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इंद्रियों पर नियंत्रण रखने वाला ही गुरु-गुरु पूर्णिमा पर नया हिन्दी पाठ


                    आज 31 जुलाई 2015 गुरु पूर्णिमा का पर्व पूरे देश में मनाया जा रहा है। किसी भी मनुष्य के लिये अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिये अपनी  इंद्रियों को निरंतर सक्रिय रखना पड़ता है।  उसे दर्शन, श्रवण अध्ययन, चिंत्तन और मनन के साथ ही अनुसंधान कर इस संसार के भौतिक तथा अध्यात्मिक दोनों तत्वों का ज्ञान करना चाहिये।  भौतिक तत्वों का ज्ञान देने वाले तो बहुत मिल जाते हैं पर अध्यात्मिक ज्ञान समझाने वाले गुरु बहुत कठिनाई से मिलते हैं। यहां तक कि जिन पेशेवर धार्मिक प्रवचनकारों को गुरु माना जाता है वह भी धन या शुल्क लेकर उस श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान रटकर सुनाते हैं जो निष्काम कर्म का अनुपम सिद्धांत बताती है।  उनके दर्शन और और वचन श्रवण का प्रभाव कामनाओं की अग्नि में जलकर नष्ट हो जाता है।

                    ऐसे मेें अपने प्राचीन ग्रथों का अध्ययन कर ही ज्ञानार्जन करना श्रेष्ठ  लगता है। श्रीमद्भागवत गीता को अध्ययन करते समय यह अनुुभूति करना चाहिये कि हम अपने गुरु के शब्द ही पढ़ रहे हैं। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में गुरु की महिमा बताई गयी है पर पेशेवर ज्ञानी केवल दैहिक या भौतिक आधारों तक ही सीमित रखकर अपनी पूजा करवाते हैं। इस संबंध में हमारे एक आदर्श शिष्य के रूप में एकलव्य का उदाहरण हमेशा विद्यमान रहता  है, जिन्होंने गुरू द्रोणाचार्य की प्रस्तर प्रतिमा बनाकर धनुर्विद्या सीखी।  इसका सीधा अर्थ यही है कि केवल देहधारी गुरु होना ही आवश्यक नहीं है।  जिस तरह प्रतिमा गुरु बन सकती है उसी तरह पवित्र शब्द ज्ञान से सुसज्जित ग्रंथ भी हृदय से अध्ययन करने पर हमारे गुरु बन जाते हैं।  एक बात तय रही कि इस संसार में विषयों के विष का प्रहार अध्यात्मिक ज्ञान के अमृत से ही झेला जा सकता है और उसके लिये कोई गुरु-व्यक्ति, प्रतिमा और किताब होना आवश्यक है।

                    इस पावन पर्व पर सहयोगी ब्लॉग लेखक मित्रों, पाठकोें, फेसबुक और ट्विटर के अनुयायियों के साथ ही  भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा मानने वाले सभी सहृदय जनों को हार्दिक बधाई।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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समाज की समस्याओं के मूल तत्व जानना जरूरी-हिन्दी चिंत्तन लेख


                                                आज के समाज का संकट के सामने क्यों खड़ा है इस पर कोई शोध नहीं करता। हर कोई अपना बखान कर रहा है पर सार्थक चर्चा नहीं हो्र पाती। बहुत समय पहले एक मित्र ने कहा था कि इस देश की सबसे बड़ी समस्या यह है कि भले काम का ठेका भी ऐसे लोग ले रहे हैं जो कभी यह सोचते भी नहीं कि किसी का भला करना चाहिये।

                              यह हमें बात इतनी सही लगी कि हमारे लेखन का अभिन्न हिस्सा बन गयी।  वह मित्र हमसे उम्र में करीब पंद्रह वर्ष बड़ा था पर लेखक होने के नाते अक्सर चर्चा होती थी। उसने ही यह भी समझाया था कि हमें किसी भी विषय पर केवल प्रचार माध्यमों में आधिकारिक रूप से प्रकाशित हो रही खबरों को जस की तरह नहीं मान लेना चाहिये।  दूर की छोड़ो  अपने ही इर्दगिर्द अनेक ऐसे आपराधिक घटनायें  देख सकते हैं जिनके बारे में हमारी जानकारी इन प्रचार माध्यमों से दी गयी आधिकारिक सूचना से अलग होती है। हमारे एक गुरु जो पत्रकार थे उन्होंने भी करीब करीब यही बात कही थी।  इन दोनों महानुभावों की वजह से हम किसी भी घटना पर वैसा नहीं सोचते जैसा कि अन्य करते हैं।

                              हम अब तो अपनी सोच का विस्तार यहां तक देख रहे हैं कि निहायत पाखंडी लोग भलाई के व्यापार में लगे हुए है और विज्ञापन तथा प्रचार के सहारे सामान्य समाज में अपनी छवि धवल बनाते हैं।  उससे भी बड़ी समस्या यह कि भले लोग भय से इन्हीं कथित धवल छवि वालों की अदाओं पर तालियां बजाते हैं।  वह मौन भी नहीं रहते इस आशंका से कहीं इन दुष्टों की पता नहीं कब जरूरत पड़ जाये।  हमारे यहां समाज का वातावरण ही ऐसा हो गया है कि लोग भले लोगों की संगत में समय खराब करने की बजाय दुष्टों को दबंग मानकर उनके प्रति सद्भाव दिखाते हैं।

