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राजनीति में संधाय आसन की प्रासंगिकता-हिंदी लेख


                बाबा रामदेव ने फिर अपना आंदोलन प्रारंभ किया है।  उन्होंने तारीख चुनी है नौ अगस्त जिस दिन स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारत अंग्रेजों का नारा बुलंद किया गया था।  मूलतः बाबा रामदेव एक योग शिक्षक हैं यह अलग बात है कि उन्होंने अपने व्यवसायिक प्रयासों ने भारतीय योग विद्या को जिस तरह प्रचार माध्यमों में प्रतिष्ठित किया उससे उनके भक्त उनमें देवत्व के दर्शन करते हैं।  इसमें कोई संदेह नहीं है कि उनके योग प्रचार की क्षमताओं को कोई चुनौती नहीं देता।  देना चाहिए भी नहीं क्योंकि उन्होंने जो किया है वह आसानी से नहीं किया जा सकता।

योगासन और प्राणायाम से मनुष्य के अंदर जिस मनुष्यत्व की स्थापना स्वतः होती है उसका अनुभव तो केवल गुरु और उनके साधक ही कर सकते हैं। इसमें संदेह नहीं है मगर इसका आशय यह कतई नहीं है कि योग साधक या गुरु मनुष्यत्व में ज्ञान तत्व की स्थापना कर सकें।  हमारे देश में एक बात देखी जाती है कि लोग हर विषय में ज्ञानी होने का दावा करते हैं। स्थिति यह है कि कोई भी किसी भी व्यवसाय में कूद जाता है।  अगर कोई सार्वजनिक महत्व का काम हो तो सभी अपना महत्व सिद्ध करने  लगते हैं।  खासतौर से जब ज्ञान की बात हो तो प्राचीन ग्रंथों से पढ़ी बात को कोई भी सुना सकता है।

बाबा रामदेव आष्टांग योग में आसन और प्राणायाम में सिद्ध हस्त हैं पर जिस तरह वह जिस सामाजिक अभियान को चला रहे हैं उसके लिये राजनीति शास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है।  वही क्या हमारा मानना है कि राजनीति में आने वाले हर व्यक्ति को राजनीति शास्त्र का ज्ञान होना चाहिए।  हमारे यहां पद प्राप्ति को ही राजनीतिक लक्ष्य और उपलब्धि माना जाता है। इतना ही नहीं जो बरसों से पदासीन रहे उसे चाणक्य तक कहा जाता है।  राज्य में पद प्राप्त करने वाले की प्रजा के प्रति जो जिम्मेदारी होती है और उसका निर्वाह करने के लिये जो तरीके हैं उसका ज्ञान कितनों को होता है यह अलग से विचार का विषय है।

बाबा रामदेव के बारे में हमारी धारणा है कि उनके अंदर किसी सामान्य मनुष्य की अपेक्षा अधिक दैहिक तथा मानसिक शक्ति है जो योग साधना का परिणाम है।  इस शक्ति का उपयोग करने के लिये जिस ज्ञान की आवश्यकता होती है उसमें अवश्य संदेह होता है।  इसके लिये आवश्यक होता है संबंधित विषय का ज्ञान होना और बाबा रामदेव राजनीति शास्त्र के अध्ययन के बिना राष्ट्रहित का आंदोलन चलाने निकल पड़े हैं।

इस बार के आंदोलन में उनका ध्येय अस्पष्ट है।  तेवर ढीले हैं।  अन्ना हजारे के साथ उन्होंने कुछ ही दिन पहले संयुक्त रूप से पत्रकार वार्ता की थी उसमें दोनों ने साथ साथ रहने की कसम खाई थी।  अन्ना हजारे अपना आंदोलन बीच में खत्म कर अपने गांव वापस चले गये।  उन्होंने जिस तरह अपना आंदोलन खत्म किया वह अत्यंत निराशाजनक था।  हमारे जैसे निष्पक्ष आम लेखकों का मानना है कि अन्ना हजारे हों या स्वामी रामदेव इन दोनों के राष्ट्र सुधार के लिये किये गये आंदोलन केवल प्रचार माध्यमों के सहारे ही लंबे चले।  तब दोनों आंदोलनों के समाचारों और बहसों के बीच हर मिनट में विज्ञापन के दर्शन होते थे।  चूंकि आंदोलन गंभीर मुद्दों पर सतही योजना पर आधारित रहे हैं इसलिये लोगों की इनमें दिलचस्पी अधिक नहीं रही।  यही कारण है कि अब प्रचार माध्यम इनसे दूरी बना रहे हैं क्योंकि उनके प्रबंधकों को नहीं लगता कि दिन भर इनके सहारे विज्ञापनों का समय पास किया जा सकता है।

