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त्यागी और भोगी गुरु की पहचान आवश्यक-गुरु पूर्णिमा पर विशेष हिन्दी लेख


            आज पूरे देश में गुरु पूर्णिमा का पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा है। इस अवसर पर अनेक जगह अध्यात्मिक कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं। हमारे अध्यात्मिक दर्शन में गुरु के महत्व को अत्यंत महत्वपूर्ण ढंग से प्रतिपादित करते हुए उसे परमात्मा के बाद दूसरा दर्जा दिया गया है।  यह अलग बात है कि पेशेवर धार्मिक संतों ने इसका उपयोग अपने हित में अधिक किया है।  आज जब पूरे विश्व में भौतिकता का बोलबाला है तब लोग हृदय की शांति के लिये अध्यात्मिक दर्शन की शरण लेते हैं। उनके इस भाव का वह चालाक लोग उपयोग करते हैं जो कथित रूप से ज्ञानी होने की छवि बनाकर अपने लिये भौतिक सुख साधन जुटा लेते हैं।

            ऐसे ढोंगियों के कारण लोगों में हर साधु संत के प्रति संदेह का भाव पैदा होता है। अनेक लोग गुरु की तलाश करते हैं।  किसी को बनाते हैं तो जल्द ही उनको पता लगता है कि वह एक पाखंडी की शरण लिये हुए हैं।  दरअसल लोगों में यह निराशा अज्ञान के कारण पैदा होती है। लोग भौतिक चकाचौंध से घिरे गुरुओं की शरण लेते हैं जो कि प्रत्यक्ष भोग वृत्ति में लिप्त होते हैं जबकि सच्चा गुरु त्यागी होता है। एक बात निश्चित है कि भोगी कभी महान नहीं बन सकता और त्यागी कभी लघुता नहीं दिखाता।  जिसके पास माया का भंडार है उससे अध्यात्मिक ज्ञान की आशा नहीं की जानी चाहिये।  गुरु कभी स्वतः आमंत्रण देकर शिष्य नहीं बनाता। जिनको ज्ञान चाहिये उन्हें त्यागी गुरु ढूंढना चाहिये।

            हमारे देश में धर्म प्रचार और अध्यात्मिक ज्ञान के लिये अनेक कथित गुरु बन गये हैं।  अनेक गुरु बहुत प्रसिद्ध हैं यह तो तब पता चलता है जब उनको किसी भी अच्छे या बुरे कारण से प्रचार माध्यमों में सुर्खियां मिलती है। हजारों करोड़ों की संपत्ति करोड़ों शिष्य के होने की बात तब सामने आती है जब किसी गुरु की चर्चा विशेष कारण से होती है। आज तक एक बात समझ में नहीं आयी कि एक गुरु एक से अधिक आश्रम क्यों बनाता है? आश्रम से आशय किसी गुरु के उस रहने के स्थान से है जिसका उपयोग वह  निवास करने के साथ ही अपने शिष्यों को शिक्षा देने के लिये करता है।  आमतौर से प्राचीन समय में गुरु एक ही स्थान पर रहते थे। कुछ गुरु मौसम की वजह से दो या तीन आश्रम बनाते थे पर उनका आशय केवल समाज से निरंतर संपर्क बनाये रखना होता था।  हमारे यहां अनेक गुरुओं ने तीन सौ से चार सौ आश्रम तक बना डाले हैं। जहां भी एक बार प्रवचन करने गये वहां आश्रम बना डाला।  अनेक गुरुओं के पास तो अपने महंगे विमान और चौपड़ हैं।  ऐसे गुरु वस्त्र धार्मिक प्रतीकों वाले रंगों के पहनते हैं और प्राचीन ग्रंथों के तत्वज्ञान का प्रवचन भी करते हैं पर उनकी प्रतिष्ठा आत्म विज्ञापन के लिये खर्च किये धन के कारण होती है। लोग भी इन्हीं विज्ञापन से प्रभावित होकर नको अपना गुरु बनाते हैं।

