अंतर्जाल पर लिखना तो वैसा ही जैसा कि आम जीवन में पर यहां त्वरित टिप्पणियों में कई बारे ऐसी बातें आ जाती हैं जिनका सामना बाहर नहीं करना पड़ता। ऐसे टिप्पणीकर्ता किसी भी लेखक को चुनौती देकर उसे और अच्छा लिखने के लिये प्रेरित ही करते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि किसी कहानी, कविता या व्यंग्य में ‘मैं’ या ‘हम’ शब्द के उपयोग से पाठक उनको लेखक का संस्मरण मानते हुए उसका पात्र समझने लगते हैं। यह उनका भ्रम हैं। हिंदी साहित्य में कई रचनाकारों की रचनाओं में ‘मैं’ या ‘हम’ पात्र काल्पनिक या अन्य पुरुष की तरह ही होते हैं।
कुछ टिप्पणियों से ऐसा लगा कि लोग कहानी, व्यंग्य, या कविता में ‘मैं’ या ‘हम’ के उपयोग से लेखक या कवि का निजी वृतांत समझने लगते हैं। यहां यह उल्लेख करना भी ठीक होगा कि कई पुरुष लेखकों ने महिला पात्र को केंद्र बिंदु बनाकर ‘मैं’ या ‘हम’ संज्ञा का प्रयोग किया है। हो सकता है सभी लेखक या लेखिकायें ऐसा न करें पर कुछ लेखकों की यह आदत होती है। अंतर्जाल पर लिखने पढ़ने वाले कई लेखक और पाठक इस बात को जानते हैं पर कुछ लोग शायद अभी इस बात को नहीं समझ पाये और वह अक्सर अपनी टिप्पणियों में ‘मैं’ या ‘हम’ शब्द को लेखक या कवि को ही केंद्र बिंदू में बैठा मान लेते हैं।
लेखकों द्वारा यह शैली अपनाने के पीछे कुछ कारण भी है। अनेक लेखक अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं के हिंदी अनुवाद की पुस्तकें पढ़ते रहे हैं। उनमें ‘मैं’ या ‘हम’ या हम लेखकों ने उपयोग किया है। अनेक जासूसी उपन्यासों में लेखक स्वयं ही जासूसी पात्र बनता दिखता है पर अंदर विषय सामग्री में कुछ नाम और ही होता है। यह तो पता नहीं कि ‘मैं’ या ‘हम’ यह शैली कब हिंदी में आयी पर कम से कम मैंने अपने आसपास कई ऐसे रचनाकारों को देखा है जो इसका उपयोग करते रहे। यही कारण है कि मेरी आधी से अधिक रचनायें ऐसे ही लिखी जाती हैं। मध्य प्रदेश के अनेक हास्य व्यंग्यकारों और कवियों ने ऐसे ही रचनायें लिखी। कई हास्य कवियों ने तो अपने को सीधे केंद्र बिंदू में स्थापित कर काल्पनिक रचनायें लिखी और लोगों को सुनाकर वाहवाही लूटी।
ऐसे में यह कहना ठीक नहीं कि ‘मैं’ या ‘हम’ का उपयोग केवल लेखक या लेखिका के इर्दगिर्द ही होता है। खासतौर से मध्यप्रदेश के हिंदी रचनाकारों की अधिकतर रचनायें ऐसे ही लिखी गयी हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हिंदी एक बृहद क्षेत्र की भाषा होने के कारण अनेक शैलियां अपना चुकी है पर उसका आभास हमें नहीं होता। कहा जाता है कि हिंदी का स्वरूप हर पांच कोस पर बदल जाता है और यह सत्य हमें स्वीकार करना चाहिए कि लिखने की शैली में विविधता होती है और उसका ऐसा ही स्वरूप हमारे सामने आता रहेगा। अक्सर लोग मानक हिंदी की बात करते हैं पर लेखन के मामले में किसी लेखक को उसके लिये दबाव में लाना ठीक नहीं है। याद रखने वाली बात यह है कि हर लेखक कोई भाषाविद नहीं होता और कोई भाषाविद भी लेखक नहीं बन जाता।
उत्तरप्रदेश और बिहार के हिंदी भाषी लेखकों ने हिंदी के विस्तार में योगदान दिया है। इन दोनों प्रदेशों के लेखक हिंदी और उर्दू शब्दों के उपयोग कर रचनायें लिखने में माहिर हैं। समय के साथ दूसरे प्रदेशों के लोग भी अब हिंदी के लेखन में आगे आ रहे हैं। ऐसे में भाषा के शब्दों के उपयोग और शैली में विवाद खड़े करना हिंदी के विस्तार को रोकने जैसा है।
अभी कुछ दिनों पहले एक दक्षिणी भारत के ब्लागर ने एक रिपोर्ट हिंदी में लिखी थी। उसमें अनेक शब्द वेसे नहीं थे जैसे हम देखते हैं पर जिन लोगों ने उस रिपोर्ट को पढ़ा उसे सराहा। प्रशंसा की बात यह रही कि किसी भी टिप्पणकर्ता ने उसे यह अहसास नहीं दिलाया कि उसके शब्दों में कोई गलती है। आप गलती कह भी कैसे सकते हैं क्योंकि वह रिपोर्ट मनभावन लगी और हर बात समझ में आ गयी। उस लेखक की सराहना तो करना ही चाहिये जिसे अहिंदी भाषी क्षेत्र का होने के बावजूद ऐसी हिंदी लिखी जो यहां के लोग पढ़ सके। आशय साफ है कि हमें ऐसे पाठ भी पढ़ने को तैयार होना होगा जिनमें शब्दों की अशुद्धि होने के बावजूद उनके भावों के सौंदर्य और सौहार्द के दर्शन होंगे।
मान लीजिये कि मैंने एक कविता या शायरी लिखी
उनके सिर से जमीन तक लहराती जुल्फों
पर हाथ जो फेरा तो वह मुस्करा दिये
उनकी आंखों में जो प्यार का समंदर देखा
तो हमने बंद कर ली अपनी आखें
यह सोचकर कि
कैद कर लें उनकी नजर
अपने दिल में
ताकि फिर वह भूले नहीं
तस्वीर की तरह टंगी रहे
जीवन भर के लिये
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अब यहां यह पूछना बेकार है कि किसके लिये लिखा या क्यों लिखा। जिसकी जुल्फों पर हाथ फेरा क्या वह वाकई सुंदर थी। या वह कौन थी। यह एक शैली है जिसमें कभी कभार मैं लिखता हूं। मध्य प्रदेश के कई व्यंग्यकार तो ‘मैं’ या ‘हम’ को ही केंद्र बिंदु में रखकर अपनी रचनायें लिखते हैं। कुल मिलाकर हिंदी जितनी समृद्ध और व्यापक क्षेत्र की भाषा है ऐसे में उसके अनेक स्वरूपों में उसके दर्शन होंगे। अतः ‘मैं’ या ‘हम’ को लेखक का संस्मरण न मानकर उसे काल्पनिक या अन्य पुरुष पात्र मानना चाहिये। अगर किसी का संस्मरण होता है तो वह उसकी रचना इसका आभास लग ही जाता है। अतः ‘मैं’ या ‘हम’ शब्दों को जब पढ़ें तो यह भी देख लें कि वह संस्मरण की तरह लिखा गया है या कहानी, व्यंग्य या कविता के रूप में। ‘मैं’ या ‘हम’ के केंद्र बिंदू में हमेशा लेखक नहीं होता।
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