बहरहाल बाबा रामदेव दिल्ली के रामलीला मैदान में जो आंदोलन कर रहे हैं उसमें वह संधाय आसन करते हुए दिख रहे हें

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

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अरेश्व विजिगीषोश्व विग्रहे हीयामानयोः।

सन्धाय यदवस्थानं सन्धायान्मुच्यते।।

हिन्दी में भावार्थ- जब दोनों शत्रु युद्ध में हीन हो उस समय मिल बैठ रहने को संधाय आसन कहते हैं।

पहले जब वह अनशन पर बैठे थे तब विदेशों में जमा भारत के  काले धन को देश में लाने के मुद्दे पर जमकर गरजे थे।  उनके शत्रु कौन है यह तो पता नहीं पर काले धन को लेकर वह जब आक्रामक रवैया अपनाये हुए थे तब लग रहा था कि  पर्दे के पीछे कोई न कोई शत्रु है जिससे वह ललकार रहे हैं।  विदेशों में काला धन रखने वालों को उन्होंने राष्ट्र का शत्रु तक घोषित कर दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने उनके नाम तक अपने पास होने का दावा करते हुए कहा था कि समय आने पर बता दूंगा।  इस बार वह केवल हवा में अपनी बातें उछाल रहे हैं।  हम किसी के विरोधी नहीं है।  हमारा कोई शत्रु नहीं है।  आदि आदि मीठी बातें करते हुए वह ऐसे लगते हैं जैसे कि सामने बैठी भीड़ की बजाय कहीं दूर बैठे अज्ञात लोगों को प्रसन्न कर रहे हैं।

बाबा रामदेव के  विरुद्ध कोई बड़ी कार्यवाही की संभावना भी नहीं लगती। ऐसा लगता है कि पर्दे के पीछे विराजमान उनके शत्रु भी अब शांत हो गये हैं।  कम से कम अभी तक बाबा रामदेव ऐसे लग रहे हैं कि जैसे कि खानापूरी करने आये हों और उनके अभियान से किसी को डरने की आवश्यकता नहीं है।  बाबा रामदेव को शायद पता नहीं होगा  आसनों के प्रकार पतंजलि योग में कहीं नहीं बताये गये पर के कौटिल्य महाराज ने अपने शास्त्र में अनेक आसनों का जिक्र किया है।  उनसे यह भी पता चलता है कि बैठने या उठने के ही आसन नहीं होते बल्कि मनुष्य की मानसिक तथा शारीरिक क्रियाओं के साथ ही व्यवहार के भी आसन होते हैं।  रामलीला मैदान में आंदोलन समाप्त होने के बाद वह आपस में द्वंद्वरत लोगों को हिंसा की बजाय संधाय आसन करने की प्रेरणा दे सकते हैं ताकि देश में मैत्रीवत भावना का विकास हो।

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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अन्ना हजारे (अण्णा हज़ारे) की मानसिक हलचल अब ब्लॉग पर नहीं दिखेगी-हिन्दी लेख (anna hazare ki mansik halchal wala blog band hona-hindi lekh)


