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ओसामा बिन लादेन कब मरा-हिन्दी लेख (death of osama bin laden,what truth and lie-hindi lekh)


               इस्लामिक उग्रवाद के आधार स्तंभ ओसामा  बिन लादेन के मारे जाने की खबर इतनी बासी लगी कि उस पर लिखना अपने शब्द बेकार करना लगता है।  अगर अमेरिका और लादेन के बीच चल रहे पिछले दस वर्षों से चल रहे संघर्ष के बारे में प्रचार माध्यमों में प्रकाशित तथा प्रसारित समाचारों पर दृष्टिपात करते हैं तो हमारा अनुमान है कि वह दस साल पहले ही मर चुका है क्योंकि उसके जिंदा रहने के कोई प्रमाण अमेरिका और उसकी खुफिया एजेंसी सीआईऐ नहीं दे सकी थी। उसके मरने के प्रमाण नहीं मिले या छिपाये गये यह अलग से चर्चा का विषय हो सकता है। थोड़ी देर के लिये मान लें कि वह दस साल पहले नहीं मारा गया तो भी बाद के वर्षों में भी उसके ठिकानों पर ऐसे अमेरिकी हमले हुए जिसमें वह मर गया होगा। यह संदेह उसी अमेरिका की वजह से हो रहा है जिसकी सेना के हमले बहुत अचूक माने जाते हैं।
                 अगर हम यह मान लें कि ओसामा बिन लादेन अभी तक नहीं मरा  था  तो यह शक होता है कि अमेरिका का एक बहुत बड़ा वर्ग उसे जिंदा रखना चाहता था ताकि उसके आतंक से भयभीत देश उसके पूंजीपतियों के हथियार खरीदने के लिये मजबूर हो सकें। यह रहस्य तो सैन्य विशेषज्ञ ही उजागर कर सकते हैं कि इन दस वर्षों में अमेरिका के हथियार निर्माताओं को इस दस वर्ष की अवधि में ओसामा बिन लादेन की वजह से कितना लाभ मिला? इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि उसे दस वर्ष तक प्रचार में जिंदा रखा गया। अमेरिका के रणीनीतिकार अपनी शक्तिशाली सेना की नाकामी का बोझ केवल अपने आर्थिक हितो की वजह से ढोते रहे।
                  आज से दस वर्ष पूर्व अमेरिका के अफगानिस्तान पर हम हमले के समय ओसामा बिन लादेन के मारे जाने की खबर आयी थी। वह प्रमाणित नहीं हुई पर सच बात तो यह है कि उसके बाद फिर न तो ओसामा बिन लादेन का कोई वीडियो आया न ही आडियो। जिस तरह का ओसामा बिन लादेन प्रचार का भूखा आदमी था उससे नहीं लगता कि वह बिना प्रचार के चुप बैठेगा। कभी कभी उसकी बीमारी की खबर आती थी। इन खबरों से तो ऐसा लगा कि ओसामा चलती फिरती लाश है जो स्वयं लाचार हो गया है। उन  समाचारों पर शक भी होता था क्योंकि कभी उसके अफगानिस्तान में छिपे होने की बात कही जाती तो कभी पाकिस्तान में इलाज करने की खबर आती।
                          अब अचानक ओसामा बिन लादेन की खबर आयी तो वह बासी लगी। उसके बाद अमेरिका के राष्टपति बराक हुसैन ओबामा के राष्ट्र के नाम संबोधन सुनने का मौका मिला। उसमें ओसामा बिन लादेन के धर्मबंधुओं को समझाया जा रहा था कि अमेरिका उनके धर्म के खिलाफ नहीं है। अगर हम प्रचार माध्यमों की बात करें तो यह लगता है कि इस समय अमेरिका में बराक ओबामा की छवि खराब हो रही है तो उधर मध्य एशिया में उसके हमलों से ओसामा बिन लादेन  के धर्मबंधु पूरी दुनियां में नाराज चल रहे हैं। लीबिया में पश्चिमी देशों के हमल जमकर चल रहे हैं। सीरिया  और मिस्त्र में भी अमेरिका अपना सीधा हस्तक्षेप करने की तैयारी मे है। देखा जाये तो मध्य एशिया में अमेरिका की जबरदस्त सक्रियता है जो पूरे विश्व में ओसामा बिन लादेन के धर्म बंधुओं के लिये विरोध का विषय है। बराक ओबामा ने जिस तरह अपनी बात रखी उससे तो लगता है कि वह ने केवल न केवल एक धर्म विशेष लोगों से मित्रता का प्रचार कर रहे थे बल्कि मध्य एशिया में अपनी निरंतर सक्रियता  से उनका ध्यान भी हटा रहे थे। उनको यह अवसर मिला या बनाया गया यह भी चर्चा का विषय है।
                  अमेरिका में रविवार छुट्टी का दिन था। लोगों के पास मौज मस्ती का समय होता है और वहां के लोगों को यह एक रोचक और दिलखुश करने वाला विषय मिल गया और प्रचार माध्यमों में उनका जश्न दिखाया भी गया। अमेरिका की हर गतिविधि पर नज़र रखने वाले किसी भी घटना के वार और समय में बहुत दिलचस्पी रखते हैं। सदाम हुसैन को फांसी रविवार को दी गयी थी तब कुछ विशेषज्ञों ने अनेक घटनाओं को हवाला देकर शक जाहिर किया था कि कहीं यह प्रचार के लिये फिक्सिंग तो नहीं है क्योकि ऐसे मौकों पर अमेरिका में छुट्टी का दिन होता है और समय वह जब लोग नींद से उठे होते हैं या शाम को उनकी मौजमस्ती का समय होता है।
                    जब से क्रिकेट  में फिक्सिंग की बात सामने आयी है तब से हर विषय में फिक्सिंग के तत्व देखने वालों की कमी नहीं है। स्थिति तो यह है कि फुटबाल और टेनिस में भी अब लोग फिक्सिंग के जीव ढूंढने लगे हैं। अमेरिका की ऐसी घटनाओं पर विश्लेषण करने वाले वार और समय का उल्लेख करना नहीं भूलते।
                        पहले की अपेक्षा अब प्रचार माध्यम शक्तिशाली हो गये है इसलिये हर घटना का हर पहलु सामने आ ही जाता है। अमेरिका इस समय अनेक देशों में युद्धरत है और वह अफगानिस्तान से अपनी सेना  वापस बुलाना चाहता है। संभव है कि ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद उसे यह सहुलियत मिल जायेगी कि वहां के रणनीतिकार अपनी जनता को सेना की वापसी का औचित्य बता सकेंगे। अभी तक  वह अफगानिस्तान में अपनी सेना बनाये रखने का औचित्य इसी आधार पर सही बताता रहा था कि ओसाबा अभी जिंदा है। अलबत्ता सेना बुलाने का यह मतलब कतई नहीं समझना चाहिए कि अफगानितस्तान से वह हट रहा है। दरअसल उसने वहां उसी तरह अपना बौद्धिक, आर्थिक तथा प्रशासनिक वर्चस्व स्थापित कर दिया होगा जिससे बिना सेना ही वह वहां का आर्थिक दोहन करे जैसे कि ब्रिटेन अपने उपनिवेश देशों को आज़ाद करने के बाद करता रहा है। सीधी बात कहें तो अफगानिस्तान के ही लोग अमेरिका का डोली उठाने वाले कहार बन जायेंगे।        
                     ओसामा बिन लादेन एकदम सुविधा भोगी जीव था। यह संभव नहीं था कि जहां शराब और शबाब की उसकी मांग जहां पूरी न होती हो वह वहां जाकर रहता। उसके कुछ धर्मबंधु भले ही प्रचार माध्यमों के आधार पर उसे नायक मानते रहे हों पर सच यह है कि वह अय्याश और डरपोक जीव था। वह युद्ध के बाद शायद ही कभी अफगानिस्तान में रहा हो। उसका पूरा समय पाकिस्तान में ही बीता होगा। अमेरिकी प्रशासन के पाकिस्तानी सेना में बहुत सारे तत्व हैं और यकीनन उन्होंने ओसामा बिन लादेन को पनाह दी होगी। वह बिना किसी पाकिस्तानी सहयोग  के इस्लामाबाद के निकट तक आ गया और वहां आराम की जिंदगी बिताने लगा यह बात समझना कठिन है। सीधा मतलब यही है कि उसे वहां की लोग ही लाये और इसमें सरकार का सहयोग न हो यह सोचना भी कठिन है। वह दक्षिण एशिया की कोई भाषा नहीं जानता इसलिये यह संभव नही है कि स्थानीय सतर पर बिना सहयोग के रह जाये। अब सवाल यह भी है कि पाकिस्तानी सेना बिना अमेरिका की अनुमति के उसे वहां कैसे पनाह दे सकती थी। यकीनन कहीं न कहीं फिक्सिंग की बू आ रही है। अमेरिका उसके जिंदा रहते हुए अनेक प्रकार के लाभ उठाता रहा है। ऐसे में संभव है कि उसने अपने पाकिस्तानी अनुचरों से कहा होगा कि हमें  तो हवा में बमबारी करने दो और तुम लादेन को कहीं रख लो। किसी को पता न चले, जब फुरतस मिलेगी उसे मार डालेंगे। अब जब उसका काम खत्म हो गया तो उसे इस्लामाबाद में मार दिया गया।
