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अमीर और गरीब के स्टार अलग अलग-हिन्दी लेख (amir aur garib ke star alag alag-hindi lekh)


बड़ी खबर या ब्रेकिंग न्यूज का सही स्तर तय करना मुश्किल हो गया है क्योंकि टीवी न्यूज चैनल हर सैकंड में एक बड़ी खबर लाते हैं। कहना तो यह भी चाहिए कि उनकी हर खबर पहले कहीं न कहीं बड़ी होती है या फिर वह अपनी हर आम खबर को भी खास कर परोसने की वैसी ही कोशिश करते हैं जैसे कोई हलवाई अपने एक घंटा पहले रखे समोसे को भी खस्ता और गर्म कहकर प्रस्तुत करता है। ऐसी ही एक खबर थी कि एक सरकारी दफ्तर में बार बालाओं ने सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर अश्लील डांस प्रस्तुत किया।
टीवी ऐंकर चिल्ला रहा था कि ‘उस समय अनेक वरिष्ठ अधिकारी भी मौजूद थे।’
बाकी सब तो ठीक पर उसका बार बार उस डांस को अश्लील कहना थोड़ा अज़ीब लग रहा था। ऐसा लगता है कि सेठ साहूकारों की-आजकल उनको कंपनियों के मैनेजिंग डाइरेक्टर या चीफ के रूप में जाना जाता है-छत्रछाया में पलने वाले हमारे बौद्धिक समाज की सोच भी अब केवल नीचे ही आंखें किये रहती है क्योंकि ऊपर देखने का मतलब है कि सड़क पर आ जाना। उनके लिये शालीनता और नैतिकता के मायने अब केवल गरीब और मध्यम वर्ग तक ही सिमट गये हैं।
किस्सा यह था कि एक सरकारी कर्मचारी यूनियन के पदाधिकारियों का चुनाव हुआ जिनके शपथ ग्रहण समारोह में सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान कथित रूप से यह डांस या नृत्य कार्यक्रम हुआ। फिल्मी गीत और नृत्य की नकल पर ऐसे कार्यक्रम अपने यहां आम बात हो गयी है इसलिये उनको असांस्कृतिक कहना ही अपने आप में गलत है। अगर टीवी चैनलों की बात मान ली जाये तो सरकारी कर्मचारियों या अधिकारियों को ऐसे कार्यक्रम आयोजित ही नहीं करना चाहिए। अगर करें तो उनको आधुनिक सेठ साहुकारों की छत्रछाया में पलने वाले कलाकारों को उसमें बुलाना चाहिये क्योंकि वह चाहे जैसे नृत्य करें या गायें वही शालीनता की परिधि में आता है।
सीधी बात कहें कि जो विज्ञापनदाता बनने की औकात नहीं रखते उनको कोई सार्वजनिक मनोरंजन कार्यक्रम आयोजित नहीं करना चाहिए। पूंजीपतियों, समाज सेवकों, अपराधियों तथा प्रचार माध्यमों के शिखर पुरुषों की छत्रछाया में एक सांस्कृतिक गिरोह बन गया है जो अपने आकाओं से कम ताकतवर या फिर अपने क्षेत्र के बाहर के आदमी की सार्वजनिक सक्रियता को खत्म किये दे रहा है। प्रचार माध्यम उसको हवा देने का एक सशक्त माध्यम बन गया है। यह गिरोह पूंजीपतियों तथा अपराधियों के पैसे पर बनने वाली फिल्मों की अश्लीलता को महान कला बताता है। इतना ही नहीं टीवी चैनलों पर चलने वाले कार्यक्रमों की अश्लीलता को भी उनके सहधर्मी चैनल भुनाते हैं। पहले तो वह अश्लीलता दिखाते हैं फिर उसकी आलोचना करते हैं। इतना ही नहीं फिर अश्लीलता परोसने वाले का साक्षात्कार भी प्रसारित करते हैं। यह सब चलेगा क्योंकि वह शिखर पुरुषों के गिरोह की छत्रछाया में हैं।