                अन्ना हजारे ने अपना ब्लॉग बंद करने का निर्णय लिया है। वैसे तो इस देश में बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने उनका ब्लॉग देखा होगा क्योंकि उस पर पाठ प्रकाशित होता ही था कि प्रचार माध्यम उसे अपने मंच पर मुख्य समाचार की तरह उपयोग करते रहे जिसकी वजह से उसको देखने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। ऐसे में ब्लॉग होने का प्रभाव बाजार समर्थित प्रचार माध्यमों पर ही पड़ेगा जिनके लिये सनसनी फैलाने वाला एक स्त्रोत कम हो जायेगा। वैसे यहां भी स्पष्ट कर दें कि इस देश में गहरा चिंत्तन करने वाले पहले अन्ना हजारे की टीम के सदस्यों पर वर्तमान बाज़ार से समर्थित होने का आरोप लगाते थे तो अब उनको अन्ना का संपूर्ण आंदोलन ही प्रायोजित दिख रहा है। श्री अन्ना हजारे का ब्लॉग बंद होने का फैसला उनकी दृढ़ मानसिक शक्ति पर प्रश्न खड़े करेगा इसमें संशय नहीं है।
         आखिर वह कौनसा पाठ है जिसमें ऐसा कुछ आ गया कि उनको लगा कि यह ब्लॉग बंद करना ही श्रेयस्कर है? अन्ना को अपने प्रचार के लिये वैसे ही किसी ब्लॉग की आवश्यकता नहीं थी तब क्या बाज़ार के प्रायोजन की वजह से उन्होंने इसे बनाया। दरअसल वर्तमान बाज़ार जिसे भी नायक बनाता है उसका ब्लॉग अवश्य फैशन के तौर पर जरूर बनवाता है। इससे वह एक तीर से दो शिकार करता है। एक तो नई पीढ़ी को अपने नायक की अंतर्जालीय छवि से घेरता है दूसरा यह कि टेलीफोन कंपनियों के कनेक्शन कम होने की संभावना बच जाते हैं जिनका खतरा उनको हमेशा बना रहता है। सीधी बात कहें तो अन्ना हजारे के पीछे कहीं न कहीं बाज़ार का प्रायोजन है और इसी कारण उनके यह ब्लॉग बना भी होगा। इसका लेखक भी उनका सहयोगी था जिसको वह अपनी बात लिख कर देते और वह उसे चिट्ठी के साथ टंकित कर प्रकाशित करता था। अनेक पाठ चर्चित हुए। जब अन्ना मौन थे तब ब्लॉग के माध्यम से वह जनता से जुड़े रहे। अब उनके ब्लॉगर सहयोगी ने उनकी एक अहस्ताक्षरित चिट्ठी के साथ एक पाठ प्रकाशित किया जिसमें अन्ना टीम के सदस्यों को अलोकतांत्रिक बताते हुए टीम में सदस्यों में बदलाव की बात कही है। अन्ना ने अपने ब्लॉगर से सहमत होने की बात से अब इंकार करते हुए बताया कि वह अपने विचार कहीं लिख लेते थे। एक समय उन्हें अपनी टीम के बारे में ऐसा विचार आया था तो लिख लिया पर उसे प्रेषित करने के लिये ब्लॉगर को नहीं दिया। उस ब्लॉगर को केवल हस्ताक्षरित पत्र प्रकाशित करने का अधिकार दिया था। अगर उनका यह स्पष्टीकरण सही माना जाये तो लगता है चूंकि वह ब्लॉगर उनका निकटस्थ है इसलिये ऐसा कागज उसके पास रह सकता है भले ही उसे प्रकाशन का अधिकार न मिला हो। अन्ना का यह विचार उसने अनाधिकार छापा है-यही स्पष्टीकरण अन्ना हजारे साहिब ने दिया है।
              गंभीर चिंतकों की नज़र में अन्ना ने पहली ऐसी रणनीतिक गलती की है जो उनके व्यक्तित्व में गिरावट दर्ज करेगी। जब देश में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की बात आती है तब अन्ना हजारे को एक महानायकत्व का दर्जा देने का प्रयास प्रचार माध्यम करते हैं। जब तक आंदोलन किनारे पर था तब लोगों ने उसका अधिक अध्ययन नहीं किया और उस समय अन्ना सारे निर्णय स्वयं करते हुए एक चतुर व्यक्ति लगे। जब यह लोगों की समंदरनुमा भीड़ में आया तब धीरे धीरे लगा कि अन्ना हजारे एक ऐसा शीर्षक है जिसमें भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अनेक उपशीर्षकों के साथ एक बड़ा पाठ होगा। मतलब अन्ना हजारे एक नाम भर है। बाज़ार से प्रायोजित होने के प्रत्यक्ष प्रमाण भले न हो पर अन्ना टीम के सभी वरिष्ठ सदस्य ऐसे स्वयंसेवी संगठनों के कर्ताधर्ता हैं जो अपने कथित सामाजिक लक्ष्यों के लिये राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार से दान या चंदे के रूप में धन प्राप्त करते हैं। तय बात है कि बाज़ार का सामाजिक उद्देश्य लोगों को अपने हित में साधे रहना होता है। कम से कम आज के आधुनिक युग में कोई भी व्यवसायिक परिवार, संगठन या समूह धर्म के नाम दान या चंदा नहीं देता जब तब उसका कोई आर्थिक हित न पूरा होता हो। ऐसे में अन्ना की टीम के सहयोगी पेशेवर समाज सेवक हैं और उनसे यह अपेक्षा करना कि वह अपने चंदादाताओं का ध्यान नहीं रखेंगे यह सोचना गलत होगा।
