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वेलंटाईन डे संग बसंत पंचमी-हिन्दी लेख


             आज बसंत पंचमी और वेलंटाईन डे एक ही दिन हमारे सामने उपस्थित हैं।  देखा जाये तो दोनों का भाव एक जैसा दिखता है पर यह एक भ्रम है। वेलंटाईन डे यहां दो देहों के आपसी सहृदयता का प्रतीक है वहीं बसंत पंचमी के साथ सामाजिक और अध्यात्मिक भाव भी जुड़े हैं।  देखा जाये तो हमारे देश में कोई पर्व, दिन या दूसरा विषय अध्यात्म से जुड़ा नहीं है तो वह रसहीन है। अध्यात्म का मतलब होता है हमारी देह धारण करने वाला आत्मा।  अब यह कहना कठिन है कि यह हमारी भारतीय भूमि का अन्न, जल और वातावरण की देन है या लोगों के अंदर बरसों से रक्त में प्रवाहित संस्कार का प्रभाव कि यहां अभी भी बिना अध्यात्मिक रस के कोई भी विषय न शोभायमान होता है न स्वादिष्ट।  वेलेंटाईन डे के मनाने वालों को उसका कारण भी नहीं होता। उसकी वह जरूरत भी अनुभव नहीं करते क्योकि शुद्ध रूप से उपभोग पर जब इंद्रियां केंद्रित होती हैं तो आदमी की बुद्धि अध्यात्म से परे हो जाती है।  हमारे बाज़ार तथा प्रचार समूह के प्रबंधकों का मुख्य लक्ष्य युवा पीढ़ी होती है।  फिर जब हमारे देश में  नयी शिक्षा पद्धति में भारत के प्राचीन अध्यात्म ज्ञान शामिल न होने से आधुनिक लोग वैसे भी अपने पुराने इतिहास से दूर हो गये हैं तब उनसे यह आशा करना कि वह बसंत पंचमी के अवसर पर उपभोग के लिये प्रेरित होंगे बेकार है।

फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग पर वेलेंटाईन डे की धूम है।  कुछ लोग हैं जो उसे नकारते हैं तो कुछ उसे नारियों की रक्षा जैसे विषय से जोड़ते हुए झूमते हैं।  कुछ लोग वेलेंटाईन डे के विरोध में प्रदर्शन करते हुए यह जताते हैं कि वह प्राचीन भारतीय संस्कृति के उपासक हैं।  इससे भी वेलेंटाईन डे को प्रचार में जगह मिलती है।  हमने देखा है कि अगर यह विरोध  न हो तो यह दिन प्रचार माध्यमों में फ्लाप हो जाये।  कभी कभी तो लगता है कि इस दिन के समर्थक और विरोधी सामाजिक कार्यकर्ता आमजन का ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिये सड़कों पर आते हैं। खास बात यह है कि वेलेंटाईन डे को बाज़ार और प्रचार समूहों से प्रेरणा की आवश्यकता होती है जबकि बसंत पंचमी का दिन स्वयं ही जनमानस में स्फूर्ति पैदा होती है।  शरद ऋतु के प्रस्थान और ग्रीष्म ऋतु के आगमन के बीच का यह समय बिना प्रयास किये ही देह को आनंद देता है।  सामान्य लोगों के लिये यह दिन जहां खुशी का होता वहीं योग, ध्यान, और ज्ञान साधकों के लिये अपने अभ्यास में सहजता प्रदान करने वाला होता है।  जहां सामान्य व्यक्ति परंपरागत भौतिक साधनों से बसंत पंचमी मनाता है वहीं अध्यात्मिक साधक  अपनी विद्या से मन से मन में ही रमकर आनंद उठाता है।  सच बात तो यह है कि जब इसका अभ्यास हो जाता है तो आनंद हर दिन मिलता है पर किसी खास अवसर पर वह दूना हो जाता है।  हमारी तरफ से बसंत पंचमी की पाठकों और ब्लॉग लेखकों और मित्रों को बधाई।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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मशहूर लोग-हिंदी कविता


कुछ लोग हर विषय पर बोलेंगे,

फिर अपने प्रचार की तराजु में

अपनी इज्जत का वजन तोलेंगे।

कहें दीपक बापू

हर जगह छाये हैं वह चेहरे

बाज़ार के सौदागरों से लेकर दाम,

प्रचारकों के साथी होकर करते काम,

अपने लफ्जों की कीमत लेकर ही

हर बार अपना मुंह खोलेंगे,

नाम वाले हो या बदनाम

पर्दे पर विज्ञापनों के बीच 

महाबहस के लिये

सामान जुटायेंगे वही लोग

जो पहले मशहूर होकर

शौहरत के लिये इधर उधर डोलेंगे।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh
लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

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क्या अन्ना हजारे जैसी छवि अरविन्द केजरीवाल बना पाएंगे-हिंदी लेख


         अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान जो अपनी छवि बनायी वह अब फीकी हो गयी लगती है । नहीं हुई तो हो जायेगी।  अब उनकी जगह स्वाभाविक रूप से अरविंद केजरीवाल उन लोगों के नायक होंगे जिन्होंने कथित रूप से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन प्रारंभ किया था। अन्ना हजारे कह जरूर रहे हैं कि उनका आंदोलन दो भागों में बंट गया है पर सच बात तो यह कि वह उस बड़े आंदोलन से स्वयं बाहर हो गये हैं जो अरविंद केजरीवाल ने प्रारंभ किया था। यह आंदोलन छोटे रूप में प्रारंभ हुआ पर पहले बाबा रामदेव और फिर बाद के अन्ना हजारे की वजह से बृहद आकार ले गया।
एक बात तय रही अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगियों के बिना अन्ना हजारे राष्ट्रीय छवि नहीं बना सकते थे क्योंकि उनके पहले के सारे आंदोलन महाराष्ट्र में शुरु होकर वहीं खत्म हो गये थे।  उनकी छवि एक प्रादेशिक गांधीवादी छवि की थी।
         जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से लक्ष्य नहीं मिला तो एक राजनीतिक दल बनाने का फैसला हुआ। अन्ना हमेंशा ही  ‘‘मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा’’, ‘‘ रातनीतिक दल नहीं बनाऊंगा’’ और  किसी का चुनाव प्रचार नहीं करूंगा’’ तथा अन्या वाक्यांश दोहराते रहे। इसी दौरान उन्होंने चुनाव में ईमानदार प्रत्याशियों का समर्थन करने की बात कही थी।  ऐसे में अरविंद केजरीवाल और अन्य साथियों के राजनीतिक दल बनाने के फैसले से किनारा करना भले ही वह सिद्धांतों से जोड़े पर हम जैसे आम लेखक जानते हैं कि इस देश में बिना किसी चालाकी के सार्वजनिक प्रचार नहीं मिलता।   इस देश में पेशेवर आंदोलनकारियों का एक समूह सक्रिय रहा है जो कथित रूप से जनहित के लिये कार्यरत रहने का दावा करता है पर कहीं न कहीं वह ऐसे लोगों से धन लेकर यह काम करता है जो चाहते हैं कि समाज के असंतोष को कोई उग्र रूप न मिले इसलिये अहिंसक आंदोलन चलते रहें।  कहने का अभिप्राय यह है कि यह पेशेवर आंदोलनकारी आमजन और शिखर पुरुषों के बीच शोषण और अंसतोष के बीच युद्धविराम रखने के लिये टाईमपास की तरह मौजूद रहते हैं।  हवा में लाठियां भांजते हैं।  देश की समस्याओं की दुहाई देकर बताते हैं कि भ्रष्टाचार नाम का एक राक्षस है जिसका कोई न नाम है न रूप है पर अपना दुष्प्रभाव हम पर डाल रहा है।  परेशानहाल लोग उनकी शरण लेते हैं। अखबारों के खूब खबर छपती है। नतीजा ढाक के तीन पात।
       हमें यह तो मालुम था कि एक दिन अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल की टीम अलग अलग हो जायेंगे पर किस तरह होंगे यह ज्ञान नहीं था।  अन्ना हजारे ने  पूरे दो साल का टाईम पास किया। अखबारों को पृष्ठ रंगने का अवसर मिला तो टीवी चैनल वालों ने भी विज्ञापन का समय खूब पास किया।  ऐसे में अन्ना हजारे ने पैकअप कर लिया।  अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल की जोड़ी लंबे समय की साथी नहीं थी।  इसको लेकर हमारे विचारों के कई दृष्टिकोण हैं।  विस्तार से लिखना तो मुश्किल है पर क्षेत्रीय, भाषाई तथा व्यवहार शैली की भिन्नता है।  फिर अन्ना केजरीवाल ने अपनी लड़ाई एक आम आदमी के रूप में प्रारंभ की थी और अन्ना हजारे  भारत के अन्य शिखर पुरुषों की तरह  अपनी इस आदत को नहीं छोड़ सकते थे कि किसी आम आदमी को बिना किसी आधार के उच्च शिखर पर पहुंचने दिया जाये।  एक आम आदमी का महत्वांकाक्षी होना ऐसे शिखर पुरुषो की दृष्टि में महापाप है।
      अपने एक ब्लॉग पर इस लेखक ने लिखा था कि अन्ना टीम को अपने राजनीतिक दल के नाम में अन्ना हजारे का नाम जरूर रखना चाहिए।  उनकी फोटो भी साथ रखें।  लगता है कि किसी ने यह लेख पढ़ा होगा और अन्ना हजारे साहब को बताया होगा कि इस तरह अरविंद केजरीवाल और उनका पूरा भारत के प्रचार शिखर पर पहुंच जायेगा।  अन्ना साहब ने कोई सार्वजनिक पद न लेने की कसम खाई है ऐसे में राजनीतिक दल का शिखर पद अरविंद केजरीवाल को ही मिलना था।  यही उन्हें स्वीकार नहीं रहा होगा।  अन्ना अब आंदोलन को जारी रखेंगे।  अब उनके उस आंदोलन में नयी पीढ़ी के  लोग कितनी  रुचि लेंगे यह कह सकना कठिन है।  अब तो नयी पीढ़ी के आंदोलनाकरियों के लिये संभवतः अरविंद केजरीवाल ही एक सहारा बचते दिख रहे हैं।  एक बात साफ बता दें कि यह देश समाज हितैषी योद्धाओं का सम्मान करता है न कि पेशेवर आंदोलनकारियों का।  योद्धा अपने अभियान को समय के अनुसार बदलकर चलते जाते हैं और पेशेवर आंदोलनकारी अपने आंदोलन को एक जगह टांग कर जमीन पर बैठे रहते हैं।   टीवी और अखबार में प्रचार प्राप्त करना ही उनका लक्ष्य रहता है। जहां तक जनहित का सवाल है तो ऐसा कोई भी आंदोलन इस देश के इतिहास में दर्ज नहीं मिलता जिसने समाज की धारा बदली हो।
       हम जैसे आम लोगों के लिये अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे एक ही समान हैं।  अन्ना हजारे अगर अपने आंदोलन की दुकान बंद कर चले गये तो अभी अरविंद केजरीवाल और उनके साथी तो बचे हैं।  यदि यह वाकई सामाजिक योद्धा हैं तो अपने अभियान को राजनीतिक दल में परिवर्तित कर आगे बढ़ेंगे और पेशवर आंदोलनकारी हैं तो उनके लिये भी तर्क तैयार है कि हम क्या करें अन्ना ही साथ छोड़ गये।
          अब राजनीतिक दल बनाने के समर्थक लोगों के पास बस एक ही रास्ता है कि वह अरविंद केजरीवाल की छवि को उभारें।  इस कदर कि अन्ना हजारे की छवि ढंक जाये।  अन्ना हजारे की स्थिति तो यह है कि उनके विरोधी भी अब उनका नाम नहीं लेते और लोकतंत्र में यही बुरी बात है। लोकतंत्र में विरोधी होना ही सशक्त होने का प्रमाण है।  अन्ना के विरोधियों ने उन पर आत्मप्रचार के लिये आंदोलन चलाने का आरोप लगाया था और पीछे हटते अन्ना उसे पुष्ट कर गये।  एक जनलोकपाल बनने से देश में भ्रष्टाचार मिट जायेगा अन्ना साहब ने यह  सपना  दिखाया था।  इस जनलोकपाल का जो स्वरूप अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने बनाया वह बनना अब दूर है। आखिरी सलाह अरविंद केजरीवाल को कि वह अब अन्ना हजारे की छवि से दूर होते जायें।  उनकी छवि जो जनता में बनी थी वह अब नहंी रही।  जो नयी पीढ़ी के लोग अन्ना हजारे के पीछे थे वह अब उनके पीछे आयेंगे बशर्ते वह अपने अभियान में निरंतरता बनाये रखें।  इतना ही नहीं अब अन्ना हजारे का नाम लेना या फोटो छापना उनके सहयोगियों के प्रयासों पर विपरीत असर भी डाल सकता है। एक बात याद रखें कि आगे बढ़ते योद्धा को यहां समाज आंखों के बिठा लेता है और पीछे हटने पर वह उससे चिढ़ भी जाता है।   अन्ना हजारे दृढ़ व्यक्तित्तव के स्वामी हैं इस पर यकीन नहीं किया जा सकता क्योंकि वह अपनी कई बातों से जिस तरह पीछे हटे हैं उससे लगता है कि उनका कोई सलाहकार समूह है जो उनको जैसा कहता है वैसा करते हैं। अन्ना हजारे सरल हैं यह बात निसंदेह सत्य है इसलिये उन्होंने अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों को अपने कथित आंदोलन के मंचों पर आने से मना किया है। इससे लगता है कि वह नहीं चाहते कि अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों की छवि कहीं आहत हो।  आजकल लोकतंत्र में प्रचार का महत्व है और केजरीवाल एंड कंपनी के लिये अन्ना हजारे का नाम लेना या उनसे जुड़ना उनकी छवि खराब होने की संभावनाऐं बढ़ा भी सकती है। बाकी भविष्य के गर्भ में क्या है देखेंगे हम लोग। अन्ना हजारे अब प्रचार परिदृश्य से गायब हो जायेंगे तो उनकी जगह लेने की संभावना अरविंद केजरीवाल की हो सकती है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja “Bharatdeep”
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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अन्ना हजारे के नए राजनीतिक दल को नयी राह चुननी होगी-हिंदी लेख सम्पादकीय


