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मनोरंजन के नाम पर सब हिट है-हिन्दी लेख


            देश में क्रिकेट लीग प्रतियोगिता प्रारंभ हो गयी है। अगले 54 दिन तक देश के अनेक मनोरंजन प्रिय लोगों के लिये यह आरामदायक स्थिति है। हैरानी इस बात की है कि अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैचों के दौरान हृदय में देशभक्ति का का भाव लेकर देखने वाले लोग अब ऐसी स्थानीय स्तर के प्रतियोगिता भी मनोरंजन के लिये देखने लगे है। अभी बीसीसीआई की टीम ने विश्व क्रिकेट कप जीता था। फाइनल में सचिल तेंदुलकर फ्लाप रहा है। वीरेद्र सहवाग भी जल्दी चलता बना। मगर बाद में विराट कोहली, गौतम गंभीर और कप्तान धोनी ने अपने पराक्रम से मैच निकाल ही लिया। कहने को सभी ने सचिन तेंदुलकर की वाहवाही की मगर पुराने क्रिकेट प्रेमी जानते हैं कि सचिन कभी ऐसे मौके पर काम नहीं आता। खासतौर से जब स्कोर का पीछा करना हो सचिन अधिकतर ही फ्लाप रहा है। अगर दूसरी पारी में स्कोर का पीछा करते हुए विजय हासिल करने वाले मैचों की संख्या गिनी जाये तो विराट कोहली ने कम समय में ही सचिन से अधिक काम कर दिखाया होगा।
                इसके बावजूद सचिन के लिये बाज़ार और प्रचार माध्यमों के प्रबंधक जनता में भले ही दीवानगी बनाये रखना चाहते हों पर वह सफल नहीं हो पा रहे। सचिन को भारत रत्न दिलाने के लिये भी जोरदार अभियान चल रहा है पर हमारा मानना है कि कपिल देव और धोनी इसके दावेदार है। इतिहास हमेशा विजेता नायकों को मानता है और सचिन ने अपने नायकत्व में भारत के लिये कोई कमाल नहीं किया। बहरहाल बाज़ार और प्रचार माध्यमों ने अब लीग स्तरीय प्रतियोगिताओं को अपनी कमाई का साधन बना लिया है। इसका आयोजन इस तरह किया जाता है कि उसके लिये मैदान के अलावा टीवी प्रसारण पर भी दर्शक उपलब्ध हों। इस समय देश के स्कूलों में इम्तहान के बाद अवकाश का समय होता है। इसके अलावा गर्मियों की वजह से लोगों का सड़कों पर आवागमन दिन के दौरान कम होता है। सभ्रांत मध्यम वर्गीय परिवार के लोग घर या कार्यालय स्थल पर अंदर पड़े होते हैं। शाम को उनके लिये मनोंरजन का साधन आवश्यकता बन जाता है और यह लीग मैच वही काम कर रहे हैं। फिर नयी पीढ़ी के लोगों के लिये इस अवकाश के समय में मनोरंजन का होना आवश्यक होता है। इसी पीढ़ी के लोगों में अनेक भटकाव का शिकार होकर सट्टा वगैरह भी लगाते हैं। इस तरह एक नंबर और दो नंबर दोनों प्रकार के धंधे करने वालों को अच्छी कमाई होती है।
               सच बात तो यह है कि अनेक खिलाड़ियों को बीसीसीआई की अंतर्राष्ट्रीय टीम से इसलिये हटाया गया ताकि उनको  लीग प्रतियोगिता में लाया जा सके तो कुछ लोगों को इसलिये खिलाया जा रहा है ताकि इस प्रतियोगिता का आकर्षण बना रहे। यही कारण है कि बीसीसीआई टीम में अनेक अनफिट खिलाडी खेल रहे हैं। एक बात हम यहां बता दें कि क्रिकेट में फिटनेस बल्लेबाजी और गेंदबाजी से नहीं वरन् क्षेत्ररक्षण तथा विकेट के बीच दौड़ से देखी जाती है। इसमें बीसीसीआई टीम के खिलाड़ी अत्यंत कमजोर हैं।