संत कबीरदास कहते हैं कि

———————————–

गुरु भया नहिं शिष भया, हिरदे कपट न जाव।

आलो पालो दुःख सहै, चढ़ि पत्थर की नाव।।

      सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जब तक हृदय में कपट है तब तक गुरु कभी सद्गुरु और शिष्य कभी श्रेष्ठ मनुष्य नहीं बन सकता। कपट के रहते इस भव सांगर को पार करने की सोचना ऐसे ही जैसे पत्थर की नाव से नदी पार करना।

गुरु कीजै जानि के, पानी पीजै छानि।

बिना बिचारे गुरु करे, परै चौरासी खानि।।

      सामान्य हिन्दी में भावार्थ-पानी छानकर पीना चाहिए तो किसी को गुरु जानकार मानना चाहिए। बिना विचार किये गुरु बनाने से विपरीत परिणाम प्राप्त होता है।

      देखा जाये तो हमारे देश में आजकल कथित रूप से धर्म के ढेर सारे प्रचारक और गुरु दिखाई देते हैं।  जैसे जैसे रुपये की कीमत गिर रही है गुरुओं की संख्या उतनी ही तेजी से बढ़ी है। हम कहते हैं कि देश में भ्रष्टाचार पहले से कहीं अधिक बढ़ा है तो यह भी दिखाई देता है कि धार्मिक गुरुओं के कार्यक्रम भी पहले से कहीं अधिक होते है। ऐसे में यह समझ में नहीं आता कि जब धर्म का प्रचार बढ़ रहा है तो फिर देश के सामान्य चरित्र में गिरावट क्यों आ रही है?  तय बात है कि सत्य से निकटता का दावा करने वाले यह कथित गुरु माया के पुजारी हैं।  सच बात तो यह है कि हम आज किसी ऐसे गुरु को नहीं देख सकते जो प्रसिद्ध तो हो पर लक्ष्मी की उस पर भारी कृपा नहीं दिखाई देती हो।  अनेक गुरु तो ऐसे हैं जो अपने मंचों पर महिलाओं को इसलिये विराजमान करते हैं ताकि कुछ भक्त ज्ञान श्रवण की वजह से नहीं तो सौंदर्य की वजह से भीड़ में बैठे रहें।  हालांकि हम यह नहीं कह सकते कि वहां विराजमान सभी लोग उनके भक्त हों क्योंकि अनेक लोग तो समय पास करने के लिये इन धार्मिक कार्यक्रमों में जाते हैं। यह अलग बात है कि उनकी वजह से बढ़ी भीड़ का गुरु अपना प्रभाव बढ़ाने के लिये प्रचार करते हैं।

      कहने का अभिप्राय यह है कि आज हम जो देश के साथ ही पूर विश्व में नैतिक संकट देख रहे हैं उसके निवारण के लिये किसी भी धर्म के गुरु सक्षम नहीं है। जहां तक पाखंड का सवाल है तो दुनियां का कोई धर्म नहीं है जिसमें पाखंडियों ने ठेकेदारी न संभाली हो पर हैरानी इस बात की है कि सामान्य जन जाने अनजाने उनकी भीड़ बढ़ाकर उन्हें शक्तिशाली बनाते हैं। सच बात तो यह है कि अगर विश्व समाज में सुधार करना है तो लोगों अपने विवेक के आधार पर ही अपना जीवन बिताना चाहिये। ऐसा नहीं है कि सभी गुरु बुरे हैं पर जितने इतिहास में  प्रसिद्ध हुए  हैं उन पर कभी कभी कोई दाग लगते देखा गया होगा।

    इस गुरु पूर्णिमा के पावन पर्व पर सभी ब्लॉग लेखक मित्रों तथा पाठक को को हार्दिक बधाई। 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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विरला ही मिलता फरिश्ता-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


नारे कोई दियासलाई नहीं होते

जिनसे निकली चिंगारी

समाज में कोई बदलाव कर दे।

जिंदा रहने के लिये सभी संघर्षरत

संभव नहीं है

मतलबपरस्त इंसानों में

कोई ज़माने के लिये

वफा का भाव भर दे।

कहें दीपक बापू प्रेम का संदेश

सुनाते हुए प्रचार बहुत मिल जाता है,

दर्दनाक हादसों पर लगती भीड़

हमदर्दी दिखाते हर कोई हिल जाता है,

मिलता कभी  कोई ही विरले फरिश्ता

जो बिना दाम लिये

किसी का घाव भर दे।

————–

शिक्षा बन गयी व्यापार

विद्यालय सुविधाओं के

विज्ञापन और प्रचार पर चलते हैं।

पुस्तकें हो गयी सौदे की शय

छात्र अब पुत्र की तरह नहीं

ग्राहक की तरह पलते हैं।

अध्यापक सिखा और पढ़ा रहे

अंग्रेजी चाल का तरीका,

थोड़ा बहुत मनोरंजन का सलीका,

भविष्य में आनंद का सपना

छात्र गुलामी के सांचे में ढलते हैं।

कहें दीपक धर्म से परे शिक्षा

कभी समाज नहीं बना सकती

निकल आये हम भ्रम के मार्ग

अब अपनी करनी पर हाथ मलते हैं।

———————–

रैगिंग की प्रथा हिन्दू धर्म के सिद्धांतों प्रतिकूल-चाणक्य नीति और मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख


      भारत में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति अपनाये जाने के बाद समाज के कथित सभ्रांत ने समूह  रहन सहन और खान पान में ऐसी परंपराओं को जन्म दिया है जो उसे सामान्य लोगों से अलग करती है। एक तरह से कहा जाये तो धनिक वर्ग ने सामान्य समाज में सभ्रांत दिखने के लिये पाश्चात्य परंपराओं को इसलिये नहीं अपनाया कि वह वास्तव में सभ्य है वरन् स्वयं को श्रेष्ठ दिखने क्रे लिये उन्होंने वह अतार्किक व्यवहार अपनाया है जिसके औचित्य वर सामान्य लोग कुछ कह नहीं पाते।  इन्हीं परंपराओं में एक प्रथा है रैगिंग परंपरा जिसका निर्वाह विद्यालयों, महाविद्यालयों और छात्रावासों में वरिष्ठ छात्र कनिष्ठों को परेशान करने के लिये करते हैं।  यह परंपरा पहले भी थी पर उसका रूप इतना निकृष्ट नहीं था जितना अब दिखाई देता है।

      रैगिंग के दौरान वरिष्ठ छात्र कनिष्ठ छात्रों के साथ मजाक की परंपरा निभाने के लिये अत्यंत घृणित व्यवहार करते हैं-यह शिकायतें अब आम हो गयी है। इस तरह की घटनायें तब प्रकाश में आती हैं जब कोई छात्र अपनी जाने खो बैठता है।  दरअसल हमारी शिक्षा प्रणाली में आकर्षण लाने के लिये जिस व्यवसायिक भाव को अपनाया गया है उसमें अधिक से अधिक छात्र एकत्रित करने का प्रयास उस व्यापारी की तरह किया जाता है जो अपने सामान के लिये अधिक से अधिक ग्राहक चाहता है।  जब शिक्षा के क्षेत्र में राज्य का प्रभाव था तब तक कोई समस्या नहीं थी पर अब निजीकरण ने इस क्षेत्र को बेलगाम बना दिया है।  दूसरी बात यह कि निजी क्षेत्र में शिक्षा का स्वामित्व ऐसे लोगों के पास चला गया है जो धन, पद और बाहुबल के दम पर अपना काम चलाते हैं उनके यहां शिक्षक एक लिपिक से अधिक माननीय नहीं होता।  निजी क्षेत्र के शैक्षणिक संस्थान केवल शिक्षा का वादा नहीं करते वरन् वह खेल, मनोरंजन और नौकरी दिलाने तक की उन सुविधाओं का वादा करते हैं जिन्हें इतर प्रयास ही माना जा सकता है। उनके प्रचार विज्ञापनों में छात्रों को पाठ्यक्रम से अधिक सुख सुविधाओं की चर्चा होती है।

चाणक्य ने कहा है कि

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सुखार्थी वा त्यजेद्विधां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।

सुखार्थिन कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतोः सुखम्।।

     हिन्दी में भावार्थ-सुख की कामना वाले को विद्या औरं विद्या की कामना वाले को  सुख का त्याग कर देना चाहिये। सुख चाहने वाले को विद्या और विद्या चाहने वाले को सुख नहीं मिल सकता।

      आजकल मोबाइल, कंप्यूटर और वाहनों का प्रभाव समाज में इस तरह बढ़ा है कि हर वर्ग का सदस्य उसका प्रयोक्ता है। स्थिति यह है कि बच्चों को आज खिलौने  से अधिक उनके पालक मोबाइल, कंप्यूटर और वाहन दिलाने की चिंता करते हैं। अब तो यह मान्यता बन गयी है कि अच्छी सुविधा होगी तो बच्चा अधिक अच्छे ढंग से पढ़ सकता है। जबकि हमने आधुनिक इतिहास में ऐसे अनेक महापुरुषों के बारे में पढ़ा है जिन्होंने भारी कष्टों के साथ जीवन बिताते हुए शिक्षा प्राप्त करने के अपने प्रयासों से प्रतिष्ठा का शिखर पाया।

मनुस्मृति में कहा गया है कि

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द्यूतं च जनवादं च परिवादं तथाऽनृतम!।

स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्भावुपघातं परस्य च।।

     हिन्दी में भावार्थ-विद्यार्थी को चाहिये कि वह जुआ, झगड़े, विवाद झूठ तथा हंसीमजाक करने के साथ ही दूसरों को हानि पहुंचाने से दूर रहे।

शैक्षणिक गतिविधियों से इतर सुविधाओं ने छात्रों को इतना बहिर्मुखी बना दिया है कि जिस काल में एकांत चिंत्तन की आवश्यकता होती है उस समय वह  मनोरंजन में अपना समय बर्बाद करते हैं।  हमारा अध्यात्मिक दर्शन तो यह मानता है कि शिक्षा के दौरान अन्य प्रकार की गतिविधियां न केवल अनुचित हैं वरन् धर्मविरोधी भी हैं।  चाणक्य तथा मनुस्मृति में यह स्पष्ट कहा गया है कि शिक्षा की अवधि में छात्रों को सुख सुविधाओं से दूर रहना चाहिये।  इतना ही नहीं गुरुकुल या छात्रावासों में रहना जरूरी हो तो सभी का सम्मान किया जाये। जुआ, मनोरंजन, निंदा, झगड़े तथा विवादों से विद्यार्थियों को बचना चाहिये।  यह हमारी धार्मिक पुस्तकें स्पष्ट रूप कहती हैं पर हैरानी की बात है कि कथित धर्म प्रवचनकर्ता कभी रैगिंग के विरुद्ध टिप्पणी नहीं करते। वैसे उनका दोष नहीं है क्योंकि अगर उन्होंने रैगिंग को धर्म विरोधी कहा तो उनके विरुद्ध प्रचार यह कहते हुए शुरु हो जायेगा कि वह सांप्रदायिक हैं।  यही प्रचार माध्यम जो रैगिंग के वीभत्स समाचार देकर विलाप कर रहे हैं उसे धर्म विरोधी घोषित करने पर समर्थन देने लगेंगे और दावा यह करेंगे कि एक दो छोटी घटना पर रैगिंग को निंदित नहीं कहा जा सकता।

हम जैसे सामान्य लेखकों के पाठक कम ही होते हैं इसलिये इस बात की चिंता नहीं रहती कि कोई बड़ी बहस प्रारंभ हो जायेगी। दूसरी बात यह कि हम भारतीय अध्यात्मिक संदेशों के नये संदर्भों में चर्चा के लिये प्रस्तुत करते हैं तो अक्सर यह विचार आता है कि क्यों न ऐसा लिखा जाये जिससे लोग आकर्षित हों इसलिये यह सब लिखा दिया।  यह विचार इसलिये भी आया कि रैगिंग की घटनाओं से जब कुछ युवा जान गंवाते हैं तो तकलीफ होती है।  इसलिये हम चाहते हैं कि युवा वर्ग अपने प्राचीन अध्यात्मिक दर्शन का अध्ययन कर इस तरह की घटनाओं से बचे।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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जिंदगी में बदलते पलों का बयान-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं


पूरी जिंदगी का बखान क्या करें

यहां तो पल ही में माहौल बदल जाता है,

इंसान सुबह जाता है शवयात्रा में

शाम का बारात में जाने का आनंद पाता है।

कहें दीपक बापू किस पर खफा हों किसे करें सलाम,

रिश्ते मुंह फेर जाते अनजान लोग कर जाते काम

एक मंजिल के लिये जोड़ा कई लोगों ने वास्ता,

नये चेहरे आ जाते उधर पुराने बदल जाते हैं रास्ता,

कई लोगों ने फिर मिलने का वादा किया

क्या पहुंचते उनके पास जिनका पता बदल जाता है।

———–

शरीक के जख्म तो जाते हैं कभी न कभी,

दिल का दर्द ऐसा लगता जैसे चोट हुई हो अभी अभी।

कहें दीपक बापू लोग अपने जज़्बात नहीं समझते

दूसरों के क्या  समझेंगे

एक दूसरे को नीचे गिराने में लगे हैं सभी

————

स्वयं सुनाते हैं वह लोगों को अपनी जिंदगी की कथायें,

अपनी तारीफ खुद करें दर्द के लियेे गैरों पार आरोप लगायें।

कहें दीपक बापू यह विज्ञापन का दौर है

 लोगों की हमदर्दी हासिल करने के लिये

अपनी हालातों का बुरा बयान करना पड़ता है,

अपनी तरक्की पर हर कोई सीना फुलाता

पिछड़ने का दोष दूसरे पर मढ़ता है,

बड़े भाषण से कोई असर नहीं होता

लोगों की भीड़ अपने पास लाने के लिये

चलने फिरने की बजाय केवल नारे लगायें।

——–

जादू से किसी का पेट नहीं भरता

न ही बीमारी की दवा बनती है,

फिर भी सिद्ध बन गये हैं हमदर्दी के व्यापारी

 जिनकी मलाई छनती है।

कहें दीपक बापू अक्ल का कमरा बंद कर चुके लोग

वादों में बहक जाते

सच कहो तो उनसे लड़ाई ठनती है।

————–

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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पिछली यादों का बोझ ढोते लोग आराम नहीं कर सकते-विशेष रविवारीय लेख