                      अंततः अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में शाामिल कुछ कथित समाजसेवी संस्थाओं के पदाधिकारियों ने एक अन्य राजनीतिक दल बनाने का निर्णय ले लिया है। दिल्ली में अनशन समाप्त करते  समय श्री अन्ना हजारे ने उनको एक राजनीतिक दल बनाने का सुझाव दिया पर स्वयं चुनावी राजनीति से अलग रहने का अपना संकल्प भी दोहराया। अन्ना टीम के राजनीतिक दल बनाने का निर्णय कोई आश्चर्यजनक नहीं है।  सच बात तो यह है कि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के विरुद्ध चला जरूर था पर इसकी सफलता प्रारंभ से ही संदिग्ध थी। हम जैसे साधारण विश्लेषकों के लिये यह समझना हमेशा ही मुश्किल बना रहा कि आखिर यह आंदोलन किस उद्देश्य के लिये चल रहा है?  उस समय इस लेखक ने अपने ब्लॉगों पर यह लिखा था कि यह आंदोलन आर्थिक और प्रचार समूहों के शिखर पुरुषों से प्रायोजित है जिनको इस समय समाज में अपना वर्चस्व बनाये रखने तथा लोगों को व्यस्त रखने के लिये  नये विषय और चेहरे चाहिए।

अन्ना टीम के राजनीतिक रूप मेें आने यह स्पष्ट हो गया है कि बाज़ार, राजनीति तथा प्रचार समूहों के शिखर पुरुषों के वेतनभोगी प्रबंधक इस देश में ऐसा वैकल्पिक राजनीतिक दल बनवाने के लिये सक्रिय थे जिसके सहारे आगे भी आम आदमी में आशाओं का संचार बनाये रखकर उसे नियंत्रण में रखा जाये।  विश्व के अनेक देशों में जनविद्रोह के चलते अपने देश में एक जनआंदोलन के सहारे निराशा जनता में आशा का संचार करना शायद इन प्रबंधकों को आवश्यक लगा होगा। बहरहाल जब जैसे आम लेखक या विश्लेषक जो न तो किसी सक्रिय राजनीतिक दल की अंदरूनी जानकारी रखते हैं न उनके आपसी द्वंद्वो में रुचि होती है उनको अन्न टीम के फैसले पर कोई आश्चर्य नहीं है। एक पेशेवर राजनीतिक विश्लेषक न होने के बावजूद हमारी दिलचस्पी अन्ना टीम में हमेशा रही है। यह अलग बात है कि हमें इस बात पर हैरानी है कि पेशेवर राजनीतिक विश्लेषक अन्ना हजारे टीम के राजनीतिक स्वरूप लेने पर भी अधिक स्पष्ट ढंग से भावी संभावनायें व्यक्त नहीं कर पाये।  स्पष्टतः उनकी पकड़ आमजन में मानस पर नहीं है जबकि सच्चाई यह है कि अन्ना हजारे साहब ने अपने अनशन से भारतीय जनमानस में इतनी छवि तो बनायी है कि वह एक आंदोलन के चलाने के साथ उसे राजनीतिक दल बनाकर उच्च स्तर पर स्थापित कर सकें।