ऐसे में कई सवाल उठते हैं। बार बालाओं का डांस अश्लील है तो फिर उन अभिनेत्रियों के बारे में क्या ख्याल है जिनको पर्दे पर देखकर वह उनकी नकल करती हैं। इतना ही नहीं अनेक बार जलकल्याण तथा पुरस्कार वितरण के नाम पर होने वाले मनोरंजक कार्यक्रमों में बड़ी बड़ी अभिनेत्रियां इससे भी बुरे नृत्य प्रस्तुत करती हैं पर क्या मज़ाल उसे कोई अश्लील कह जाये? इतना ही नहीं ऐसे कार्यक्रमों में समाज के अनेक शिखर पुरुष आंखें फाड़कर देखते हैं पर कोई उन पर उंगली उठाकर तो देखे।
इन प्रचार माध्यमों ने ऐसा आंतक का वातावरण बना दिया है कि श्लीलता और अश्लीलता का आधार कोइ सामाजिक पैमाना नहीं बल्कि सामयिक और स्वार्थ से प्रभावित बन रहा है। यही कारण है कि इनके प्रचार की वजह से तीन अधिकारी तथा चार कर्मचारी निलंबित कर दिये गये। आगे उनका क्या होगा यह पता नहीं पर जब तक ऐसा नहीं होता यह चैनल इस खबर पर चर्चा करते रहते।
हम यह इस कार्यक्रम का समर्थन नहीं कर रहे। बल्कि यह तो चिंता की बात है कि इस देश में हर छोटा और बड़ा आदमी यह समझ रहा है कि इस तरह के ठुमके लगवाकर लोगों का मनोरंजन कर उनका दिल जीता जा सकता है। बड़े आदमी करें तो ठीक छोटा करे तो अश्लील! यह बात समझ से परे है। बार बालाऐं कोई बड़े धनपति से प्रायोजित नहीं होती। वह गरीब घरों से होती है। गाहे बगाहे उन पर कार्यवाही होती है। जब देश में रोजगार की कमी है तब बार बालाओं को नृत्य कर कमाने का अवसर मिलता है तो बुरा क्या है? उनके नृत्य में अश्लीलता ढूंढने वाले जरा प्रायोजित नृत्यांगनाओं के फिल्मी डांस देखें! अगर उनमें से किसी के पास हिम्मत हो तो उसे अश्लील बताये। चैनल बंद हो जायेगाा या प्रस्तोता फिर दूसरा कार्यक्रम देने लायक नहीं रहेगा। क्या हैरानी है कि बार बालाओं को चरित्रहीन और जिनकी वह नकल कर रही हैं उन महान महिलाओं को चरित्रवान बताया जाता है। यह प्रचारात्मक आतंकवाद समाज में अपनी नैतिकता-अनैतिकता और श्लीलता-अश्लीलता के ऐसे ही पैमाने बना रहा है जैसा कि अन्य धार्मिक आतंकवादी तय करते हैं। यह आतंकवादी स्वयं खूब मनोरंजन और मनमानी करते हैं पर दूसरे पर इसी वजह से हमला करते हैं कि वह वही कर रहा है। मतलब वह आतंकवादी बंदूक के दम पर करते हैं और प्रचार माध्यम अपनी खबरों के दम पर! मुश्किल यह है कि समझाया किसे जाये? धार्मिक आतंकवादी इसलिये नहीं समझते क्योंकि वह स्वयं ही अप्रत्यक्ष रूप से प्रायोजित हैं तो प्रचारात्मक आतंकवाद में लगे लोगों को तो इस बात का आभास ही नहीं कि वह कर क्या रहे है? समझकर करेंगे भी क्या वह तो प्रत्यक्ष रूप से ही विज्ञापनदाताओं से प्रायोजित हैं।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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आध्यात्मिक ज्ञान तथा भक्ति के प्रति झुकाव सुखद लगता है-हिन्दी लेख (adhyamik prem and film actres-hindi article)


बंबई में हिन्दी फिल्मों और टीवी धारावाहिकों की अभिनेत्री सोनाली बैंद्रे  अनुपम सौंदर्य के साथ कुशल अभिनय तथा मधुर स्वर की स्वामिनी मानी जाती है। हैरानी की बात है कि फिल्मों में उनको अधिक अभिनय का अवसर नहीं मिला। इसलिये उन्होंने फिल्मों में सक्रिय एक व्यक्ति से विवाह कर लिया। सौंदर्य के साथ हर किसी में विवेक और बुद्धि हो या आवश्यक नहीं है। जिस नारी में सौंदर्य के साथ बुद्धि और विवेक तत्व हो उसे ही सर्वाग सुंदरी माना जाता है और सोनाली बेंद्र इस पर खरी उतरती हैं। ऐसे में जब अखबार में उनके आध्यात्मिक प्रेम के बारे में पढ़ा तो सुखद आश्चर्य हुआ। प्रसंगवश सोनाली बेंद्रे ने टीवी पर बच्चों के साथ प्रसारित एक संगीत प्रतियोगिता के रूप में प्रसारित एक कार्यक्रम में उनके संचालन के तरीके ने इस लेखक को बहुत प्रभावित किया था। शांति के साथ अपने कुशल संचालन के प्रसारण से यह तो उन्होंने साबित कर ही दिया था कि उनमें बुद्धिमता का भी विलक्षण गुण है। सच बात कहें कि अमिताभ बच्चन के कौन बनेगा करोड़पति के मुकाबले वह एक बेहतर प्रसारण लगा था।
अखबार में पढ़ने को मिला कि वह अभिनय के नये प्रस्ताव स्वीकार नहीं  कर रहीं। इसका कारण यह बताया कि वह अपने पांच वर्षीय बच्चे को संस्कारिक रूप से भी संपन्न बनाना चाहती हैं। उनका बच्चा जिस स्कूल में जाता है वहां श्रीमद्भागवत गीता का भी अध्ययन कराया जाता है। बहुत छोटे इस समाचार ने सोनाली बेंद्रे की याद दिला दी जो अब केवल कभी कभी बिजली के उपकरणों के विज्ञापन में दिखाई देती हैं। वैसे उसका अभिनय देखकर लगता था कि वह अन्य अभिनेत्रियों से कुछ अलग है पर अब इस बात का आभास होने लगा है कि वह अध्यात्मिक भाव से सराबोर रही होंगी और उनकी आंखों में हमेशा दिखाई देने वाला तेज उसी की परिणति होगी।
भारत की महान अदाकारा हेमा मालिनी भी अपनी सुंदरता का श्रेय योग साधना को देती हैं पर सोनाली बेंद्रे में कहीं न कहीं उस अध्यात्मिक भाव का आभास अब हो रहा है जो आमतौर से आम भारतीय के मन में स्वाभाविक रूप से रहता है।
जिस मां के मन में अध्यात्मिक भाव हो वही अपने बच्चे के लिये भी यही चाहती है कि उसमें अच्छे संस्कार आयें और इसके लिये बकायदा प्रयत्नशील रहती है। यहां यह भी याद रखें कि मां अगर ऐसे प्रयास करे तो वह सफल रहती है। अब यहां कुछ लोग सवाल उठा सकते हैं कि अध्यात्मिक भाव रखने से क्या होता है?
श्रीमद्भागवत गीता कहती है कि इंद्रियां ही इंद्रियों में और गुण ही गुणों में बरत रहे हैं। साथ ही यह भी कि हर मनुष्य इस त्रिगुणमयी माया में बंधकर अपने कर्म के लिये बाध्य होता है। इस त्रिगुणमयी माया का मतलब यह है कि सात्विक, राजस तथा तामस प्रवृत्तियों मनुष्य में होती है और वह जो भी कर्म करता है उनसे प्रेरित होकर करता है। जब बच्चा छोटा होता है तो माता पिता का यह दायित्व होता है कि वह देखे कि उसका बच्चे में कौनसी प्रवृत्ति डालनी चाहिए। हर बच्चा अपने माता पिता के लिये गीली मिट्टी की तरह होता है-यह भी याद रखें कि यह केवल मनुष्य जीव के साथ ही है कि उसके बच्चे दस बारह साल तक तो पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं हो पाते और उन्हें दैहिक, बौद्धिक, तथा मानसिक रूप से कर्म करने के लिये दूसरे पर निर्भर रहना ही होता है। इसके विपरीत पशु, पक्षियों तथा अन्य जीवों में बच्चे कहीं ज्यादा जल्दी आत्मनिर्भर हो जाते हैं। यह तो प्रकृति की महिमा है कि उसने मनुष्य को यह सुविधा दी है कि वह न केवल अपने बल्कि बच्चों के जीवन को भी स्वयं संवार सके। ऐसे में माता पिता अगर लापरवाही बरतते हैं तो बच्चों में तामस प्रवृत्ति आ ही जाती है। मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह व्यसन, दुराचरण तथा अभद्र भाषा की तरफ स्वाभाविक रूप ये आकर्षित होता है। अगर उसे विपरीत दिशा में जाना है तो अपनी बुद्धि को सक्रिय रखना आवश्यक है। उसी तरह बच्चों के लालन पालन में भी यह बात लागू होती है। जो माता पिता यह सोचकर बच्चों से बेपरवाह हो जाते हैं कि बड़ा होगा तो ठीक हो जायेगा। ऐसे लोग बाद में अपनी संतान के दृष्कृत्यों पर पछताते हुए अपनी किस्मत और समाज को दोष देते हैं। यह इसलिये होता है क्योंकि जब बच्चों में सात्विक या राजस पृवत्ति स्थापित करने का प्रयास नहीं होता तामस प्रवृत्तियां उसमें आ जाती हैं। बाहरी रूप से हम किसी बुरे काम के लिये इंसान को दोष देते हैं पर उसके अंदर पनपी तामसी प्रवृत्ति पर नज़र नहीं डालते। अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि रखने वालों में स्वाभाविक रूप से सात्विकता का गुण रहते हैं और उनका तेज चेहरे और व्यवहार में दिखाई देता है।
सोनाली बेंद्रे और हेमामालिनी फिल्म और टीवी के कारण जनमानस के परिदृश्य में रहती हैं और योग साधना और अध्यात्म के उनके झुकाव पर बहुत कम लोग चर्चा करते हैं। हम उनके इन गुणों की चर्चा इसलिये कर रहे हैं क्योंकि श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार श्रेष्ठ या प्रसिद्ध व्यक्त्तिवों से ही आम लोग सीखते हैं-विज्ञापनों का बढ़ता प्रभाव इसी का प्रमाण है। इसका उल्लेख हमने इसलिये भी किया कि लोग समझते हैं कि भारतीय अध्यात्म का ज्ञान बुढ़ापे में अपनाने लायक हैं जबकि यह दोनों हस्तियां आज भी युवा पीढ़ी के परिदृश्य में उपस्थित हैं और इस बात प्रमाण है कि बचपन से ही अध्यात्म ज्ञान होना जरूरी है। सोनाली बेंद्रे तो अभी युवावस्था में है और उसका अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति झुकाव आज की युवतियों के लिये एक उदाहरण है। श्रीमद्भागवत गीता को लोग केवल सन्यासियों के लिए पढ़ने योग्य समझते हैं जबकि यह विज्ञान और ज्ञान से परिपूर्ण ग्रंथ हैं जिसे एक बार कोई समझ ले तो कुछ दूसरी बात समझने को शेष नहीं  रह जाती। इससे मनुष्य चालाक होने के साथ उदार, बुद्धिमान होने के साथ सहृदय, और सहनशील होने के साथ साहसी हो जाता है। सामान्य स्थिति में इन गुणों का आपसी अंतर्द्वंद्व दिखाई देता है पर ज्ञानी उससे मुक्त हो जाते हैं।
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मैत्रीपूर्ण संघर्ष-हिन्दी हास्य व्यंग्य (friendly fighting-hindi comic satire article)


दृश्यव्य एवं श्रव्य प्रचार माध्यमों के सीधे प्रसारणों पर कोई हास्य व्यंगात्मक चित्रांकन किया गया-अक्सर टीवी चैनल हादसों रोमांचों का सीधा प्रसारण करते हैं जिन पर बनी इस फिल्म का नाम शायद………… लाईव है। यह फिल्म न देखी है न इरादा है। इसकी कहानी कहीं पढ़ी। इस पर हम भी अनेक हास्य कवितायें और व्यंगय लिख चुके हैं। हमने तो ‘टूट रही खबर’ पर भी बहुत लिखा है संभव है कोई उन पाठों को लेकर कोई काल्पनिक कहानी लिख कर फिल्म बना ले।
उस दिन हमारे एक मित्र कह रहे थे कि ‘यार, देश में इतना भ्रष्टाचार है उस पर कुछ जोरदार लिखो।’
हमने कहा-‘हम लिखते हैं तुम पढ़ोगे कहां? इंटरनेट पर तुम जाते नहीं और जिन प्रकाशनों के काग़जों पर सुबह तुम आंखें गढ़ा कर पूरा दिन खराब करने की तैयारी करते हो वह हमें घास भी नहीं डालते।’