          बहरहाल अन्ना के सहयोगी ब्लॉगर ने अन्ना टीम के उन्हीं सहयोगियों के बारे अन्ना के ही ऐसे विचार प्रकट किये जो प्रचार माध्यमों में समाचारों के दौरान उनकी मानसिक हलचल को बयान करते थे। हस्ताक्षर नहंी है इससे यह तो माना जा सकता है कि उनमें निर्णायक तत्व नहीं है पर इतना तय है कि उनके सहयोगियों की स्थिति अब डांवाडोल हो रही है। यह सच है कि मानसिक हलचल के समय विचारों का उतारचढ़ाव आता है। उनको स्थिर मानकर उन पर प्रतिक्रिया देना तब तक ठीक नहीं है जब उनमें व्यक्ति का निर्णायक तत्व प्रमाणित नहीं है। हम अन्ना साहब की सफाई को स्वीकार करते हैं पर ब्लॉग बंद करने का निर्णय इस बात को दर्शाता है कि वह डर गये हैं। जिन सहयोगियों की आलोचना ब्लॉग में है वह अगर तत्काल स्वयं ही अन्ना टीम से हट जायें तो उनका आंदोलन हाल ही टॉय टॉय फिस्स हो जायेगा। बाजार से पैसा जुटाने वाले उनके वर्तमान सहयोगियों को संगठित प्रचार समूह का समर्थन भी इसलिये मिला है क्योंकि कहीं न कहीं से उनको आपने धनदाताओं से ऐसे निर्देश मिले हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जनमानस में बना रहना चाहिए। इसके अलावा अन्य ने महानायकत्व की ऐसी छवि बना ली है जिसके निकट अन्य व्यक्तित्व पनप नहीं सकता। उन्होंने करीब करीब देश के सारे बड़े संगठनों से दूरी बना ली है। ऐसे में उनकी टीम के चार बलशाली सदस्य अगर उनका साथ छोड़ दें तो फिर अन्ना के लिये रालेगण सिद्धि से दिल्ली आना भी कठिन हो जायेगा। देश में सक्रिय बौद्धिक वर्ग तथा स्थापित सामाजिक संगठन अब अन्ना हजारे के आंदोलन को सक्रिय सहयोग  शायद ही दें।
         ऐसे में अपनी टीम के इन सदस्यों को प्रसन्न करने के लिये अन्ना हजारे ने ब्लॉग बंद करने का फैसला सुनाया पर इससे रूप से यह अप्रत्यक्ष रूप से संदेश भी हमारे सामने आ गया है कि अन्ना अपने आंदोलन की स्थिति को जानते हैं। अपनी गांधी जैसी छवि बनते देखकर वह खुश हो रहे हैं और उनको लगता है कि उनकी वर्तमान टीम ही इसमें सबसे अधिक मददगार है। जहां तक आंदोलन के नतीजों का सवाल है इस पर हम पहले भी बहुत कुछ लिख चुके हैं। गांधीजी ने हिंसा होने पर अपना एक आंदोलन वापस ले लिया था पर इससे उनकी छवि एक अहिंसक रूप में बढ़ी थी जबकि अन्ना साहेब ने अपना ब्लॉग लेकर यह साबित किया कि एक पाठ ने ही उनके ब्लॉग को उखाड़ दिया जो कि उनकी मानसिक हलचल का परिणाम रहा। ऐसा लगता है कि जब अन्न हज़ारे रालेगण सिद्धि में होते हैं तब उनकी मानसिक हलचल उन्हें लिखने के लिए प्रेरित करती है पर दिल्ली में आकर वह थम जाती है। उनके ब्लॉगर का तो यही कहना है कि वह दिल्ली में चौकड़ी के दबाव में बयान दे रहे हैं, जबकि अन्ना का अपनी टीम को बदलने का विचार उनके पास लिखित में है।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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भ्रष्टाचार का जिंदा मुद्दा छोड़ जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह या आत्मनिर्णय का मुर्दा मसला क्यों पकड़ा-हिन्दी लेख (bhrashtachar ka jinda mudda chhod jammu kashmir mein janmat sangrah ka murda masla kyon pakda-hindi lekh


           भारत में महात्मा गांधी के चरणचिन्ह पर चल रहे लोगों को यह गलतफहमी कतई नहीं रखना चाहिए कि अहिंसा के हथियार का उपयोग देशी लोगों को तोड़ने के लिये किया जाये। उनको एक बात याद रखना चाहिए कि गांधी जी ने अंिहंसा का प्रयोग देश के लोगों को एकजुट करने के साथ ही विदेशों में भी अपने विषय को चर्चा योग्य बनाने के लिये किया था। उन्होंने अपनी अहिंसा से देश को जोड़ा न कि अलग होने के लिये उकसाया। जम्मू कश्मीर के मसले पर जनमत संग्रह की मांग का समर्थन कर अन्ना हजारे के सहयोगी ने ऐसा ही काम किया है जैसे कि अपनों का जूता देश अपनों की ही सिर। उनके बयान के कारण उनसे मारपीट हुई जिसकी निंदा पूरे देश में कुछ ही घंटे टीवी चैनलों पर चली जबकि उनके बयान के विरोध की बातें करते हुए दो दिन होने जा रहे हैं। अहिंसा की बात निहत्थे लोगों के लिये ठीक है पर जो हथियार लेकर हमला कर रहे उन उग्रवादियों से यह आशा करना बेकार है कि वह गांधीवाद को समझेंगे। फिर जम्मू कश्मीर का मसला अत्यंत संवेदनशील है ऐसे में अन्ना के सहयोगी का बयान अपने प्रायोजकों में अपनी छवि बनाये रखने के लिये जारी किया गया लगता है। अन्ना हजारे को भारत का दूसरा गांधी कहा जाता है पर वह गांधी नहंी है। इसलिये तय बात है कि अन्ना हजारे के किसी सहयोगी को भी अभी गांधीवाद की समझ नहंी है। महात्मा गांधी देश का विभाजन नहीं चाहते यह सर्वज्ञात है। ऐसे में गांधीवादी अन्ना हजारे के किसी सहयोगी का जम्मू कश्मीर के जनमत संग्रह कराने तथा वहां से सेना हटाने का बयान संदेह पैदा करता है। क्या गांधीजी ने कहा था कि अपने देश में कहीं किसी प्रदेश में सेना न रखो।
        बहरहाल कुछ लोगों को अन्ना के सहयोगी का बयान के साथ ही उसका विरोध भी प्रायोजित लग सकता है। अन्ना के सहयोगी के साथ मारपीट हुई यह दुःख का विषय है। प्रचार माध्यमों से पता चला कि आरोपियों की तो जमानत भी हो चुकी है। इसका सीधा मतलब है कि बयान के विरोधियों ने अन्ना के सहयोगी को उनके इसी बयान की वजह से खलनायक बनाने के लिये इस तरह का तरीका अपनाया जिससे उनके शरीर को अधिक क्षति भी न पहुंचे और उनकी छवि भी खराब हो। यह मारपीट भले ही अब हल्का विषय लगता हो पर यकीनन यह अंततः अन्ना के उस सहयोगी के लिये संकट का विषय बनने वाला है।
       भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के वजह से अन्ना हजारे की राष्ट्रीय छवि बनी तो तय था कि उसका लाभ उनके निकटस्थ लोगों को होना ही था। अन्ना के जिस सहयोगी के साथ मारपीट हुई वह उनके साथ उस पांच सदस्यीय दल का सदस्य था जो सरकारी प्रतिनिधियों के साथ जनलोकपाल विधेयक बनाने पर चर्चा करती रहीं। एक तरह से उसकी भी राष्ट्रीय छवि बनती जा रही थी जिससे अपने अन्य प्रतिबद्ध एजेंडों को छिपाने में सफल हो रहे थे। अब वह सामने आ गया है। इंटरनेट के एक दो हिन्दी ब्लॉग लेखकों ने जम्मू कश्मीर के मसले पर प्रथकतावादियों के साथ आयोजित एक कार्यक्रम में उनकी सहभागिता का जिक्र किया था तब हैरानी भी हुई थी। ऐसे में हमें संदेह भी हो रहा था कि अन्ना हजारे साहब की आड़ के कुछ ऐसे तत्व तो नहीं आगे बढ़ रहे जो राष्ट्रीय छवि के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय छवि तो नहीं बनाने का प्रयास कर रहे हैं । ऐसे में अन्ना जी के सहयोगी ने ऐसा बयान इस तरह दे दिया कि जैसे वह आम बयान हो पर उनके विरोधियों के लिये इतना ही काफी था।
        एक बात निश्चित है कि कुछ अदृश्य शक्तियां अन्ना साहब के आंदोलन को बाधित करना चाहती होंगी पर जिस तरह अन्ना के सहयोगी अपने मूल उद्देश्य से अलग हटकर बयान दे रहे हैं उसे देखकर नहीं लगता कि उन्हें  प्रयास करने होंगे क्योंकि यह काम अन्ना के सहयोगी ही कर देंगे। अब एक सवाल हमारे मन में आता है कि अन्ना के सहयोगी ने यह बयान कहीं जानबूझकर तो नहीं दिया कि अन्ना जी का आंदोलन बदनाम हो। वह पेशेवर समाज सेवक हैं ऐसी बातें प्रचार माध्यम ही कहते हैं। अन्नाजी के अनेक सहयोगियों को विदेशों से भी अनुदान मिलता है ऐसा सुनने को मिलता रहता है। तब लगता है कि अन्ना के सहयोगी कहीं अपने प्रायोजकों के ऐजेंडे को बढ़ाने का प्रयास न करें। दूसरी यह भी बात है कि अन्ना साहेब का आंदोलन अभी लंबा चलना है। ऐसे में उनके निकटस्थ सहयोगियों के चेहरे भी बदलते नजर आयेंगे। यह देखकर स्वयं की पदच्युत होने की संभावनाओं के चलते कोई सहयोगी अफलातूनी बयान भी दे सकता है। कहा भी जाता है कि बिल्ली दूध पीयेगी भी तो फैला जरूर देगी।
        बहरहाल अगर अन्ना के सहयोगी का जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का बयान प्रायोजित है तो फिर यह मारपीट भी कम प्रायोजित नहीं लगती। प्रचार माध्यमों के अनुसार 24 या 25 सितम्बर को यह बयान दिया गया जबकि उनके साथ मारपीट 13 अक्टोबर को हुई। अक्सर देखा गया है कि संवेदनशील बयानों पर प्रतिक्रिया एक दो दिन मेें ही होती है पर यहां 18 दिन का अंतर देखा गया। संभव है आरोपियों ने यह घटना भावावेश में आकर की हो पर उनके प्रेरकों ने कहीं न कहीं यह हमला फिक्स किया होगा। उनके पीछे कौनसा समूह है यह कहना कठिन है। पहली बात तो यह अगर यह मारपीट नहीं होती तो बयान को 18 दिन बाद कोई पूछता भी नहीं। अब यह संभव है कि जम्मू कश्मीर के मसले पर भारत में प्रचार बनाये रखने वाले समूह का भी यह काम हो सकता हैं। दूसरा अन्ना के सहयोगी के ऐसे विरोधियों का भी यह काम हो सकता जो उनकी छवि बिगाड़ना चाहते रहे होंगे-यह अलग बात है कि उन्होंने स्वयं ही यह बयान देकर यह अवसर दिया।
आगे क्या होगा कहना कठिन है? इतना तय है कि अन्ना के यह सहयोगी अब जम्मू कश्मीर के मसले पर समर्थन कर भले ही अपने प्रायोजकों को प्रसन्न कर चुके हों पर भारतीय जनमानस उनके प्रति अब वैसे सद्भावना नहीं दिखायेगा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलनरत श्री अन्ना हजारे की टीम में फिलहाल उनकी जगह बनी हुई है पर विशुद्ध रूप से जनमानस के हार्दिक समर्थन से चल रहे अभियान को आगे चलाते समय उनके रणनीतिकारों के पास अपने विवादास्पद सहयोगी से पीछा छुड़ाने के अलावा कोई चारा नहीं रहने वाला। उनके साथ मारपीट करने वालों का उद्देश्य की उनका खून बहाना नहीं बल्कि छवि खराब करना अधिक लगता है। यह मारपीट अनुचित थी पर जिस लक्ष्य को रखकर की गयी वह भी अन्ना टीम के विरोधियों के हाथ लग सकता है। जनमानस की अनदेखी करना कठिन है। यह सही है कि महंगाई और भ्रष्टाचार देश में भयंकर रूप ले चुके हैं और जनमानस से विवादास्पद बयान भूल जाने की अपेक्षा की जा सकती थी पर यह काम तो अन्ना के वह कथित सहयोगी भी कर सकते थे। वरना संयुक्त राष्ट्रसंघ में धूल खा रहे प्रस्ताव की बात अब करने क्या औचित्य था? भ्रष्टाचार जैसे ज्वलंत मुद्दे में ऐसे मुर्दा सुझाव का कोई मतलब नहीं था।
इस विषय पर कल दूसरे ब्लाग पर लिखा गया यह लेख भी अवश्य पढें।

             अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के लक्ष्यों को लेकर तो उनके विरोधी भी गलत नहीं मानते। इस देश में शायद ही कोई आदमी हो यह नहीं चाहता हो कि देश में भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो। अन्ना हजारे ने जब पहली बार अनशन प्रारंभ किया तो उनको व्यापक समर्थन मिला। किसी आंदोलन या अभियान के लिये किसी संगठन का होना अनिवार्य है मगर अन्ना दिल्ली अकेले ही मैदान में उतर आये तो उनके साथ कुछ स्वयंसेवी संगठन साथ हो गये जिसमें सिविल सोसायटी प्रमुख रूप से थी। इस संगठन के सदस्य केवल समाज सेवा करते हैं ऐसा ही उनका दावा है। इसलिये कथित रूप से जहां समाज सुधार की जरूरत है वहां उनका दखल रहता है। समाज सुधार एक ऐसा विषय हैं जिसमें अनेक उपविषय स्वतः शामिल हो जाते हैं। इसलिये सिविल सोसायटी के सदस्य एक तरह से आलराउंडर बन गये हैं-ऐसा लगता है। यह अलग बात है कि अन्ना के आंदोलन से पहले उनकी कोई राष्ट्रीय छवि नहंी थी। अब अन्ना की छत्रछाया में उनको वह सौभाग्य प्राप्त हुआ है जिसकी कल्पना अनेक आम लोग करते हैं। इसलिये इसके सदस्य अब उस विषय पर बोलने लगे हैं जिससे वह जुड़े हैं। यह अलग बात है कि उनका चिंत्तन छोटे पर्दे पर चमकने तथा समाचार पत्रों में छपने वाले पेशेवर विद्वानों से अलग नहीं है जो हम सुनते हैं।

           बहरहाल बात शुरु करें अन्ना हजारे से जुड़ी सिविल सोसायटी के सदस्य पर हमले से जो कि वास्तव में एक निंदनीय घटना है। कहा जा रहा है कि यह हमला अन्ना के सहयोगी के जम्मू कश्मीर में आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करने पर दिया गया था जो कि विशुद्ध रूप से पाकिस्तान का ऐजंेडा है। दरअसल यह संयुक्त राष्ट्र में पारित उस प्रस्ताव का हिस्सा भी है जो अब धूल खा रहा है और भारत की सामरिक और आर्थिक शक्ति के चलते यह संभव नहीं है कि विश्व का कोई दूसरा देश इस पर अमल की बात करे। ऐसे में कुछ विदेशी प्रयास इस तरह के होना स्वाभाविक है कि भारतीय रणनीतिकारों को यह विषय गाहे बगाहे उठाकर परेशान किया जाये। अन्ना के जिस सहयोगी पर हमला किया गया उन्हें विदेशों से अनुदान मिलता है यह बात प्रचार माध्यमों से पता चलती रहती है। हम यह भी जानते हैं कि विदेशों से अनुदान लेने वाले स्वैच्छिक संगठन कहीं न कहीं अपने दानदाताओं का ऐजेंडा आगे बढ़ाते हैं।
           हमारे देश में लोकतंत्र है और हम इसका प्रतिकार हिंसा की बजाय तर्क से देने का समर्थन करते हैं। कुछ लोगों को यह लगता है कि मारपीट कर प्रतिकार करें तो वह कानून को चुनौती देते हैं। इस प्रसंग में कानून अपना काम करेगा इसमें भी कोई शक नहीं है।
           इधर अन्ना के सहयोगी पर हमले की निंदा का क्रम कुछ देर चला पर अब बात उनके बयान की हो रही है कि उसमें भी बहुत सारे दोष हैं। कहीं न कहीं हमला होने की बात पीछे छूटती जा रही है। एक आम लेखक और नागरिक के रूप में हम अपनी बात कहें तो शायद कुछ लोगों को अजीब लगे। हमने अन्ना के सहयोगी के इस बयान को उन पर हमले के बाद ही सुना। इसका मतलब यह कि यह बयान आने के 15 दिन बाद ही घूल में पड़ा था। कुछ उत्तेजित युवकों ने मारपीट कर उस बयान को पुनः लोकप्रियता दिला दी। इतनी कि अब सारे टीवी चैनल उसे दिखाकर अपना विज्ञापनों का समय पास कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि कहीं यह उत्तेजित युवक यह बयान टीवी चैनलों पर दिखाने की कोई ऐसी योजना का अनजाने में हिस्सा तो नहीं बन गये। संभव है उस समय टीवी चैनल किसी अन्य समाचार में इतना व्यस्त हों जिससे यह बयान उनकी नजर से चूक गया हो। यह भी संभव है कि दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई बैंगलौर या अहमदाबाद जैसे महानगरों पर ही भारतीय प्रचार माध्यम ध्यान देते हैं इसलिये अन्य छोटे शहरों में दिये गये बयान उनकी नजर से चूक जाते हैं। इस बयान का बाद में जब उनका महत्व पता चलता है तो कोई विवाद खड़ा कर उसे सामने लाने की कोई योजना बनती हो। हमारे देश में अनेक युवक ऐसे हैं जो अनजाने में जोश के कारण उनकी योजना का हिस्सा बन जाते हैं। यह शायद इसी तरह का प्रकरण हो। हमला करने वाले युवकों ने हथियार के रूप में हाथों का ही उपयोग किया इसलिये लगता है कि उनका उद्देश्य अन्ना के सहयोगी को डराना ही रहा होगा। ऐसे में मारपीट कर उन्होंनें जो किया उसके लिये उनको अब अदालतों का सामना तो उनको करना ही होगा। हैरानी की बात यह है कि हमला करने वाले तीन आरोपियों में से दो मौके से फरार हो गये पर एक पकड़ा गया। जो पकड़ा गया वह अपने कृत्य पर शार्मिंदा नहीं था और जो फरार हो गये वह टीवी चैनलों पर अपने कृत्य का समर्थन कर रहे थे। हैरानी की बात यह कि उन्होंने अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रति समर्थन देकर अपनी छवि बनाने का प्रयास किया। इसका सीधा मतलब यह था कि वह अन्ना की आड़ में उनके सहयोगी के अन्य ऐजेंडों से प्रतिबद्धता को उजागर करना चाहते थे। वह इसमें सफल रहे या नहीं यह कहना कठिन है पर एक बात तय है कि उन्होंने अन्ना के सहयोगी को ऐसे संकट में डाल दिया है जहां उनके अपने अन्य सहयोगियों के सामने अपनी छवि बचाने का बहुत प्रयास करना होगा। संभव है कि धीरे धीरे उनको आंदोलन की रणनीतिक भूमिका से प्रथक किया जाये। कोई खूनखराबा नहीं  हुआ यह बात अच्छी है पर अन्ना के सभी सहयोगियों के सामने अब यह समस्या आने वाली है कि उनकी आलराउंडर छवि उनके लिये संकट का विषय बन सकती है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन निर्विवाद है पर जम्मू कश्मीर, देश की शिक्षा नीति, हिन्दुत्ववाद, धर्मनिरपेक्षता तथा आतंकवाद जैसे संवेदनशील विषयों पर अपनी बात सोच समझकर रखना चाहिए। यह अलग बात है कि लोग चिंत्तन करने की बजाय तात्कालिक लोकप्रियता के लिये बयान देते हैं। यही अन्ना के सहयोगी ने किया। स्थिति यह है कि जिन संगठनों ने उन पर एक दिन पहले उन पर हमले की निंदा की दूसरे दिन अन्ना के सहयोगी के बयान से भी प्रथक होने की बात कह रहे हैं। अन्ना ने कुशल राजनीतिक होने का प्रमाण हमले की निंदा करने के साथ ही यह कहकर भी दिया कि मैं हमले की असली वजह के लिये अपने एक अन्य सहयेागी से पता कर ही आगे कुछ कहूंगा।