अन्ना हजारे की टीम 2014 के चुनावों की तैयारी में लग गयी है।  हमारा मानना है कि अन्ना टीम निरंतर प्रचार में अपनी अपनी सक्रियता दिखाने  के  साथ ही अन्ना भी जनजागरण अभियान में बने रहे तो उनके राजनीतिक दल का भारतीय चुनावी राजनीति में गुणात्मक प्रभाव रहेगा। चार बार हुए अनशन में अंतिम बार अन्ना टीम के सदस्य पहली बार भूखे बैठे।  उनके चेहरे निकल आये थे।  यकीनन वह जिन अन्ना हजारे के चेहरे के साथ वह आगे बढ़े थे उसके सामने उनका व्यक्त्तिव भूखे पेट फीका दिखाई दे रहा था।  कुछ लोग अनशन को फ्लाप बता रहे हैं पर इसके बावजूद यह सच है कि अन्ना हजारे के लिये भारतीय जनमानस में आशा का संचार निरंतर प्रवाहित है।  पचहतर वर्षीय अन्ना हजारे का नाम अगर अन्ना टीम ब्रांड के रूप में उपयोग करेगी तो वह पूरे देश में अपना प्रभाव दिखायेगी।  उसकी भीड़ मतदाता के रूप में तब्दील होगी इसमें संदेह नहीं है।  यह अनेक दलों के प्रतिबद्ध मतदाता तोड़ेगी जो बड़ी संख्या में हैं।  वह शून्य से सौ, हजार और लाख के क्रम में बढ़ने की बजाय सीधे लाख वोट से अपनी लड़ाई शुरु कर सकती है।  अनेक लोगों ने अन्ना टीम में जातीय, धार्मिक, क्षेत्रीय तथा भाषाई समूहों के आधार पर प्रतिनिधित्व न होने का आरोप लगाया था पर हमारा मानना है कि चुनाव में इस प्रचार का कोई प्रभाव नहीं होगा।

मुख्य बात यह है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम को स्वयं भी समाज के परंपरागत विभाजनों के विवाद में पड़ने की बजाय योग्यता तथा क्षमता के आधार पर अपनी लड़ाई आगे बढ़ाना चाहिए।  उसे जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्रीय विषयों से जुड़े विभाजनों से मुंह फेर लेना चाहिए।  कम से कम कार्ल मार्क्स के इस सच के साथ उसे जुड़े तो  रहना ही चाहिए कि आदमी की सबसे बड़ी जरूरत रोटी है।  उसके बाद बिजली, शुद्ध पेयजल तथा सड़कों समेत मूलभूत आर्थिक ढांचों के पुख्ता करने की बात उसे  करना चाहिए। सीधी बात कहें तो उसे आजादी के बाद इस देश में राजनीतिक परिदृश्य में स्थित उन दागों को अपने ऊपर नहीं लगने देना चाहिए जिसकी वजह से समाज बंट जाता है।  उसके सामने प्रचार माध्यमों में जाति, धर्म, भाषा तथा क्षेत्रों को बांटने वाले सवालों पर गौर करने के लिये कहा जायेगा पर अन्ना टीम केवल आम आदमी के कल्याण करने के अलावा अपने लक्ष्य का विस्तार न करे। अगड़ा पिछड़ा, अवर्ण सवर्ण, अल्पसंख्यक बहुसंख्यक, स्त्री पुरुष और अमीर गरीब जैसे शब्द समाज को बांटने के लिये बनाये गये लगते हैं।  अन्ना टीम से इस बंटवारे पर तमाम तरह के स्पष्टीकरण मांग कर उन्हें परंपरागत ढर्रे पर चलने का दबाव होगा। अन्ना टीम ने अगर इन विषयों पर अगर सफाई देना प्रारंभ किया तो वह अपना नुक्सान करेगी।  ऐसे में गुणात्मक वृद्धि की बजाय वह धनात्मक वृद्धि प्राप्त करेगी।  उसे नये दल बनाने के साथ ही  नया देश और नये समाज के निर्माण का दावा करना होगा न कि परंपरागत ढंग से अपनी उपस्थिति बनाये रखने के जूझना होगा। आखिरी बात यह कि उसे परंपरागत द्वंद्वों में व्यस्त समूहों और लोगों के बीच में अपना टांग फंसाना ठीक नहीं होगा।

यह कड़ी शर्तें हैं। इसका पालन अन्ना टीम कर पायेगी इसमें संदेह है।  अन्ना टीम जब एक राजनीतिक दल के रूप में आगे बढ़ेगी तो उसमें सक्रिय सदस्यों के राजनीतिक संपर्कों की पोल भी सामने आयगी।  ऐसे में इन लोगों को किसी का अनुयायी दिखने की बजाय स्वयंभू होने का दावा भी प्रस्तुत करना होगा जिसे आमजन स्वीकार भी कर लेगा।  अन्ना टीम को अपने दल का घोषणापत्र नवीन आधार पर बनाना होगा।  उसमें शामिल एक शब्द भी उसकी स्थिति खराब कर सकता है।  कहने का अभिप्राय यह है कि परंपरागत नारों से परे होकर नवीनता के संदेश के साथ ही यह आगे बढ़ेगी।  वर्तमान छवि को निरंतर बनाये रखना अन्ना टीम के लिये अत्यंत संघर्षपूर्ण होगा।  हम न तो किसी राजनीतिक दल के सदस्य हैं न ही ऐसी सक्रियत है कि अंदर झांककर अपना अनुमान कर सकें पर प्रचार माध्यमों के साथ ही राह चलते हुए लोगों से बातचीत करते हुए हमने अपनी बात लिखी है।  आगे कोई बात समझ में आयेगी तो लिखेंगे। अगर लगा कि यह दल भी पुराने टाईप चल रहा है तो फिर तौबा भी कर लेंगे।  वैसे हम कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति नहीं है कि हमारी बात अन्ना टीम तक पहुंच जाये। हमारा ब्लॉग चंद लोग ही पढ़ते हैं। उनमें भी तो कई लोग नाम भी याद नहीं रख पाते होंगे।  ऐसे में यह सब लिखना बेकार है पर यह सोचकर लिखते हैं कि भले ही दो लोगों तक अपनी बात तो पहुंच ही जायेगी।

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निर्मल बाबा के समागमों के प्रचार का डर किसको था-हिन्दी लेख (hindi lekh and article on nirmal baba sawagam)


            निर्मल बाबा का प्रचार कम हो गया है। उनके समागमों का तूफानी गति से चलने वाला विज्ञापन अब अनेक चैनलों में दिखाई नहीं देता है। उनके बारे में कहा गया कि वह समाज में अंधविश्वास फैला रहे हैं। लोगों को उनकी समस्याओं के निराकरण के लिये आईस्क्रीम, रसगुल्ले और समौसा खाने के इलाज बता कर पैसा वसूल कर रहे हैं। सच बात तो यह है कि निर्मल बाबा का प्रचार केवल उनके विज्ञापनों के कारण हो रहा था जिसके लिये वह सभी हिन्दी समाचार चैनलों को भारी भुगतान कर रहे थे। मतलब यह कि उनका प्रचार स्वप्रायोजित होने के साथ अतिरेक से परिपूर्ण था। अचानक ही हिन्दी समाचार चैनलों को लगा कि निर्मल बाबा तो अंधविश्वास फैला रहे हैं तो उन्होंने उनके विरुद्ध प्रचार शुरु किया। लंबे समय तक यह चैनल विरोधाभास में सांस लेते रहे। एक तरफ निर्मल बाबा का विज्ञापन चल रहा था तो दूसरी तरफ चैनल वाले अपना समय खर्च कर उस पर बहस कर रहे थे-यह अलग बात है कि उस समय भी निर्मल बाबा के खलनायक साबित करते हुए वह दूसरे विज्ञापन चला कर पैसा वसूल कर रहे थे। निर्मल बाबा को अंधविश्वास का प्रवर्तक बताकर इन चैनलों ने अपने ही प्रायोजित बुद्धिजीवियों से बहस कराकर व्यवसायिक सिद्धांतों के प्रतिकूल जाने का साहस करते हुए उनमें भी अतिरेक से पूर्ण सामग्री प्रस्तुत की।

              बहरहाल निर्मल बाबा का जलवा कम हो गया है और यह सब उन हिन्दी समाचार चैनलों की वजह से ही हुआ है जिन्होंने विज्ञापन लेते समय केवल अपना लाभ देखा। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इन टीवी चैनलों ने वास्तव में क्या कोई समाज के प्रति भक्ति दिखाते हुए निर्मल बाबा के विरुद्ध दुष्प्रचार कर कोई साहस का काम किया है या फिर निर्मल बाबा के प्रचार से मिलने वाले धन से अधिक कहीं उनकी हानि हो रही थी जिससे वह घबड़ा गये थे। इसी वजह से समाज को जाग्रत करने के लिये कथित रूप से अभियान छेड़ दिया था। 

           निर्मल बाबा पिछले कई महीनों से छाये हुए थे। हमने देखा कि उनकी चर्चा सार्वजनिक स्थानों पर होने लगी थी। स्थिति यह थी कि देश के ज्वलंत राजनीतिक विषयों से अधिक लोग निर्मल बाबा की चर्चा करने लगे थे। महंगाई और मिलावट से परेशान समाज के लिये निर्मल बाबा का समागम एक मन बहलाने वाला साधन बन गया था। देखने वालों की संख्या बहुत थी पर इसका मतलब यह कतई नहीं लिया जाना चाहिए कि सभी उनके शिष्य बन गये थे। फिर हम यह भी देख रहे थे महंगाई, बेरोजगारी, दहेजप्रथा तथा पारिवारिक वातावरण की प्रतिकूलता से परेशान लोगों की संख्या समाज में गुणात्मक रूप से बढ़ी है जिससे लोग राहत पाने के लिये इधर उधर ताक रहे थे। ऐसे में हर चैनल पर छाये हुए निर्मल बाबा की तरफ अगर एक बहुत दर्शक वर्ग आकर्षित हुआ तो उसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं थी। इससे हमारे देश के बुद्धिजीवियों को कोई परेशानी भी नहीं थी मगर समस्या यह थी कि टीवी का एक बहुत बड़ा दर्शक वर्ग केवल निर्मलबाबा के समसमों की तरफ खिंच गया था। उस दौरान आईपीएल जैसी क्रिकेट प्रतियोगिता तथा टीवी के यस बॉस कार्यक्रम की चर्चा सार्वजनिक स्थानों से गायब हो गयी थी। निर्मल बाबा ने चैनलों से अपने समागमों के विज्ञापन का समय भी इस तरह लिया था कि वह एक न एक चैनल पर आते ही थे। स्थिति यह लग रही थी कि लोग चैनलों पर उन समागमों के प्रसारण का समय इस तरह याद रखते थे जैसे कि सारे चैनल ही निर्मलबाबा के खरीदे हुए हों। हमारा अनुमान तो यह है कि निर्मल बाबा से मिलने वाले आर्थिक लाभ से कहीं उनको अपने अन्य प्रसारणों पर हानि होने का डर था। उनके अन्य कार्यक्रम की लोकप्रियता इस कदर गिरी होगी कि उनके विज्ञापनादाताओं को लगा होगा कि वह बेकार का खर्च रहे हैं। प्रचार प्रबंधकों से स्पष्ट कहा होगा कि वह या तो निर्मल बाबा का विज्ञापन प्रसारित करें या हमारे लिये दर्शक बचायें। 

            हमने निर्मल बाबा के कार्यक्रंम देखे थे। हमारे अंदर केवल मनोरंजन का भाव रहता था। अगर अंधविश्वास की बात की जाये तो हिन्दी चैनल वाले स्वयं ही अनेक तरह के ऐसे प्रसारण कर रहे हैं जो विश्वास और आस्था की परिधि में नहीं आते। निर्मल बाबा को कोई सुझाव हमारे दिमाग में नहीं आता था। देखा और भूल गये। दरअसल इस विषय पर बहुत पहले लिखना था पर समय और हालातों ने रोक लिया। एक योगसाधक और गीता पाठक होने के नाते हमें पता है कि कोई भी मनुष्य अपने अध्यात्मिक ज्ञान के बिना इस संसार में सहजता से संास नहीं ले सकता। संसार के विषयों में लिप्त आदमी सोचता है कि मैं कर्ता हूं यही से उसक भ्रम प्रारंभ होता है जो अंततः उसे अंधविश्वासों की तरफ ले जाता है। संसार के काम समय के अनुसार स्वतः होते हैं और उनके लिये अधिक सोचना अपनी सेहत और दिमाग खराब करना है।

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

 

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