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श्रीगीता संदेश -दूसरे धर्म का परिणाम सदैव भयावह रहता है


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।
हिंदी में भावार्थ-
श्रीगीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि अपने धर्म से पराया धर्म श्रेष्ठ लगता है तब उसको कभी श्रेय न प्रदान करें। अपना धर्म संपन्न नहीं दिखता पर दूसरे का धर्म तो हमेशा भयावह परिणाम देने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग धर्म को लेकर बहस करते हैं पर उसका मतलब नहीं समझते। हर टीवी चैनल, अखबार और पत्रिका को उठाकर देख लें धर्म को लेकर तमाम सतही बातें लिखी मिल जायेंगी जिनका सार तो विषय सामग्री प्रस्तुत करने वाले स्वयं नहीं जानते न ही पाठक या दर्शक समझने का प्रयास करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि धर्म बिकने, खरीदने, और लाभ हानि वाली व्यापारिक वस्तु हो गयी है। अनेक प्रचार माध्यम बकायदा धर्मपरिवर्तित कर जिंदगी में भौतिक उपलब्धि प्राप्त करने वाले लोगों का प्रचार करते हैं। इतना ही नहीं धर्म परिवर्तित कर विवाह करने पर लड़कियों को वीरांगना करार दिया जाता है। यह केवल प्रचार है जिससे बुद्धिमान भारतीय तत्व ज्ञान से दिखने वाले कटु सत्यों से भागते हुए करते हैं क्योंकि भारतीय अध्यात्म ज्ञान जीवन के ऐसे रहस्यों को उद्घाटित करने के सत्यों से भरा पड़ा है जिसको जानने वाला धर्म न पकड़ता है न छोड़ता है।
हमारे भारतीय अध्यात्म में स्पष्ट रूप से धर्म को कर्म से जोड़ा गया न कि कर्मकांडों से। कर्मकांडों और रूढ़ियों को लेकर भारतीय धर्मों की आलोचना करने वाले मायावी लोग उस तत्व ज्ञान को जानते नहीं है पर उनको यह पता है कि अगर उसका प्रचार हो गया तो फिर उनकी माया धरी की धरी रह जायेगी।
एक मजे की बात है कि धर्म परिवर्तित दूसरा धर्म अपनाने वाली युवतियां विवाह कर लेती हैं इसमें बुराई नहीं है पर उसके बाद उनको जब दूसरे धर्म के संस्कार अपनाने पड़ते हैं तब उन पर क्या गुजरती है इस पर कोई प्रकाश नहीं डालता। दरअसल फिल्मों की कहानियों को केवल विवाह तक ही सीमित देखने वाले बुद्धिजीवी उससे आगे कभी सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि विवाह के बाद जब पराये धर्म के कर्मकांडों को मन मारकर अपनाना पड़ता है तब उन युवतियों की क्या कहानी होती है इस पर कोई भी आज का महापुरुष नहीं लिखता।
दरअसल धर्म दिखाने या छूने की वस्तु नहीं बल्कि हृदय में की जाने वाली अनुभूति है। बचपन से जिस धर्म के संस्कार पड़ गये उनसे पीछा नहीं छूटता विवाह या अन्य किसी भौतिक प्राप्ति के लिये धर्म परिवर्तन तो लोग कर लेते हैं उसके बाद जो उनपर तनाव आता है उसकी चर्चा भी गाहे बगाहे करते हैं। एक मजे की बात है कि कथित आधुनिक लोग धर्म परिवर्तन करते हैं पर उसके साथ अपना नाम और इष्ट भी परिवर्तित कर लेते हैं। मतलब वह दूसरे धर्म के के बंधन को ओढ़ते है और दावा आजादी का करते हैं। सच बात तो यह है कि धर्म का आशय सही मायने में भारतीय अध्यात्म में ही है जिसका आशय है कि बिना लोभ लालच और कामना के भगवान की भक्ति करते हुए जीवन व्यतीत करना न कि उनके वशीभूत होकर धर्म मानना। दूसरी बात यह है कि धर्म परिवर्तित करने वाले अपनी पहचान गुम होने के भय से अपना पुराना नाम भी साथ लगाते हैं। दूसरे के धर्म के क्या कर्मकांड हैं किसी को पता नहीं होता? इसलिये उस धर्म के लोग मजाक उड़ाते हैं जिसे अपनाया गया है।

संत कबीरदास और चाणक्य भी कहते हैं कि दूसरे धर्म या समुदाय का आसरा लेना हमेशा दुःख का कारण होता है। किसी भी व्यक्ति या समाज को बाहर से देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि उसका धर्म कैसा है या वह उसे कितना मानता है। वह तो जब कोई नया आदमी धर्म परिवर्तन कर उस धर्म में जाता है तब उसे पता लगता है कि सच क्या है? इसके बावजूद यह सच है कि दूसरा धर्म नहीं अपनाना चाहिये क्योंकि उससे तनाव बढ़ता है। हालांकि आजकल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षा लाभों के लिये अनेक लोग धर्म बदल लेते हैं। वह भले ही दावा करें कि उनको ज्ञान प्राप्त हुआ है पर यह झूठ है। जिसे ज्ञान प्राप्त होता है वह धर्म से परे होकर योग साधना, ध्यान और भक्ति में रहते हुए निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया करता है न कि धर्म छोड़ने या पकड़ने के चक्कर में पड़ता है।
हां एक बात महत्वपूर्ण है कि भारतीय धर्म व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं क्योंकि इसमें किसी प्रकार की भाषा या उस पर आधारित नाम या कर्मकांड की बाध्यता नहीं होती। हमारा श्रीगीता ग्रंथ दुनिया का अकेला ऐसा धर्म ग्रंथ है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की भी चर्चा है। इसमें निरंकार परमात्मा की निष्काम भक्ति के साथ ही अन्य जीवों पर निष्प्रयोजन दया करने का भी संदेश है। यह मनुष्य को विकास की तरफ जाने के लिये प्रेरित करने के साथ विनाश से भी रोकता है।
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

संत कबीर वाणी:गाली से कलह, दु:ख और मृत्यु पैदा होती है


गारी ही सो उपजे, कष्ट और भीच
हारी चले सो साधू हैं, लागि चले सो नीच

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं की गाली से कलह और दु:ख तथा मृत्यु पैदा होती हैं जो गाली सुनकर हार मानकर चला जाये वही साधू मतलब सज्जन पुरुष और जो गले देने के बदले में गाली देने लग जाता है वह नीच है।

लेखकीय अभिमत- संत शिरोमणि कबीरदास जी ने अपने जीवन को कितना सात्विक ढंग से जिया यह उनकी वाणी से स्पष्ट होता है। हमने देखा होगा की कुछ लोगों की आदत होती है की वह अकारण गालिया बकने लगते हैं। अगर उनके प्रत्युतर में उनको गाली दी जाये तो वह और गालियाँ देने लगते हैं क्योंकि वह सामने से आ रही गालियों को ध्यान में ही नहीं लाते। ऐसे दुष्ट लोगों की तरफ जो अनदेखा कर निकल जाते हैं वह साधू हैं और जो उनको गाली देने लगें वह स्वयं भी नीच होते हैं।

अन्धे मिलि हाथी छुआ, अपने अपने ज्ञान
अपनी अपनी सब कहैं, किसको दीजै कान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं अंधों ने मिलकर किसी हाथी को अपने-अपने ज्ञानानुसार छुआ और सबने अपनी-अपनी बात कही, अब बताईये किसकी बात पर यकीन किया जाये।

लेखकीय अभिमत-हमने देखा कुछ लोग किसी चीज को आँखों से देखकर ही केवल अपना मत व्यक्त करने लगते हैं और उसकी अच्छाई और बुराई जाने बिना उसकी प्रशंसा करते हैं। ऐसे लोगों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है की अगर कोई हमारे सामने किसी व्यक्ति या वस्तु की प्रशंसा कर रहा है तो हमें उसके कहने पर नहीं बल्कि अपने विवेक से गुण दोष पर विचार कर अपनी राय कायम चाहिए नहीं तो हम भी अक्ल के अंधों की जमात में शामिल हो जायेंगे।

कल है पुरुष दिवस


कल अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस मनाया जायेगा। यह अपने आप में अजीब बात लगती है क्योंकि अभी तक तो पुरुष को एक शोषक माना जाता है। अगर हम सभी धर्मों की मान्यताओं को देखें तो सभी सर्वशक्तिमान को पुरुष ही मानते हैं। हालांकि हमारे देश में भगवान के अवतारों और देवताओं के साथ उनकी धर्मपत्नियों की भी मान्यता है पर उसकी सीमा साकार और सगुण भक्ति तक है जहाँ निर्गुण और निराकार भक्ति की बात आती है तो परब्रह्म की साधना में पुरुषत्व की अनुभूति होती है। जहाँ तक मान्यताओं का प्रश्न है तो जितने भी मनीषी हुए हैं उन्होने मनुष्य को एक समाज मानते हुए अपने विचार व्यक्त किये हैं हालांकि वह सब पुरुष हैं। जब भी हम अपने आध्यात्म और ग्रंथों से उद्धरण लेते हैं तो उसमें पुरुषो का ही नाम आता है। अगर कुछ लोग कहते हैं कि सारी दुनिया की सामाजिक मान्यताएं पुरुष की बनाईं हुईं हैं तो गलत नहीं है।

अब जब यह दिवस मनाया जा रहा है तो पुरुषों के लिए वह समय आ गया है जब वह खुलकर अपना दर्द कहे। आखिर पुरुष भी कम पीड़ित नहीं है। उसकी पीडा यही है कि पुराने पुरुषों ने अपनी सता बनाए रखने के लिए जो मान्यताएं बनाईं वही उसके लिए समस्या बन गयी हैं। जो जाल उसने स्त्री को बन्धन में रखने के लिए बनाए उसमें वह आज का पुरुष ही फंसा है। स्त्री घर की चौखट के बाहर भी उसके नाम के बन्धन में रहे इसके लिए उसने नियम बनाए और उसे निरंतर बनाये रखने के लिए संघर्ष करता रहा, पर घर के अन्दर उसकी सता इतनी नहीं रही जितना समझा जाता है। अगर वह गृहस्वामी बना तो स्त्री उसकी गृहस्वामिनी। घर पुरुष के नाम पर चला स्त्री के हाथ और दिमाग के सहारे। वह निर्णायक दिखता है पर उसके निर्णय के पीछे एक स्त्री भी होती है क्या यह सच हम नहीं जानते। पत्नी के बिना या उसकी असहमति से कोई निर्णय लेने का कितना सोच पाते हैं और लेते हैं तो उस पर कितना अमल कर पाते हैं-यह विचारणीय प्रश्न है। घर के सदस्य उसके अधीन माने जाते हैं पर उसके कहने पर कितना चलते हैं बताने की जरूरत नहीं पुर कुछ हो जाये तो कहा जाता है कि उसका अपने परिवार पर नियंत्रण नहीं है।

वैसे समाज को अलग बांटकर उस पर विचार हमारा आध्यात्म नहीं करता। यह पश्चिमी विचारधारा है पर हम जब उस पर चल ही रहे हैं तो ‘पुरुष दिवस’ पर यह तो सोचना ही चाहिए कि अपना साम्राज्य कायम करने के लिए जो प्रयास विद्वान पुरुषों ने किये उसका परिणाम कोई उसकी नस्ल के लिए भी कोई अच्छा नहीं रहा यह बताने का वक्त आ गया है। माना जाता है कि पुरुष सक्षम है पर कितना?स्त्री से कहा जाता है कि अपने पति को भगवान जैसा समझना पर क्या वह उतना सक्षम कभी रहता है?”

आंकडे बताते हैं कि अधिकतर मामलों में पति पहले इस धरती से विदा होता है और पत्नी बाद में। वजह कहा जाता है कि उस पर तनाव अधिक रहता है-घर का और बाहर का। क्या यह स्त्री पर अपना साम्राज्य बनाए रखने से उपजता है? क्या पुरुष अपने घर के तनाव छिपाता नहीं है क्योंकि उससे उसकी समाज में हेठी होती है? क्या पुरुष होने से कई ऐसे तनाव नहीं सामने आते जिनका सामना स्त्री को नहीं करना पड़ता। हर संघर्ष पर उसका नाम होता है और जीत मिले तू उसकी जय-जय और हार जाये तो उसको ही हाय-हाय झेलने पड़ती है। इन सब पर विचार करने का कल वक्त है। निकला अपने अन्दर फैला तनाव। ऐसा दिन है जब महिलायें भी कोई आपति नहीं करेंगी।

मनु स्मृति: राज्य के दण्ड से ही अनुशासन संभव


1.देश, काल, विद्या एवं अन्यास में लिप्त अपराधियों की शक्ति को देखते हुए राज्य को उन्हें उचित दण्ड देना चाहिए। सच तो यह है कि राज्य का दण्ड ही राष्ट्र में अनुशासन बनाए रखने में सहायक तथा सभी वर्गों के धर्म-पालन कि सुविधाओं की व्यवस्था करने वाला मध्यस्थ होता है।
2.सारी प्रजा के रक्षा और उस पर शासन दण्ड ही करता है, सबके निद्रा में चले जाने पर दण्ड ही जाग्रत रहता है। भली-भांति विचार कर दिए गए दण्ड के उपयोग से प्रजा प्रसन्न होती है। इसके विपरीत बिना विचार कर दिए गए अनुचित दण्ड से राज्य की प्रतिष्ठा तथा यश का नाश हो जाता है।
3.यदि अपराधियों को सजा देने में राज्य सदैव सावधानी से काम नहीं लेता, तो शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर लोंगों को उसी प्रकार नष्ट कर देते हैं, जैसे बड़ी मछ्ली छोटी मछ्ली को खा जाती है। संसार के सभी स्थावर-जंगम जीव राजा के दण्ड के भय से अपने-अपने कर्तव्य का पालने करते और अपने-अपने भोग को भोगने में समर्थ होते हैं ।

*अक्सर एक बात कही जाती है की हमारे देश को अंग्रेजों ने सभ्यता से रहना सिखाया और इस समय जो हम अपने देश को सुद्दढ और विशाल राष्ट्र के रूप में देख रहे हैं तो यह उनकी देन है. पर हम अपने प्राचीन मनीषियों की सोच को देखे तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि वह राज्य, राजनीति और प्रशासनिक कार्यप्रणाली से अच्छी तरह वाकिफ थे, मनु स्मृति में राजकाज से संबंधित विषय सामग्री होना इस बात का प्रमाण है. एक व्यसनी राजा और उसके सहायक राष्ट्र को तबाह कर देते हैं. अगर राजदंड प्रभावी नहीं या उसमें पक्षपात होता है तो जनता का विश्वास उसमें से उठ जाता है. यह बात मनु स्मृति में कही गयी है.

रहीम के दोहे:बकवास करे जीभ, जूते खाए सिर


रहिमन जिह्म बावरी, कही गइ सरग पाताल
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल

कविवर रहीम कहते हैं कि इस मनुष्य के बुद्धि बहुत वाचाल है. वह स्वर्ग से पाताल तक का अनाप-शनाप बककर अन्दर चली जाती है पर अगर उससे लोग गुस्सा होते हैं तो बिचारे सिर को जूते खाने पड़ते हैं.

भावार्थ-यहाँ संत रहीम चेता रहे हैं कि जब भी बोलो सोच समझ कर बोलो. कटु वचन बोलना या दूसरे का अपमान करने पर मार खाने की भी नौबत आती है. इसलिए किसी को बुरा-भला कहकर लांछित नहीं करना चाहिए.

रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि
गाँठ युक्ति की खुलि गयी, अंत धूरि को धूरि

संत रहीम कहते हैं ठहरी हुई धूल हवा चलने से स्थिर नहीं रहती, जैसे व्यक्ति की नीति का रहस्य यदि खुल जाये तो अंतत: सिर पर धूल ही पड़ती है.

भावार्थ-श्रेष्ठ पुरुष अपने अपने हृदय के विचारों को आसानी से किसी के सामने प्रकट नहीं करते. यदि उनके नीति सबंधी विचार पहले से खुल जाएं तो उनका प्रभाव कम हो जाता है और उन्हें अपमानित होना पड़ता है.