                        खबरें यह है कि कुछ मिसाइलें दागी गयीं तो डान विमान से हमले किये गये। अमेरिका के चालीस कमांडो आराम से लादेन के मकान पर उतरे और उसके आत्मसमर्पण न करने पर उसे मार डाला। तमाम तरह की कहानिया बतायी जा रही हैं पर उनमें पैंच यह है कि अगर पाकिस्तान को पता था कि लादेन उनके पास आ गया तो उन्होंने उसे पकड़ क्यों नहीं लिया? यह ठीक है कि पाकिस्तान एक अव्यवस्थित देश है पर उसकी सेना इतनी कमजोर नहीं है कि वह अपने इलाके में घुसे लादेन को जीवित न पकड़ सके। बताया जाता है कि अंतिम समय में पाकिस्तान के एबटबाद में सैन्य अकादमी के बाहर ही एक किलोमीटर दूर एक बड़े बंगले में रह रहा था। पाकिस्तान का खुफिया तंत्र इतना हल्का नहीं लगता है कि उसे इसकी जानकारी न हो। अगर पाकिस्तान की सेना या पुलिस अपनी पर आमादा हो जाती तो उसे कहीं भी मार सकती थी। ऐसे में एक शक्तिशाली सेना दूसरे देश को अपने देश में घुस आये अपराधी की सूचना भर देने वाली एक  अनुचर संस्था  बन जाती है और फिर उसकी सेना  को हमले करने के लिए  आमंत्रित  करती है। इस तरह पाकिस्तान ने सारी गोटिया बिछायीं और अमेरिकी सेना को ही ओसामा बिन लादेन को मारे का श्रेय दिलवाया जिसको न मार पाने के आरोप को वह दस बर्षों से ढो रही थी। लादेन अब ज्यादा ताकतवर नहीं रहा होगा। उसे सेना क्या पाकिस्तानी पुलिस वाले ही धर लेते अगर उनको अनुमति दी जाती । ऐसा लगता है कि अमेरिका ने चूहे को मारने के लिये तोपों का उपयोग  किया है।
                   यह केवल अनुमान ही है। हो सकता है कि दस वर्ष या पांच वर्ष पूर्व मर चुके लादेन को अधिकारिक मौत प्रदान करने का तय किया गया हो। अभी यह सवाल है कि यह तय कौन करेगा कि करने वाला कौन है? बिना लादेन ही न1 इसका निर्णय तो आखिर अमेरिका ही करेगा। हालांकि नज़र रखने वाले इस बात की पूरी तहकीकात करेंगे। सब कुछ एक कहानी की तरह लग रहा है क्योंकि लादेन की लाश की फोटो या वीडियो दिखाया नहीं गया। कम उसका पोस्टमार्टम हुआ कब उसका डीएनए टेस्ट किया गया इसका भी पता नहीं चला। आनन फानन में उसका अंतिम संस्कार समंदर में इस्लामिक रीति से किया गया। कहां, यहा भी पता नहीं। भारतीय प्रचार माध्यम इस कहानी की सच्चाई पर यकीन करते दिख रहे हैं। उनको विज्ञापन दिखाने के लिये यह कहानी अच्छी मिल गयी। हमारे पास भीअविश्वास का कोई कारण नहीं पर इतना तय है कि इस विषय पर कुछ ऐसे तथ्य सामने आयेंगे कि इस कहानी पेंच दिखने लगेंगे।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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ऊंचे लोग, ऊंची पसंद-हास्य व्यंग्य (unche log, unchi pasand-hindi hasya vyangya


अब ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को देखने का हमारा नज़रिया वैसा नहीं रहा जैसे पहले था। जिस तरह ऊंचे ऊंचे लोग अब जेलों में जा रहे हैं उसके बाद तो लगता है कि ऐसी ऊंचाईयों से गिरने के भी बहुत सारे खतरे हैं।
जब हम छोटे थे तो ऊंचे ऊंचे सपने देखते थे जिनमें हमें अपने भविष्य के दो ही रूप दिखते थे-एक आकर्षक पूंजीपति का या किसी बड़े दमदार पदाधिकारी का। अपने शुरुआती दिनों में हमने एक मजदूर की तरह जिंदगी गुजारना भी इसलिये स्वीकार किया कि आगे चलकर हमें बड़ा बनना है। एक निजी दुकान पर नौकरी की जहां ठेला भी चलाना पड़ा। तब आठवी पास की थी और हमारी नानी घर आकर कहती थी कि कुछ काम धंध करना सीखो। यह पढ़ाई किसी काम नहंी आयेगी। आजकल बेरोजगारी बहुत है।
वह ऐसे ऐसे उदाहरण सुनाती थी कि जिसमें नौकरी करने वाले सेठ और मजदूरी करने वाली पूंजीपति बन गये। पिताजी भी सोचते थे कि लड़का जवान हो रहा है पर वह ऐसी वैसी नौकरी नहीं करने देना चाहते थे जिससे उनके सेठ की छबि को आघात पहुंचे। वह भाईयों के साथ दुकान पर साझेदार थे और वहां हमारे लिये कोई काम नहीं था। दुकान रेडीमेड की थी और वहां जाते तो फिर काज बटन और सिलाई के लिये सामान देने के लिए उन महिलाओं के घर धूप में साइकिल पर जाना पड़ता था जो बाद में सिलकर दुकान पर दे जाती थी। प्रंत्यक्ष उससे कोई लाभ नहीं था पर पिताजी की मेहनत बच जाती थी। हमारी नानी एक तो पिताजी की भाईयों से साझेदारी से नाराज थी तो फिर हमारी निरर्थक मेहनत के समाचार भी उनको विचलित करते थे।

बहरहाल हमने नौकरी की। वहां ठेला चलाना पड़ता है यह बात पिताजी से छिपाई। सोचा कभी न कभी तो ऊंचे बनेंगे। सोचते थे कोई चाणक्य मिलेगा जो चंद्रगुप्त बना देगा। धीरे धीरे यह आभास हो गया कि यह केवल ख्वाब हैं जो कभी पूरा नहीं होगा। तब लेखक बनने की ठानी-यह मालुम था कि इससे रोजगार नहंी मिलेगा पर दिल को अपने ऊंचे होने का अहसास पालने के लिये यह एक बढ़िया रास्ता दिखाई दिया। अपने संघर्ष के दिनों में भी कविताई करते थे। फिर भी कभी कभी ख्याल आता था कि ऊंचे आदमी कैसे बने।
अब लगता है कि ऐसा सोचकर हमने अपने आपके ख्वामख्वाह मानसिक तकलीफ दी कि हम स्वयं ऊंचे आदमी नहीं हैं। सच तो यह है कि प्रारंभ से ही हमें कोई अपराध करने से डर लगता है। बाद में यह अनुभव हो गया कि बिना बेईमानी, चालाकी, छल फरेब और धोखेबाजी के अलावा दूसरा कोई मार्ग ऊंचे आदमी बनने का नहीं है। बाद में स्थिति तो यह हो गयी कि कोई ऊंचे ओहदे और धनी आदमी से सामना हो भी जाये तो हमारी नज़र में वह सामान्य ही रहता था। तय बात है कि इससे चाटुकारिता का गुण नहीं आया। अलबत्ता सुरक्षा की दृष्टि से हमने दूसरों की सच्चाईयों का बयान उसके सामने करना बंद कर दिया और हास्य व्यंग्य की राह पकड़ ली। जब लिखने लगे तो ज्ञान चक्षु भी खुलने लगे। लोगों का दोगलापन सामने साफ दिखाइ्रे देता है। फिर भी ऊंचे आदमी न बन पाने का मलाल कभी कभी तो होता ही रहा।
भला हो उन महानुभावों का जो अब ऊंचे लोगों को जेल की राह पहुंचाने लगे हैं। उस दिन एक आदमी दूसरे को डरा रहा था कि ‘अरे, ऐसा न करना! कोई केस हो जायेगा तो जेल जाओगे।’
दूसरे ने हंसकर कहा-‘अरे, चिंता की बात नहीं है। जेल जाने के डर से पहले घबड़ाता था कि घटिया लोगों के बीच रहना पड़ेगा। अब तो देख लिया है कि बड़े बड़े सभ्य दिखने वाले लोग भी वहां जाने लगे हैं। इसलिये चिंता की बात नहीं है।’
आजकल तो रोज ऊंचे और बड़े लोगों के किस्से सामने आ रहे हैं-इनमें अधिकतर धन के बोझ तले दबे हुए हैं। रकम सुनकर तो हम जैसे लोग संख्या भी याद नहीं कर पाते। पहले समाचार पत्र पत्रिकाओं में जेल जाने वालों में गरीब और निम्न वर्ग के लोगों के नाम होते थे। आजकल तो हालत ही दूसरे हैं।’
एक गुटका का-इसे हम जहरीली पुड़िया भी कह सकते हैं-विज्ञापन आता है। उसमें एक आदमी को बंदरगाह पर उसकी पेटी चेक करने के लिये रोका जाता है। वह पुड़िया निकालकर कहता है कि ‘हम यहां भी खिलाते हैं, वहां भी खिलाते हैं।’
इस विज्ञापन की कल्पनाशीलता धन्य है। इस ‘खिलाते पिलाते’ में यह बात सामने आ जाती है कि यहां भी ‘ऊंचे लोगों की ऊंची पसंद’ है तो बाहर भी है। ऊंचे लोगों की ऊंची पसंद क्या है? धन इतना कि उसका बोझ नहंी उठाया जा सके। सोना इतना कि पीढ़ियां पहनकर पहनकर थक जाये।
अंग्रेजी विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ का एक कथन हमने कहंी पढ़ा था कि बिना बेईमानी के केाई अमीर नहंी बन सकता। तब हमारे देश के आर्थिक हालात ऐसे नहंी थे भले ही अमीर इसी तरह बनते होंगे पर प्रचारित नहीं होता था। फिर हमारी नज़र में अंग्रेजों की छबि भी इस तरह बना दी गयी थी कि वहां तो सब ईमानदार है क्योंकि गोरे हैं।
उनकी शिक्षा, सामाजिक, आर्थिक तथा वैचारिक पद्धतियों पर यह देश तो पहले ही चल पढ़ा था इसलिये जार्ज बर्नाड शॉ का यह कथन हमें अपने देश में चलता दिखाई देता है।
अभी हाल ही में पाकिस्तान में तैनात भारत की एक बी श्रेणी की महिला कर्मचारी के देश के साथ गद्दारी करने का प्रसंग सामने आया है। वह अपने देश के ऊंचे अफसरों से बदला लेने के लिये गद्दार बन गयी। वह जासूस बनना चाहती थी क्योंकि उसे ऊंचा दिखना था। अब वह भी जेल पहुंच गयी। उसकी बुद्धि पर तरस आता है। दरअसल वह जिनको ऊंचा समझती रही होगी वह भी अपनी दृष्टि में स्वय ऊंचे रहे होंगे इसमें संदेह है। हालत यह है कि ऊंचे पर पर आदमी तो पहुंच जाता है पर चरित्र उसका लघु रह जाता है। जब चरित्र में कमी हो तो फंसने का भय ऊंचाई के सुख और स्वाभिमान का अहसास नहीं करने देता। यही कारण है कि ऊंचे लोगों की पसंद कितनी भी ऊंची हो पर उनके कृत्य ऊंचे नहीं है-भले ही प्रचार माध्यम उनका कितना भी बखान करते हैं। इस तरह ऊंचे ऊंचे बनते आदमी जेल पहुंच जाये तो क्या कहेंगे? ज्ञान चक्षु खुले होकर रखें तो कोई आदमी ऊंचा या नीचा नहीं दिखाई देता। मुख्य बात है व्यवहार और चरित्र।
ऊंचा आदमी वह है जो अपने निम्न पर कृपा करे और उसका व्यवहार में शुद्धता हो। बरगद का पेड़ छाया देता हुए झुक जाता है या कहें कि झुकता है इसलिये दूसरों को आसरा देना वाला होता है। खजूर का पेड़ अकड़कर तना रहता है तो कौन उसका आसरा लेगा। यहां अब बरगद के पेड़ नहीं खजूरों से भरा हुआ चमन है। ऐसे में आपकी अगर छबि भले आदमी की है तो बहुत समझ लीजिये। आप किसी का छोटा काम करके भी धन्य हो सकते हैं पर आज के ऊंचे लोगों के पास न तो समय है न इच्छा। उनका एक ही लक्ष्य है धन और सोना एकत्रित करना। ऐसे में अपने परिश्रम से जितना मिले उसी में खुश रहना चाहिये। एक बात यहां बता दें कि आदमी में कमी उसके चरित्र में ही होती है तभी वह किसी का शिकार बनता है। ऐसे में ऊंचे आदमी बनने का मोह न ही पालें तो अच्छा। यह बात समझ लें कि आदमी सिर्फ आदमी होता है। माया में रूप में पद, प्रतिष्ठा तथा पैसे के शिखर सभी को नसीब नहीं होते और जिनको होते हैं उनके लिये खतरे बहुत होते हैं क्योंकि उसके चालाकियां भी उतनी करनी पड़ती हैं। कालांतर में वह अपराध में बदल जाती है और उसकी कभी न कभी सजा आती है। इसलिये दूसरे की दृष्टि में ऊंचा दिखने की इच्छा से अपनी दृष्टि में अपने ऊंचे होने का स्वाभिमान पालें। ऊंचे लोगों की ऊंची पसंद उनको फंसा भी डालती है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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फसाद फिक्सिंग-हिन्दी हास्य व्यंग्य (fasad-hindi comic story)


वह समाज सेवक निठल्ले घूम रहे थे। दरअसल अब कंप्यूटर और इंटरनेट आने से चंदा लेने देने का धंधा आनलाईन हो गया था और वह इसमें दक्ष नहीं थे। फिर इधर लोग टीवी से ज्यादा चिपके रहते हैं इसलिये उनके कार्यक्रमों के बारे में सुनते ही नहीं इसलिये चंदा तो मिलने से रहा। पहले वह अनाथ आश्रम के बच्चों की मदद और नारी उद्धार के नाम पर लोगों से चंदा वसूल कर आते थे। पर इधर टीवी चैनलों ने ही सीधे चैरिटी का काम करने वाले कार्यक्रम प्रस्तुत करना शुरु कर दिये हैं तो उनके चैरिटी ट्रस्ट को कौन पूछता? इधर अखबार भी ऐसे समाज सेवकों का प्रचार नहीं करते जो प्रचार के लिये तामझाम करने में असमर्थ हैं।
उन समाज सेवकों ने विचार किया कि आखिर किस तरह अपना काम बढ़ाया जाये। उनकी एक बैठक हुई।
उसमें एक समाज सेवक को बहुत तीक्ष्ण बुद्धि का-सीधी भाषा में कहें तो शातिर- माना जाता था। उससे सुझाव रखने का आग्रह किया गया तो वह बोला-आओ, दंगा फिक्स कर लें।
बाकी तीनों के मुंह खुले रह गये।
दूसरे ने कहा-‘पर कैसे? यह तो खतरनाक बात है?
पहले ने कहा-‘नहीं, दंगा नहीं करना! पहले भी कौनसा सच में समाज सेवा की है जो अब दंगा करेंगे! बस ऐसे तनावपूर्ण हालत पैदा करने हैं कि दंगा होता लगे। बाकी काम मैं संभाल लूंगा।’
तीसरे ने पूछा-‘ पर इसके लिये चंदा कौन देगा।’
पहले ने कहा-‘अरे, इसके लिये परेशान होने की जरूरत नहीं है। हमारे पूर्वज समाज को टुकड़ों में केक की तरह बांट कर रख गये हैं बस हमें खाना है।’
तीसरे ने कहा-‘मगर, इस केक के टुकड़ों में अकल भी है, आखें भी हैं, और कान भी हैं।’
पहला हंसकर बोला-‘यहीं तो हमारी चालाकी की परीक्षा है। अब करना यह है कि दूसरा और तीसरा नंबर जाकर अपने समाजों में यह अफवाह फैला दें कि विपक्षी समाज अपने इष्ट की दरबार सड़क के किनारे बना रहा है। उसका विरोध करना है। सो विवाद बढ़ाओ। फिर अमन के लिये चौथा दूसरे द्वारा और पहले के द्वारा आयोजित समाज की बैठकों मैं जाऊंगा। तब तक तुम दोनो गोष्ठियां करो तथा अफवाहें फैलाओ। समाज के अमीर लोगों के वातानुकूलित कमरों में बैठकें कर उनका माल उड़ाओ। पैसा लो। सप्ताह, महीना और साल भर तक बैठकें करते रहो। कभी कभी मुझे और चौथे नंबर वाले को समाज की बैठकों बुला लो। पहले विरोध के लिये चंदा लो। फिर प्रस्ताव करो कि उसी सड़क के किनारे दूसरे समाज के सामने ही अपने इष्ट का मंदिर बनायेंगे। हम दोनों हामी भरेंगे। संयुक्त बैठक में भले ही दूसरे लोगों को बुलायेंगे पर बोलेंगे हम ही चारों। समझौता करेंगे। दोनों समाजों के इष्ट की दरबार बनायेंगे। फिर उसके लिये चंदा वसूली करेंगे।’
दूसरे ने कहा-‘पर हम चारों ही सक्रिय रहेंगे तो लोगों का शक होगा।’
पहला सोच में पड़ गया और फिर बोला-‘ठीक है। पांचवें के रूप में हम अपने वरिष्ठ समाज सेवक को इस तरह उस बैठक में बुलायेंगे जैसे कि वह कोई महापुरुष हो। लोगों ने उनके बारे में सुना कम है इसलिये मान लेंगे कि वह कोई निष्पक्ष महापुरुष होंगे।’
तीसरे ने कहा-‘पर सड़कों का चौड़ीकरण हो रहा है। अब इतना आसान नहीं रहा है अतिक्रमण करना। अदालतें भी ऐसे विषय पर सख्त हो गयी हैं। कहीं फंस गये तो। इसलिये किसी भी समाज के इष्ट का दरबार नहीं बनेगा।’
पहला हंसकर बोला-‘इसलिये ही मुझे तीक्ष्ण बुद्धि का माना जाता है। अरे, दरबार बनाना किसे है। सड़क पर एक कंकड़ भी नहंी रखना। सारा झगड़ा फिक्स है इसलिये दरबार बनाने का सपना हवा में रखना है। बरसों तक मामला खिंच जायेगा। हम तो इसे समाजसेवा में बदलकर काम करेंगे। अब बताओ कपड़े, बर्तन तथा किताबें गरीबों और मजदूरों में बांटने के लिये कितना रुपया लिया पर एक पैसा भी किसी को दिया। यहां एक पत्थर पर भी खर्च नहीं करना। सड़क पर एक पत्थर रखने का मतलब है कि दंगा करवाना। जब पानी सिर के ऊपर तक आ जाये तब कानूनी अड़चनों का बहाना कर मामला टाल देंगे। फिर कहीं   किसी दूसरी जगह कोई नया काम हाथ में लेंगे। अब जाओ अपनी रणनीति के अनुसार काम करो।’
चारों इस तरह तय झगड़े और समझौते के अभियान पर निकल पड़े।

सूचना-यह लघु व्यंग्य काल्पनिक है तथा इसे मनोरंजन के लिये लिखा गया है। इसका किसी घटना या व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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ईमानदारी में गज़ब कैसा-हिन्दी हास्य व्यंग्य (imandari men gazab- hindi vyangya)


सप्ताह में उस दुकान से एक बार तो बेकरी का सामान जरूर खरीदते हैं। ऐसा बरसों से चल रहा है। वह दुकानदार अच्छी तरह जान गया है। उसके कुछ पुराने कर्मचारी भी अब देखते ही सामान पूछना शुरु कर देते हैं भले ही दूसरे ग्राहक खड़े हों। हालांकि उस दुकानदार से हमारी कोई खास आत्मीयता नहीं है, यहां तक कि उसके साथ अभिवादन तक नहीं होता। हम दुकान पर पहुंचते ही सीधे सामान मांगना शुरु कर देते हैं।
उस दिन 145 रुपये का सामान लिया और उसे पांच सौ का नोट दिया। उस दुकानदार ने उसे अच्छी तरह रौशनी में देखा और फिर उसने अपनी दराज में रखा और बाकी पैसे वापस करने के लिये नोट गिनने लगा। इसी दौरान वह हमसे कहता रहा कि ‘आजकल नोट नकली आ रहे हैं इसलिये ध्यान से देखना पड़ता है।’ आदि आदि।
हम केवल मुस्कराये। उसने नोट गिनकर हमें दिये। हम उसे बिना गिने ही अपनी जेब में रखने लगे यह सोचकर कि इतना बड़ा सौदा नहीं है कि वह रकम कम देगा-ज्यादा देगा इस पर तो विचार ही नहीं किया? सामान का पैकेट और रुपये हाथ में लेकर अपने स्कूटर के पास पहुंचे और सामान रखकर नोट पर्स में रखने लगे पर लगा कि कुछ गड़बड़ है। नोट अधिक लग रहे थे। हमने गिने तो उसमें सौ रुपया अधिक था।
हमने बिना कुछ सोचे बिचारे वह नोट उसके पास जाकर बढ़ाया और कहा‘-भई, आपने यह सौ का नोट अधिक दे दिया।’
उसे हैरानी हुई और हमसे नोट अपने हाथ में लेते हुए बोला-‘हो सकता है कि बात करते हुए हमसे नोट गिनने में गलती हो गयी। वैसे आप पहले आदमी हैं जो नोट वापस कर रहे हैं। ऐसे कई बार गलती हमें बाद में याद आती है पर कोई भी आदमी हमें नोट वापस नहीं करता। अपने पास रखकर सभी पचा जाते हैं। आपकी ईमानदारी अच्छी लगी।’
हमने हंसते हुए कहा-‘सच तो यह है कि हम नोट गिन नहीं रहे थे। पता नहीं क्या सोचकर गिने। यकीन करो कि अगर यह एक बार पर्स के हवाले होते तो फिर हमें भी वापस करने की याद नहीं आनी थी। वैसे आपके साथ जिन लोगों ने जानबूझकर ऐसा किया उनको आपका पैसा पच ही गया आप यह कैसे कह सकते हैं?’
वह दुकानदार हमें घूरकर देखने लगा और बोला-‘हां, यह तो नहीं सकता कि वह पचा पाते हैं कि नहीं।’
हमने उससे कहा-‘वह आपका दिया अधिक पैसा रख लेते हैं पर कितनी देर? यह तो माया चलती फिरती है इसलिये वह रुपया आखिर वह फिर कहीं जाना है। यह हमारी ईमानदारी का प्रमाण नहीं बल्कि डर का प्रमाण है। एक तो यह रुपया अधिक देर हमारे पास वैसे ही नहीं रहेगा। दूसरा पचेगा भी नहीं! इसलिये वापस किया।’
अधिक देर बात करना ठीक नहीं था। हमने सौदा रखा और वहां से चले आये। उसके बाद भी अनेक बार उसकी दुकान पर गये पर कभी इसकी चर्चा नहीं की।
उस दिन दुकान पर पहुंचे तो उसने हमसे पूछा-‘आपको मैंने बैग दिया है कि नहीं।’
मुझे आश्चर्य हुआ और हमने उससे कहा-‘नहीं, आपने मुझे कोई बैग नहीं दिया।’
उसने अपने पीछे हाथ किया और एक हैंडबैग हमारी तरफ बढ़ाते हुए कहा-‘मैंने पूछने की गुस्ताखी इसलिये की क्योंकि यह केवल कुछ खास ग्राहकों को दिवाली का गिफ्ट दिया था। मुझे याद नहीं आ रहा था कि आपको दिया कि नहीं। हर साल हम कुछ न कुछ ग्राहकों को उपहार देते हैं।
मैंने वह हैंडबैग अपने हाथ में लिया। उसके यहां के एक कर्मचारी ने मुझसे कहा कि ‘सेठ जी बहुत दिनों से आपको यह उपहार देने के लिये कह रहे थे, मैं ही भूल जाता था। आज सेठ जी खुद पूछा तब मुझे भी याद आया।’
उस समय भी वहां पर पांच लोग दूसरे खड़े थे पर उसने बिना उनका विचार करते हुए मुझे हैंडबैग दिया। इतने बरसों से उसने दूसरे खास ग्राहकों को गिफ्ट दिया पर हमें खास नहीं माना। उसके खास तो उसके थोक व्यापारी रहे होंगे। खेरिज ग्राहकों में उसने किसी दूसरे को खास माना होगा यह भी नहीं लगता। बहरहाल उस सौ रुपये की वापसी ने उसकी नजरों में खास बना दिया। उसकी नजर में हम ईमानदार हैं पर हमें खुद को नहीं लगता। वैसे पहले भी कई बार अनेक दुकानदारों को अधिक पैसे हमने वापस लौटाये हैं। वह लोग कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। किस बात की! ईमानदारी की! अरे भई, हमने कई बरस पहले एक बार अपनी जिंदगी में अजमाया है। रास्ते से बीस का नोट मिला था उसे रख लिया। मगर उसके एक दिन बाद ही हमारी साइकिल को एक टूसीटर वाले ने टक्कर मारकर तोड़ दिया। हम बच गये यह गनीमत थी पर उस साइकिल को बनवाने में सौ रुपये लग गये। बस तब से तय कर लिया कि ऐसे पैसे को हाथ भी नहीं लगायेंगे।
यह हमारा डर है जो जबरदस्ती ईमानदार बनाये दे रहा है। कोई जब यह कहता है तो हम उसे समझाने लग जाते हैं कि ‘भई, ऐसा नहीं है। दरअसल हमारा हाजमा खराब है कि ऐसा पैसा हमें पचता नहीं। यह एक रोग है जिसका इलाज किसी के पास नहीं है।’
पहले शराब पीते थे। अब छोड़ दी। जो अब हमारे सामने पीते हैं और हमें परे देखकर कहते हैं कि‘अच्छा हुआ तुमने छोड़ दी। वाकई क्या गजब की तुम्हारी संकल्प शक्ति है।’
हम उनको समझाते हैं कि‘नहीं यार, इससे हमें उच्च रक्तचाप हो गया था। डाक्टर से कहा छोड़ दो नहीं तो मुश्किल में आ जाओगे यह संकल्प शक्ति नहीं हमारा डर है जो हमें पीने नहीं देता। हम तो उन लोगों के कायल हैं जो शराब पीकर पचा जाते हैं।’
वह पीने वाले कहते हैं कि ‘नहीं यार, तमाम तरह की व्याधियां हमारे शरीर में हैं तुम क्या जानो? मगर क्या करें पीना नहीं छूटता।’
उस दिन पार्क से योग साधना कर वापस आ रहे थे तो एक ऐसे सज्जन हमें मिले जो योग साधना के फायदे हमें सुनाकर उस शिविर में ले गये जिसमें योग साधना सिखाई जा रही थी। इस बात को सात वर्ष होने के आ गये। उन्होंने कुल जमा सात दिन भी वहां हाजिरी नहीं दी पर हमें याद है वह किसी तरह हमें वहां लगे और फिर वह शिविर छोड़ दिया । मगर हम डटे रहे। वह कहने लगे-‘यार गजब करते हो? अनवरत छह साल से ऊपर हो गया पर तुम्हारा क्रम भंग नहीं हुआ। मान गये तुम्हारे दृढ़ निश्चय को!’
हमने उसको भी समझाया-‘यार, यह बात नहीं है। इसके बिना हम अब चल ही नहीं सकते। जब किसी दिन किसी मरीज को अस्पताल से देखकर आते हैं उसके अगले दिन ही अपनी योगसाधना की अवधि और आसन बढ़ा देते हैं क्योंकि हमें डाक्टरों से बहुत डर लगता है। वैसे कभी कभी पौन घंटा घर पर ही करते हैं पर जब किसी की गमी से जाते पर वहां जब अन्य लोग बीमारियों का बखान करते हैं तो उनको उनको सुनकर हमारे अंदर डर का बवंडर खड़ा होता है और हम घर पर ही अधिक समय लगाते हैं या फिर बाहर अपने एक मित्र के यहां करने चले जाते हैं। इसमें दृढ़ संकल्प जैसी कोई चीज हमें नहीं लगती।’
लोग पता नहीं हमारी बात समझते हैं कि नहीं! क्योंकि वही लोग जब दोबारा मिलते हैं तो फिर वही बात-‘आप तो गजब करते हैं।’
हम कभी नहीं समझ पाते कि इसमें गजब क्या है? हम डरते हैं तो बचने के रास्ते ढूंढते रहते हैं और लोग तो बहादुर हैं ओर फिर उनका हाजमा हमसे बेहतर है। उल्टे हम तो उन लोगों के प्रशंसक हैं जो गलत पैसा हजम कर जाते हैं। शराब पीकर भी मजे में रहते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह कि बिना योग साधना के बहुत से लोग स्वस्थ होकर विचरण करते हैं उनकी प्रशंसा करना भी हमें अच्छा लगता है। बचपन से सुनते आ रहे हैं कि बुरे काम का बुरा परिणाम होता है। इसलिये हम उन लोगों को ही योगी मानते हैं जो बुरा काम कर भी अपनी जिंदगी मजे में गुजारते हैं। कम से कम बाहर से तो ऐसा ही लगता है। अंदर की बात वही जाने। बाकी सभी जानते हैं कि हमारे अंदर डर है जिसका कहीं कोई इलाज नहीं है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com

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