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अन्ना हजारे (अण्णा हज़ारे) की मानसिक हलचल अब ब्लॉग पर नहीं दिखेगी-हिन्दी लेख (anna hazare ki mansik halchal wala blog band hona-hindi lekh)


                अन्ना हजारे ने अपना ब्लॉग बंद करने का निर्णय लिया है। वैसे तो इस देश में बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने उनका ब्लॉग देखा होगा क्योंकि उस पर पाठ प्रकाशित होता ही था कि प्रचार माध्यम उसे अपने मंच पर मुख्य समाचार की तरह उपयोग करते रहे जिसकी वजह से उसको देखने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। ऐसे में ब्लॉग होने का प्रभाव बाजार समर्थित प्रचार माध्यमों पर ही पड़ेगा जिनके लिये सनसनी फैलाने वाला एक स्त्रोत कम हो जायेगा। वैसे यहां भी स्पष्ट कर दें कि इस देश में गहरा चिंत्तन करने वाले पहले अन्ना हजारे की टीम के सदस्यों पर वर्तमान बाज़ार से समर्थित होने का आरोप लगाते थे तो अब उनको अन्ना का संपूर्ण आंदोलन ही प्रायोजित दिख रहा है। श्री अन्ना हजारे का ब्लॉग बंद होने का फैसला उनकी दृढ़ मानसिक शक्ति पर प्रश्न खड़े करेगा इसमें संशय नहीं है।
         आखिर वह कौनसा पाठ है जिसमें ऐसा कुछ आ गया कि उनको लगा कि यह ब्लॉग बंद करना ही श्रेयस्कर है? अन्ना को अपने प्रचार के लिये वैसे ही किसी ब्लॉग की आवश्यकता नहीं थी तब क्या बाज़ार के प्रायोजन की वजह से उन्होंने इसे बनाया। दरअसल वर्तमान बाज़ार जिसे भी नायक बनाता है उसका ब्लॉग अवश्य फैशन के तौर पर जरूर बनवाता है। इससे वह एक तीर से दो शिकार करता है। एक तो नई पीढ़ी को अपने नायक की अंतर्जालीय छवि से घेरता है दूसरा यह कि टेलीफोन कंपनियों के कनेक्शन कम होने की संभावना बच जाते हैं जिनका खतरा उनको हमेशा बना रहता है। सीधी बात कहें तो अन्ना हजारे के पीछे कहीं न कहीं बाज़ार का प्रायोजन है और इसी कारण उनके यह ब्लॉग बना भी होगा। इसका लेखक भी उनका सहयोगी था जिसको वह अपनी बात लिख कर देते और वह उसे चिट्ठी के साथ टंकित कर प्रकाशित करता था। अनेक पाठ चर्चित हुए। जब अन्ना मौन थे तब ब्लॉग के माध्यम से वह जनता से जुड़े रहे। अब उनके ब्लॉगर सहयोगी ने उनकी एक अहस्ताक्षरित चिट्ठी के साथ एक पाठ प्रकाशित किया जिसमें अन्ना टीम के सदस्यों को अलोकतांत्रिक बताते हुए टीम में सदस्यों में बदलाव की बात कही है। अन्ना ने अपने ब्लॉगर से सहमत होने की बात से अब इंकार करते हुए बताया कि वह अपने विचार कहीं लिख लेते थे। एक समय उन्हें अपनी टीम के बारे में ऐसा विचार आया था तो लिख लिया पर उसे प्रेषित करने के लिये ब्लॉगर को नहीं दिया। उस ब्लॉगर को केवल हस्ताक्षरित पत्र प्रकाशित करने का अधिकार दिया था। अगर उनका यह स्पष्टीकरण सही माना जाये तो लगता है चूंकि वह ब्लॉगर उनका निकटस्थ है इसलिये ऐसा कागज उसके पास रह सकता है भले ही उसे प्रकाशन का अधिकार न मिला हो। अन्ना का यह विचार उसने अनाधिकार छापा है-यही स्पष्टीकरण अन्ना हजारे साहिब ने दिया है।
              गंभीर चिंतकों की नज़र में अन्ना ने पहली ऐसी रणनीतिक गलती की है जो उनके व्यक्तित्व में गिरावट दर्ज करेगी। जब देश में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की बात आती है तब अन्ना हजारे को एक महानायकत्व का दर्जा देने का प्रयास प्रचार माध्यम करते हैं। जब तक आंदोलन किनारे पर था तब लोगों ने उसका अधिक अध्ययन नहीं किया और उस समय अन्ना सारे निर्णय स्वयं करते हुए एक चतुर व्यक्ति लगे। जब यह लोगों की समंदरनुमा भीड़ में आया तब धीरे धीरे लगा कि अन्ना हजारे एक ऐसा शीर्षक है जिसमें भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अनेक उपशीर्षकों के साथ एक बड़ा पाठ होगा। मतलब अन्ना हजारे एक नाम भर है। बाज़ार से प्रायोजित होने के प्रत्यक्ष प्रमाण भले न हो पर अन्ना टीम के सभी वरिष्ठ सदस्य ऐसे स्वयंसेवी संगठनों के कर्ताधर्ता हैं जो अपने कथित सामाजिक लक्ष्यों के लिये राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार से दान या चंदे के रूप में धन प्राप्त करते हैं। तय बात है कि बाज़ार का सामाजिक उद्देश्य लोगों को अपने हित में साधे रहना होता है। कम से कम आज के आधुनिक युग में कोई भी व्यवसायिक परिवार, संगठन या समूह धर्म के नाम दान या चंदा नहीं देता जब तब उसका कोई आर्थिक हित न पूरा होता हो। ऐसे में अन्ना की टीम के सहयोगी पेशेवर समाज सेवक हैं और उनसे यह अपेक्षा करना कि वह अपने चंदादाताओं का ध्यान नहीं रखेंगे यह सोचना गलत होगा।
          बहरहाल अन्ना के सहयोगी ब्लॉगर ने अन्ना टीम के उन्हीं सहयोगियों के बारे अन्ना के ही ऐसे विचार प्रकट किये जो प्रचार माध्यमों में समाचारों के दौरान उनकी मानसिक हलचल को बयान करते थे। हस्ताक्षर नहंी है इससे यह तो माना जा सकता है कि उनमें निर्णायक तत्व नहीं है पर इतना तय है कि उनके सहयोगियों की स्थिति अब डांवाडोल हो रही है। यह सच है कि मानसिक हलचल के समय विचारों का उतारचढ़ाव आता है। उनको स्थिर मानकर उन पर प्रतिक्रिया देना तब तक ठीक नहीं है जब उनमें व्यक्ति का निर्णायक तत्व प्रमाणित नहीं है। हम अन्ना साहब की सफाई को स्वीकार करते हैं पर ब्लॉग बंद करने का निर्णय इस बात को दर्शाता है कि वह डर गये हैं। जिन सहयोगियों की आलोचना ब्लॉग में है वह अगर तत्काल स्वयं ही अन्ना टीम से हट जायें तो उनका आंदोलन हाल ही टॉय टॉय फिस्स हो जायेगा। बाजार से पैसा जुटाने वाले उनके वर्तमान सहयोगियों को संगठित प्रचार समूह का समर्थन भी इसलिये मिला है क्योंकि कहीं न कहीं से उनको आपने धनदाताओं से ऐसे निर्देश मिले हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जनमानस में बना रहना चाहिए। इसके अलावा अन्य ने महानायकत्व की ऐसी छवि बना ली है जिसके निकट अन्य व्यक्तित्व पनप नहीं सकता। उन्होंने करीब करीब देश के सारे बड़े संगठनों से दूरी बना ली है। ऐसे में उनकी टीम के चार बलशाली सदस्य अगर उनका साथ छोड़ दें तो फिर अन्ना के लिये रालेगण सिद्धि से दिल्ली आना भी कठिन हो जायेगा। देश में सक्रिय बौद्धिक वर्ग तथा स्थापित सामाजिक संगठन अब अन्ना हजारे के आंदोलन को सक्रिय सहयोग  शायद ही दें।
         ऐसे में अपनी टीम के इन सदस्यों को प्रसन्न करने के लिये अन्ना हजारे ने ब्लॉग बंद करने का फैसला सुनाया पर इससे रूप से यह अप्रत्यक्ष रूप से संदेश भी हमारे सामने आ गया है कि अन्ना अपने आंदोलन की स्थिति को जानते हैं। अपनी गांधी जैसी छवि बनते देखकर वह खुश हो रहे हैं और उनको लगता है कि उनकी वर्तमान टीम ही इसमें सबसे अधिक मददगार है। जहां तक आंदोलन के नतीजों का सवाल है इस पर हम पहले भी बहुत कुछ लिख चुके हैं। गांधीजी ने हिंसा होने पर अपना एक आंदोलन वापस ले लिया था पर इससे उनकी छवि एक अहिंसक रूप में बढ़ी थी जबकि अन्ना साहेब ने अपना ब्लॉग लेकर यह साबित किया कि एक पाठ ने ही उनके ब्लॉग को उखाड़ दिया जो कि उनकी मानसिक हलचल का परिणाम रहा। ऐसा लगता है कि जब अन्न हज़ारे रालेगण सिद्धि में होते हैं तब उनकी मानसिक हलचल उन्हें लिखने के लिए प्रेरित करती है पर दिल्ली में आकर वह थम जाती है। उनके ब्लॉगर का तो यही कहना है कि वह दिल्ली में चौकड़ी के दबाव में बयान दे रहे हैं, जबकि अन्ना का अपनी टीम को बदलने का विचार उनके पास लिखित में है।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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भ्रष्टाचार का जिंदा मुद्दा छोड़ जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह या आत्मनिर्णय का मुर्दा मसला क्यों पकड़ा-हिन्दी लेख (bhrashtachar ka jinda mudda chhod jammu kashmir mein janmat sangrah ka murda masla kyon pakda-hindi lekh


           भारत में महात्मा गांधी के चरणचिन्ह पर चल रहे लोगों को यह गलतफहमी कतई नहीं रखना चाहिए कि अहिंसा के हथियार का उपयोग देशी लोगों को तोड़ने के लिये किया जाये। उनको एक बात याद रखना चाहिए कि गांधी जी ने अंिहंसा का प्रयोग देश के लोगों को एकजुट करने के साथ ही विदेशों में भी अपने विषय को चर्चा योग्य बनाने के लिये किया था। उन्होंने अपनी अहिंसा से देश को जोड़ा न कि अलग होने के लिये उकसाया। जम्मू कश्मीर के मसले पर जनमत संग्रह की मांग का समर्थन कर अन्ना हजारे के सहयोगी ने ऐसा ही काम किया है जैसे कि अपनों का जूता देश अपनों की ही सिर। उनके बयान के कारण उनसे मारपीट हुई जिसकी निंदा पूरे देश में कुछ ही घंटे टीवी चैनलों पर चली जबकि उनके बयान के विरोध की बातें करते हुए दो दिन होने जा रहे हैं। अहिंसा की बात निहत्थे लोगों के लिये ठीक है पर जो हथियार लेकर हमला कर रहे उन उग्रवादियों से यह आशा करना बेकार है कि वह गांधीवाद को समझेंगे। फिर जम्मू कश्मीर का मसला अत्यंत संवेदनशील है ऐसे में अन्ना के सहयोगी का बयान अपने प्रायोजकों में अपनी छवि बनाये रखने के लिये जारी किया गया लगता है। अन्ना हजारे को भारत का दूसरा गांधी कहा जाता है पर वह गांधी नहंी है। इसलिये तय बात है कि अन्ना हजारे के किसी सहयोगी को भी अभी गांधीवाद की समझ नहंी है। महात्मा गांधी देश का विभाजन नहीं चाहते यह सर्वज्ञात है। ऐसे में गांधीवादी अन्ना हजारे के किसी सहयोगी का जम्मू कश्मीर के जनमत संग्रह कराने तथा वहां से सेना हटाने का बयान संदेह पैदा करता है। क्या गांधीजी ने कहा था कि अपने देश में कहीं किसी प्रदेश में सेना न रखो।
        बहरहाल कुछ लोगों को अन्ना के सहयोगी का बयान के साथ ही उसका विरोध भी प्रायोजित लग सकता है। अन्ना के सहयोगी के साथ मारपीट हुई यह दुःख का विषय है। प्रचार माध्यमों से पता चला कि आरोपियों की तो जमानत भी हो चुकी है। इसका सीधा मतलब है कि बयान के विरोधियों ने अन्ना के सहयोगी को उनके इसी बयान की वजह से खलनायक बनाने के लिये इस तरह का तरीका अपनाया जिससे उनके शरीर को अधिक क्षति भी न पहुंचे और उनकी छवि भी खराब हो। यह मारपीट भले ही अब हल्का विषय लगता हो पर यकीनन यह अंततः अन्ना के उस सहयोगी के लिये संकट का विषय बनने वाला है।
       भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के वजह से अन्ना हजारे की राष्ट्रीय छवि बनी तो तय था कि उसका लाभ उनके निकटस्थ लोगों को होना ही था। अन्ना के जिस सहयोगी के साथ मारपीट हुई वह उनके साथ उस पांच सदस्यीय दल का सदस्य था जो सरकारी प्रतिनिधियों के साथ जनलोकपाल विधेयक बनाने पर चर्चा करती रहीं। एक तरह से उसकी भी राष्ट्रीय छवि बनती जा रही थी जिससे अपने अन्य प्रतिबद्ध एजेंडों को छिपाने में सफल हो रहे थे। अब वह सामने आ गया है। इंटरनेट के एक दो हिन्दी ब्लॉग लेखकों ने जम्मू कश्मीर के मसले पर प्रथकतावादियों के साथ आयोजित एक कार्यक्रम में उनकी सहभागिता का जिक्र किया था तब हैरानी भी हुई थी। ऐसे में हमें संदेह भी हो रहा था कि अन्ना हजारे साहब की आड़ के कुछ ऐसे तत्व तो नहीं आगे बढ़ रहे जो राष्ट्रीय छवि के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय छवि तो नहीं बनाने का प्रयास कर रहे हैं । ऐसे में अन्ना जी के सहयोगी ने ऐसा बयान इस तरह दे दिया कि जैसे वह आम बयान हो पर उनके विरोधियों के लिये इतना ही काफी था।
        एक बात निश्चित है कि कुछ अदृश्य शक्तियां अन्ना साहब के आंदोलन को बाधित करना चाहती होंगी पर जिस तरह अन्ना के सहयोगी अपने मूल उद्देश्य से अलग हटकर बयान दे रहे हैं उसे देखकर नहीं लगता कि उन्हें  प्रयास करने होंगे क्योंकि यह काम अन्ना के सहयोगी ही कर देंगे। अब एक सवाल हमारे मन में आता है कि अन्ना के सहयोगी ने यह बयान कहीं जानबूझकर तो नहीं दिया कि अन्ना जी का आंदोलन बदनाम हो। वह पेशेवर समाज सेवक हैं ऐसी बातें प्रचार माध्यम ही कहते हैं। अन्नाजी के अनेक सहयोगियों को विदेशों से भी अनुदान मिलता है ऐसा सुनने को मिलता रहता है। तब लगता है कि अन्ना के सहयोगी कहीं अपने प्रायोजकों के ऐजेंडे को बढ़ाने का प्रयास न करें। दूसरी यह भी बात है कि अन्ना साहेब का आंदोलन अभी लंबा चलना है। ऐसे में उनके निकटस्थ सहयोगियों के चेहरे भी बदलते नजर आयेंगे। यह देखकर स्वयं की पदच्युत होने की संभावनाओं के चलते कोई सहयोगी अफलातूनी बयान भी दे सकता है। कहा भी जाता है कि बिल्ली दूध पीयेगी भी तो फैला जरूर देगी।
        बहरहाल अगर अन्ना के सहयोगी का जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का बयान प्रायोजित है तो फिर यह मारपीट भी कम प्रायोजित नहीं लगती। प्रचार माध्यमों के अनुसार 24 या 25 सितम्बर को यह बयान दिया गया जबकि उनके साथ मारपीट 13 अक्टोबर को हुई। अक्सर देखा गया है कि संवेदनशील बयानों पर प्रतिक्रिया एक दो दिन मेें ही होती है पर यहां 18 दिन का अंतर देखा गया। संभव है आरोपियों ने यह घटना भावावेश में आकर की हो पर उनके प्रेरकों ने कहीं न कहीं यह हमला फिक्स किया होगा। उनके पीछे कौनसा समूह है यह कहना कठिन है। पहली बात तो यह अगर यह मारपीट नहीं होती तो बयान को 18 दिन बाद कोई पूछता भी नहीं। अब यह संभव है कि जम्मू कश्मीर के मसले पर भारत में प्रचार बनाये रखने वाले समूह का भी यह काम हो सकता हैं। दूसरा अन्ना के सहयोगी के ऐसे विरोधियों का भी यह काम हो सकता जो उनकी छवि बिगाड़ना चाहते रहे होंगे-यह अलग बात है कि उन्होंने स्वयं ही यह बयान देकर यह अवसर दिया।
आगे क्या होगा कहना कठिन है? इतना तय है कि अन्ना के यह सहयोगी अब जम्मू कश्मीर के मसले पर समर्थन कर भले ही अपने प्रायोजकों को प्रसन्न कर चुके हों पर भारतीय जनमानस उनके प्रति अब वैसे सद्भावना नहीं दिखायेगा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलनरत श्री अन्ना हजारे की टीम में फिलहाल उनकी जगह बनी हुई है पर विशुद्ध रूप से जनमानस के हार्दिक समर्थन से चल रहे अभियान को आगे चलाते समय उनके रणनीतिकारों के पास अपने विवादास्पद सहयोगी से पीछा छुड़ाने के अलावा कोई चारा नहीं रहने वाला। उनके साथ मारपीट करने वालों का उद्देश्य की उनका खून बहाना नहीं बल्कि छवि खराब करना अधिक लगता है। यह मारपीट अनुचित थी पर जिस लक्ष्य को रखकर की गयी वह भी अन्ना टीम के विरोधियों के हाथ लग सकता है। जनमानस की अनदेखी करना कठिन है। यह सही है कि महंगाई और भ्रष्टाचार देश में भयंकर रूप ले चुके हैं और जनमानस से विवादास्पद बयान भूल जाने की अपेक्षा की जा सकती थी पर यह काम तो अन्ना के वह कथित सहयोगी भी कर सकते थे। वरना संयुक्त राष्ट्रसंघ में धूल खा रहे प्रस्ताव की बात अब करने क्या औचित्य था? भ्रष्टाचार जैसे ज्वलंत मुद्दे में ऐसे मुर्दा सुझाव का कोई मतलब नहीं था।
इस विषय पर कल दूसरे ब्लाग पर लिखा गया यह लेख भी अवश्य पढें।

             अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के लक्ष्यों को लेकर तो उनके विरोधी भी गलत नहीं मानते। इस देश में शायद ही कोई आदमी हो यह नहीं चाहता हो कि देश में भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो। अन्ना हजारे ने जब पहली बार अनशन प्रारंभ किया तो उनको व्यापक समर्थन मिला। किसी आंदोलन या अभियान के लिये किसी संगठन का होना अनिवार्य है मगर अन्ना दिल्ली अकेले ही मैदान में उतर आये तो उनके साथ कुछ स्वयंसेवी संगठन साथ हो गये जिसमें सिविल सोसायटी प्रमुख रूप से थी। इस संगठन के सदस्य केवल समाज सेवा करते हैं ऐसा ही उनका दावा है। इसलिये कथित रूप से जहां समाज सुधार की जरूरत है वहां उनका दखल रहता है। समाज सुधार एक ऐसा विषय हैं जिसमें अनेक उपविषय स्वतः शामिल हो जाते हैं। इसलिये सिविल सोसायटी के सदस्य एक तरह से आलराउंडर बन गये हैं-ऐसा लगता है। यह अलग बात है कि अन्ना के आंदोलन से पहले उनकी कोई राष्ट्रीय छवि नहंी थी। अब अन्ना की छत्रछाया में उनको वह सौभाग्य प्राप्त हुआ है जिसकी कल्पना अनेक आम लोग करते हैं। इसलिये इसके सदस्य अब उस विषय पर बोलने लगे हैं जिससे वह जुड़े हैं। यह अलग बात है कि उनका चिंत्तन छोटे पर्दे पर चमकने तथा समाचार पत्रों में छपने वाले पेशेवर विद्वानों से अलग नहीं है जो हम सुनते हैं।

           बहरहाल बात शुरु करें अन्ना हजारे से जुड़ी सिविल सोसायटी के सदस्य पर हमले से जो कि वास्तव में एक निंदनीय घटना है। कहा जा रहा है कि यह हमला अन्ना के सहयोगी के जम्मू कश्मीर में आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करने पर दिया गया था जो कि विशुद्ध रूप से पाकिस्तान का ऐजंेडा है। दरअसल यह संयुक्त राष्ट्र में पारित उस प्रस्ताव का हिस्सा भी है जो अब धूल खा रहा है और भारत की सामरिक और आर्थिक शक्ति के चलते यह संभव नहीं है कि विश्व का कोई दूसरा देश इस पर अमल की बात करे। ऐसे में कुछ विदेशी प्रयास इस तरह के होना स्वाभाविक है कि भारतीय रणनीतिकारों को यह विषय गाहे बगाहे उठाकर परेशान किया जाये। अन्ना के जिस सहयोगी पर हमला किया गया उन्हें विदेशों से अनुदान मिलता है यह बात प्रचार माध्यमों से पता चलती रहती है। हम यह भी जानते हैं कि विदेशों से अनुदान लेने वाले स्वैच्छिक संगठन कहीं न कहीं अपने दानदाताओं का ऐजेंडा आगे बढ़ाते हैं।
           हमारे देश में लोकतंत्र है और हम इसका प्रतिकार हिंसा की बजाय तर्क से देने का समर्थन करते हैं। कुछ लोगों को यह लगता है कि मारपीट कर प्रतिकार करें तो वह कानून को चुनौती देते हैं। इस प्रसंग में कानून अपना काम करेगा इसमें भी कोई शक नहीं है।
           इधर अन्ना के सहयोगी पर हमले की निंदा का क्रम कुछ देर चला पर अब बात उनके बयान की हो रही है कि उसमें भी बहुत सारे दोष हैं। कहीं न कहीं हमला होने की बात पीछे छूटती जा रही है। एक आम लेखक और नागरिक के रूप में हम अपनी बात कहें तो शायद कुछ लोगों को अजीब लगे। हमने अन्ना के सहयोगी के इस बयान को उन पर हमले के बाद ही सुना। इसका मतलब यह कि यह बयान आने के 15 दिन बाद ही घूल में पड़ा था। कुछ उत्तेजित युवकों ने मारपीट कर उस बयान को पुनः लोकप्रियता दिला दी। इतनी कि अब सारे टीवी चैनल उसे दिखाकर अपना विज्ञापनों का समय पास कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि कहीं यह उत्तेजित युवक यह बयान टीवी चैनलों पर दिखाने की कोई ऐसी योजना का अनजाने में हिस्सा तो नहीं बन गये। संभव है उस समय टीवी चैनल किसी अन्य समाचार में इतना व्यस्त हों जिससे यह बयान उनकी नजर से चूक गया हो। यह भी संभव है कि दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई बैंगलौर या अहमदाबाद जैसे महानगरों पर ही भारतीय प्रचार माध्यम ध्यान देते हैं इसलिये अन्य छोटे शहरों में दिये गये बयान उनकी नजर से चूक जाते हैं। इस बयान का बाद में जब उनका महत्व पता चलता है तो कोई विवाद खड़ा कर उसे सामने लाने की कोई योजना बनती हो। हमारे देश में अनेक युवक ऐसे हैं जो अनजाने में जोश के कारण उनकी योजना का हिस्सा बन जाते हैं। यह शायद इसी तरह का प्रकरण हो। हमला करने वाले युवकों ने हथियार के रूप में हाथों का ही उपयोग किया इसलिये लगता है कि उनका उद्देश्य अन्ना के सहयोगी को डराना ही रहा होगा। ऐसे में मारपीट कर उन्होंनें जो किया उसके लिये उनको अब अदालतों का सामना तो उनको करना ही होगा। हैरानी की बात यह है कि हमला करने वाले तीन आरोपियों में से दो मौके से फरार हो गये पर एक पकड़ा गया। जो पकड़ा गया वह अपने कृत्य पर शार्मिंदा नहीं था और जो फरार हो गये वह टीवी चैनलों पर अपने कृत्य का समर्थन कर रहे थे। हैरानी की बात यह कि उन्होंने अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रति समर्थन देकर अपनी छवि बनाने का प्रयास किया। इसका सीधा मतलब यह था कि वह अन्ना की आड़ में उनके सहयोगी के अन्य ऐजेंडों से प्रतिबद्धता को उजागर करना चाहते थे। वह इसमें सफल रहे या नहीं यह कहना कठिन है पर एक बात तय है कि उन्होंने अन्ना के सहयोगी को ऐसे संकट में डाल दिया है जहां उनके अपने अन्य सहयोगियों के सामने अपनी छवि बचाने का बहुत प्रयास करना होगा। संभव है कि धीरे धीरे उनको आंदोलन की रणनीतिक भूमिका से प्रथक किया जाये। कोई खूनखराबा नहीं  हुआ यह बात अच्छी है पर अन्ना के सभी सहयोगियों के सामने अब यह समस्या आने वाली है कि उनकी आलराउंडर छवि उनके लिये संकट का विषय बन सकती है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन निर्विवाद है पर जम्मू कश्मीर, देश की शिक्षा नीति, हिन्दुत्ववाद, धर्मनिरपेक्षता तथा आतंकवाद जैसे संवेदनशील विषयों पर अपनी बात सोच समझकर रखना चाहिए। यह अलग बात है कि लोग चिंत्तन करने की बजाय तात्कालिक लोकप्रियता के लिये बयान देते हैं। यही अन्ना के सहयोगी ने किया। स्थिति यह है कि जिन संगठनों ने उन पर एक दिन पहले उन पर हमले की निंदा की दूसरे दिन अन्ना के सहयोगी के बयान से भी प्रथक होने की बात कह रहे हैं। अन्ना ने कुशल राजनीतिक होने का प्रमाण हमले की निंदा करने के साथ ही यह कहकर भी दिया कि मैं हमले की असली वजह के लिये अपने एक अन्य सहयेागी से पता कर ही आगे कुछ कहूंगा।

            आखिरी बात जम्मू कश्मीर के बारे में की जाये। भारत में रहकर पाकिस्तान के ऐजेंडे का समर्थन करने से संभव है विदेशों में लोकप्रिय मिल जाये। कुछ लोग गला फाड़कर चिल्लाते हुए रहें तो उसकी परवाह कौन करता है? मगर यह नाजुक विषय है। भारत का बंटवारा कर पाकिस्तान बना है। इधर पेशेवर बुद्धिजीवी विदेशी प्रायोजन के चलते मानवाधिकारों की आड़ में गाहे बगाहे जनमत संग्रह की बात करते हैं। कुछ ज्ञानी बुद्धिजीवी इस बात को जानते हैं कि यह सब केवल पैसे का खेल है इसलिये बोलते नहीं है। फिर बयान के बाद मामला दब जाता है। इसलिये क्या विवाद करना? अलबत्ता इन बुद्धिजीवियों को कथित स्वैच्छिक समाज सेवकों को यह बता दें कि विभाजन के समय सिंध और पंजाब से आये लोग हिन्दी नहीं जानते थे इसलिये अपनी बात न कह पाये न लिख पाये। उन्होंने अपनी पीड़ा अपनी पीढ़ी को सुनाई जो अब हिन्दी लिखती भी है और पढ़ती भी है। यह पेशेवर बुद्धिजीवी अपने उन बुजुर्गों की बतायी राह पर चल रहे हैं जिसका सामना बंटवारा झेलने वाली पीढ़ी से नहीं हुआ मगर इनका होगा। बंटवारे का सच क्या था? वहां रहते हुए और फिर यहां आकर शरणार्थी के रूप में कैसी पीढ़ा झेली इस सच का बयान अभी तक हुआ नहीं है। विभाजन से पूर्व पाकिस्तान में सिंध, बलूचिस्तान और सिंध प्रांतों में क्या जनमत कराया गया था? पाकिस्तान जम्मू कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करता और जनमत संग्रह की मांग करने वाले खुले रूप से उससे हमदर्दी रखते हैं। ऐसे में जनमत संग्रह कराने का मतलब पूरा कश्मीर पाकिस्तान को देना ही है। कुछ राष्ट्रवादियों का यह प्रश्न इन कथित मानवाधिकारियों के सामने संकट खड़ा कर सकता है कि ‘सिंध किसके बाप का था जो पाकिस्तान को दे दिया या किसके बाप का है जो कहता है कि वह पाकिस्तान का हिस्सा है’। जम्मू कश्मीर को अपने साथ मिलाने का सपना पूरा तो तब हो जब वह पहले बलूचिस्तान, सीमा प्रांत और सिंध को आजाद करे जहां की आग उसे जलाये दे रही है। यह तीनों प्रांत केवल पंजाब की गुलामी झेल रहे हैं। इन संकीर्ण बुद्धिजीवियों की नज़र केवल उस नक्शे तक जाती है जो अंग्रेज थमा गये जबकि राष्ट्रवादी इस बात को नहीं भूलते कि यह धोखा था। संभव है कि यह सब पैसे से प्रायोजित होने की वजह से हो रहा हो। इसी कारण इतिहास, भूगोल तथा अपने पारंपरिक समाज से अनभिज्ञ होकर केवल विदेशियों से पैसा देकर कोई भी कैसा भी बयान दे सकता है। यह लोग जम्मू कश्मीर पर बोलते हैं पर उस सिंध पर कुछ नहीं बोलते जो हमारे राष्ट्रगीत में तो है पर नक्शे में नहीं है।

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

जापान में सुनामी का कहर, भारत में विज्ञापन की सुनामी का पहर-हिन्दी लेख (japan mein sunami ka kahar aur bharat mein vigyapan ka pahar-hindi lekh


जापान में भूकंप के बाद समंदर अपनी मर्यादा छोड़कर सुनामी की लहरें ले आया जिससे वहां भारी तबाही हुई है। निश्चित रूप से यह खबर लोगों के लिये डरावनी है। इधर भारत में यह लग रहा है कि जापान की सुनामी पर समाचार और बहस प्रसारण में भारतीय चैनलों के लिये विज्ञापनों की सुनामी आ गयी। ऐसे खास अवसरों ं टीवी चैनल के दर्शक कुछ विस्तार से सुनना और जानना चाहते हैं और यह बात देश के प्रचार प्रबंधकों को पता है और वह पर्दे के सामने चिपके रहेंगे इसलिये उनके सामने विज्ञापन दिखाकर अपने प्रायोजकों को खुश करते हैं। मुश्किल यह है कि उनके पास प्रबंध कौशल केवल अपने विज्ञापनदाताओं करे खुश करने तक ही सीमित है कार्यक्रम के निर्माण और प्रस्तुति में नज़र नहीं आती। उनको समाचार और बहसों के बीच केवल अपने विज्ञापनों की फिक्र रहती है।
कभी कभी तो ऐसा लगता है कि विज्ञापनों की वजह से इतने सारे समाचार चैनल चल रहे हैं और उनका लक्ष्य विज्ञापन प्रसारित करना है और समाचार और बहस तो उनके लिये फालतु का विषय है। जो नये चैनल आ रहे हैं वह भी इसी उद्देश्य की पूर्ति में लग जाते हैं इसलिये वह पुराने चैनलों को परास्त नहीं कर पा रहे। सच बात तो यह है कि इन प्रबंधकों के पास पैसा कमाने के ढेर सारे तरीके होंगे पर प्रबंध कौशल नाम का नहीं है। प्रबंध कौशल से आशय है कि अपने व्यवसाय से संबंधित हर व्यक्ति को खुश करना और कम से कम भारतीय समाचार टीवी चैनलों के दर्शक उनसे खुश नहीं है। समाचारों और बहसों के बीच जिस तरह विज्ञापन जिस तरह दिखाये जा रहे हैं उससे तो यह बात साफ लगती है कि दर्शकों की परवाह उनको नहीं है। एक मिनट का समाचार पांच मिनट का विज्ञापन। यह भी चल जाये पर बहस बीच में भी यही हाल। चार विद्वान जुटा लिये और आधे घंटे की उनकी बहस में पांच मिनट का भी वार्तालाप नहीं होता।
कई बार तो यह हालत हो जाती है किसी विषय पर विद्वान अपनी एक मिनट की बात पांच मिनट के विज्ञापन के साथ दो बार पूरी करा करता है। ऐसा लगता है कि उधर जब सुनामी आ गयी तो भारत के टीवी चैनलों के प्रबंधक विज्ञापनों का प्रबंधन कर रहे होंगे क्योंकि उनको मालुम था कि उनके कर्मचारी विदेशी टीवी चैनलों की कतरनों से समाचार प्रसारित करने के साथ ही चार चार पांच लाईने बोलने वाले विद्वान भी जुटाकर कार्यक्रम ठीकठाक बना लेंगे। कौन हिन्दी दर्शक अंग्रेजी टीवी चैनल देखता है जो इस घटिया स्तर को समझ पायेगा।
ऐसा लगता है कि विश्व पटल पर भारत जो कर्थित आर्थिक विकास कर रहा है वहां यहां के आम लोगों के लिये महत्वहीन होता जा रहा है। भारत के आर्थिक ताकत होने पर यहां कौन यकीन कर सकता है जब यहां के आम आदमी की किसी को परवाह न हो। विकास कंपनियों के नाम पर शक्तिशाली लोगों के समूहों को रहा है। कलाकार, विद्वान, पूंजीपति, समाजसेवी और बाहुबली सभी जगह अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और यही प्रसिद्ध चेहरे कहीं न कहीं  कंपनियों के पीछे रहनुमा क तरह खड़े हैं। इतनी सारी कपंनियां और उनके विज्ञापन बार बार देखकर मन उकता जाता है। वही क्रिकेट, फिल्म और टीवी धारावाहिकों में सक्रिय चेहरे सतत सामने आते हैं तो लगता है कि टीवी बंद रखना ही श्रेयस्कर है। देश की कथित अमीरी अब बोरियत का कारण बन रही है।
जापान की सुनामी की चर्चा में कहीं  कुछ ऐसा सुनने को मिला जिसे याद रखने योग्य माना जाये। वहां भारी तबाही है। प्रकृति के प्रकोप से आई सुनामी के निशान मिट जायेंगे पर वहां जो परमाणु संयत्र पर विस्फोट हुआ है वह काफी चिंताजनक हैं। मर्यादा लांघकर आया समंदर लौट जायेगा पर मानवजनित उस परमाणु ऊर्जा से उपजा प्रकोप से निपटना आसान काम नहीं होगा। लोग बता रहे हैं कि जापान में आई सुनामी का भारत पर प्रभाव नहीं होगा पर अगर परमाणु संयंत्र से गैस का रिसाव हुआ तो वह समंदर के साथ ही विश्व की पूरी धरती पर विष घोल सकता है। समंदर में रेडिएशन घुल गया तो वह बरसात के माध्यम से कहां बरसेगा पता नहीं। विशेषज्ञ कहते हैं कि इस रिसाव से कोई खतरा नहीं पर हमारे हिसाब से उनको अभी अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है। हमारा मानना तो यह है कि इस तरह के प्रकोप इसलिये हो रहे हैं कि अमेरिका और चीन सहित अनेक देशों ने ज़मीन और समंदर में ढेर सारे विस्फोट किये हैं।
ऐसे में एशिया के सबसे संपन्न जापान पर आया संकट यही संदेश दे रहा है कि प्रकृति से अधिक मानव स्वयं के लिये अधिक खतरनाक है। समंदर तो आज नहीं तो कल वापस अपनी जगह जायेगा पर परमाणु संयत्र से आया संकट आसानी से पीछा नहीं छोड़ेगा। जापान के लोगों ने 1942 में अपने दो शहरों हिरोशिमा और नागासकी पर अमेरिका के परमाणु बम गिरते देखें हैं और वह इसे जानते हैं। बहरहाल उनके यहां आयी सुनामी भारत के टीवी चैनलों के लिये भी सुनामी लायी है।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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प्रधानमंत्री से प्रश्न करने वालों के स्तरीय होने पर सवाल-हिन्दी लेख (prime minister’s presconfrence and TV Editor’statas)


एक प्रेस कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री ने टीवी चैनल के संपादकों के साथ बातचीत करते हुए जो कहा उस पर तमाम तरह की टिप्पणियां और विचार देखने को मिले। उनके उत्तरों की विवेचना करने वाले अनेक बुद्धिमान अपने अपने हिसाब से टिप्पणियां दे रहे हैं पर हम उनसे किये गये सवालों पर दृष्टिपात करना चाहेंगे।
श्री वेद प्रकाश वैदिक ने प्रधानमंत्री से किये गये सवालों पर सवाल उठाये हैं जो दिलचस्प हैं। उन्होंने सबसे पहला सवाल यह किया कि क्या सवाल करने के लिये भ्रष्टाचार का मुद्दा ही था? नेपाल, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर इन संपादकों पत्रकारों के दिमाग में कोई विचार नहीं क्यों नहीं आया जबकि उनसे जुड़े मुद्दे भी अहम थे। यह सही है कि भ्रष्टाचार का मुद्दा इस देश के आमजन में चर्चित है पर पत्रकार या संपादक आम आदमी से कुछ ऊंचे स्तर के बौद्धिक स्तर के माने जाते हैं। अगर वह केवल इसीलिये इस मुद्दे पर अटके रहे क्योंकि दर्शक इसी में ही भटक रहे हैं तो फिर हमें कुछ नहीं कहना है पर उनको यह पता नहीं हेाना चाहिए कि उनके समाचार चैनलों के दर्शक तो आम आदमी के रूप में हम जैसे निठल्ले ही हैं जो समाचार देखने में रुचि रखने के साथ ही संपादकों और पत्रकारों के विश्लेषणों को सुनकर अपना समय गंवाते हैं।
एक बात तय रही है कि इस देश में लेखन, संपादन तथा समाचार संकलन की कला में दक्ष होने से कोई पत्रकार या संपादक नहीं बनता क्योंकि यहां व्यक्तिगत संबंध और व्यवसायिक जुगाड़ का होना आवश्यक है। जुगाड़ से कोई बन जाये तो उसे अपनी विधा में पारंगत होने की भी कोई आवश्कयता नहीं है। बस, जनता के बीच पहले किसी विषय की चर्चा अपने माध्यमों से कराई जाये फिर उस पर ही बोला और पूछा जाये। ऐसा करते हुए अनेक महान पत्रकार बन गये हैं। पहले समाचार पत्र पत्रिकाओं में जलवे पेल रहे थे अब टीवी पर भी प्रकट होने लगे हैं। श्री वेद प्रकाश वैदिक अंग्रेजी की पीटीआई तथा हिन्दी की भाषा समाचार एजेंसी जुड़े रहे हैं और शायद पत्रकारिता के लिए एक ऐसे स्तंभ हैं जिनसे सीखा जा सकता है पर उनकी तरह नेपथ्य में बैठकर अध्ययन और ंिचतन करने की इच्छा और अभ्यास होना आवश्यक है। वह भी पर्दे पर दिखते हैं पर इसके लिये लालायित नहंी दिखते। न ही उनकी बात सुनकर ऐसा लगता है कि कोई पुरानी बात कह रहे हैं। यही कारण है कि कभी कभी ही उनके दर्शन टीवी पर हो जाते हैं। मगर जिनको अपना चेहरा रोज दिखाना है उनके लिए चिंतन, अध्ययन और मनन करना एक फालतू का विषय है। इसलिये इधर उधर से सुनकर अपनी बात कर वाह वाह करवा लेते हैं।
प्रधानमंत्री से पूछा गया कि ‘भारत में विश्व कप क्रिकेट कप हो रहा है, आप अपने देश की टीम को शुभकामनाऐ देना चाहेंगे।’
अब बताईये कोई प्रधानमंत्री इसका क्या जवाब क्या ना में देगा।
दूसरा सवाल यह कि आप का पसंदीदा खिलाड़ी कौन है?
सवालकर्ता भद्र महिला शायद यह आशा कर रही थीं कि वह टीवी चैनलों की तरह कुछ खिलाड़ियों को महानायक बनाकर विज्ञापनदाताओं का अपना काम सिद्ध कर देंगी।
मगर प्रधानमंत्री ने हंसकर इस सवाल को टालते हुए कहा कि किसी एक दो खिलाड़ी का नाम लेना ठीक नहीं है।
एक महान देश के प्रधानमंत्री से ऐसे ही चतुराईपूर्ण उत्तर की आशा करना चाहिए। वह पूरे देश के प्रधानमंत्री हैं और किसी एक खिलाड़ी का नाम लेने का अर्थ था कि बाकी खिलाड़ियों को दुःख देना। मगर यहां सवालकर्ता के स्तर पर विचार करना पड़ता है। क्रिकेट पर प्रधानमंत्री से इतनी महत्वपूर्ण सभा में सवाल करना इस बात को दर्शाता है कि लोकप्रिय विषयों के आसपास ही हमारे प्रचार समूहों के बौद्धिक चिंतक घूम रहे हैं। कहते हैं कि आत्ममुग्धता की स्थिति बहुत खराब है। क्रिकेट का प्रचार माध्यम चाहे कितना भी करते हों पर अब यह इतने महत्व का विषय नहीं रहा कि भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों की समक्ष इसे रख जा सके। इसकी जगह उनसे किसी विदेशी विषय पर ऐसा सवाल भी किया जा सकता था जिसे सुनकर देश के लोग कुछ चिंतन कर सकते। यह सवाल एक महिला पत्रकार ने किया था। ऐसे में नारीवादियों को आपत्ति करना चाहिए कि क्या महिला पत्रकार होने का मतलब क्या केवल यही है कि केवल हल्के और मनोरंजन विषय उठाकर दायित्व निभाने की पुरानी परंपरा निभाया जाये। क्या किसी महिला पत्रकार के लिये कोई बंधन है कि वह राजनीतिक विषय नहीं उठा सकती।
प्रधानमंत्री इस प्रेस कांफ्रेंस में बहुत संजीदगी से पेश आये पर टीवी चैनलों के संपादकों और पत्रकारों ने इसे एक प्रायोजित सभा बना दिया। विज्ञापनों के कारण शायद उनको आदत हो गयी है कि वह हर जगह प्रायोजित ढंग से पेश आते हैं। एक औपाचारिक प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने प्रधानमंत्री जैसे उच्च पर बैठे व्यक्ति से जिस तरह उन्होंने सवाल किये उससे तो ऐसा लगा जैसे कि वह अपने स्टूडियो में बैठे हों। इतना बड़ा देश और इतने व्यापक विषय होते हुए भी केवल दो मुद्दों उसमें भी एक क्रिकैट का फालतू सवाल शामिल हो तो फिर क्या कहा जा सकता है। भारत में लोग गरीब हैं पर प्रचार माध्यमों के स्वामी और कार्यकर्ता तो अच्छा खासा कमा रहे हैं। उनसे तो अन्य देशों के लोग ईर्ष्या करते होंगे, खासतौर से यह देखकर उनसे कमतर भारतीय प्रचार स्वामी और और कार्यकर्ता कहीं अधिक धनी हैं।
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लेखक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
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कन्या भ्रुण हत्या से मध्ययुगीन स्थिति की तरफ बढ़ता समाज-हिन्दी लेख (kanya bhrun hatya aur madhya yugin samaj-hindi lekh


              हो सकता है कि कुछ लोग हमारी बुद्धि पर ही संशय करें, पर इतना तय है कि जब देश के बुद्धिजीवी किसी समस्या को लेकर चीखते हैं तब उसे हम समस्या नहीं बल्कि समस्याओं या सामाजिक विकारों का परिणाम मानते हैं। टीवी और समाचार पत्रों के समाचारों में लड़कियों के विरुद्ध अपराधों की बाढ़ आ गयी है और कुछ बुद्धिमान लोग इसे समस्या मानकर इसे रोकने के लिये सरकार की नाकामी मानकर हो हल्ला मचाते हैं। उन लोगों से हमारी बहस की गुंजायश यूं भी कम हो जाती हैं क्योंकि हम तो इसे कन्या भ्रुण हत्या के फैशन के चलते समाज में लिंग असंतुलन की समस्या से उपजा परिणाम मानते है। लड़की की एकतरफ प्यार में हत्या हो या बलात्कार कर उसे तबाह करने की घटना, समाज में लड़कियों की खतरनाक होती जा रही स्थिति को दर्शाती हैं। इस पर चिंता करने वाले कन्या भ्रूण हत्या के परिणामों को अनदेखा करते हैं।
        इस देश में गर्भ में कन्या की हत्या करने का फैशन करीब बीस-तीस साल पुराना हो गया है। यह सिलसिला तब प्रारंभ हुआ जब देश के गर्भ में भ्रुण की पहचान कर सकने वाली ‘अल्ट्रासाउंड मशीन’ का चिकित्सकीय उपयोग प्रारंभ हुआ। दरअसल पश्चिम के वैज्ञानिकों ने इसका अविष्कार गर्भ में पल रहे बच्चे तथा अन्य लोगों पेट के दोषों की पहचान कर उसका इलाज करने की नीयत से किया था। भारत के भी निजी चिकित्सकालयों में भी यही उद्देश्य कहते हुए इस मशीन की स्थापना की गयी। यह बुरा नहीं था पर जिस तरह इसका दुरुपयोग गर्भ में बच्चे का लिंग परीक्षण कराकर कन्या भ्रुण हत्या का फैशन प्रारंभ हुआ उसने समाज में लिंग अनुपात की  स्थिति को बहुत बिगाड़ दिया। फैशन शब्द से शायद कुछ लोगों को आपत्ति हो पर सच यह है कि हम अपने धर्म और संस्कृति में माता, पिता तथा संतानों के मधुर रिश्तों की बात भले ही करें पर कहीं न कहीं भौतिक तथा सामाजिक आवश्यकताओं की वजह से उनमें जो कृत्रिमता है उसे भी देखा जाना चाहिए। अनेक ज्ञानी लोग तो अपने समाज के बारे में साफ कहते हैं कि लोग अपने बच्चों को हथियार की तरह उपयोग करना चाहते हैं जैसे कि स्वयं अपने माता पिता के हाथों हुए। मतलब दैहिक रिश्तों में धर्म या संस्कृति का तत्व देखना अपने आपको धोखा देना है। जिन लोगों को इसमें आपत्ति हो वह पहले कन्या भ्रुण हत्या के लिये तर्कसंगत विचार प्रस्तुत करते हुए उस उचित ठहरायें वरना यह स्वीकार करें कि कहीं न कहीं अपने समाज के लेकर हम आत्ममुग्धता की स्थिति में जी रहे हैं।
           जब कन्या भ्रुण हत्या का फैशन की शुरुआत हुई तब समाज के विशेषज्ञों ने चेताया था कि अंततः यह नारी के प्रति अपराध बढ़ाने वाला साबित होगा क्योंकि समाज में लड़कियों की संख्या कम हो जायेगी तो उनके दावेदार लड़कों की संख्या अधिक होगी नतीजे में न केवल लड़कियों के प्रति बल्कि लड़कों में आपसी विवाद में हिंसा होगी। इस चेतावनी की अनदेखी की गयी। दरअसल हमारे देश में व्याप्त दहेज प्रथा की वजह से लोग परेशान रहे हैं। कुछ आम लोग तो बड़े आशावादी ढंग से कह रहे थे कि ‘लड़कियों की संख्या कम होगी तो दहेज प्रथा स्वतः समाप्त हो जायेगी।’
                  कुछ लोगों के यहां पहले लड़की हुई तो वह यह सोचकर बेफिक्र हो गये कि कोई बात नहीं तब तक कन्या भ्रुण हत्या की वजह से दहेज प्रथा कम हो जायेगी। अलबत्ता वही दूसरे गर्भ में परीक्षण के दौरान लड़की होने का पता चलता तो उसे नष्ट करा देते थे। कथित सभ्य तथा मध्यम वर्गीय समाज में कितनी कन्या भ्रुण हत्यायें हुईं इसकी कोई जानकारी नहीं दे सकता। सब दंपतियों के बारे में तो यह बात नहीं कहा जाना चाहिए पर जिनको पहली संतान के रूप में लड़की है और दूसरी के रूप में लड़का और दोनों के जन्म के बीच अंतर अधिक है तो समझ लीजिये कि कहीं न कहंी कन्या भ्रुण हत्या हुई है-ऐसा एक सामाजिक विशेषज्ञ ने अपने लेख में लिखा था। अब तो कई लड़किया जवान भी हो गयी होंगी जो पहली संतान के रूप में उस दौर में जन्मी थी जब कन्या भ्रुण हत्या के चलते दहेज प्रथा कम होने की आशा की जा रही थी। मतलब यह कि यह पच्चीस से तीस साल पूर्व से प्रारंभ  सिलसिला है और दहेज प्रथा खत्म होने का नाम नहीं ले रही। हम दहेज प्रथा समाप्ति की आशा भी कुछ इस तरह कर रहे थे कि शादी का संस्कार बाज़ार के नियम पर आधारित है यानि धर्म और संस्कार की बात एक दिखावे के लिये करते हैं। अगर लड़कियां कम होंगी तो अपने आप यह प्रथा कम हो जायेगी, पर यह हुआ नहीं।
            इसका कारण यह है कि देश में आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है। मध्यम वर्ग के लोग अब निम्न मध्यम वर्ग में और निम्न मध्यम वर्ग के गरीब वर्ग में आ गये हैं पर सच कोई स्वीकार नहीं कर रहा। इस कारण लड़कों से रोजगार के अवसरों में भी आकर्षण शब्द गायब हो गया है। लड़कियों के लिये वर ढूंढना इसलिये भी कठिन है क्योंकि रोजगार के आकर्षक स्तर में कमी आई है। अपनी बेटी के लिये आकर्षक जीवन की तलाश करते पिता को अब भी भारी दहेज प्रथा में कोई राहत नहीं है। उल्टे शराब, अश्लील नृत्य तथा विवाहों में बिना मतलब के व्यय ने लड़कियों की शादी कराना एक मुसीबत बना दिया है। इसलिये योग्य वर और वधु का मेल कराना मुश्किल हो रहा है।
           फिर पहले किसी क्षेत्र में लड़कियां अधिक होती थी तो दीवाने लड़के एक नहीं  तो दूसरी को देखकर दिल बहला लेते थे। दूसरी नहीं तो तीसरी भी चल जाती। अब स्थिति यह है कि एक लड़की है तो दूसरी दिखती नहीं, सो मनचले और दीवाने लड़कों की नज़र उस पर लगी रहती है और कभी न कभी सब्र का बांध टूट जाता है और पुरुषत्व का अहंकार उनको हिंसक बना देता है। लड़कियों के प्रति बढ़ते अपराध कानून व्यवस्था या सरकार की नाकामी मानना एक सुविधाजनक स्थिति है और समाज के अपराध को दरकिनार करना एक गंभीर बहस से बचने का सरल उपाय भी है।

हम जब स्त्री को अपने परिवार के पुरुष सदस्य से संरक्षित होकर राह पर चलने की बात करते हैं तो नारीवादी बुद्धिमान लोग उखड़ जाते हैं। उनको लगता है कि अकेली घूमना नारी का जन्मसिद्ध अधिकार है और राज्य व्यवस्था उसको हर कदम पर सुरक्षा दे तो यह एक काल्पनिक स्वर्ग की स्थिति है। यह नारीवादी बुद्धिमान नारियों पर हमले होने पर रो सकते हैं पर समाज का सच वह नहीं देखना चाहते। हकीकत यह है कि समाज अब नारियों के मामले में मध्ययुगीन स्थिति में पहुंच रहा है। हम भी चुप नहीं  बैठ सकते क्योंकि जब नारियों के प्रति अपराध होता है तो मन द्रवित हो उठता है और लगता है कि समाज अपना अस्तित्व खोने को आतुर है।

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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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