          इसके उदाहरण बहुत हैं पर गैरी कर्टसन ने इसे प्रत्यक्ष प्रस्तुत किया। एक बार एक मैदान में उन्होंने बीसीसीआई टीम खिलाड़ियों को अपने साथ दौड़ाया। वह कोच थे और उनकी उम्र भी भारतीय खिलाड़ियों से अधिक थी मगर उस स्टेडियम के उन्होंने चार चक्कर बड़े आराम से लगाये जबकि कोई भी भारतीय खिलाड़ी वह दौड़ पूरी नहीं कर सका। सभी थोड़ा दौड़े पर हांफ रहे थे जबकि गैरी कर्टसन चार चक्कर लगाने के बाद भी आरामदायक स्थिति में दिख रहे थे।
             इसके बावजूद यह हकीकत है कि बीसीसीआई टीम के खिलाड़ी अन्य देशों से अधिक अमीर हैं। हमारे अध्यात्म दर्शन में कहा भी जाता है कि अमीरों की प्राणशक्ति कम होती हैं। अन्य देशों के खिलाड़ी भी अमीर हैं पर वह व्यवायिक प्रवृत्ति के होते हैं इसलिये उनकी प्राणशक्ति अधिक होती हैं। जब हम इस लीग प्रतियोगिता को देखते हैं तो हैरानी होती है कि फ्लाप लोगों का यह मनोरंजक प्रदर्शन हिट हो जाता है। इस पर हम दो बातें कह सकते हैं कि एक तो यह कि लोगों को मनोरंजन और खेल में अंतर करना नहीं आता। दूसरी बात यह कि शायद उनके पास अधिक विकल्प नहीं है या फिर उनमें रुचियों का अभाव है। सच बात तो यह है कि अंतराष्ट्रीय मैच अनेक खिलाड़ी केवल इसलिये खेल रहे हैं क्योंकि उनके आका क्रिकेट खेल की अंतर्राष्ट्रीय छवि बनाये रखना चाहते हैं वरन् तो यह लीग प्रतियोगिता उनकी पहली पसंद है।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

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एंजॉयमेंट(आनंद)-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन (enjoyment or anand-hindi satire thought)


       वर्षा ऋतु में मनुष्य मन को एक स्वाभाविक सुखद अनुभूति होती है। इस पर सावन का महीना हो तो कहना ही क्या? अनेक ऋषियों और कवियों ने सावन के महीने के सौंदर्य का वर्णन किया है। अनेक कवियों ने काल्पनिक प्रेयसी को लेकर अनेक रचनायें भी की जिनको गीत और संगीत से इस तरह सजाया गया कि उनको आज भी गुनगुनाया जाता है । इनमें कुछ प्रेयसियां तो अपने श्रीमुख से सावन के महीने में पियत्तम के विरह में ऐसी ऐसी कवितायें कहती हुई दिखाई देती हैं कि श्रृ्रंगार और करुण रस के अनुपम उदाहरण बन जाती हैं।
     उस दिन रविवार का दिन था हम सुबह चाय पीकर घर से बाहर निकले। साइकिल चलाते हुए कुछ दूर पहुंचे तो पास से ही एक सज्जन स्कूटर चलाते हुए निकले और हमसे बोले ‘‘आज पिकनिक चलोगे।’ यहां से आठ किलोमीटर दूर एक तालाब के किनारे हमने पिकनिक का आयोजन किया है। वैसे तो हमने अन्य लोगां से प्रति सदस्य डेढ़ सौ रुपये लिये हैं। तुम्हारे साथ रियायत कर देते हैं। एक सौ चालीस रुपये दे देना पर तुम्हें आना अपने वाहन से ही पड़गा।
            हमने कहा-‘‘न! वैसे हम इस साइकिल पर पिकनिक मनाने ही निकले हैं। यहां से तीन किलोमीटर दूर एक एक मंदिर और पार्क है वहां जाकर पिकनिक मनायेंगे। ’’
         वह सज्जन रुक गये। हमें भी साइकिल से उतरना पड़ा। यह शिष्टाचार दिखाना जरूरी था भले ही मन अपने निर्धारित लक्ष्य पर विलंब से पहुंचने की संभावना से कसमसा रहा था। वह हमार चेहरे को देखने के बाद साइकल पर टंगे झोले की तरफ ताकते हुए बोले-‘इस झोले में खाने का सामान रखा है?’’
         हमने झोले की तरफ हाथ बढ़ाकर उसे साइकिल से निकालकर हाथ में पकड़ लिया और कहा-‘‘ नहीं, इसमें पानी पीने वाली बोतल और शतरंज खेलने का सामान है।’’
      वह सज्जन बोले-‘केवल पानी पीकर पिकनिक मनाओगे? यह तो मजाक लगता है! यह शतरंज किससे खेलोगे। यहां तो तुम अकेल दिख रहे हो।’
     हमने कहा-‘वहां हमारा एक मित्र जिसका नाम फालतु नंदन आने वाला है। उसी ने कहा था कि शतरंज लेते आना।’’
      वह सज्जन हैरान हो गये और कहने लगे कि‘-‘‘वह तुम्हारा दोस्त वहां कैसे आयेगा उसके पास तो स्कूटर या कार होगी?’
     हमने कहा-‘स्कूटर तक तो ठीक, कार वाले भला हमें क्यों घास डालने लगे। वह बैलगाड़ी से आयेगा।’
वह सज्जन चौंके-‘‘ बैलगाड़ी से पिकनिक मनाने आयेगा?’’
      हमने कहा-‘नहीं, वह अपने किसी बीमार रिश्तेदार का देखने पास के गांव गया था। बरसात से वहां का रास्ता खराब होने की वजह से वह बैलगाड़ी से गया है। उसने मोबाइल पर कहा था कि वह सुबह दस बजे पार्क में पहुंच जायेगा और हमसे शतरंज खेलने के बाद ही घर जायेगा। ’’
     वह सज्जन बोले-‘मगर यह तो रुटीन घूमना फिरना हुआ! इसमें खानापीना कहां है जो पिकनिक में होता है?’’
     हमने कहा-‘‘खाने का तो यह है कि पार्क के बाहर चने वाला बैठता है वह खा लेंगे और पीने के लिये वह कुछ ले आयेगा।’’
     वह हमारी आंखों में आंखें डालते हुए पूछा-‘‘मतलब शराब लायेगा! यह तो वास्तव में जोरदार पिकनिक होगी।’
    हमने कहा-‘‘नहीं, वह नीबू की शिकंजी पीने का सामान अपने साथ लेकर निकलता है। गांव से ताजा नीबू लायेगा तो हम वहां दो तीन बार शिकंजी पी लेंगे। हो सकता है वह गांव से कुछ खाने का दूसरा सामान भी लाये।’ अलबत्ता हम तो चने खाकर कम चलायेंगे।’’
   वह सज्जन बोले-‘‘अब आपको क्या समझायें? पिकनिक मनाने का भी एक तरीका होता है। आदमी घर से खाने पीने का सामान लेकर किसी पिकनिक स्पॉट पर जाये। वहां जाकर एन्जॉय (आनंद) करे। यह कैसी पिकनिक है, जिसमें खाने पीने के लिये केवल चने और नीबू की शिकंजी और एन्जॉयमेंट (आनंद)के नाम पर शतरंज। पिकनिक में चार आदमी मिलकर खाना खायें, तालाब में नहायें गीत संगीत सुने और ताश वगैरह खेलें तब होता है एन्जॉयमेंट!’’
       हमने कहा-‘‘मगर साहब, हम तो वहां पिकनिक जैसा ही एन्जॉयमेंट करते हैं।’’
उन सज्जन से अपना सिर धुन लिया और चले गये। अगले दिन फिर शाम को मिले। हमने पिकनिक के बारे में पूछा तो बोले-‘यार, थकवाट हो गयी। लोग पिकनिक तो मनाने आते हैं पर काम बिल्कुल नहीं करते। पैसा देकर ऐसे पेश आते हैं जैसे कि सारा जिम्मा हमारा ही है। सभी के लिये खाना बनवाओ। बर्तन एकत्रित करो। पानी का प्रबंध करो।’ अपना एन्जॉयमेंट तो गया तेल लेने दूसरे भी खुश नहीं हो पाते। व्यवस्था को लेकर मीनमेख निकालने से बाज नहीं आते।’’
     हमने कहा-‘‘पर कल हमने खूब एन्जॉय मेंट किया। वहां एक नहीं चार शतरंज के खिलाड़ी मिल गये। बड़ा मजा आया।’’