                              कहा जाता है कि हमारे समाज का संकट यह नहीं कि दुष्ट सक्रिय हैं वरन् यह भी है कि सज्जन लोग निष्क्रिय हैं।  वैसे तो यह भी देखा  जाता है कि सज्जन लोगों का संगठन सहजता से नहीं बनता जबकि दुष्ट लोग स्वार्थ के आधार पर जल्दी संगठन बना लेेते हैं। संभवतः यह मानवीय स्वभाव है कि स्वार्थ से लोग एक दूसरे से सहजता से जुड़ जाते हैं और परमार्थ के समय सभी अकेले होते हैं।  हालांकि आजकल भौतिकता के प्रभाव के कारण लोगो की चिंत्तन क्षमता केवल संपन्न और प्रतिष्ठित लोगों की तरफ केंद्रित हो गयी है। कोई किसी क चरित्र पर विचार नहीं करता और यही समाज के संकट का कारण है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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खेल और बेईमानी-हिन्दी व्यंग्य कविता


कमीज पर लगे

दाग मिटाने के लिये

 रोज नया रंग लगाते हैं।

चरित्र पर लगे

दाग छिपाने के लिये

चाल का ढंग बदल आते हैं।

कहें दीपक बापू अपनी आदत से

लाचार होते चालाक लोग

हालातों के हिसाब से

कभी दिखाते स्वयं को नायक

कभी आम इंसान के रूप में

भीड़ के संग बदल जाते हैं।

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कहीं खेल में बेईमानी

कहीं बेईमानी के भी

खेल होते हैं।

कहीं खिलाड़ी लगा जुआ में

कहीं जुआरी लगा खेल में

दोनों में बहुत सारे आपसी

घालमेल होते हैं।

कहें दीपक बापू बरसों गंवाये

खेल देखते हुए

पता लगा जुआ देख रहे थे,

जीत हार का फैसला

पहले तय हुआ देख रहे थे,

पैसे की माया है

असल के भी नकली खेल होते हैं

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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आर्थिक सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र में स्वेदशी सिद्धांत ही अपनाना बेहतर-हिन्दी चिंत्तन लेख


                              विश्व में अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं के दबाव में जब से कथित उदारीकरण का दौर प्रारंभ हुआ है तब से अनेक देशों पर जनकल्याण कार्यों से दूर हटने का दबाव बढ़ गया है। ग्रीस यानि यूनान यानि दुनियां की प्राचीन सभ्यताओं में भारत के समकक्ष देश ने अंतर्राष्ट्रीय दबाव के बावजूद अपनी अर्थव्यवस्था में बदलाव करने से इंकार कर दिया है।  वहां की जनता ने जनमत संग्रह में अपनी सरकार का समर्थन कर यह साबित किया कि वह विश्व से अलग रहना स्वीकार कर सकती है पर अपनी राज व्यवस्था को अस्थिर नहीं कर सकती।  इधर चीन की अर्थव्यवस्था को लेकर भी अनेक संदेह पैदा हो गये हैं क्योंकि वहां का शेयर बाज़ार ढह गया है।

                              हमारा हमेशा मानना रहा है कि भारतीय समाज, अर्थतंत्र तथा धार्मिक व्यवस्था कभी विदेशी सिद्धांतों पर नहीं चल सकती। भारत में राज्य व्यवस्था प्रजा हित के लिये मानी जाती है जबकि पश्चिमी विचारधारायें समाज को टुकड़ों में बांटकर उनका हित करने के सिद्धांत पर आधारित हैं।  अब वह समय आ गया है कि भारत के आर्थिक, रणनीति तथा धार्मिक क्षेत्र पर नियंत्रण करने वाले विद्वान स्वदेशी नीतियों पर विचार करना प्रारंभ कर दें। अनेक सामाजिक तथा इतिहास विशेषज्ञ यूनान और भारतीय सभ्यता को प्राचीन तथा वैज्ञानिक मानते हैं।  यह अलग बात है कि अर्थ, धर्म, कला तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में व्यवसायिक प्रवृत्ति के लोगों ने अनेक बदलाव कर दोनों सभ्याताओं को नष्ट करने का प्रयास किया है। इतना ही संयुक्त राष्ट्र संघ कहने के लिये ही निष्पक्ष है पर उसकी गतिविधियों में  अमेरिका का दबाव स्पष्टतः दिखता है जो विभिन्न देशों पर अनुचित दबाव के रूप में प्रकट होता है।  इतना ही नहीं एक धर्म विशेष के प्रति उसका रुझान भी देखा गया है।

                              देखा जाये तो धर्म का संबंध केवल आचरण से है पर पश्चिम के अनेक लोगों ने सर्वशक्तिमान का मध्यस्थ होने के नाम पर लोगों की बुद्धि हरण करने के लिये व्यवसायिक तथा राजनीतिक दोहन के लिये अव्यवहारिक सिद्धांतों का निर्माण किया। मूलतः राजसी प्रवृत्तियों पर आधार इन पश्चिमी विचारधाराओं में राजा, व्यापारी और अस्त्र शस्त्रधारी को ही समाज का नियंत्रण करने का अधिकार सौंपा गया। जबकि हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार हर मनुष्य को स्वविवेक से जीवन जीने का अधिक है।

हमारे देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है।  अध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली समुदाय यहीं है पर सबसे बड़ी कमी आत्मविश्वास की है जिसके कारण यह पाश्यात्य सभ्यता को पांव पसारने का अवसर मिला है। जिस तरह विश्व में उथल पुथल मची है उसे देखते हुए भारत में अब स्वदेशी आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक विचाराधारा की राह पर चलने का निर्णय लेना ही चाहिये।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

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