भ्रष्टाचार, गरीबी, और शोषण के खिलाफ
जंग करने के नारे सभी लगा रहे हैं,
मिलकर समाज को जगा रहे हैं।
बैठे बैठे सभी चीखकर
छेड़ रहे है जाग्रति अभियान,
सुविधाभोगी बुद्धिमान बनकर
ढूंढ रहे सम्मान,
कोशिश यही है कि कोई
दूसरा वीर बनकर गर्दन कटाये,
हम क्रांतिकारी प्रसिद्ध हो, बिना पसीना बहाये,
परायी औलादों को झौंक रहे मैदान में
अपनी को सुविधा संचय के लिये भगा रहे हैं।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com
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‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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जिंदगी के दरिया में बहते हुए
अपने मन की हलचलों के साथ
चला जाता हूं
कभी कभी किनारे पर आकर
करता हूं आत्म मंथन तो
अपने ही दिल के ख्यालों पर
अपने को हंसता पाता हूं।
किया था कुछ लोगों पर भरोसा
दिया था खुद को धोखा
दूसरों को क्या दोष देता।
निभाया था साथ अपनों का
अपनी इज्जत बढ़ाने के सुख की खातिर
क्यों शिकायत करूं कि
मैंने कुछ नहीं पाया।
कई इंसानी बुतों को रास्ता दिखाकर
मैंने अपने चिराग होने का अहसास पाला
उनका क्या दोष
जिन्होंने मतलब निकालकर
पलटकर नहीं देखा।
जब करता हूं आत्म मंथन
होता है यह अनुभव कि
मेरे मन में उठती हुई हलचल
क्षणिक रूप से उठती है
फिर गिरती है जिंदगी के सत्य रूपी दरिया में
व्यर्थ ही उनके साथ कभी हंसकर तो
कभी रोकर समय बिताया।
अपनी हालातों के लिये
बस अपने को ही जिम्मेदार पाया।
———–
कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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चला जाता हूं
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करता हूं आत्म मंथन तो
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किया था कुछ लोगों पर भरोसा
दिया था खुद को धोखा
दूसरों को क्या दोष देता।
निभाया था साथ अपनों का
अपनी इज्जत बढ़ाने के सुख की खातिर
क्यों शिकायत करूं कि
मैंने कुछ नहीं पाया।
कई इंसानी बुतों को रास्ता दिखाकर
मैंने अपने चिराग होने का अहसास पाला
उनका क्या दोष
जिन्होंने मतलब निकालकर
पलटकर नहीं देखा।
जब करता हूं आत्म मंथन
होता है यह अनुभव कि
मेरे मन में उठती हुई हलचल
क्षणिक रूप से उठती है
फिर गिरती है जिंदगी के सत्य रूपी दरिया में
व्यर्थ ही उनके साथ कभी हंसकर तो
कभी रोकर समय बिताया।
अपनी हालातों के लिये
बस अपने को ही जिम्मेदार पाया।
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दीपक भारतदीप द्धारा
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अनुभूति, अभिव्यक्ति, दीपक भारतदीप, दीपकबापू, मस्तराम, हिन्दी में प्रकाशित किया गया
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