उसने कहा-‘हां, यह तो है! तुम कुछ जोरदार लिखो तो वह घास जरूर डालेेंगे।’
हमने कहा-‘अब जोरदार कैसे लिखें! यह भी बता दो। जो छप जाये वही जोरदार हो जाता है जो न छपे वह वैसे ही कूंड़ा है।’
तब उसने कहा-‘नहीं, यह तो नहीं कह सकता कि तुम कूड़ा लिखते हो, अलबत्ता तुम्हें अपनी रचनाओं को मैनेज नहीं करना आता होगा। वरना यह सभी तो तुम्हारी रचनाओं के पीछे पड़ जायें और तुम्हारे हर बयान पर अपनी कृपादृष्टि डालें।’
यह मैनेज करना एक बहुत बड़ी समस्या है। फिर क्या मैनेज करें! यह भी समझ में नहीं आता! अगर कोई संत या फिल्मी नायक होते या समाज सेवक के रूप में ख्याति मिली होती तो यकीनन हमारा लिखा भी लोग पढ़ते। यह अलग बात है कि वह सब लिखवाने के लिये या तो चेले रखने पड़ते या फिर किराये पर लोग बुलाने पड़ते। कुछ लोग फिल्मी गीतकारों के लिये यह बात भी कहते हैं कि उनमें से अधिकतर केवल नाम के लिये हैं वरना गाने तो वह अपने किराये के लोगों से ही लिखवाते रहे हैं। पता नहंी इसमें कितना सच है या झूठ, इतना तय है कि लिखना और सामाजिक सक्रियता एक साथ रखना कठिन काम है। सामाजिक सक्रियता से ही संबंध बनते हैं जिससे पद और प्रचार मिलता है और ऐसे में रचनाऐं और बयान स्वयं ही अमरत्व पाते जाते है।
अगर आजकल हम दृष्टिपात करें तो यह पता लगता है कि प्रचार माध्यमों ने धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक शिखरों पर विराजमान प्रतिमाओं का चयन कर रखा है जिनको समय समय पर वह सीधे प्रसारण या टूट रही खबर में दिखा देते हैं।
एक संत है जो लोक संत माने जाते हैं। वैसे तो उनको संत भी प्रचार माध्यमों ने ही बनाया है पर आजकल उनकी वक्रदृष्टि का शिकार हो गये हैं। कभी अपने प्रवचनों में ही विदेशी महिला से ‘आई लव यू कहला देते हैं’, तो कभी प्रसाद बांटते हुए भी आगंतुकों से लड़ पड़ते हैं। उन पर ही अपने आश्रम में बच्चों की बलि देने का आरोप भी इन प्रचार माध्यमों ने लगाये। जिस ढंग से संत ने प्रतिकार किया है उससे लगता है कि कम से कम इस आरोप में सच्चाई नहंी है। अलबत्ता कभी किन्नरों की तरह नाचकर तो कभी अनर्गल बयान देकर प्रचार माध्यमों को उस समय सामग्री देतेे हैं जब वह किसी सनसनीखेज रोमांच के लिये तरसते हैं। तब संदेह होता है कि कहीं यह प्रसारण प्रचार माध्यमों और उन संत की दोस्ताना जंग का प्रमाण तो नहीं है।
एक तो बड़ी धार्मिक संस्था है। वह आये दिन अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों के लिये अनर्गल फतवे जारी करती है। सच तो यह है कि इस देश में कोई एक व्यक्ति, समूह या संस्था ऐसी नहंी है जिसका यह दावा स्वीकार किया जाये कि वह अपने धर्म की अकेले मालिक है मगर उस संस्था का प्रचार यही संचार माध्यम इस तरह करते हैं कि उस धर्म के आम लोग कोई भेड़ या बकरी हैं और उस संस्था के फतवे पर चलना उसकी मज़बूरी है। वह संस्था अपने धर्म से जुड़े आम इंसान के लिये कोई रोटी, कपड़े या मकान का इंतजाम नहंी करती और उत्तर प्रदेश के एक क्षेत्र तक ही उसका काम सीमित है पर दावा यह है कि सारे देश में उसकी चलती है। उसके उस दावे को प्रचार माध्यम हवा देते हैं। उसके फतवों पर बहस होती है! वहां से दो तीन तयशुदा विद्वान आते हैं और अपनी धार्मिक पुस्तक का हवाला देकर चले जाते हैं। जब हम फतवों और चर्चाओं का अध्ययन करते हैं तो संदेह होता है कि कहीं यह दोस्ताना जंग तो नहीं है।
एक स्वर्गीय शिखर पुरुष का बेटा प्रतिदिन कोई न कोई हरकत करता है और प्रचार माध्यम उसे उठाये फिरते हैं। वह है क्या? कोई अभिनेता, लेखक, चित्रकार या व्यवसायी! नहीं, वह तो कुछ भी नहीं है सिवाय अपने पिता की दौलत और घर के मालिक होने के सिवाय।’ शायद वह देश का पहला ऐसा हीरो है जिसने किसी फिल्म में काम नहीं किया पर रुतवा वैसा ही पा रहा है।
लब्बोलुआब यह है कि प्रचार माध्यमों के इस तरह के प्रसारणों में हास्य व्यंग्य की बात है तो केवल इसलिये नहीं कि वह रोमांच का सीधा प्रसारण करते हैं बल्कि वह पूर्वनिर्धारित लगते हैं-ऐसा लगता है कि जैसे उसकी पटकथा पहले लिखी गयी हों हादसों के तयशुदा होने की बात कहना कठिन है क्योंकि अपने देश के प्रचार कर्मी आस्ट्रेलिया के उस टीवी पत्रकार की तरह नहीं कर सकते जिसने अपनी खबरों के लिये पांच कत्ल किये-इस बात का पक्का विश्वास है पर रोमांच में उन पर संदेह होता है।
ऐसे में अपने को लेकर कोई भ्रम नहीं रहता इसलिये लिखते हुए अपने विषय ही अधिक चुनने पर विश्वास करते हैं। रहा भ्रष्टाचार पर लिखने का सवाल! इस पर क्या लिखें! इतने सारे किस्से सामने आते हैं पर उनका असर नहीं दिखता! लोगों की मति ऐसी मर गयी है कि उसके जिंदा होने के आसार अगले कई बरस तक नहीं है। लोग दूसरे के भ्रष्टाचार पर एकदम उछल जाते हैं पर खुद करते हैं वह दिखाई नहीं देता। यकीन मानिए जो भ्रष्टाचारी पकड़े गये हैं उनमें से कुछ इतने उच्च पदों पर रहे हैं कि एक दो बार नहीं बल्कि पचास बार स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र, गांधी जयंती या नव वर्ष पर उन्होंने कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि की भूमिका का निर्वाह करते हुए ‘भ्रष्टाचार’ को देश की समस्या बताकर उससे मुक्ति की बात कही होगी। उस समय तालियां भी बजी होंगी। मगर जब पकड़े गये होंगे तब उनको याद आया होगा कि उनके कारनामे भी भ्रष्टाचार की परिधि में आते है।
कहने का अभिप्राय यह है कि लोगों को अपनी कथनी और करनी का अंतर सहजता पूर्वक कर लेते हैं। जब कहा जाये तो जवाब मिलता है कि ‘आजकल इस संसार में बेईमानी के बिना काम नहीं चलता।’

जब धर लिये जाते हैं तो सारी हेकड़ी निकल जाती है पर उससे दूसरे सबक लेते हों यह नहीं लगता। क्योंकि ऊपरी कमाई करने वाले सभी शख्स अधिकार के साथ यह करते हैं और उनको लगता है कि वह तो ‘ईमानदार है’ क्योंकि पकड़े आदमी से कम ही पैसा ले रहे हैं।’ अलबत्ता प्रचार माध्यमों में ऐसे प्रसारणों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह दोस्ताना जंग है। यह अलग बात है कि कोई बड़ा मगरमच्छ अपने से छोटे मगरमच्छ को फंसाकर प्रचार माध्यमों के लिये सामग्री तैयार करवाता  हो या जिसको हिस्सा न मिलता हो वह जाल बिछाता हो । वैसे अपने देश में जितने भी आन्दोलन हैं भ्रष्टाचार के विरुद्ध नहीं बल्कि उसके बंटवारे के लिए होते हैं । इस पर अंत में प्रस्तुत है एक क्षणिका।
एक दिन उन्होंने भ्रष्टाचार पर भाषण दिया
दूसरे दिन रिश्वत लेते पकड़े गये,
तब बोले
‘मैं तो पैसा नहीं ले रहा था,
वह जबरदस्ती दे रहा था,
नोट असली है या नकली
मैं तो पकड़ कर देख रहा था।’

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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अच्छी फिल्म को सामान्य दर्शक ही हिट बनाते हैं-हिन्दी लेख


एक फिल्म बनी थी संतोषी मां! वह इतनी जोरदार हिट हुई थी कि उसके निर्माताओं की चांदी हो गयी। उसकी इतनी जोरदार सफलता की आशा तो उसके निर्माता निर्देशक तक ने  भी नहीं की।  वह फिल्म महिलाओं को बहुत पसंद आयी और वह दोपहर के शो में अपने घर का निपटाकर मोहल्ले से झुंड बनाकर  देखने जाती थीं।  हमारे शहर में वह फिल्म एक ऐसे थिऐटर में लगी जिसमें पुरानी फिल्में ही लगती थीं। उसका फर्नीचर भी निहायत घटिया था।  कम से कम वह थियेटर इस लायक नहीं था कि अमीर और  गरीब दोनों वर्ग की महिलायें वहां जाना पसंद करें। इसलिये उसमें नई फिल्में नहीं  लगती थीं। संतोषी मां एक छोटे बजट  की धार्मिक फिल्म थी इसलिये कम दर के कारण उसे वह थियेटर मिल गया।
भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में कहीं भी संतोषी मां नाम का पात्र नहीं मिलता, मगर धर्म का ऐसा महत्व है कि वह फिल्म पूरे देश में एतिहासिक कीर्तिमान बनाती रही।  कोई प्रचार नहीं! जो फिल्म देखकर आया उसने दूसरे को बताया और दूसरे ने तीसरे को। साथ ही यह भी बात फैलती रही  एक शहर से दूसरे और दूसरे से तीसरे! आज का  टीवी, रेडियो या अखबार का प्रचार उसके सामने फीका लगता है।  उस फिल्म के बाद ही हमारे देश में शुक्रवार को माता का व्रत रखने का सिलसिला शुरु हुआ जो आज तक जारी है।  एक फिल्म क्या कर सकती है ‘संतोषी मां’ इसका प्रमाण है। साथ ही यह भी कि अगर फिल्म में दम हो तो  वह बिना प्रचार के ही चल सकती है।
आजकल मुंबईया फिल्मों को पहले दिन के दर्शक जुटाने के लिये भी भारी मशक्कत करनी पड़ती है। इसका कारण  है कि देश में मनोरंजन के ढेर सारे साधन हैं और इतने सारे विकल्प हैं कि थोक भाव में लोगों का पहले दिन मिलना मुश्किल काम है।  यही कारण है कि आजकल फिल्मों के प्रसारण से पहले उससे विवाद जोड़ने का प्रचलन शुरु हुआ है। वैसे वह ऐसा न भी करें तो भी फिल्मों को पहले दिन दर्शक मिल जायेंगे।  समस्या तो अगले दिनों की है।
अधिकतर फिल्मी विशेषज्ञ सप्ताह भर के आंकड़ों पर ही फिल्म की सफलता और असफलता का विश्लेषण करते हैं। एक आम आदमी के रूप हमारे लिये किसी  फिल्म की सफलता का आधार यह होता है कि आम  लोग  कितने महीनों तक उसे याद रखते हैं। शोले, सन्यासी, त्रिशुल, दीवार, राम और श्याम, जंजीर और अन्य कई फिल्में ऐसी हैं जिनको लोग आज तक याद करते हैं। अमिताभ बच्चन को इसलिये ही सर्वाधिक सफल माना जाता है क्योंकि उनकी सबसे अधिक यादगार फिल्में हैं।  देखा जाये तो उनके बाद अनिल कपूर ही ऐसे हैं जो सुपर स्टार की पदवी पर रहे।  उनके बाद के अभिनेताओं की फिल्में यादगार नहीं रही।  यही कारण है कि आज के अभिनेता अपनी यादगार इतिहास में बनाये रखने  के लिये आस्कर आदि जैसे विदेशी पुरस्कारों का मुंह जोहते हैं।
अभी हाल ही में दो फिल्में रिलीज हुई। उनको लेकर ढेर सारा विवाद खड़ा हुआ। विशेषज्ञ मानते हैं कि वह भीड़ खींचने के लिये किया गया।  अभी दूसरी  फिल्म का परिणाम तो आना है पर पहले वाली फिल्म का नाम तक लोग भूल गये हैं ।
