फिर एक बार वह लोग
स्वतंत्रता दिवस मनायेंगे,
अपनी गुलामी के जख्म याद कर
उससे मुक्ति पर मुस्करायेंगे।
जिनसे मुक्ति पाई थी
उनको एक दिन दे लेंगे गालियां,
बजेंगी फिर तालियां,
मगर फिर छोड़ी है जो मालिकों ने वसीयत
गुलामों को बांटने की
मुखिया और बंधुआ को छांटने की
उसे पूरा करने में जुट जायेंगे।
———
कुछ लोग कहते हैं कि
अंग्रेज भारत छोड़ गये,
कुछ उनका शुक्रिया अदा करते हैं कि
वह भारत को जोड़ गये।
सच तो यह है कि
अंग्रेज आज भी कर रहे राज
बस,
नाम का स्वराज छोड़ गये।
———–
गुलाम बनाने के कानून में
आज़ादी की असलियत तलाश रहे हैं,
मालिक छोड़ गये राज
मगर सिंहासन पर चरण पादुकाऐं छोड़े गये
उसमें खुद मुख्तियारी की आस कर रहे हैं।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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जोगिया रंग ओढ़कर जोगी नहीं हो जाते,
नीयत का साफ होना जरूरी है,
सच्चे संत कभी भोगी नहीं हो पाते।
हाथ में किताब है धर्म की,
नहीं जानते जीवन रहस्य के मर्म की,
धरती की गर्म हवा से विचलित हो जाते,
दौलत की ख्वाहिश वाले कभी निरोगी नहीं हो पाते।
भीड़ जुटा ली अपने चाहने वालों
धर्म का कर रहे सरे राह सौदा,
सर्वशक्तिमान की भक्ति का बनाते रोज नया मसौदा,
एक कंकड़ भी उछल कर सामने आ जाये
तो आकाश से गिरे परिंदे की तरह घबड़ाते।
हमदर्दी बटोरने के लिये रचते नित नये नाटक
ज़माने से खोया विश्वास पाने के लिये
कभी कभी भक्ति के शिकारी
खुद शिकार बनने दिखते
फिर हमदर्दी के लिये हाथ फैलाते।
————
साहुकार हो गये लापता
अब संत ही हो गये व्यापारी,
माया की जंग में होती ही है मारामारी।
कहीं कंकर पत्थर उछलते
कहीं चलते अस्त्र शस्त्र
आस्था पर संकट क्या आयेगा
वह तो है बिचारी।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com
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चमक रहे हैं उनके चेहरे,
लगे हैं उनके घर के बाहर पहरे,
वह मुस्करा रहे
या अपना खौफ छिपा रहे हैं।
उनकी नीयत का आभास नहीं होता
पर इधर उधार आंखें नचा रहे हैं
शायद कोई शिकार ढूंढ रहे
या अपने को बचा रहे हैं।
उनको फरिश्ता कह नहीं सकते
शैतान दिखते नहीं है,
उनकी काली करतूतों के किस्से आम हैं
उनकी टेढ़ी चालें इसकी गवाह है
जिनको जानता है पूरा ज़माना
उनको वह खुद से छिपा रहे हैं।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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सच्चा प्यार जो दिल से मिले
अब कहां मिलता है,
अब तो वह डालरों में बिकता है।
आशिक हो मालामाल
माशुका हो खूबसूरत तो
दिल से दिल जरूर मिलता है।
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आज के शायर गा रहे हैं
इश्क पर लिखे पुराने शायरों के कलाम,
लिखने के जिनके बाद
गुज़र गयी सदियां
पता नहीं कितनी बीती सुबह और शाम।
बताते हैं वह कि
इश्क नहीं देखता देस और परदेस
बना देता है आदमी को दीवाना,
देना नहीं उसे कोई ताना,
तरस आता है उनके बयानों पर,
ढूंढते हैं अमन जाकर मयखानों पर,
जिस इश्क की गालिब सुना गये
वह दिल से नहीं होता,
डालरों से करे आशिक जो
माशुका को सराबोर
उसी से प्यार होता,
क्यों पाक रिश्ते ढूंढ रह हो
आजकल के इश्क में
होता है जो रोज यहां नीलाम।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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