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लेखक लिखने के ही नहीं पढने के भी भूखे होते हैं-आलेख


क्या लेखक केवल लिखने के ही भूखे होते हैं? अधिकतर लोग शायद यही कहेंगे कि ‘हां’। यह बात नहीं है। सच तो यह लेखक को अपने लिखते समय तो मजा आता है पर लिखने के बाद फिर वह उसका मजा नहीं ले पाता। वह किसी का दूसरा लिखा पढ़ना चाहता है। उसमें भी यह इच्छा बलवती होती है कि किसी दूसरे का लिखा पढ़कर वह मजा ले। ऐसे में जब उसे कहंी मनोमुताबिक नहीं पढ़ने को मिलता तो फिर उसके अंदर तमाम तरह के विचार आते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वह नये विषयों पर नये ढंग से विचार करने की मांग नये लेखकों से करता है। कहीं कुछ लेखक पुराने साहित्य को आगे लाने की बजाय नये प्रकार का साहित्य रचने का आग्रह नयी पीढ़े से करता है। यह किसी लेखक की पाठकीय भूख का ही परिणाम होता है।

अक्सर कुछ मूर्धन्य लेखक संभवतः अपनी बात ढंग से नहीं कह पाते और आलोचना का शिकार हो जाते हैं। आप कहेंगे कि आखिर मूर्धन्य लेखक कैसे अपनी बात नहीं कह पाते? वह तो भाषा में सिद्धहस्त होते हैं। नहीं! मन की बात उसी तरह बोलना या लिखना हर किसी के लिये संभव नहीं होता पाता। अगर हो भी तो यह जरूरी नहीं है कि वह समय पर उसी तरह कहा गया कि नहीं जैसे उनके मन में हैं।

भारत में हिंदी भाषा एक आंदोलन की तरह प्रगति करती हुई आई है। मजेदार बात यह है कि शायद यह विश्व की एकमात्र भाषा है जिसमें अध्यात्म और साहित्य एक ही श्रेणी में आ जाते हैं। हिंदी भाषा का स्वर्णकाल तो भक्तिकाल को ही माना जाता है क्योंकि इस दौरान ऐसा साहित्य जो न केवल मनभावन था बल्कि अध्यात्म रूप से भी उसका बहुत बड़ा महत्व था। इसके बाद के साहित्य ने हिंदी भाषा के विकास में अपना योगदान तो दिया पर उसका विषय प्रवर्तन समसामयिक परिस्थतियों के अनुसार होने के कारण उसमें आगे इतना महत्व नहीं रहा। फिर भारत के अधिकतर लोग वैसे ही अध्यात्म प्रवृत्ति के होते हैं इसलिये उनकी जुबान और दिल में भक्तिकाल का ही साहित्य बसा हुआ है। सूर,कबीर,रहीम,मीरा,और तुलसी जैसे लेखकों को लोग संत की तरह आज भी सम्मान देते हैं। सच कड़वा होता है और इसका एक पक्ष यह भी हे कि जैसी रचनायें इन महान लोगों ने जीवन रहस्यों को उद्घाटित करते हुए प्रस्तुत कीं उससे आगे कुछ बचा भी नहीं रहता लिखने के लिये।

आधुनिक हिंदी में अनेक लेखक हुए हैं पर उनको वह सम्मान नहीं मिल सका। इसका कारण यह भी है कि कहानियां, कवितायें,व्यंग्य,निबंध जो लिखे जाते हैं उनको तत्कालीन समाज को दृष्टिगत रखते हुए विषय प्रस्तुत किया जाता है। समय और समाज में बदलाव आने पर ऐसी रचनायें अपना महत्व और प्रभाव अधिक नहीं रख पातीं। ऐसे में जिन लेखकों ने अपना पूरा जीवन हिंदी साहित्य को दिया उनके अंदर यह देखकर निराशा का भाव आता है जिससे वह उन महान संत साहित्यकारों की रचनाओं से परे रहने का आग्रह करते हैं। इसके पीछे उनका कोई दुराग्रह नहीं होता बल्कि वह नहीं चाहते कि नयी पीढ़ी लिखने की उसी शैली पर दोहे या सोरठा लिखकर स्वयं को उलझन में डाले। इसके पीछे उनकी पाठकीय भूख ही होती है। वह चाहते हैं कि नये लेखक लीक से हटकर कुछ लिखें। देखा यह गया है कि अनेक लेखक भक्ति काल से प्रभावित होकर दोहे आदि लिखते हैं पर विषय सामग्री प्रभावपूर्ण न होने के कारण वह प्रभावित नहीं कर पाते। फिर दोहे का उपयोग वह हास्य या व्यंग्य के रूप में करते हैं। एक बात यह रखनी चाहिये कि भक्ति काल में जिस तरह काव्य लिखा गया उसके हर दोहे या पद का एक गूढ़ अर्थ है और फिर उनको व्यंजना विधा में लिखा गया। हालांकि अनेक दोहे और पद अच्छे लिख लेते हैं पर पाठक के दिमाग में तो भक्तिकाल के दोहे और पद बसे होते हैं और वह इसलिये वह नवीन रचनाकारों के दोहों और पदों को उसी शैली में देखता है। इस तरह देखा जाये तो लेखक अपनी मेहनत जाया करते हैं। एक तो पाठक काव्य को लेकर इतना गंभीर नहीं रहता दूसरा यह है कि लेखक ने गंभीरता से महत्वपूर्ण विषय लिया होता है वह भी उसमें नहीं रह जाता। शायर अनेक बड़े लेखकों के दिमाग में यह बातें होती हैं इसलिये ही वह भक्ति काल के साहित्य से पीछा छुड़ाने की सलाह देते हैं। मगर हम यह जो बात कर रहें हैं वह अंतर्जाल के बाहर की बात कर रहे हैें

अंतर्जाल पर हिंदी का रूप वैसा नहीं रहेगा जैसा कि सामान्य रूप से रहा है। कुछ लोगों को काव्य लिखना बुरा लगता है पर अंतर्जाल पर अपनी बात कहने के लिये बहुत कम शब्दों का उपयोग करना पहली शर्त है। एक व्यंग्य या कहानी लिखने के लिये कम से कम पंद्रह सौ शब्द लिखने पड़ते हैं पर अगर अंतर्जाल पर लिखेंगे तो तो पढ़ने के लिये पाठक तैयार नहीं होंगे। सच तो यह है कि अंतर्जाल पर तुकबंदी बनाकर कविता लिखना ज्यादा बेहतर है एक बड़ा व्यंग्य में समय बर्बाद करने के। यहां बड़ी कहानियों की बजाय लघुकथा या छोटी कहानियों से काम चलाना पड़ेगा। फिर मौलिक लेखन कोई आसान काम नहीं है। इसलिये कुछ लेखक पुराने साहित्यकारों की बेहतर रचनाओं को यहां लाने का प्रयास करेंगे। तय बात है कि भक्तिकाल का साहित्य उनको इसके लिये एक बेहतर अवसर प्रदान करेगा क्योंकि कम शब्दों में अपनी बात कहने का जो सलीका उस समय था वह अंतर्जाल के लिये बहुत सटीक है।

ऐसे में अंतर्जाल पर हिंदी रचनाओं की शैली,भाषा,विषय और प्रस्तुतीकरण को लेकर अंतद्वंद्व या चर्चा का दौर हमेशा ही चलता रहेगा। किसी एक की बात को मानकर सभी उसी की राह चलें यह संभव नहंी है। फिर वाद विवाद तो हिंदी में अनेक हैं पर मुख्य बात है प्रभावी लेखन और यहां पाठक ही तय करेंगे कि कौन बेहतर है कौन नहीं। सबसे बड़ी बात यह है कि ब्लाग लेखन एक स्वतंत्र प्रचार माध्यम है और इसे नियंत्रित कर आगे बढ़ाने का प्रयास करना संभव नहीं है पर एक आशंका हमेशा रहती है कि जब यह लोकप्रिय होगा तब इस पर नियंत्रण करने का प्रयास होगा क्योंकि दावे तमाम किये जाते हैं पर बौद्धिक वर्ग पर अन्य वर्ग हमेशा नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास करते है और बौद्धिक वर्ग के ही स्वार्थी तत्व इसमें सहायता करते हैं इस आशय से कि उनका अस्तित्व बचा रहे बाकी डूब जायें।
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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रहीम के दोहे:बकवास करे जीभ, जूते खाए सिर


रहिमन जिह्म बावरी, कही गइ सरग पाताल
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल

कविवर रहीम कहते हैं कि इस मनुष्य के बुद्धि बहुत वाचाल है. वह स्वर्ग से पाताल तक का अनाप-शनाप बककर अन्दर चली जाती है पर अगर उससे लोग गुस्सा होते हैं तो बिचारे सिर को जूते खाने पड़ते हैं.

भावार्थ-यहाँ संत रहीम चेता रहे हैं कि जब भी बोलो सोच समझ कर बोलो. कटु वचन बोलना या दूसरे का अपमान करने पर मार खाने की भी नौबत आती है. इसलिए किसी को बुरा-भला कहकर लांछित नहीं करना चाहिए.

रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि
गाँठ युक्ति की खुलि गयी, अंत धूरि को धूरि

संत रहीम कहते हैं ठहरी हुई धूल हवा चलने से स्थिर नहीं रहती, जैसे व्यक्ति की नीति का रहस्य यदि खुल जाये तो अंतत: सिर पर धूल ही पड़ती है.

भावार्थ-श्रेष्ठ पुरुष अपने अपने हृदय के विचारों को आसानी से किसी के सामने प्रकट नहीं करते. यदि उनके नीति सबंधी विचार पहले से खुल जाएं तो उनका प्रभाव कम हो जाता है और उन्हें अपमानित होना पड़ता है.

रहीम के दोहे:बन्दर कभी हाथी नहीं हो सकता



बडे दीन को दुख सुनो, लेट दया उर जानि
हरी हाथी सों कब हुतो, कहू रहीम पहिचानि
कवि रहीम कहते हैं. महान पुरुषों के हृदय में दुखी व्यक्ति की कातर वाणी सुनकर दया का संचार हो जाता है, परन्तु बन्दर कब हाथी हो सकता है? इस बात को समझ लें.
भावार्थ-उनका आशय यह है किस संसार में अपने हितैषी की पहचान में सतर्कता बरतनी चाहिए. जो मदद करने वाले होते हैं वह आदमी का दर्द सुनते ही मदद करते हैं. कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बातें बहुत बड़ी-बड़ी करते हैं और उछल कूद इस तरह करते हैं जैसे की बहुत कार्य कुशल हों पर वास्तव में किसी काम के नहीं होते-केवल बातों के ही होते हैं.

बिगरी बात बनाईं नहीं, लाख करू किन कोय
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय

कवि रहीम कहते हैं की दूध के फटने से मक्खन नहीं निकल सकता. इस प्रकार जो बात एक बात बिगड़ जाती है, वह फिर से बन नहीं पाती, चाहे आदमी कितना भी यत्न कर ले.

भावार्थ-हर व्यक्ति को अपने व्यवहार में सतर्कता बरतनी चाहिए-क्योंकि एक बार बात बिगड़ जाती है तो फिर उसे बनाना मुश्किल है. सभी से प्रेम और मधुर वाणी का व्यवहार करना चाहिए, अगर किसी के मन में एक बार विद्वेष आ गया तो फिर उसे दूर करना मुश्किल होगा.

रहीम के दोहे:कपटी की संगत से भारी शारीरिक हानि


रहिमन लाख भली करो, अगुनी अगुन न जाय
राग सुनत पय पियत हू, सांप सहज धरि खाय

कविवर रहीम कहते हैं की असंख्य भलाई करे, परन्तु गुणहीन व्यक्ति का अवगुण नष्ट नहीं होता जैसे संगीत सुनते और दूध पीते हुए भी सर्प सहज भाव से व्यक्ति को काट लेता है.

रहिमन यहाँ न जाईये, जहाँ कपट को हेत
हम तन ढारत ढेकुली सींचत अपनों खेत

कविवर रहीम का कथन है वहाँ कदापि न जाईये, जहाँ प्रेम में कपट, छल छिपा हो. हमारे शरीर को तो वह कपटी सिंचाई के लिए कूएँ से पानी निकालने वाल यंत्र बना डालेगा और उससे अपना खेत सींच लेगा.

रहीम के दोहे:सूखे तालाब से प्यास नहीं बुझती


तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास

कविवर रहीम कहते हैं की सूखे तालाब पर जाने से प्यास शांत नहीं हो सकती. उसी प्रकार उसी व्यक्ति से आशा की जा सकती है जिसके पास कुछ हो.

भावार्थ-इससे आशय यह है कि अगर किसी की पास धन-धान्य या अन्य साधन है उसी से से किसी प्रकार की कोई आशा की जा सकती है, इसलिए अपने लोगों के सदैव संपन्न होने की दुआ करना चाहिऐ.

तेहि प्रमान चलिबो भलो, जो सब दिन ठहराइ
उमडि चलै जल पर ते, जो रहीम बढ़ी जाइ

कवि रहीम कहते हैं कि जीवन में प्रतिदिन ठहराव होना चाहिऐ, नदी के उस पानी की तरह नहीं जो बढ़ जाने पर नदी के तट को तोड़कर बाहर निकल जाता है और व्यर्थ हो जाता है तो उसी हिसाब से चलना चाहिऐ जिससे जीवन धन्य हो सके.