    वैसे हमने अनेक बार अनेक समूहों में पिकनिक की है पर लगता है कि व्यर्थ ही समय गंवाया। आनंद या एन्जॉयमेंट करने के हजार तरीके हैं आजमा लीजिये पर अनुभूति के लिये संवदेनशीलता भी होना जरूरी है। सतं रविदास ने कहा था कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। यह कोई साधारण बात नहीं है। आदमी अपनी नियमित दिनचर्या से उकता जाता है इसलिये वह किसी नये स्थान पर जाना चाहता है। ऐसे में नदिया तालाब और उद्यान उसके लिये मनोरंजन का स्थान बन जाते हैं। खासतौर से वर्षा ऋतु में नदियों में पानी का बहाव बढ़ता है तो सूखे तालाब भी लुभावने हो जाते हैं। ऐसे में दूर के ढोल सुहावने की भावना के वशीभूत जलस्तोत्रों की तरफ आदमी भागता है यह जाने बगैर कि वर्षा ऋतु में पानी खतरनाक रूप भी दिखाता है।
         मुख्य बात यह है कि हम अपने कामों में इस तरह लिप्त हो जाते हैं कहीं ध्यान जाता नहीं है। हम जहां काम करते हैं और जिस मार्ग पर प्रतिदिन चलते हैं वहीं अगर मजेदार दृश्यों को देखें तो शायद मनोरंजन पूरा हो जाये। ऐसा हम करते नहीं है बल्कि अपनी नियमित दिनचर्या तथा परिवहन के मार्ग को सामान्य मानकर उनमें उदासीन भाव से संलिप्त होते हैं।
         एक दिन एक सज्जन हमारे घर आये और बोले-‘यार, तुम कहीं घूमने चलो। कार्यक्रम बनाते है।’’
उस समय बरसात का सुहाना मौसम था। हमने उसे घर के बाहर पोर्च में आकर बाहर का दृश्य देखने को कहा। वह बोला -‘‘यहां क्या है?’’
        हमने उससे कहा-‘देखो हमारे घर के बाहर ही पेड़ लगा है। सामने भी फूलों की डालियां झूल रही हैं। । आगे देखो नीम का पेड़ खडा है। यहां पोर्च में खड़े होकर ही इतनी हरियाली दिख रही है। शीतल हवा का स्पर्श तन मन को आनंदित किये दे रहा है। अब बताओ ऐसा ही इससे अधिक शुद्ध हवा कहां मिलेगी। फिर अगर इससे मन विरक्त हो जायेगा तो शाम को पार्क चले जायेंगे। तब वहां भी अच्छा लगेगा। हमारी दिक्कत यह है कि बाहर हमें ऐसा देखने को मिलेगा या नहीं इसमें संशय लगता है। फिर इसी दिनचर्या में मन तृप्त हो जाता है तब बाहर कहां आनंद ढूंढने चलें। केवल शरीर को कष्ट देने में ही आनंद मिल सकता है तो वह भी हम रोज कर ही रहे हैं।’’
       हम पिछले साल उज्जैन गये थे। यात्रा ठीकठाक रही पर वहां दिन की गर्मी ने जमकर तपा दिया शाम को बरसात हुई और तब हम बस से घर वापस लौटने वाले थे। सारे दिन पसीने से नहाये। अपने शहर वापस लौटने के बाद एक रविवार हम जल्दी उठकर योगाभ्यास, स्नान और नाश्ता करने के बाद अपने शहर के मंदिरों में गये। एक नहीं पांच छह मंदिरों में गये तो ऐसा लगा कि किसी धार्मिक पर्यटन केंद्र में हों। एक शिव मंदिर पर हमारी एक पुराने मित्र से मुलाकात हुई। जब पता लगा कि वह वहां रोज आता है तो हमने पूछा कि‘यार, बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति के हो कहीं तीर्थ वगैरह पर भी जाते हो।’
       वह हंसकर बोला-‘यार, मेरे लिये तो यह मंदिर ही सबसे बड़ा तीर्थ है। यहीं आकर रोज मन तृप्त हो जाता है।’
      अनेक बार ऐसा लगता है कि जिन लोगों को अपने शहर में ही धूमने की आदत नहीं है या वह जानते ही नहीं कि उनका शहर भी अनेक तरह के रोमांचक केंद्र धारण किये हुए वही दूसरे शहरों में घूमने को लालायित रहते हैं। यह दूर के ढोल सुहावने वाली बात लगती है। मन भटकाता है। अगर वह चंगा नहीं है तो गंगा भी तृप्त नहीं कर सकती और मन चंगा है तो अपने घर के पानी से नहाने पर भी वह शीतलता मिलती है जो पवित्र होने के साथ ही दिन भरी के संघर्ष के लिये प्रेरणादायक भी होती है। अपने अपने अनुभव है और अपनी अपनी बात है। हमें तो हर मौसम में लिखने में मजा आता है पर क्योंकि उससे मन शीतल हो जाता है।
लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

कागज के शेर-हिन्दी व्यंग्य कविता kagaj ke sher or loin of paper-hindi satire poem)


लापता हो गये हाड़मांस के असली शेर,
कुछ बीते इतिहास में दर्ज थे
कुछ आज भी कागजों में दिख रहे हैं।
नए जमाने में
पैसे, पद और प्रतिष्ठा के शिखर पर
बैठे इंसान ही कागज पर
अपने नाम में शेर लिख रहे हैं।
—————
सुना है उनका शेर जैसा है जिगर
पर नहीं जिंदा रह सकते
वह कागज़ के नोट खाये बगैर।
——————
कंधे पर बंदूक लटकाए
वह घूम रहे हैं
कहते हुए अपने को शेर,
दुश्मन बनाए हैं जमाने में
काँपते हैं हर पल
कब कौन कर देगा कब ढेर।
वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
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भक्ति से बड़ा सोने का चमत्कार-हिन्दी व्यंग्य कविता (bhakti se bada sone ka chamatkar-hindi satire poem)


भक्ति के व्यापार में
संतों के दरबार
भक्तों के भाव से
सोने की ईंटों और डालरों से
भर जाते हैं,
संत शायद इसलिए ही
चमत्कारी कहे जाते हैं।
————
चमत्कार के व्यापारियों ने
धर्म को बाज़ार में सजा दिया,
धार्मिक भावनाओं का दोहन करते हुए
सोने का भंडार दरबार में लगा लिया।
————-
चमत्कार बेचकर
संतों का बिल्ला अपनी कमीज़ पर
उन्होने लगा लिया,
भक्तों के भावों को
बदलते रहे सोने और रुपयों में
अपने चमत्कारी होने का प्रमाण दिया
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
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आतंकवाद से लड़ने के दावे-हास्य कविता और चिंत्तन लेख


आतंकवाद एक व्यापार है, और यह संभव नहीं है कि बिना पैसे लिये कोई आतंक फैलाता हो। अभी अखबार में एक खबर पढ़ी थी कि उत्तरपूर्व में केंद्र सरकार ने आर्थिक विकास के लिये जो धन दिया उसमें से कुछ आतंकी संगठनों के पास पहुंचा जिससे आतंकियों ने हथियार खरीदे। स्पष्टतः इन हथियारों का पैसा उसके निर्माताओं को मिला होगा। इस संबंध में केंद्रीय खुफिया ऐजेंसियों की जानकारी के आधार पर कुछ सरकारी अधिकारियों, ठेकेदारों तथा अन्य लोगों के खिलाफ़ मामला दर्ज किया गया है और यकीनन यह इस तरह के सफेदपोश लोग हैं जो कहीं न कहीं समाज में अपना चेहरा पाक साफ दिखते हैं। जब आतंक की बात आती है तो चंद मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रभावित क्षेत्रों में धर्म और धन के आधार पर शोषण का आरोप लगाते हैं पर जब विकास के धन से आतंक को सहायता मिलती है तो उस पर खामोश हो जाते हैं।
ऐसे में आतंक को रंग से पहचाने वाले बुद्धिजीवियों पर तरस आता है पर उनको भी क्या दोष दें। सभी किसी न किसी रंग से प्रायोजित हैं और उनको अपने प्रायोजकों की बज़ानी है। एक स्वतंत्र और मौलिक लेखक होने के नाते हमने तो यह अनुभव किया है कि संगठित प्रचार माध्यमों-टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा रेडियो-में हमें जगह इसलिये नहीं मिल पाई क्योंकि किसी रंग ने प्रयोजित नहीं किया। हम इस पर अफसोस नहीं जता रहे बल्कि अपने जैसे स्वतंत्र लेखकों ओर पाठकों को यह समझा रहे हैं कि जब किसी आतंकवाद या उग्र आंदोलन का समर्थक कोई प्रसिद्ध बुद्धिजीवी बयान दे तो समझ लें कि वह दौलतमंदों का प्रयोजित बुत बोल रहा है। यकीनन उसे प्रयोजित करने वाला कोई ऐसा दौलतमंद ही हो सकता है जो अपने रंग की रक्षा केवल इसलिये करना चाहता है जिससे कि उसके काले धंधे चलते रहें। पहले गुस्सा आता था पर अब हंसी आती है जब आतंक या उग्रता की पहचान लिये आंदोलनों के समर्थक बुद्धिजीवी बयान देते हैंे और समझते हैं कि कोई इस बात को जानता नहीं है। एक रंग समर्थक बुद्धिजीवी उग्र बयान देता है तो उस पर अनेक बयान आने लगते हैं इस तरह आतंक के साथ ही उस पर बयान और बहस भी प्रचार का व्यापार हो गये हैं।
इस पर एक हास्य कविता लिखने का मन था पर लगा कि उसमें पूरी बात नहीं कह पायेंगे इसलिये यह गद्य भी लिखकर मन की भड़ास निकाल दी। इसका उद्देश्य यही है कि दुनियां भर के सभी शासक आतंकवाद से लड़ने का दावा करते हैं पर वह है कि बढ़ता ही जा रहा है। स्पष्टतः ऐसे में जिम्मेदार लोगों की अकुशलता, कुप्रबंधन के साथ इसमें कहीं न कहीं सहभागिता का भी शक होता है। सभी देश अपने अपने ढंग से आतंकवाद को समझ रहे हैं इसलिये लड़ कोई नहीं रहा। दावे केवल दावे लगते हैं
इस पर यह एक बेतुकी हास्य कविता प्रस्तुत है।

पोते ने दादा से कहा
‘‘बड़ा होकर मैं भी आतंकवादी बनूंगा
क्योंकि उनके साक्षात्कार टीवी पर आते हैं,
समाचारों में भी वह छाते हैं,
पूरी दुनियां में मेरा नाम छा जायेगा।
अमेरिका भी मुझसे घबड़ायेगा।’’

तब दादा ने हंसते हुए कहा
‘‘बेटा, यह क्या सपना तूने पाल लिया,
आतंकवादी सबसे बड़ा है यह कैसे मान लिया,
तू मादक द्रव्य का तस्कर बन जाना,
चाहे तो क्रिकेट पर सट्टा भी लगवाना,
मन में आये तो जुआ घर खोल देना,
अपहरण उद्योग भी बुरा नहीं है,
अपहृत के बदले भारी रकम मोल लेना,
जब ढेर सारा पैसा तेरे पास आयेगा,
तब क्या पहरेदार, क्या चोर,
आतंकवादी भी तेरे आगे सिर झुकायेगा।
बेटा, यह भी एक व्यापार है,
पर इसमें खतरे अपार हैं,
धंधा चाहे काला हो
पर दौलत होगी तो
हमेशा अपने को सफेदपोश पायेगा,
आतंकी बनकर भी रहेगा गुलाम,
हर कोई अपना रंग तुझ पर चढ़ायेगा।
टीवी पर चेहरा आने ,
या अखबार में खबर छप जाने पर
तेरे को चैन नहीं आयेगा,
मरने का डर तेरे को सतायेगा,
काम निकल जाने पर प्रायोजक ही

तेरा बैरी होकर ज़माने का नायक बन जायेगा
पहले तेरे को मरवायेगा,
या फिर इधर से उधर दौड़ाते हुए
तेरा पीछा करते अपने को दिखायेगा।
मेरी सलाह है
न तो सफेदपोश प्रयोजक बन,
न आतंकवादी होकर तन,
अपना छोटा धंधा या नौकरी करना,
चाहे तो कविता लिखना
या चित्र बनाकर उसमें रंग भरना,
दूसरे खुश हो या नहीं
तुम अपने होने का खुद करना अहसास,
दिल की खुशी का बाहर नहीं अंदर ही है वास,
ऐसा चेहरा रखना अपना
जो खुद आईने में देख सके,
दौलत, शौहरत और ताकत में
अंधे समाज को भला क्या दिखायेगा।
मुझे गर्व होगा तब भी जब
आतंकवादी की तरह प्रसिद्ध न होकर
अज्ञात श्रमजीवी की सूची में अपना नाम लिखायेगा।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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