      रविवार को जब किसी विशिष्ट रचना लिखने का मन होता है तब दिमाग में कोई एक विषय नहीं सूझता।  इस संसार में दो तरह के ही विषय होते हैं एक अध्यात्मिक दूसरा भौतिक!  अध्यात्मिक विषयों के ज्ञान के  विस्तार की धारा अंततः भौतिकता की तरफ ही जाती है क्योंकि हमारी आत्मा इस देह को धारण करती है इसलिये उनसे बचा जा नहीं सकता। यदि यह देह न हो तो अध्यात्मिक ज्ञान का लाभ भी कुछ नहीं होता।  इसलिये अध्यात्मिक ज्ञान का रथ भौतिक विषय की तरफ जाता ही है।  अंतर यह है कि भौतिक विषयों की जानकारी होने पर भी कोई मनुष्य सफल तो हो जाता पर अध्यात्मिक ज्ञान के बिना वह अपनी सफलता का आनंद नहीं पा सकता। एक सफलता उसे दूसरे लक्ष्य पाने की प्रेरणा देकर तनाव बढ़ा देती है।  इसके विपरीत अध्यात्मिक ज्ञानी को भौतिक विषय के लिये अलग से अभ्यास की कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि तत्वज्ञान होने पर ज्ञानी क्षेत्रज्ञ हो जाता है-यह स्वरूप श्रीमद्भागवत गीता के नियमित अध्ययन करने पर ही है-तब वह किसी प्रसंग के सामने आने पर संबंधित विषय को तत्काल समझ लेता है।  अध्यात्म ज्ञान में अंततः भौतिकता के मूल तत्व ही समझाये जाते हैं इसलिये किसी खास विषय के लिये अलग से किताब पढ़ने या अनुभव लेने की आवश्यकता नहीं होती। वैसे भी ज्ञान साधक के  लिये कोई सफलता न प्रसन्नता प्रदान करने वाली होती है न उसे कोई असफलता दुःख देती है।  देह के रहते हुए सांसरिक कर्म में लगकर ज्ञानार्जन और भक्ति भी करना है यही तत्वज्ञानी और साधक का लक्ष्य रह जाता है।

       मुख्य बात यह है कि तत्वज्ञानी और साधक दृष्टा हो जाता है।  मौन रहता है तो भी उसक चेहरा  कुछ बोलता दिखता है।  आंखें बंद कर ले तो भी वह कुछ देख रहा होता  है।  अध्यात्म का किताबी ज्ञान तो सभी को होता है पर अज्ञानी उसे बघारता है और ज्ञानी बिना पूछे कुछ बोलता नहीं है। भारत का अध्यात्म ज्ञान बाह्य रूप से अंततः उकताने वाला लगता पर जब हृदय में उसे धारण कर लिया जाये तब अत्यंत मनोरंजन देना वाला भी है। अज्ञानी बिना बोले रह नहीं पाता और ज्ञानी मौन होकर आनंद लेता है। सामान्य आदमी हर विषय में अपनी सक्रियता दिखाने को तत्पर रहता है कि कहीं उसे अज्ञानी न समझा जाये और ज्ञानी दर्शक की तरह संसार के पात्रों के अभिनय का आनंद लेता है। अपनी सक्रियता हमेशा दिखाने का लोभ वह संवरण कर लेता है। एक तरह से वह परमपिता परमात्मा के हाथ से बनी फिल्म का आनंद लेता है। बोलने के साथ ही अपनी ऊर्जा बरबाद करने पर आदमी क्षणिक आनंद लेने के बाद  थकहार बैठ जाता है।  ज्ञानी मौन रहकर दृष्टा की तरह कार्य करते हुए  आनंदित होता है।  वह थकता नहीं क्योंकि वह अपनी ऊर्जा निरर्थक बरबाद नहीं करता।

      श्रीमद्भागवत गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि तत्वज्ञान प्रारंभ में विषतुल्य लगता है पर जब उसे आत्मसात कर लें तब वही अमृतमय हो जाता है। सांसरिक विषयों में लिप्पतता प्रारंभ में अमृतमयी लगती है पर उसका परिणाम अत्यंत विषदायी होता है।  यही कारण है कि हम आज देखते हैं कि कोई सुखी नहीं है।  वजह यह है कि लोगों के पास अध्यात्म ज्ञान का अभाव है।  अपने मन को लुभाने के लिये कहां जायें? इसलिये वह सांसरिक विषयों में ही विचरते हैं।  फिल्म से ऊबे क्रिकेट में मन लगाया। क्रिकेट से ऊबे तो सामने टीवी पर आंखें गढ़ा दीं।  संसार में अपने मन और मस्तिष्क को व्यस्त रखने का एक ही रास्ता सभी के पास बचता है वह है पैसे कमाना।

       एक बात मजे की है कि लोग कहते हैं कि जब हम सांसरिक विषयों से निवृत होंगे तो भगवान का भजन करेंगे पर यह असंभव होता है।  सेवा या व्यवसाय से निवृत होकर लोग मंदिर जाते हैं पर उनका मन नहीं लगता।  उद्यानों की सैर करते हैं फिर  भी हृदय प्रसन्न नहीं होता।  पिछली यादों का बोझ लिये लोग अपनी बोरियत दूसरों पर डालकर ही जान बचाते हैं।  उनकी बात कोई न भी सुनना चाहे वह जबरन सुनाते हैं।

         दीपक बापू हमेशा की तरह एक मंदिर में गये।  मंदिर से बाहर आकर वह वहीं रखी एक बैंच पर ध्यान लगाने बैठे। उनके पास ही दूसरी बैच पर एक वृद्ध आदमी बैठा था।  उन्होंने दीपक बापू को प्रणाम किया तो उन्होंने भी हाथ जोड़कर जवाब दिया। थोड़ी देर बाद उस आदमी ने दीपक बापू से पूछा-‘‘आप यहां रोज आते हैं?’’

   दीपक बापू ने कहा-‘‘अक्सर, आना होता है।’

   उस आदमी ने कहा-‘‘मैं तो अब रोज यहां आता हूं। घर पर हम मियां बीबी अकेले रहते हैं।  दोनो बच्चे विदेशचले गये हैं।  अब दुकान बंद कर दी है। काम होता नहीं है।’

       दीपक बापू ने कहा-‘‘आप अच्छा करते हैं! मंदिरों में मन लग जाये तो एक तरह से आनंद आता ही है।’’

         अब तो वह आदमी शुरु हो गया-‘‘ मेरे दोनों बेटे और बहुऐं विदेश में बस गये हैं। मेरा एक बेटा विदेश में इंजीनियर है दूसरा डाक्टर है।  बहुओं में भी एक बड़ी कंपनी में अधिकारी है और एक बहुत एक बड़े प्रतिष्ठत शिक्षा संस्थान में प्राचार्य है।  हमारी बहु का प्राचार्य पद सबसे अधिक बड़ा है। उसका संस्थान विश्व प्रसिद्ध हैं!’’

           दीपक बापू ने पूछा-‘‘आपका स्वास्थ्य कैसा है?’’

    उस आदमी ने कहा-‘‘स्वास्थ्य ही तो अब साथ नहीं दे रहा।  यहां भी आकर परेशानी होती है। घर पर बैठो तो परेशानी!  मंदिर में आता जरूर हूं पर मन तो यहां भी नहीं लगता।’’

    दीपक बापू ने कहा-‘‘पहले भी मंदिर इसी तरह रोज आते रहे होंगे?’

     उस आदमी ने कहा-‘‘नहीं!  कभी कभार ही आते थे वह अपनी पत्नी के कहने पर!  तब इतना समय नहीं मिलता था।’’

    सच बात यह है कि अध्यात्म के प्रति आकर्षण अगर बचपन में पैदा नहीं हुआ तो बाद में उससे आनंद पाने की आशा करना बेकार है-लगभग

ऐसे ही जैसे बोये पेड़ बबूल का आम कहां से होय? हमारा हृदय और मस्तिष्क भी एक तरह से  जमीन ही है। अगर उसमें प्रारंभ में ही अध्यात्म ज्ञान के बीज न बोये तो फिर सांसरिक विषयों से अपनी इच्छा से संपर्क टूटे या जबरन धकियाये जायें तब अपने अंदर शांति को ढूंढना असंभव है। मौन रहना तब छूट ही जाता हैं। किसी के सामने न होने पर जुबान से शब्द भले न निकलें पर मन में फंसे अंदर बहुत शोर करते हैं।  ऐसे में जिन लोगों को बचपन से ही अध्यात्म के गुण मिल गये हैं और वह शांति के साथ जी रहे हैं उन्हें अपने गुरुजनों, माता पिता तथा परमात्मा का आभार मानना चाहिए।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप

ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

 

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