दरअसल किसी भी फिल्म को पहले और दूसरे दिन फिल्म देखने वाले दर्शक ही उसके भविष्य का निर्माता भी होते हैं क्योंकि वह बाहर आकर जब लोगों का अपना विचार बताते हैं तब अन्य दर्शक वर्ग देखने जाता है। विवादों की वजह से शुरुआती एक या दो दिन अच्छे दर्शक मिल जाते हैं पर  बाद फिल्म की विषय सामग्री ही उसे चला सकती है।
यहां हो यह रहा है कि फिल्म आने से पहले उसका विवाद खड़ा किया जाता है। लोग देखने पहुंचते हैं तो पता लगता है कि ‘सामान्य फिल्म’ है और उनकी यह निराशा अन्य दर्शकों को वहां नहीं पहुंचने देती।  किसी फिल्म की सफलता इस आधार पर विश्लेषक देखते हैं कि उसने कितना राजस्व फिल्म उद्योग को दिलवाया।  अगर विश्लेषकों की बात माने तो अनेक बहुचर्चित फिल्में इस प्रयास में नाकाम रही हैं।  किसी हीरो की लोकप्रियता का भी यही आधार है और इसमें अनेक अभिनेता सफल नहीं हैं।  एक मजे की बात है कि एक दो वर्ष पहले अक्षय कुमार के बारे में कहीं हमने पढ़ा था कि वह सबसे अधिक कमाई फिल्म उद्योग को कराने वाला कलाकार है-जबकि प्रचार में अन्य कलाकारों को बताया जा रहा था।   हालांकि उनकी आखिरी फिल्म भी फ्लाप हो गयी जो कि उनके साथ बहुत कम होता है-फिल्म उद्योग में अधिक राजस्व दिलाने में उनका क्या योगदान है यह भी अब पता नहीं है।  
कहने का अभिप्राय यह है  किसी फिल्म पर एक या दो दिन में अपनी कोई राय कायम नहीं की जा सकती।  अभी हाल ही में विवादों से प्रचार पा चुकी दो फिल्मों के बारे में देखने वालों की यह टिप्पणी है कि वह अत्यंत साधारण हैं। यकीनन यह बात उनके आगामी दर्शकों का मार्ग रोकेगी।
हमारा दूसरा ही अपना आधार है। वह यह कि कौनसी वह फिल्म है जो हमें पूरी देर बैठने को विवश करती है। अभी टीवी पर  नसीरुद्दीन और अनुपम खेर द्वारा अभिनीत  आतंकवाद के विषय पर बनी एक फिल्म ने पूरी तरह हमको बांधे रखा।  उस फिल्म का नाम याद नहीं है पर इतन तय है कि उसे अधिक सफलता नहीं मिली होगी क्योंकि वह संगीत और गीत रहित थी जबकि हिन्दी फिल्मों में सफलता के लिये उनका होना जरूरी है।  किसी भी फिल्म को चहुंमुखी सफलता तभी मिल पाती है जब उसकी कथा, पटकथा, गीत और संगीत समाज के हर प्रकारे की  आयु तथा आर्थिक वर्ग के लोगों को एक साथ प्रभावित करे। इस तरह की फिल्में अब बन ही नहीं रही-यह  निराशा की बात है। यही कारण है कि अब सुपर स्टार बनते नहीं भले ही प्रचारित किये जाते हों।



कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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नये जमाने में-हिन्दी शायरी


एक दोस्त ने फोन पर
दूसरे दोस्त से
‘क्या स्कोर चल रहा है
दूसरा बिना समझे तत्काल बोला
‘यार, ऐसा लगता है
मेरी जेब से आज फिर
दस हजार रुपया निकल रहा है।’
……………………………..

इंसान के जज्ब़ात शर्त से
और समाज के सट्टे के भाव से
समझे जाते हैं।
नये जमाने में
जज़्बात एक शय है
जो खेल में होता बाल
व्यापार में तौल का माल
नासमझी बन गयी है
जज़्बात का सबूत
जो नहीं फंसते जाल में
वह समझदार शैतान समझे जाते हैं
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप