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देशप्रेम की आड़ में साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का मनोरंजन-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन


प्रचार माध्यम लगातर बता रहे हैं कि मोहाली में भारत पाकिस्तान के बीच क्रिकेट का महामुकाबला हो रहा है। कुछ लोग तो उसे फायनल तक कह रहे हैं। बाज़ार के सौदागर और उनके अनुचर प्रचार माध्यम इस मुकाबले के नकदीकरण के लिये जीजान से जुट गये हैं। दरअसल यह क्रिकेट पीसीबी  (pakistan cricket board) और बीसीसीआई (bhartiya cricket control  board) नामक दो क्लबों की टीमों का मैच है। पीसीबी पाकिस्तान तथा बीसीसीआई भारत की स्वयंभू क्रिकेट नियंत्रक संस्थाऐं जिनको अंतर्राष्ट्रीय क्र्रिकेट परिषद नामक एक अन्य संस्था लंदन से नियंत्रित करती है। यह सभी संस्थायें किसी सरकार ने बनाई जिनको देश का प्रतिनिधित्व करने वाला माना जाता है। यह सरकारें इन संस्थाओं पर अपना कोई विचार लाद नहीं सकती क्योंकि यह अंतर्राष्ट्रीय खेल नियमों पर चलती हैं।
कहते हैं कि ‘झूठ के पांव नहीं होते हैं’। साथ ही यह भी कहा जाता है कि एक ही झूठ सौ बार बोला जाये तो वह सच लगने लगता है। पुराने कथनों कें ऐसे विरोधाभास ही उनके सतत चर्चा का कारण बनते हैं। जहां जैसा देखो पुराना कथन दोहरा दो। अब हम कहते हैं कि एक झूठ हजार बार बोलो तो वह महान सत्य और लाख बार बोलो तो शाश्वत सत्य हो जाता है। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों का समाज पर ऐसा जबरदस्त प्रभाव है कि उनकी बात की काट करना लगभग असंभव है और उनके फैलाये जा रहे भ्रम देखकर तो यही लगता है कि पुरानी ढेर सारी कहानियां भी शायद ऐसे ही कल्पना के आधार पर लिखी गयीं और उनके सतत प्रचार ने उनको ऐसा बना दिया कि लोग उसमें वर्णित नायकों तथा नायिकाओं को काल्पनिक कहने पर ही आपत्ति करने लगते हैं।
अब तो हद हो गयी है कि प्रचार माध्यमों ने एक खिलाड़ी को क्रिकेट का भगवान बना दिया जिसका प्रतीक बल्ला है। हमें इस पर भी आपत्ति नहीं है। वैसे कुछ मित्र समूहों में जब इस पर आपत्ति की तो मित्रगण नाराज हो गये तब तय किया कि यह आपत्ति बंद करना चाहिए। दूसरे की आस्था पर चोट पहुंचाने की क्रिया को हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तामस बुद्धि का प्रमाण मानता हैै। हमने बंद किया पर क्रिकेट के भगवान के भक्तों ने हद ही पार कर दी। उसके चलते हुए बल्ले की तुलना भगवान श्रीराम के टंकारते हुए धनुष तथा भगवान श्रीकृष्ण के घूमते हुए चक्र से कर डाली। हमें इस पर गुस्सा नहीं आया पर आपत्ति तो हुई। हमारा कहना है कि जब तुम्हारे क्रिकेट भगवान क पास बल्ला है तो उसके साथ धनुष तथा चक्र क्यों जोड़ रहे हो? भगवान श्रीराम तथा श्रीकृष्ण का नाम क्यों जोड़ रहे हो?
यह प्रयास ऐसा ही है जैसे कि एक झूठ को लाख बार बोलकर शाश्वत सत्य बनाया जाये। यह झूठ को पांव लगाने का यह एक व्यर्थ प्रयास है। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण का नाम एक कृत्रिम भगवान को पांव लगाने की कोशिश से अधिक कुछ नहीं है। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने न तो अपने कर्म की फीस ली और न ही विज्ञापनों में अभिनय किया। सांसरिक रूप से दोनों त्यागी रहे। उनके भगवान तो फीस लेकर खेलते हैं, विज्ञापन में बताते है कि अमुक वस्तु या सेवा उपयोगी है उस पर पैसा खर्च करें। क्रिकेट के भगवान की छवि भोग, अहंकार तथा मोह को बढ़ाने वाली है और जिन भगवान श्रीराम तथा कृष्ण का वह नाम लेकर उसे चमका रहे हैं वह त्याग का प्रतीक हैं।
हैरानी की बात है कि किसी ने इस आपत्ति नहीं की। किसी वस्तु पर भगवान की तस्वीर देखकर लोग अपनी आस्था का रोना लेकर बैठ जाते हैं। किसी भारतीय भगवान का चेहरा लगाकर कोई नृत्य करता है तो उस पर भी आवाजें उठने लगती हैं। तब ऐसा लगता है कि हम भारतीय धर्म को लेकर कितना सजग हैं। जब किसी की क्रिकेट खिलाड़ी या फिल्म अभिनेता के साथ भगवान का नाम जोड़ा या कामेडी शो मे अध्यात्मिक के भगवान का नाम आता है तब सभी की जुबान तालु से क्यों चिपक जाती है? सीधा जवाब है कि धार्मिक उन्माद बढ़ाने वाला भी यह बाज़ार है जो ऐसे अवसरों पर पैसा खर्च करता है तो उनका उपयोग करने वाला भी यही बाज़ार है। बाज़ार और उसके प्रचारतंत्र के जाल में आम आदमी अपनी बुद्धि सहित कैद है भले ही अपने अंदर चेतना होने का वह कितना दावा करे। आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में आंदोलन, अभियान तथा आंतक का आधार ही अर्थ है। यह अलग बात है कि अज्ञानी लोग उसमें धर्म, जाति, भाषा तथा क्षेत्रीय आधार पर उनका विश्लेषण करते हैं। वैचारिक समंदर में लोग उथले जल में ही तार्किक उछलकूद करते नज़र आते हैं।
पाकिस्तान के नाम से खेलने वाली पीसीबी तथा भारत के नाम से खेलने वाली बीसीसीआई की टीमों के मैच में देशभक्ति का दांव लगता है। अपने अध्यात्मिक दर्शन से दूर लोग इस मैच के प्रति ऐसे मोहित हो रहे हैं जैसे कि इससे कोई बहुत बड़ा चमत्कार सामने आने वाला है। मैच को जंग बताकर दोनों तरफ से बोले जा रहे वाक्यों को तीर या तलवार की तरह चलता दिखाया जा रहा है। भविष्यवक्ता अपने अपने हिसाब से भविष्यवाणी बता रहे हैं। मतलब प्रयास यही है कि क्रिकेट के नाम पर अधिक से अधिक पैसा लोगों की जेब से निकलवाया जाये। हैरानी की बात है कि एक तरफ कुछ खिलाड़ियों पर क्रिकेट मैचों में सट्टेबाजों से मिलकर खेल तथा परिणाम प्रभावित करने के आरोप लगते हैं। एक चैनल ने तो यह भी कहा है कि मोहाली का भारत पाकिस्तान मैच भी फिक्स हो सकता है। इसके बावजूद लोग मनोरंजन के लिये यह मैच देखना चाहते हैं। भारतीय दर्शक पीसीबी की टीम को अपनी टीम से हारते देखना चाहते हैं। यह मनोरंजन है यह मन में मौजूद अहंकार के भाव से उपजी साम्राज्यवादी प्रवत्ति है। हां, अपने कुल, शहर, प्रदेश तथा देश को विजेता देखने की इच्छा साम्राज्यवादी की प्रवृत्ति नहीं तो और क्या कही जा सकती है। कुछ लोग इसे देशभक्ति कहते हैं पर तब यह सवाल उठता है कि जिन भारतीयों को फिक्सिंग का दोषी पाया गया उनका क्या किया? देश के नाम से खेले जा रहे मैच में हार की फिक्सिंग करना आखिर क्या कहा जाना चाहिए? हम यहां देशद्रोह जैसा शब्द उपयोग नहीं कर सकते क्योंकि हमारा मानना है कि यह एक मनोरंजन का व्यापार है और उसमें देश, जाति, भाषा या धार्मिक समूहों के सिद्धांत लागू नहीं होते।
हमने इसे मनोरंजन का व्यापार भी इसलिये कहा क्योंकि जब मैचों के इनाम बंटते हैं तब उद्घोषक बताते हैं कि इसमें अमुक खिलाड़ी ने दर्शकों का ढेर सारा मनोरंजन किया। तब मनोरंजन में देशप्रेम जैसा शब्द ठीक नहीं लगता। एक चैनल तो बता रहा था कि ‘26/11 के बाद पहली बार पाकिस्तानी टीम भारत पहुंची है।’
हम अक्सर देखते हैं कि कोई आदमी कोई उपलब्धि पाकर घर लौटता है तो शहर के लोग उसका स्वागत करने पहुंचते हैं और कहते हैं कि ‘वह कामयाबी के बाद पहली बार घर आ रहा है।’
तब क्या यह माने कि 26/11 को मुंबई में हुई हिंसा ऐसा वाक्या है जिसका श्रेय पाकिस्तानी यानि पीसीबी की टीम को जाता है और मोहली पहुंचने पर उनका अभिनंदन किया गया। देश में क्रिकेट जुनून नहीं जुआ और सट्टा की गंदी आदत है जिससे क्रिकेट खेल के माध्यम से भुनाया जा रहा है मगर इसका मतलब यह नहीं कि जोश में आकर कुछ भी कहा दिया जाये। इसमें कोई संशय नहीं है कि 26/11 का हादसा भयानक था और पीसीबी की क्रिकेट टीम को उससे नहीं जोड़ना चाहिए। हम भी नहीं जोड़ते पर यह काम तो उसी बाज़ार के वही प्रचाकर कर रहे हैं जो आजकल के क्रिकेट से जमकर पैसा कमा रहे हैं।
यकीनन साम्राज्यवाद की प्रवृत्ति मनोरंजन करते हुए भी मन में रहती है यह बात अब समझ में आने लगी है। लोग पाकिस्तानी या पीसीबी की क्रिकेट टीम को हारते देखना चाहते हैं कि उसके प्रति दुश्मनी का भाव रखते है, मगर फिल्मों में पाकिस्तानी गायकों को सुनते हैं। टीवी चैनलों पर पाकिस्तानी अभिनेता और अभिनेत्रियां आकर छा जाते हैं तब देशप्रेम कहां चला जाता है। उस यही बाज़ार और प्रचारक मित्रता का गाना गाने लगते हैं। आम आदमी में चिंतन क्षमता की कमी है और वह वही जाता है जहां प्रचारक उसे ले जाते हैं। मनोरंजन में साम्राज्यवाद की प्रवृत्ति उसे इस बाज़ार का गुलाम बनाती है जो कभी दुश्मन तो कभी दोस्त बनने को मज़बूर करती है।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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होली पर प्रचार माध्यमों का शुतुरमुर्गीय दृष्टिकोण का मजाक-हिन्दी व्यंग्य लेख (ostrichma on libiya episod-hindi satire article)


दुनियां के पांच बड़े देशों में से तीन ने-अमेरिका, फ्रांस, और ब्रिटेन-अपने मित्र देशों के साथ मिलकर लीबिया पर हमला कर दिया है। अगर भारत में होली का पर्व नहीं होता तो आज शायद यही विषय चर्चा के केंद्र में रहता-कम से कम हम जैसे फोकटिया दर्शकों और चिंतकों का तो यही मानना है। जिन दो बड़े देशों ने इस हमले से पहले लीबिया से मुंह फेरा है वह एक चीन दूसरा रूस। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में लीबिया पर हमले के लिये हरी झंडी दिलाने वाले प्रस्ताव पर यह दोनों देश अपने मित्रों के साथ अनुपस्थित रहे जबकि कुछ दिनों पहले तक दोनों ही गद्दाफी और लीबिया को राजनीतिक तौर से खुला समर्थन दे रहे थे।
भारतीय समाचार पत्रों, चैनलों तथा बुद्धिमान लोगों की पूरी खुफियगिरी धरी की धरी रह गयी। इस हमले से पहले किसी ने ऐसे हमले का अनुमान नहीं बताया गया। इधर सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव पास हुआ और उधर मित्र देश हमले के लिये चल पड़े और बमबारी शुरु कर दी। लीबिया की आम जनता के कथित यह पक्षधर वहां सामान्य नागरिक को नहीं मारेंगी इसकी कोई गारंटी नहीं है। भारतीय समाचार पत्र पत्रिकाऐं तथा टीवी चैनल होली और क्रिकेट से फुरसत नहीं पा सके। क्या करें, दिन को चौबीस घंटे से बढ़़ाकर अड़तालीस का नहीं कर सकते। ऐसा भी नहीं है कि चंद्रमा से कहें कि इतना पास आ गये हो तो जरा रात को बड़ा कर दो यानि कि दिन हो ही नहीं ताकि हम रात्रिकालीन समय का भी दिन का तरह उपयोग कर सके। न ही यह कह सकते हैं कि इधर धरती की ओट में इस तरह छिप जाओ कि दिन का दिन ही रहे ताकि रात्रि न होने से लोग निद्रा की बीमारी से मुक्त होकर उनके विज्ञापन देखते रहें।
इस समय होली तथा क्रिकेट में विज्ञापनों से भारतीय समाचार माध्यमों को जोरदार कमाई हो रही है। इधर कामेडी के भी एक नहीं चार चार सर्कस शुरु हो गये हैं। फिल्मी अभिनेता अब छोटे पर्दे पर कामेडी करने के लियेे उतर आये हैं। समाचार चैनल अपना आधा घंटा कामेडी के नाम कर मनोरंजन चैनलों को विस्तापिरत रूप बन गये हैं। मतलब यह कि वह हर मिनट कमाई कर रहे हैं इसलिये उनके पास फुरसत कहां कि लीबिया पर हमले के विषय का इस्तेमाल करें।
रविवार का दिन और वह भी होली का। क्रिकेट का मैच हो तो फिर कहना ही क्या? पूरा दिन विज्ञापन के लिये है। कमबख्त, यह लीबिया का विषय कहां फिट करें। जापान की सुनामी में कमाया अभी ठिकाने लगा नहंी है। पहले रेडियम फैलने की बात चली। जापान में गर्म हो रहे परमाणु संयंत्र को इंसानी प्रयास ठंडा नहीं कर पा रहे थे पर प्रकृति को दया आ गयी। भूकंप तथा सुनामी परेशान लोगों के लिये प्रकृति ने वहां बर्फबारी कर दी। इतनी ठंड कर दी कि परमाणु संयंत्र अब ठंडे हो गये। पंच तत्वों ने जहां पहले संकट खड़ा किया वही उसको निपटान करने भी आये। भारत में प्रचार माध्यमों पर सुनामी जारी रही क्योकि होली, क्रिकेट और कामेडी को दौर चल रहा है।
भारतीय टीवी चैनलों का कहना था कि ‘जापान की सुनामी की आड़ में गद्दाफी ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली क्योंकि उसने दुनियां का ध्यान हटते ही अपने लोगों पर बमबारी कर दी।’
यहां तक कहा कि गद्दाफी का सुनामी ने बचाया। यह सब बकवास था। भारतीय समाचार टीवी चैनल सोचते हैं कि उनकी आंख अगर बंद है तो सारा संसार सो रहा है। यह शुतुरमुर्गीय दृष्टिकोण होली का सबसे बड़ा मजाक है। जिस समय भारतीय चैनल क्रिकेट और होली में व्यस्त थे तभी सुरक्षापरिषद में लीबिया पर उड़ान पर प्रतिबंध का प्रस्ताव पास हुआ और हमला भी हो गया। इस समय भारतीय प्रचार माध्यमों के पास विज्ञापनों की सुनामी का प्रकोप है इसलिये वह लीबिया पर हमले के विषय पर बासी बहस शायद तब करेंगे जब वर्तमान विषयों से मुक्ति पा लेंगे।
सचिन के सैंकड़े का सैंकड़ा लगेगा या नहीं! बीसीसीआई की क्रिकेट टीम जीतकर अपने प्रशंसकों को होली का तोहफा देगी या नहीं! धोनी अपने नये स्पिनर को खिलायेंगे या नहीं! होली और क्रिकेट पर बहस में उलझे टीवी चैनलों के पास इतना समय कहां से आ सकता है कि वह लीबिया पर अमेरिकी हमले का अध्ययन करें जिसके परिणाम भारत को आगे अवश्य प्रभावित करेंगे। लीबिया के शिखर पुरुष गद्दाफी ने भारत से समर्थन पाने के लिये जबरदस्त कोशिश की थी। क्यों? भारत को सुरक्षा परिषद में अस्थाई सदस्यता मिलने पर ढेर सारी प्रसन्नता दिखाने वाले बुद्धिजीवियों अपने चिंतन से इस बात को समझ नहीं पाये कि अपने विरुद्ध सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव पर भारत का समर्थन पाने के लिये ही गद्दाफी ने यह सब किया। प्रसंगवश चीन और सोवियत संघ के साथ भारत भी अनुपस्थित रहा। तय बात है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में इसका व्यापक प्रभाव होगा। वैसे लीबिया भारत के लिये तेल की दृष्टि से व्यवसायिक हितों वाला भले ही रहा हो पर राजनीतिक दृष्टि से कभी अधिक निकट नहीं रहा। इसके बावजूद भारत का उसके प्रति जो रवैया है उसके प्रति विश्व का दृष्टिकोण कैसा रहेगा, यह आगे देखने वाली बात होगी।
संभव है कि सारे प्रायोजित राजनीतिक विशेषज्ञ होली खेलने के बाद क्रिकेट में व्यस्त हों या फिर टीवी चैनल वाले सोचते हों कि अभी तो मुफ्त में काम चल रहा है तो क्यों गैर मनोरंजक विशेषज्ञों पर पैसा खर्च किया जाये? वैसे यह विशेषज्ञ उनसे पैसा लेते होंगे इसमें भी शक है क्योंकि प्रचार माध्यमों की वजह से उनको मूल्यवान कार्य और कार्यक्रम मिलते हैं। फिर लीबिया जैसा जटिल विषय एकदम प्रतिक्रिया देने लायक बन भी नहीं सकता क्योंकि उससे पहले बुद्धिजीवियों को अपने शिखर पुरुषो के इशारे का इंतजार होगा जिनके पास होली की वजह से फुरसत अभी नहीं होगी। हमारे देश में गद्दाफी का विरोध तो प्रगतिशील और जनवादी बुद्धिजीवी वैसे भी कर रहे थे पर चूंकि मामला अमेरिकी हमले का है तो उनको अपने दृष्टिकोण पर फिर से विचार करना पड़ेगा। दक्षिणपंथियों के लिये वैसे भी गद्दाफी कोई प्रिय व्यक्ति नहीं रहा है। ऐसे में हमें इंतजार है कि लीबिया पर विचाराधाराओं से जुड़े बुद्धिजीवियों की क्या प्रतिक्रिया होती है? आशा है होली और क्रिकेट से फुरसत पाने के बाद इन प्रचार माध्यमों को अपनी विज्ञापन की नदी के सतत प्रवाह के लिये यह शुतुरमुर्गीय दृष्टिकोण बदलना ही पड़ेगा।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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न्यायालयीन फैसलों पर सार्वजनिक चर्चा का औचित्य-हिन्दी लेख (adalat ke faisle ki sarvjanik charcha-hindi lekh)


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छत्तीसगढ़ में निचली अदालत ने नक्सलियों में मददगार तीन लोगों को सजा सुनाई है। इनमें एक कोई डाक्टर हैं जिनको आजीवन कारावास की सजा देने पर भारतीय अदालतों के विरुद्ध एक प्रचार अभियान प्रारंभ हो गया है। दरअसल अदालत के निर्णय पर कभी इस तरह की सार्वजनिक बहस नहीं चली जैसी राममंदिर तथा नक्सलियों मे मददगार भद्र पुरुषों पर सजा पर हो रही है। यह बहस प्रगतिशील और जनवादी बुद्धिजीवियों ने प्रारंभ की है जिनके चिंतन और अध्ययन की शुरुआत कार्ल मार्क्स की पूंजी किताब से शुरु होकर मज़दरों एक हो के नारे पर खत्म हो जाती है। अलबत्ता भारत में निम्नजातियों के उद्धार, भारतीय धार्मिक विचारों से अलग विचार मानने वाले लोगों की रक्षा तथा गरीबों के इलाज के नारे भी लगाये जाते हैं। इतिहास बताया जायेगा पश्चिम का और आधार ढूंढे जायेंगे भारतीय संदर्भों में, यही इन विचाराधाराओं के बुद्धिजीवियों के प्रयास हैं जो कि शुद्ध रूप से व्यवसायिक हैं क्योंकि इनसे इनको नाम तथा नामा दोनों ही मिलता है। जहां तक पूंजीवादी लेखकों का प्रश्न है तो उन्हें भी इनके विरुद्ध लिखने पर शाबाशी मिल जाती है। अलबत्ता विचाराधाराओं के लेखक प्रायोजित होने के कारण अपने संकीर्ण उद्देश्यों की पूर्ति के लिये लिखते हैं। ऐसे में स्वतंत्र और मौलिक लेखकों को अपनी बात कहने का अवसर कभी नहीं मिलता है। यह तो भला हो इंटरनेट कंपनियों का जो उन्होंने ब्लाग जैसी साईटों को बनाकर यह अवसर दिया है। मज़े की बात यह है कि प्रगतिशील और जनवादी विचारक पूंजीपतियों की इसी सेवा का लाभ उठाते हुए भी धारा वही पुरानी चलते हैं केवल नारे लगाने वाली।
प्रगतिशील और जनवादियों की यह खूबी है कि वह कल्पित मिथक नहीं रचते बल्कि जीवित इंसान को या फिर जिसके जीवन के प्रमाण हो उसे ही मिथक बनाते हैं ताकि उसे कल्पित कहकर कोई चुनौती न दे। यह अलग बात है कि ऐसा करते हुए वह ऐसी हरकतें भी करते हैं जिससे लगता है कि राई जैसे आदमी को पर्वत बना रहे हैं। उनकी दूसरी खूबी यह है कि बात खेत की हो तो वह खलिहान की सुनेंगे। अगर खलिहान की बात हो तो खेत की कहेंगे। पूर्व में खड़े होकर पश्चिम की तो उत्तर में खड़े होकर दक्षिण की बात करेंगे-इसका उल्टा भी हो सकता है या दिशाऐं भी उधर की जा सकती हैं। मतलब यह कि आप जिस दिशा में रहते हैं तो दूसरी दिशा की स्थिति को आप नहीं जानते इसलिये इनकी बातों पर यकीन न करें तो चुनौती भी नहीं दे सकते। फिर जीवधारी मिथकों पर कुछ कहना कठिन होता है।
इन्हीं लेखकों ने राममंदिर पर अदालत के निर्णय को चुनौती दी। मंदिर बनेगा या नहीं अब इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा क्योंकि आमजन अब इस विवाद से दूर हो चुका है। मगर पत्थरों के बने एक ढांचे के गिरने पर जनवादी तथा प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने जो प्रायोजित विलाप किया वह देखने लायक था। इतना तो उस धर्म के लोग भी नहीं रोये होंगे जितना इन दोनों समूहों के बुद्धिजीवियों ने रोया। पत्थर में जान नहीं होती पर इन्होंने डाली भले ही यह बात मिथक लगे। आम इंसान समय के साथ आगे जाता है पर यह लोग इतिहास की अर्थी कंधे पर लेकर जिस तरह चलते हैं वह प्रशंसा के योग्य है।
अब इनके हाथ लग गये हैं गरीब बच्चों का इलाज करने वाले एक डाक्टर साहब जिन पर राजद्रोह का आरोप लगा और अब सजा मिली। जहां तहां उनको रिहा करने की अपील की जा रही है। ऐसा नाटक किया जा रहा है जैसे कि इनके लिखने तथा प्रदर्शन करने के अभियान से वह रिहा ही हो जायेंगे। भारतीय न्याय प्रणाली की जरा समझ रखने वाले को भी यह पता है कि अब मामला हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में जायेगा। इसका अंतिम परिणाम न्यायालयों की निर्णयों पर ही निर्भर है और उन पर प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालना संभव नहीं है। ऐसे में यह बुद्धिजीवी वर्ग संदेह के दायरे में स्वयं ही आता है। ऐसा लगता है कि वह भारतीय समाज को यह संदेश दे रहा है कि अगर न्यायालय के निर्णय उसके अनुकूल न रहे तो वह भारतीय न्याय प्रणाली पर भी उंगली उठायेगा। ऐसी शक्ति केवल पैसा लेकर बुद्धि विलास करने वालों के लिये संभव है स्वतंत्र और मौलिक लेखकों के लिये नहीं।
डाक्टर साहब को मिली सजा पर जिस तरह उसके विरुद्ध प्रचार अभियान प्रारंभ हुआ है उससे लगता है कि दुनियां के कुछ नकारात्मक संगठन जिनको पूंजीपतियों से ही पैसा मिलता है इस विषय पर अब बावेला मचाने वाले हैं। वैसे ही जैसे राम मंदिर पर मचा रहे हैं। अभी तक यह वर्ग भारत के राजनीति, सामाजिक, भारतीय धार्मिक, तथा आर्थिक प्रतिष्ठानों पर शाब्दिक हमला करता था पर अब न्यायिक व्यवस्था पर उंगली उठाने लगा है।
उन डाक्टर साहब का नाम पहले कोई नहीं जानता था। कहते हैं कि बच्चों का इलाज करते थे। हमें उन डाक्टर साहब से कोई गिला शिकवा नहीं है। एक मौलिक स्वतंत्र लेखक अगर गिला करे तो भी किस दम पर उसकी जानकारी के स्त्रोत भी तो प्रचार माध्यम ही है। इन्हीं प्रचार माध्यमों में यह कहीं न पता चला कि उन्होंने कितने बच्चों का कब कहां इलाज किया। मुफ्त किया कि कम पैसे लिये। भगवान ही जानता है कि करते थे भी कि नहीं या पहले करते थे अब केवल सामाजिक गतिविधियों तक ही सीमित हो गये थे। उनकी पत्नी के अनुसार ही वह घर का खर्चा अपने दम पर चलाती हैं तो डाक्टर साहब क्या मुफ्त इलाज करते थे? तब दवा का पैसा कहां से आता होगा? फिर दूसरी बात यह कि डाक्टर साहब की चर्चा जिन गतिविधियों के कारण हो रही हैं वह उनके व्यवसाय से इतर हैं। सीधी बात कहें तो राजनीतिक हैं। एक योजना के बारे में तो यह कहा जा रहा है उसकी कल्पना उन्होंने की और राज्य सरकार ने उनको अपनाया। सवाल यह है कि फिर राजद्रोह जैसा आरोप लगा क्यों?
डाक्टर साहब जिस विचारधारा के आदमी हैं उसमें हिंसा एक स्वीकार्य सिद्धांत है। ऐसे में हिंसक तत्वों से उनका संपर्क होना कोई ज्यादा बड़ी बात नहीं है। हिंसक तत्वों को हमेशा ही बौद्धिक संपन्न लोगों से सहायता की अपेक्षा रहती है क्योंकि वह हथियार चलाना जानते हैं पर कहां चलाना है इसके लिये उनकी अक्ल काम नहीं करती। हम यह नहीं कहते कि डाक्टर साहब ने ऐसी सहायता की होगी पर जब आप हिंसक तत्वों से संपर्क रखते हैं तो शक के दायर में तो आते ही हैं। खासतौर से तब जब हम जैसे मौलिक और स्वतंत्र लेखक ऐसी हिंसा को पूंजीवाद के पिछले दरवाजे से प्रायोजित किया मानते हैं। आजतक अनेक बार यह पूछा गया कि गरीब, भूखे तथा मज़बूर लोगों के पास रोटी का निवाला नहीं होता पर उनके पास डेढ़ लाख की बंदूक आ जाती है, कहां से? उनके कथित नुमाइंदों के पास अच्छे कपड़े, गाड़ियां तथा अन्य वस्तुऐं कहां से आती हैं? अमेरिका तथा पश्चिमी सम्राज्यवादी पूंजीवाद के खिलाफ खड़े लोग अंततः गोलियां चलाकर राज्य को ही हथियार खरीदने को मज़बूर करते हैं, क्या पूंजीवाद की मदद नहीं है।
सजा तीन को हुई पर डाक्टर साहब को हीरो बनाया जा रहा है? शक तो उठना स्वाभाविक ही है। हमारी दिलचस्पी बाकी दो में भी है मगर ऐसा लगता है कि वह पूंजीवाद के विरोधियों के लिये नगण्य हैं या फिर उनको नायक बनाने से कोई मसाला नहीं मिलने वाला। यह भी संभव है कि नोबल पुरस्कार तो किसी एक को ही मिल सकता है इसलिये बाकी दो को क्यों डाक्टर साहब का प्रतिद्वंद्वी बनाया जाये। कहीं यह अगले शांति नोबल पुरस्कार को भारत लाने के लिये कवायद करने के लिये प्रचार अभियान तो नहीं चलाया जा रहा?
इस लेखक वर्ग ने चीन के उस नोबल पुरस्कार प्राप्त विजेता को शायद अपना आदर्श बनाया है जो जेल में है। संभव है डाक्टर साहब को भी नोबल मिल जाये क्योंकि कहीं न कहीं उनके मन में पश्चिम के लोगों में भी सहानुभूति दिख रही है। मुश्किल यह है कि भारतीय न्यायिक व्यवस्था में राज्य से प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की आशा नहीं की जाती पर चीन में यह संभव है इसलिये उस पर दबाव बनाया गया मगर भारत में यह संभव नहीं है। जब इस मामले की सुनवाई अदालत में चल रही थी तब डाक्टर साहब को जमानत मिली उस समय उनके समर्थकों ने जश्न मनाया था पर न्याय प्रणाली पर उनका यह दबाव बनाये रखने का प्रयास नहीं चला। अब प्रतिकूल निर्णय पर उनका गुस्सा इसलिये भी गलत लगता है क्योंकि इसी अदालत ने उनको जमानत भी दी थी। मतलब अदालत का निर्णय अनुकूल हो तो जश्न मनाओ और प्रतिकूल हो गुस्सा दिखाओ। यह नीति चिंतनहीन बुद्धिजीवियों को ही शोभा देता है। ऐसें ही बुद्धिजीवी बाबा रामदेव के आभामंडल पर शाब्दिक आक्रमण करते हैं जो ऐसे प्रमाण अपने साथ रखते हैं जिनसे पता लगता है कि उन्होंने कितने बीमारों को ठीक किया। अच्छा होता सजायाफ्ता डाक्टर साहब की चिकित्सा से लाभान्वित लोगों की जानकारी यह लोग भी देते। खाली नारे लगाने से बात नहीं बनती।
विश्व में पश्चिमी देशों में उत्पन्न सभ्यता का बोलबाला है जिनकी राजनीति का अधिकतर हिस्सा प्रचार के आधार पर सत्ता कायम करना है और जो लोकतंत्र की पक्रिया का भी एक हिस्सा बन गया है। पश्चिमी विश्व पूर्वी देशों में अपना राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक प्रभाव बनाये रखने के लिये प्रचार का सहारा लेते हैं और इसके लिये उन्होंने अनेक तरह के सम्मान तथा संस्थाओं का सृजन कर रखा है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष उनके हितों के लिये ही काम करते हैं। इन्हीं सम्मानों को पाने तथा अपनी कथित मानवाधिकार, समाज सेवा तथा गरीबों का इलाज करने के उद्देश्य के लिये पश्चिमी पूंजीपतियों तथा सरकारों से धन पाने के लिये पूर्वी देशों के अनेक बुद्धिजीवी, विचारक तथा समाज सेवक उतावले रहते हैं। ऐसे में पूंजीवादी, समाजवादी या साम्यवादी विचाराधाराओं को मुखौटा लगाये अनेक लोग बकायदा योजनाबद्ध ढंग से व्यवसायिक प्रचार कार्य कर इन्हीं पश्चिमी देशों की सेवा करते हैं ताकि उनका सम्राज्य बना रहे। स्थिति यह है कि समाजवादी और साम्यवादी विचारक पश्चिम के पूंजीवाद को कोसते रहते हैं पर उनके चेले चपाटे तथा रिश्तेदार इन्हीं पश्चिमी देशों मेें अपना निवास बनाकर आराम से रहते हैं।
डाक्टर साहब बड़ी अदालत में राहत पा जायें यह कामना हम भी करेंगे क्योंकि उनके समर्थक यही दावा कर रहे हैं कि वह निर्दोष हैं। एक आम लेखक के रूप में जब टीवी पर डाक्टर साहब का चेहरा देखा तब लगा कि बहुत मासूम हैं पर अदालतें तो सबूत देखती हैं। मन में एक शंका भी हुई कि कहीं वह वास्तव में अपनी मासूमियत की वजह सें अपने ही समूह या साथियों की चालाकी का शिकार तो नहीं बने क्योंकि उसके बाद जो प्रचार अभियान प्रारंभ हुआ है उसमें अनेक प्रायोजित बुद्धिजीवी अपना समय पास करने वाले हैं। एक लंबे समय तक चलने वाला प्रचार अभियान देखने को मिलने वाला है।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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विकीलीक्स की जानकारी हैरान नहीं करती-हिन्दी आलेख(wikileeks aur india-hindi article)


हमारे देश में ऐसी बहुत बड़ी आबादी है जिसकी दिलचस्पी अमेरिका में इतनी नहीं है जितनी प्रचार माध्यम या विशिष्ट वर्ग के लोग लेते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि जनसामान्य जागरुक नहीं है या समाचार पढ़ने या सुनने के उसके पास समय नहीं है। दरअसल देश के प्रचार माध्यम से जुड़े लोग यह मानकर चलते हैं कि गरीब, ठेले वाले, खोमचे वाले या तंागे वाले उनके प्रयोक्ता नहीं है और इसलिये वह पढ़े लिखे नौकरी या व्यवसाय करने वालों को ही लक्ष्य कर अपनी सामग्री प्रस्तुत करते हैं। यह उनका अज्ञान तथा अव्यवसायिक प्रवृत्ति का परिणाम है। शायद कुछ बुद्धिमान लोग बुरा मान जायें पर सच यह है कि समाचार पढ़ना तथा राजनीतिक ज्ञान रखना गरीबीया अमीरी से नहीं जुड़ा-यह तो ऐसा शौक है जिसको लग जाये तो वह छूटता नहीं है। चिंतन क्षमता केवल शिक्षित या शहरी लोगों के पास होने का उनका विचार खोखला है। कई बार तो ऐसा लगता है कि ग्रामीण और शिक्षित वर्ग का ज्ञान कहीं  अधिक है। सीधी बात कहें तो अमेरिका ने 1971 में भारत पाक युद्ध के समय अपना सातवां बेड़ा भारत के खिलाफ उतारने की घोषणा की थी और यह बात आज भी आम भारतीय के जेहन में है और वह उस पर यकीन नहीं करता। विकिलीक्स से बड़े शहरों के बुद्धिजीवी चौंक गये हैं पर उनमें कुछ ऐसा नहीं है कि आम भारतीय जनमानस प्रभावित या चिंतित हो।
विकिलीक्स ने अमेरिकी सरकार के गोपनीय दस्तावेजों का खुलासा किया है। यह एक बहुदेशीय वेबसाईट है। अनेक पत्रकार इसमें अपने पाठ या पोस्ट रखते हैं और उनकी जांच के बाद उनको प्रकाशित किया जाता है। अपनी भद्द पिटते देखकर अमेरिकी सरकार इसके विरुद्ध कार्यवाही करने में लगी है। वह अन्य देशों से इसे अनदेखा करने का आग्रह कर रही है। दुनिया भर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रचार की जिम्मेदारी लेने वाले अमेरिकी रणनीतिकार अब ठीक उलट बर्ताव कर रहे हैं।
अमेरिका की विदेश मंत्री हेनरी क्लिंटन ने सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के भारत के दावे का मखौल उड़ाने के साथ ही हमारे देश के विशिष्ट वर्ग की जासूसी करने को कहा है। बात तो यह है कि अमेरिका अपनी आर्थिक विवशताओं के चलते ही भारत को पुचकार रहा है वरना उसकी आत्मा तो खाड़ी देश और उनके मानस पुत्र पाकिस्तान में ही बसती है। इसलिए अपनी साम्राज्यवादी भूख मिटाने तथा हथियार बिकवाने के लिये पाकिस्तान को भी साथ रख रहा है। अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान में फैले आतंकवाद से निपटने में भारतीय हितों की उसे परवाह नहीं है। उसका दोगलापन कोई ऐसी चीज नहीं है जिस पर चौंका जाये। सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता भी अब कितनी प्रासंगिक है यह भी हमारे लिये विचार का विषय है। ब्राजील, जापान, जर्मनी के साथ भारत को इसमें स्थाई सदस्यता दी भी गयी तो उसमें वीटो पॉवर का अधिकार मिलेगा इसमें संदेह है-कुछ प्रचार माध्यमों में इस आशय का समाचार बहुत पहले पढ़ने को मिला था कि अब नये स्थाई सदस्यों को इस तरह का अधिकार नहीं मिलेगा। बिना वीटो पॉवर की स्थाई सदस्यता को कोई मतलब नहीं है। यह अलग बात है कि अमेरिकी मोह में अंधे हो रहे प्रचार कर्मी उसकी हर बात को ब्रह्म वाक्य की तरह उछालते हैं। तब ऐसा भी लगता है कि वह अपने देश के जनमानस की बजाय पश्चिमी अप्रवासी भारतीयों को लिये अपने प्रसारण कर रहे हैं। अभी हाल ही में भारत के सुरक्षा परिषद में अस्थाई सदस्यता पर भी जिस तरह खुश होकर यह प्रचार माध्यम चीख रहे थे वह हास्यप्रद था क्योंकि यह क्रमवार आधार पर नियम से मिलनी ही थी। समाचारों पर बहुत समय से रुचि लेने वाले आम पाठक यह जानते हैं कि अनेक अवसरों पर भारत को यह सदस्यता मिली पर उसकी बात सुनी नहीं गयी।
इस चर्चा में विकीलीक्स के खुलासे चिंतन से अधिक मनोरंजन के लिये है। जिस तरह विदेशी राष्ट्रों के लिये संबोधन चुने गये हैं उससे भारतीय टीवी चैनलों के हास्य कलाकारों की याद आती है। यह अलग बात है कि यह कलाकार पेशेवर होने के कारण अमेरिकी रणनीतिकारों से अधिक शालीन और प्रभावी शब्द इस्तेमाल करते हैं। विकिलीक्स ने अमेरिकी रणनीतिकारों के दोहरेपन को प्रमाण के साथ प्रस्तुत किया है जो कि एक असामान्य घटना है। अमेरिकी जो कहते हैं और सोचते हैं इस पर अधिक माथा पच्ची करने की आवश्यकता नहीं है। सच तो यह है कि विकिलीक्स के खुलासे देखकर कभी कभी तो ऐसा लगता है कि अमेरिका एक स्वतंत्र राष्ट्र नहीं बल्कि पूंजीवाद का उपनिवेश है जो व्यापार या बाज़ार के वैश्वीकरण के साथ ही अपनी भूमिका का विस्तार कर रहा है। चाहे किसी भी देश के पूंजीपति या विशिष्ट वर्ग के लोग हैं अपने क्षेत्र में उसे कितनी भी गालियां देते हों पर अपनी संतान या संपत्ति वहां स्थापित करने में उनको अपनी तथा भविष्य की पीढ़ी की सुरक्षा नज़र आती है। तय बात है कि वह कभी वहां के रणनीतिकारों के निर्देश पर चलते हैं तो कभी उनको चलाते हैं। अमेरिकी रणनीतिकारों की भी क्या कहने? एक ग्राहक कुछ मांगता है दूसरे से उसकी आपूर्ति करवाते हैं। दूसरा कहे तो तीसरे से करवाते हैं। खुलासों से पता लगता है कि खाड़ी देश दूसरे के परमाणु संयत्र पर अमेरिका को हमले के लिये उकसा रहा है। मतलब यह कि अमेरिका अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा है या पूंजीतंत्र के शिखर पुरुष अपने क्षेत्र में उसे घसीट रहे हैं, यह अब चर्चा का विषय हो सकता है। ऐसे में अमेरिकी रणनीतिकारों के औपचारिक या अनौपचारिक बयानों, कमरे में या बाहर की गयी टिप्पणियों तथा कहने या करने में अंतर की चर्चा करना भी समय खराब करना लगती है।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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नेपाल की उठापठक और हिंदुत्व-हिंदी लेख


नेपाल कभी हिन्दू राष्ट्र था जिसे अब धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया है। वहां की निवासिनी और भारतीय हिन्दी फिल्मों की अभिनेत्री मनीक्षा कोइराला ने अब जाकर इसकी आलोचना की है। उनका मानना है कि नेपाल को एक हिन्दू राष्ट्र ही होना चाहिए था। दरअसल नेपाल की यह स्थिति इसलिये बनी क्योंकि वह राजशाही का पतन हो गया। वहां के राजा को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता था या हम कहें कि उनको ऐसी प्रतिष्ठा दी जाती थी। दूसरी बात यह है कि नेपाल के हिन्दू राष्ट्र के पतन को एक व्यापक रूप में देखा जाना चाहिए न कि इसके केवल सैद्धान्तिक स्वरूप पर नारे लगाकर भ्रम फैलाना चाहिये। इसलिये यह जरूरी है कि हम हिन्दुत्व की मूल अवधारणाओं को समझें।
वैसे हिन्दुत्व कोई विचाराधारा नहीं है और न ही यह कोई नारा है। अगर हम थोड़ा विस्तार से देखें तो हिन्दुत्व दूसरे रूप में प्राकृतिक रूप से मनुष्य को जीने की शिक्षा देने वाला एक समग्र दर्शन है। अंग्रेजों और मुगलों ने इसी हिन्दुत्व को कुचलते हुए भारतवर्ष में राज्य किया किया। अनेक डकैत और खलासी यहां आकर राजा या बादशाह बन गये। अंग्रेजों ने तो अपनी ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया जिससे कि यहां का आदमी उनके जाने के बाद भी उनकी गुलामी कर रहा है। देश के शिक्षित युवक युवतियां इस बात के लिये बेताब रहते हैं कि कब उनको अवसर मिले और अमेरिका या ब्रिटेन में जाकर वहां के निवासियों की गुलामी का अवसर मिले।
मुगलों और अंग्रेजों ने यहां के उच्च वर्ग में शासक बनने की ऐसी प्रवृत्ति जगा दी है कि वह गुलामी को ही शासन समझने लगे हैं। अक्सर समाचार पत्र पत्रिकाओं में ऐसी खबरे आती हैं कि अमुक भारतवंशी को नोबल मिला या अमुक को अमेरिका का यह पुरस्कार मिला। अमुक व्यक्ति अमेरिका की वैज्ञानिक संस्था में यह काम कर रहा है-ऐसी उपलब्धियों को यहां प्रचार कर यह साबित किया जाता है कि यहां एक तरह से नकारा और अज्ञानी लोग रहते हैं। सीधी भाषा में बात कहें तो कि अगर आप बाहर अपनी सिद्धि दिखायें तभी यहां आपको सिद्ध माना जायेगा। उससे भी बड़ी बात यह है कि आप अंग्रेजी में लिख या बोलकर विदेशियों को प्रभावित करें तभी आपकी योग्यता की प्रमाणिकता यहां स्वीकार की जायेगी। नतीजा यह है कि यहां का हर प्रतिभाशाली आदमी यह सोचकर विदेश का मुंह ताकता है कि वहां के प्रमाणपत्र के बिना अपने देश में नाम और नामा तो मिल ही नहीं सकता।
मुगलों ने यहां के लोगों की सोच को कुंद किया तो अंग्रेज अक्ल ही उठाकर ले गये। परिणाम यह हुआ कि समाज का मार्ग दर्शन करने का जिम्मा ढोने वाला बौद्धिक वर्ग विदेशी विचाराधाराओं के आधार पर यहां पहले अपना आधार बनाकर फिर समाज को समझाना चाहता है। कहने को विदेशी विचारधाराओं की भी ढेर सारी किताबें हैं पर मनुष्य को एकदम बेवकूफ मानकर लिखी गयी हैं। उनके रचयिताओं की नज़र में मनुष्य को सभ्य जीवन बिताने के लिये ऐसे ही सिखाने की जरूरत है जैसे पालतु कुत्ते या बिल्ली को मालिक सिखाता है। मनुष्य में मनुष्य होने के कारण कुछ गुण स्वाभाविक रूप से होते हैं और उसे अनेक बातें सिखाने की जरूरत नहीं है। जैसे कि अहिंसा, परोपकार, प्रेम तथा चिंतन करना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियां हैं। कोई भी मनुष्य मुट्ठी भींचकर अधिक देर तक नहीं बैठ सकता। उसे वह खोलनी ही पड़ती हैं।
चार साल का बच्चा घर के बाहर खड़ा है। कोई पथिक उससे पीने के लिये पानी मांगता है। वह बिना किसी सोच के उसे अपने घर के अंदर से पानी लाकर देता है। उस बच्चे ने न तो को पवित्र पुस्तक पढ़ी है और न ही उसे किसी ने सिखाया है कि ‘प्यासे को पानी पिलाना चाहिये’ फिर भी वह करता है। कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य अपनी सहज प्रवृत्तियों की वजह से सज्जन तो रहता ही है पर समाज का एक वर्ग उसकी जेब से पैसा निकालने या उससे सस्ता श्रम कराने के लिये उसे असहज बनाने का हर समय प्रयास करता है। विदेशी विचारधाराओं तथा बाजार से मनुष्य को काल्पनिक स्वप्न तथा सुख दिखकार उसे असहज बनाने का हमारे देश के लोगों ने ही किया है। इन्ही विचाराधाराओं में एक है साम्यवाद।
इसी साम्यवादी की प्रतिलिपि है समाजवाद। इनकी छत्रछाया में ही बुद्धिजीवियों के भी दो वर्ग बने हैं-जनवादी तथा प्रगतिशील। नेपाल को साम्यवादियों ने अपने लपेटे में लिया और उसका हिन्दुत्व का स्वरूप नष्ट कर दिया। सारी दुनियां को सुखी बनाने का ख्वाब दिखाने वाली साम्यवादी और समाजवादी विचारधाराओं में मूल में क्या है, इस पर अधिक लिखना बेकार है पर इनकी राह पर चले समाज सेवकों और बुद्धिजीवियों ने अपने अलावा किसी को खुश रखने का प्रयास नहीं किया। सारी दुनियां में एक जैसे लोग हो कैसे सकते हैं जब प्रकृत्ति ने उनको एक जैसा नहीं बनाया जबकि कथित विकासवादी बुद्धिजीवी ऐसे ही सपने बेचते हैं।
अब बात करें हम हिन्दुत्व की। हिन्दुत्व वादी समाज सेवक और बुद्धिजीवी भी बातें खूब करते हैं पर उनकी कार्य और विचार शैली जनवादियों और प्रगतिशीलों से उधार ली गयी लगती है। हिन्दुत्व को विचाराधारा बताते हुए वह भी उनकी तरह नारे गढ़ने लगते हैं। नेपाल में हिन्दुत्व के पतन के लिये साम्यवाद या जनवाद पर दोषारोपण करने के पहले इस बात भी विचार करना चाहिये कि वहां के हिन्दू समाज की बहुलता होते हुए भी ऐसा क्यों हुआ?
हिन्दुत्व एक प्राकृतिक विचाराधारा है। हिन्दू दर्शन समाज के हर वर्ग को अपनी जिम्मेदारी बताता है। सबसे अधिक जिम्मेदारी श्रेष्ठ वर्ग पर आती है। यह जिम्मेदारी उसे उठाना भी चाहिए क्योंकि समाज की सुरक्षा से ही उसकी सुरक्षा अधिक होती है। इसके लिये यह जरूरी है कि वह योग्य बुद्धिजीवियों को संरक्षण देने के साथ ही गरीब और मजदूर वर्ग का पालन करे। यही कारण है कि हमारे यहां दान को महत्व दिया गया है। श्रीमद्भागवत गीता में अकुशल श्रम को हेय समझना तामस बुद्धि का प्रमाण माना गया है।
मगर हुआ क्या? हिन्दू समाज के शिखर पुरुषों ने विदेशियों की संगत करते हुए मान लिया कि समाज कल्याण तो केवल राज्य का विषय है। यहीं से शुरु होती है हिन्दुत्व के पतन की कहानी जिसका नेपाल एक प्रतीक बना। आर्थिक शिखर पुरुषों ने अपना पूरा ध्यान धन संचय पर केंद्रित किया फिर अपनी सुरक्षा के लिये अपराधियों का भी महिमा मंडन किया। भारत के अनेक अपराधी नेपाल के रास्ते अपना काम चलाते रहे। वहां गैर हिन्दुओं ने मध्य एशिया के देशों के सहारे अपना शक्ति बढ़ा ली। फिर चीन उनका संरक्षक बना। यहां एक बात याद रखने लायक है कि अनेक अमेरिकी मानते हैं कि चीन के विकास में अपराध से कमाये पैसे का बड़ा योगदान है।
भारत के शिखर पुरुष अगर नेपाल पर ध्यान देते तो शायद ऐसा नहीं होता पर जिस तरह अपने देश में भी अपराधियों का महिमामंडन देखा जाता है उससे देखते हुए यह आशा करना ही बेकार है। सबसे बड़ी बात यह है कि नेपाल की आम जनता ने ही आखिर ऐसी बेरुखी क्यों दिखाई? तय बात है कि हिन्दुत्व की विचारधारा मानने वालों से उसको कोई आसरा नही मिला होगा। नेपाल और भारत के हिन्दुत्ववादी आर्थिक शिखर पुरुष दोनों ही देशों के समाजों को विचारधारा के अनुसार चलाते तो शायद ऐसा नहीं होता। हिन्दुत्व एक विचाराधारा नहीं है बल्कि एक दर्शन है। उसके अनुसार धनी, बुद्धिमान और शक्तिशाली वर्ग के लोगों को प्रत्यक्ष रूप से निम्न वर्ग का संरक्षण करना चाहिये। कुशल और अकुशल श्रम को समान दृष्टि से देखना चाहिये पर पाश्चात्य सभ्यता को ओढ़ चुका समाज यह नहीं समझता। यहां तो सभी अंग्रेजों जैसे साहब बनना चाहते हैं। जो गरीब या मजदूर तबका है उसे तो कीड़े मकौड़ों की तरह समझा जाता है। इस बात को भुला दिया गया है कि धर्म की रक्षा यही गरीब और मजदूर वर्ग अपने खून और पसीने से लड़कर समाज रक्षा करता है।
हमारे देश में कई ऐसे संगठन हैं जो हिन्दुत्व की विचारधारा अपनाते हुए अब गरीबों और मजदूरों के संरक्षण कर रहे हैं। उनको चाहिये कि वह अपने कार्य का विस्तार करें और भारत से बाहर भी अपनी भूमिका निभायें पर वह केवल नारे लगाने तक नहीं रहना चाहिये। इन हिन्दू संगठनों को परिणामों में शीघ्रता की आशा न करते हुए दूरदृष्टि से अपने कार्यक्रम बनाना चाहिये।
नेपाल का हिन्दू राष्ट्र न रहना इतनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी परेशानी इस बात पर होने वाली है कि वह एक अप्राकृतिक विचाराधारा की तरफ बढ़ गया है जो वहां की संस्कृति और धर्म के वैसे ही नष्ट कर डालेगी जैसे कि चीन में किया है। भारत और नेपाल के आपस में जैसे घनिष्ट संबंध हैं उसे देखते हुए यहां के आर्थिक, सामाजिक तथा बौद्धिक शिखर पुरुषों को उस पर ध्यान देना चाहिये।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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