            आखिरी बात जम्मू कश्मीर के बारे में की जाये। भारत में रहकर पाकिस्तान के ऐजेंडे का समर्थन करने से संभव है विदेशों में लोकप्रिय मिल जाये। कुछ लोग गला फाड़कर चिल्लाते हुए रहें तो उसकी परवाह कौन करता है? मगर यह नाजुक विषय है। भारत का बंटवारा कर पाकिस्तान बना है। इधर पेशेवर बुद्धिजीवी विदेशी प्रायोजन के चलते मानवाधिकारों की आड़ में गाहे बगाहे जनमत संग्रह की बात करते हैं। कुछ ज्ञानी बुद्धिजीवी इस बात को जानते हैं कि यह सब केवल पैसे का खेल है इसलिये बोलते नहीं है। फिर बयान के बाद मामला दब जाता है। इसलिये क्या विवाद करना? अलबत्ता इन बुद्धिजीवियों को कथित स्वैच्छिक समाज सेवकों को यह बता दें कि विभाजन के समय सिंध और पंजाब से आये लोग हिन्दी नहीं जानते थे इसलिये अपनी बात न कह पाये न लिख पाये। उन्होंने अपनी पीड़ा अपनी पीढ़ी को सुनाई जो अब हिन्दी लिखती भी है और पढ़ती भी है। यह पेशेवर बुद्धिजीवी अपने उन बुजुर्गों की बतायी राह पर चल रहे हैं जिसका सामना बंटवारा झेलने वाली पीढ़ी से नहीं हुआ मगर इनका होगा। बंटवारे का सच क्या था? वहां रहते हुए और फिर यहां आकर शरणार्थी के रूप में कैसी पीढ़ा झेली इस सच का बयान अभी तक हुआ नहीं है। विभाजन से पूर्व पाकिस्तान में सिंध, बलूचिस्तान और सिंध प्रांतों में क्या जनमत कराया गया था? पाकिस्तान जम्मू कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करता और जनमत संग्रह की मांग करने वाले खुले रूप से उससे हमदर्दी रखते हैं। ऐसे में जनमत संग्रह कराने का मतलब पूरा कश्मीर पाकिस्तान को देना ही है। कुछ राष्ट्रवादियों का यह प्रश्न इन कथित मानवाधिकारियों के सामने संकट खड़ा कर सकता है कि ‘सिंध किसके बाप का था जो पाकिस्तान को दे दिया या किसके बाप का है जो कहता है कि वह पाकिस्तान का हिस्सा है’। जम्मू कश्मीर को अपने साथ मिलाने का सपना पूरा तो तब हो जब वह पहले बलूचिस्तान, सीमा प्रांत और सिंध को आजाद करे जहां की आग उसे जलाये दे रही है। यह तीनों प्रांत केवल पंजाब की गुलामी झेल रहे हैं। इन संकीर्ण बुद्धिजीवियों की नज़र केवल उस नक्शे तक जाती है जो अंग्रेज थमा गये जबकि राष्ट्रवादी इस बात को नहीं भूलते कि यह धोखा था। संभव है कि यह सब पैसे से प्रायोजित होने की वजह से हो रहा हो। इसी कारण इतिहास, भूगोल तथा अपने पारंपरिक समाज से अनभिज्ञ होकर केवल विदेशियों से पैसा देकर कोई भी कैसा भी बयान दे सकता है। यह लोग जम्मू कश्मीर पर बोलते हैं पर उस सिंध पर कुछ नहीं बोलते जो हमारे राष्ट्रगीत में तो है पर नक्शे में नहीं है।

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior