन इंजीनियरिंग पढ़ा था?
अब सवाल करें कि इस देश के कितने लोग बाहर अंग्रेजी के सहारे रोजगार अर्जित कर रहे हैं-हमारे पास ऐसी कई कहानियां हैं जिसमें ठेठ गांव का आदमी अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रंास पहंुच गया और अंग्रेजी न आने के बावजूद वह वहां जम गया। विभाजन के बाद सिंध और पंजाब से आये अनेक लोगों ने यहां आकर हिन्दी सीखी और व्यापार किया। वह हिन्दी या उर्दू सीखने तक वहां नहीं रुके रहे। अब भी देश के तीन या चार करोड़ लोग बाहर होंगे। 115 करोड़ वाले इस देश के कितने लोगों का भविष्य अंग्रेजी से बन सकता है? कनाडा, ब्रिटेन, अमेरिका और आस्ट्रेलिया में कितने भारतीय जा पायेंगे? इसका मतलब यह है कि आज की तारीख में 115 पंद्रह करोड़ लोग तो भारतीय ऐसे हैं जिन्होंने अपनी पहली सांस यहां ली तो अंतिम भी यही लेंगे। अरे, कार बनाने की इंजीनियरिंग सीख ली, रोड बनाने की भी तो सीखी है! मगर क्या हुआ। एक से एक नयी कार बाजार में आ गयी है पर सड़कों के क्या हाल है?
मतलब यह है कि आप एक या दो करोड़ लोगों के भविष्य को पूरे देश का भविष्य नहीं कह सकते। अंग्रेजी सीखने से दिमाग भी अंग्रेजी हो जाता है। ऐसा लगता है कि दिमाग का एक हिस्सा काम ही नहंी करता। भ्रष्टाचार और अपराध पर बोलते सभी हैं पर अपने कर्म किसी को नहीं दिखाई देते। अंग्रेजी दो ही लोगों की भाषा है-एक साहब की दूसरी गुलाम की! तीसरी स्थिति नहीं है। अंग्रेजी यहां क्यों सिखा रहे हो कि अमेरिका में नास में जाकर नौकरी करो या हाउस कामंस में बैठो। यहां तो सभी जगह वंशों का आरक्षण किया जाना है। पहले व्यापार में ही वंश परंपरा थी पर अब तो खेल, फिल्म, समाजसेवा, कला तथा पत्रकारिता में भी वंश परंपरा ला रहे हैं। जिसके पास पूंजी है वही अक्लमंद! बाकी सभी ढेर! अंग्रेजी पढ़ोगे तो ही बनोगे शेर। मतलब अधिक योग्य हो तो अंग्रेजी पढ़ो और बाहर जाकर गुलामी करो! यहां तो वंशों का आरक्षण हो गया है।
अमेरिका और ब्रिटेन आत्मनिर्भर देश नहीं है। दोनों के पास विकासशील देशों का पैसा पहुंचता है। विकासशील देशों की जनता गरीब हैं पर इसलिये उनके यहां के शिखर पुरुष अपना पैसा छिपाने के लिये इन पश्चिमी देशों की बैंकों को भरते हैं। फिर तेल क्षेत्रों पर इनका कब्जा है। ईरान पर ब्रिटेन का अप्रत्यक्ष नियंत्रण है पर अन्य तेल उत्पादक देशों पर अमेरिका का सीधा नियंत्रण है। अमेरिका का अपना व्यापार कुछ नहंी है सिवाय हथियारों के! अमेरिका इसी तेल क्षेत्र पर वर्चस्व बनाये रखने के लिये तमाम तरह की जीतोड़ कोशिश कर रहा है। इस कोशिश में उसे फ्रंास की मदद की जरूरत अनेक बार पड़ती है। कभी अकेला लड़ने नहीं निकलता अमेरिका। वैसे अमेरिका इस समय संघर्षरत है और अगर उसका एक शक्ति के रूप में पतन हुआ तो वहां जाकर ठौर ढूंढने से भी लाभ नहीं रहेगा। सबसे बड़ी बात है कुदरत का कायदा। कल को कुदरत ने नज़र फेरी और ब्रिटेन और अमेरिका का आर्थिक, राजनीतिक तथा सामरिक रूप से पतन हुआ तो अंग्रेजी की क्या औकात रह जायेगी? फिर इधर चीन बड़ा बाजार बन रहा है। जिस तरह उसकी ताकत बढ़ रही है उससे तो लगता है कि चीनी एक न एक दिन अंग्रेजी को बेदखल कर देगी। तब अपने देश का क्या होगा? कुछ नहीं होगा। इस देश में गरीबी बहुत है और यही गरीब धर्म, भाषा तथा नैतिक आचरण का संवाहक होता है उच्च वर्ग तो सौदागर और मध्यम वर्ग उसके दलाल की तरह होता है। गरीब आदमी अपनी तंगहाली में भी हिन्दी और देवानगारी लिपि को जिंदा रख लेगा। मगर उन लोगों की क्या हालत होगी जो स्वयं न तो अंग्रेज रहे हैं और हिन्दी वाले। उनकी पीढ़ियां क्या करेंगी? कहीं अपने ही देश में अजनबी होने का ही उनके सामने खतरा न पैदा हो जाये। सो अपना कहना है कि क्यों अंग्रेजी को लेकर इतना भ्रम फैलाते हो। कहते हैं कि इस देश को दूसरे देशों के समकक्ष खड़ा होना है तो अंग्रेजी भाषा सीखों और हिन्दी के लिये रोमन लिपि अपनाओ। पहली बात तो वह जगह बताओ जहां 113 करोड़ लोगों को खड़ा किया जा सके-अरे, यह अमेरिका में नासा में काम करने या इंग्लैंड के हाउस आफ कामंस में बैठने से भला क्या इस देश की सड़कें बन जायेगी? फिर क्या सभी वहां पहुंच सकते हैं क्या? कल इस पर लेख लिखा था, पर दिल नहीं भरा तो बैठे ठाले यह लिख लिया!

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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नेपाल की उठापठक और हिंदुत्व-हिंदी लेख


नेपाल कभी हिन्दू राष्ट्र था जिसे अब धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया है। वहां की निवासिनी और भारतीय हिन्दी फिल्मों की अभिनेत्री मनीक्षा कोइराला ने अब जाकर इसकी आलोचना की है। उनका मानना है कि नेपाल को एक हिन्दू राष्ट्र ही होना चाहिए था। दरअसल नेपाल की यह स्थिति इसलिये बनी क्योंकि वह राजशाही का पतन हो गया। वहां के राजा को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता था या हम कहें कि उनको ऐसी प्रतिष्ठा दी जाती थी। दूसरी बात यह है कि नेपाल के हिन्दू राष्ट्र के पतन को एक व्यापक रूप में देखा जाना चाहिए न कि इसके केवल सैद्धान्तिक स्वरूप पर नारे लगाकर भ्रम फैलाना चाहिये। इसलिये यह जरूरी है कि हम हिन्दुत्व की मूल अवधारणाओं को समझें।
वैसे हिन्दुत्व कोई विचाराधारा नहीं है और न ही यह कोई नारा है। अगर हम थोड़ा विस्तार से देखें तो हिन्दुत्व दूसरे रूप में प्राकृतिक रूप से मनुष्य को जीने की शिक्षा देने वाला एक समग्र दर्शन है। अंग्रेजों और मुगलों ने इसी हिन्दुत्व को कुचलते हुए भारतवर्ष में राज्य किया किया। अनेक डकैत और खलासी यहां आकर राजा या बादशाह बन गये। अंग्रेजों ने तो अपनी ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया जिससे कि यहां का आदमी उनके जाने के बाद भी उनकी गुलामी कर रहा है। देश के शिक्षित युवक युवतियां इस बात के लिये बेताब रहते हैं कि कब उनको अवसर मिले और अमेरिका या ब्रिटेन में जाकर वहां के निवासियों की गुलामी का अवसर मिले।
मुगलों और अंग्रेजों ने यहां के उच्च वर्ग में शासक बनने की ऐसी प्रवृत्ति जगा दी है कि वह गुलामी को ही शासन समझने लगे हैं। अक्सर समाचार पत्र पत्रिकाओं में ऐसी खबरे आती हैं कि अमुक भारतवंशी को नोबल मिला या अमुक को अमेरिका का यह पुरस्कार मिला। अमुक व्यक्ति अमेरिका की वैज्ञानिक संस्था में यह काम कर रहा है-ऐसी उपलब्धियों को यहां प्रचार कर यह साबित किया जाता है कि यहां एक तरह से नकारा और अज्ञानी लोग रहते हैं। सीधी भाषा में बात कहें तो कि अगर आप बाहर अपनी सिद्धि दिखायें तभी यहां आपको सिद्ध माना जायेगा। उससे भी बड़ी बात यह है कि आप अंग्रेजी में लिख या बोलकर विदेशियों को प्रभावित करें तभी आपकी योग्यता की प्रमाणिकता यहां स्वीकार की जायेगी। नतीजा यह है कि यहां का हर प्रतिभाशाली आदमी यह सोचकर विदेश का मुंह ताकता है कि वहां के प्रमाणपत्र के बिना अपने देश में नाम और नामा तो मिल ही नहीं सकता।
मुगलों ने यहां के लोगों की सोच को कुंद किया तो अंग्रेज अक्ल ही उठाकर ले गये। परिणाम यह हुआ कि समाज का मार्ग दर्शन करने का जिम्मा ढोने वाला बौद्धिक वर्ग विदेशी विचाराधाराओं के आधार पर यहां पहले अपना आधार बनाकर फिर समाज को समझाना चाहता है। कहने को विदेशी विचारधाराओं की भी ढेर सारी किताबें हैं पर मनुष्य को एकदम बेवकूफ मानकर लिखी गयी हैं। उनके रचयिताओं की नज़र में मनुष्य को सभ्य जीवन बिताने के लिये ऐसे ही सिखाने की जरूरत है जैसे पालतु कुत्ते या बिल्ली को मालिक सिखाता है। मनुष्य में मनुष्य होने के कारण कुछ गुण स्वाभाविक रूप से होते हैं और उसे अनेक बातें सिखाने की जरूरत नहीं है। जैसे कि अहिंसा, परोपकार, प्रेम तथा चिंतन करना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियां हैं। कोई भी मनुष्य मुट्ठी भींचकर अधिक देर तक नहीं बैठ सकता। उसे वह खोलनी ही पड़ती हैं।
चार साल का बच्चा घर के बाहर खड़ा है। कोई पथिक उससे पीने के लिये पानी मांगता है। वह बिना किसी सोच के उसे अपने घर के अंदर से पानी लाकर देता है। उस बच्चे ने न तो को पवित्र पुस्तक पढ़ी है और न ही उसे किसी ने सिखाया है कि ‘प्यासे को पानी पिलाना चाहिये’ फिर भी वह करता है। कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य अपनी सहज प्रवृत्तियों की वजह से सज्जन तो रहता ही है पर समाज का एक वर्ग उसकी जेब से पैसा निकालने या उससे सस्ता श्रम कराने के लिये उसे असहज बनाने का हर समय प्रयास करता है। विदेशी विचारधाराओं तथा बाजार से मनुष्य को काल्पनिक स्वप्न तथा सुख दिखकार उसे असहज बनाने का हमारे देश के लोगों ने ही किया है। इन्ही विचाराधाराओं में एक है साम्यवाद।
इसी साम्यवादी की प्रतिलिपि है समाजवाद। इनकी छत्रछाया में ही बुद्धिजीवियों के भी दो वर्ग बने हैं-जनवादी तथा प्रगतिशील। नेपाल को साम्यवादियों ने अपने लपेटे में लिया और उसका हिन्दुत्व का स्वरूप नष्ट कर दिया। सारी दुनियां को सुखी बनाने का ख्वाब दिखाने वाली साम्यवादी और समाजवादी विचारधाराओं में मूल में क्या है, इस पर अधिक लिखना बेकार है पर इनकी राह पर चले समाज सेवकों और बुद्धिजीवियों ने अपने अलावा किसी को खुश रखने का प्रयास नहीं किया। सारी दुनियां में एक जैसे लोग हो कैसे सकते हैं जब प्रकृत्ति ने उनको एक जैसा नहीं बनाया जबकि कथित विकासवादी बुद्धिजीवी ऐसे ही सपने बेचते हैं।
अब बात करें हम हिन्दुत्व की। हिन्दुत्व वादी समाज सेवक और बुद्धिजीवी भी बातें खूब करते हैं पर उनकी कार्य और विचार शैली जनवादियों और प्रगतिशीलों से उधार ली गयी लगती है। हिन्दुत्व को विचाराधारा बताते हुए वह भी उनकी तरह नारे गढ़ने लगते हैं। नेपाल में हिन्दुत्व के पतन के लिये साम्यवाद या जनवाद पर दोषारोपण करने के पहले इस बात भी विचार करना चाहिये कि वहां के हिन्दू समाज की बहुलता होते हुए भी ऐसा क्यों हुआ?
हिन्दुत्व एक प्राकृतिक विचाराधारा है। हिन्दू दर्शन समाज के हर वर्ग को अपनी जिम्मेदारी बताता है। सबसे अधिक जिम्मेदारी श्रेष्ठ वर्ग पर आती है। यह जिम्मेदारी उसे उठाना भी चाहिए क्योंकि समाज की सुरक्षा से ही उसकी सुरक्षा अधिक होती है। इसके लिये यह जरूरी है कि वह योग्य बुद्धिजीवियों को संरक्षण देने के साथ ही गरीब और मजदूर वर्ग का पालन करे। यही कारण है कि हमारे यहां दान को महत्व दिया गया है। श्रीमद्भागवत गीता में अकुशल श्रम को हेय समझना तामस बुद्धि का प्रमाण माना गया है।
मगर हुआ क्या? हिन्दू समाज के शिखर पुरुषों ने विदेशियों की संगत करते हुए मान लिया कि समाज कल्याण तो केवल राज्य का विषय है। यहीं से शुरु होती है हिन्दुत्व के पतन की कहानी जिसका नेपाल एक प्रतीक बना। आर्थिक शिखर पुरुषों ने अपना पूरा ध्यान धन संचय पर केंद्रित किया फिर अपनी सुरक्षा के लिये अपराधियों का भी महिमा मंडन किया। भारत के अनेक अपराधी नेपाल के रास्ते अपना काम चलाते रहे। वहां गैर हिन्दुओं ने मध्य एशिया के देशों के सहारे अपना शक्ति बढ़ा ली। फिर चीन उनका संरक्षक बना। यहां एक बात याद रखने लायक है कि अनेक अमेरिकी मानते हैं कि चीन के विकास में अपराध से कमाये पैसे का बड़ा योगदान है।
भारत के शिखर पुरुष अगर नेपाल पर ध्यान देते तो शायद ऐसा नहीं होता पर जिस तरह अपने देश में भी अपराधियों का महिमामंडन देखा जाता है उससे देखते हुए यह आशा करना ही बेकार है। सबसे बड़ी बात यह है कि नेपाल की आम जनता ने ही आखिर ऐसी बेरुखी क्यों दिखाई? तय बात है कि हिन्दुत्व की विचारधारा मानने वालों से उसको कोई आसरा नही मिला होगा। नेपाल और भारत के हिन्दुत्ववादी आर्थिक शिखर पुरुष दोनों ही देशों के समाजों को विचारधारा के अनुसार चलाते तो शायद ऐसा नहीं होता। हिन्दुत्व एक विचाराधारा नहीं है बल्कि एक दर्शन है। उसके अनुसार धनी, बुद्धिमान और शक्तिशाली वर्ग के लोगों को प्रत्यक्ष रूप से निम्न वर्ग का संरक्षण करना चाहिये। कुशल और अकुशल श्रम को समान दृष्टि से देखना चाहिये पर पाश्चात्य सभ्यता को ओढ़ चुका समाज यह नहीं समझता। यहां तो सभी अंग्रेजों जैसे साहब बनना चाहते हैं। जो गरीब या मजदूर तबका है उसे तो कीड़े मकौड़ों की तरह समझा जाता है। इस बात को भुला दिया गया है कि धर्म की रक्षा यही गरीब और मजदूर वर्ग अपने खून और पसीने से लड़कर समाज रक्षा करता है।
हमारे देश में कई ऐसे संगठन हैं जो हिन्दुत्व की विचारधारा अपनाते हुए अब गरीबों और मजदूरों के संरक्षण कर रहे हैं। उनको चाहिये कि वह अपने कार्य का विस्तार करें और भारत से बाहर भी अपनी भूमिका निभायें पर वह केवल नारे लगाने तक नहीं रहना चाहिये। इन हिन्दू संगठनों को परिणामों में शीघ्रता की आशा न करते हुए दूरदृष्टि से अपने कार्यक्रम बनाना चाहिये।
नेपाल का हिन्दू राष्ट्र न रहना इतनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी परेशानी इस बात पर होने वाली है कि वह एक अप्राकृतिक विचाराधारा की तरफ बढ़ गया है जो वहां की संस्कृति और धर्म के वैसे ही नष्ट कर डालेगी जैसे कि चीन में किया है। भारत और नेपाल के आपस में जैसे घनिष्ट संबंध हैं उसे देखते हुए यहां के आर्थिक, सामाजिक तथा बौद्धिक शिखर पुरुषों को उस पर ध्यान देना चाहिये।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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समस्याएँ और बहस- हास्य व्यंग्य कविताएँ


मिस्त्री ने कहा ठेकेदार से
‘बाबूजी यह पाईप तो सभी चटके हुए हैं
कैसे लगायें इनको
जनता की समस्या इससे नहीं दूर पायेगी
पानी की लाईन तो जल्दी जायेगी टूट’
ठेकेदार ने कहा
‘कितनी मुश्किल से चटके हुए पाईप लाया हूं
इसके मरम्मत का ठेका भी
लेने की तैयारी मैंने कर ली है पहले ही
तुम तो लगे रहो अपने काम में
नहीं तो तुम्हारी नौकरी जायेगी छूट’
…………………..
समस्याओं को पैदा कर
किया जाता है पहले प्रचार
फिर हल के वादे के साथ
प्रस्तुत होता है विचार

अगर सभी समस्यायें हल हो जायेंगी
तो मुर्दा कौम में जान फूंकने के लिये
बहसें कैसे की जायेंगी
बुद्धिजीवियों के हिट होने का फार्मूला है
जन कल्याण और देश का विकास
कौन कहेगा और कौन सुनेगा
जब हो जायेगा देश का उद्धार

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पाकिस्तान की पैंतरेबाजी और उसके मित्र देश-आलेख


किसी भी राष्ट्र का सम्मान न तब तक नहीं बढ़ सकता जब तक वह दूसरों से मदद लेता है और जब वह दान लेने लगे तो समझ लेना चाहिये कि वह पतन के गर्त में गिर चुका है। पाकिस्तान की स्थिति भी कुछ वैसे ही है पर लगता है कि वह मदद और दान एक तरह हफ्ता वसूली की तरह ले रहा है।

आजकल पाकिस्तान पर दानदाता देशों का विशेष अनुग्रह हो गया है। वैसे तो पाकिस्तान को अनेक देश घोषित अघोषित रूप से सहायता देते रहे हैं पर उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता था। मुंबई पर हमले के पश्चात् पूरे विश्व में उसकी कड़ी प्रतिक्रिया हुूई और उसके लिये पूरी दुनियां ने पाकिस्तान को जिम्मेदार माना। इससे उसको सहायता देने वाले देशों के लिये उसको बड़ी राशियां देना कठिन हो गया। फिर यह भी सभी जानते हैं कि पाकिस्तान को मिली ऐसी सहायता आतंकवादियों तक ही पहुंच जाती है। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति करीब छःह महीने से खराब है और उसे बीच में चीन ने राहत देकर दिवालिया होने से बचाया था। अब अमेरिका आगे आया है और उसके मित्र देश अब उसकी मदद कर रहे हैं पर अब इसे दान का नाम दिया जा रहा है। हुआ यह है कि पाकिस्तान की मदद को लालायित यह देश पिछले कुछ दिनों से अपना खजाना उसके लिये खोल नहंीं पा रहे थे क्योंकि इससे उनके कर्णधारों की अपने देश में जनता की नजरों में छबि खराब हो जाती। फिर भारतीय जनता की नजरें भी सभी पर लगी हुई हैं। मगर विश्व में अमीर देशों को तो बस पाकिस्तान की मदद का नशा है सो अब इस मदद को नाम दिया गया है ‘दान’। यानि अपने देश और विश्व के लोगों को भ्रमित करना। मदद से थोड़ी संवेदना कम हो जाती है और अब तो पाकिस्तान का नाम जिस तरह से विश्व में जाने लगा है उससे हर जगह आम आदमी उससे घृणा करता है। ऐसे में दान शब्द से आदमी की भावनायें थोड़ा अलग हो जाती हैं कि क्योंकि ‘दान’ करना एक अच्छा काम माना जाता है। फिर ‘दान’ देने वाले देशों के लोग शायद विश्व में अपनी ‘दानदाता’ वाली छबि से शायद खुश होंगे। फिर भारत के लोग भी ‘दान’ को लेकर शायद ही गुस्से का इजहार करें-ऐसा अनुमान किया जा रहा होगा।

आखिर यह क्या हो रहा है? एक तरफ पाकिस्तान के नाकाम राष्ट्र होने का भय सभी को सता रहा है। पाकिस्तान के पास जो परमाणु बम हैं उसका वह अब भावनात्मक रूप से उपयोग कर रहा है। हालत यह है कि सर्वाधिक परमाणू बम रखने वाल अमेरिका तक उसके बमों से घबड़ाया हुआ है। अब जापान ने भी पाकिस्तान को दान देने का फैसला किया। यह आश्चर्य की बात है कि विश्व का हर बड़ा देश पाकिस्तान को दान देने के लिये तैयार बैठा है। वैसे एक बात मजे की है कि पाकिस्तान के कर्णधारों ने विश्व से कोई ऐसी अपील नहंी की है कि उसे दान दिया जाये। हो सकता है कि ऐसे में भारतीय जनता भी कुछ विचार कर सकती।

सच बात तो यह है कि पाकिस्तान के रणनीतिकारों ने पूरे विश्व के देशों को चक्करघिन्नी बना दिया है। सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्या हो गया है कि पाकिस्तान को दान पर दान दिया जा रहा है। एक अखबार में यह विश्लेषण छपा था कि अमेरिका अब केवल अपना ध्यान अलकायदा से संघर्ष पर केंद्रित करना चाहता है। तालिबान को उसने अपने लक्ष्य से परे कर दिया है। इसलिये संभव है यह दान कथित रूप से तालिबान को अलकायदा से अलग करने के काम आ सकता है। तालिबान से केवल अफगानिस्तान और भारत को परेशानी है और अभी तक आतंकवाद पर साझे संघर्ष करने के दावे करने वाले विश्व के अमीर और बड़े राष्ट्रों ने अब अपनी नीति बदल ली हैं। वह तालिबान और अलकायदा को अलग करना चाहते हैं। अब यह कहना कठिन है पर अभी तक समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर जो विश्लेषण हमने देखें हैं उससे नहीं लगता कि इसमें कोई बहुत जल्दी सफलता मिल पायेगी। तालिबान के पास जो मानवीय शक्ति है उसका उपयोग अलकायदा अपने धन और तकनीकी कौशल के कारण अपने सहायक के रूप में करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि तालिबान से जुड़े अधिकतर लोग धन के कारण उसमेंे हैं पर दूसरा सच यह भी कि लड़ना उनकी प्रवृत्ति है। पाकिस्तान के जिन इलाकों में तालिबान सक्रिय है उसकी उपस्थिति का कारण यह है कि वहां लोगों की अशिक्षा और गरीबी के कारण उनका उपयोग करने के सुविधा होती है। इसके अलावा वह इलाके बहुत सुंदर और उपजाऊ हैं जहां सूखे मेवे पैदा होता है। अलकायदा के लोग मध्य एशिया से आकर वहां ऐश की जिंदगी जीते हैं और तालिबान को आर्थिक सहायता देकर उसे अपनी सुरक्षा के लिये उपयोग करते है। दरअसल अलकायदा और तालिबान तो बस नाम भर है वहां के स्थानीय निवासियों की जुझारु प्रवृति विश्व विख्यात है जो अपने विरोधी पर कभी हिंसा के रूप में प्रकट होती है। आपने डूरंड लाईन का नाम सुना होगा। उसे कभी अंग्रेज पार नहीं कर पाये और इसलिये अफगानिस्तान कभी उनके हाथ नहीं आया। जब तालिबान और अलकायदा नहीं थे तब भी वहां पाकिस्तान का संविधान नहीं चलता था और आगे भी चलेगा इसकी संभावना नहीं है। इन जुझारु जातियों का खौफ पाकिस्तान के हर शहर में रहता है। आजादी से पहले भी अनेक नृशंस हत्यााओं का जिक्र अनेक बुजुर्ग करते रहे हैं। आदमी को काट देना वहां कोई कठिन काम नहीं माना जाता। अलकायदा और तालिबान ने तो वहां के लोगो की अशिक्षा,गरीबी और जुझारु प्रवृति को भुनाया है न कि बनाया है-कम से विद्वानों की अभी तक जो विश्लेषण हैं वह तो यही बताते हैं।
बहरहाल अब पाकिस्तान अपने हालत बनाने के लिये दान ले रहा है और वह यही दान अब उन लोगों तक पहुंचेगा जो हिंसा में लिप्त हैं। यह पैसा लेने वालों को दान और मदद की अंतर से कोई मतलब नहंीं हैं। वह भी जानते हैं पड़ौसी देश भारत के दबाव की वजह से यह हो रहा है। आतंकवाद के विरुद्ध संयुक्त संघर्ष की बात करने वाले देशों के चरित्र की यही असलियत है कि वह उसी आतंकवादी समूह को अपने विरुद्ध मानते हैं जिसकी गतिविधियां उनको त्रस्त करती हैं और दूसरे के विरुद्ध सक्रिय आतंकवादी गिरोह उनको मित्र लगते हैं या वह उसकी उपेक्षा कर देते हैं। जबकि यह सभी को पता है इन आतंकवादियों के गिरोह आपस में मिले हुए हैं। मदद हो या दान, मजे में रहेगा पाकिस्तान। उसे अपने मनोमुताबिक धन मिल रहा है तो वह क्यों आतंकवाद को समाप्त करना चाहेगा।
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