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विकीलीक्स की जानकारी हैरान नहीं करती-हिन्दी आलेख(wikileeks aur india-hindi article)


हमारे देश में ऐसी बहुत बड़ी आबादी है जिसकी दिलचस्पी अमेरिका में इतनी नहीं है जितनी प्रचार माध्यम या विशिष्ट वर्ग के लोग लेते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि जनसामान्य जागरुक नहीं है या समाचार पढ़ने या सुनने के उसके पास समय नहीं है। दरअसल देश के प्रचार माध्यम से जुड़े लोग यह मानकर चलते हैं कि गरीब, ठेले वाले, खोमचे वाले या तंागे वाले उनके प्रयोक्ता नहीं है और इसलिये वह पढ़े लिखे नौकरी या व्यवसाय करने वालों को ही लक्ष्य कर अपनी सामग्री प्रस्तुत करते हैं। यह उनका अज्ञान तथा अव्यवसायिक प्रवृत्ति का परिणाम है। शायद कुछ बुद्धिमान लोग बुरा मान जायें पर सच यह है कि समाचार पढ़ना तथा राजनीतिक ज्ञान रखना गरीबीया अमीरी से नहीं जुड़ा-यह तो ऐसा शौक है जिसको लग जाये तो वह छूटता नहीं है। चिंतन क्षमता केवल शिक्षित या शहरी लोगों के पास होने का उनका विचार खोखला है। कई बार तो ऐसा लगता है कि ग्रामीण और शिक्षित वर्ग का ज्ञान कहीं  अधिक है। सीधी बात कहें तो अमेरिका ने 1971 में भारत पाक युद्ध के समय अपना सातवां बेड़ा भारत के खिलाफ उतारने की घोषणा की थी और यह बात आज भी आम भारतीय के जेहन में है और वह उस पर यकीन नहीं करता। विकिलीक्स से बड़े शहरों के बुद्धिजीवी चौंक गये हैं पर उनमें कुछ ऐसा नहीं है कि आम भारतीय जनमानस प्रभावित या चिंतित हो।
विकिलीक्स ने अमेरिकी सरकार के गोपनीय दस्तावेजों का खुलासा किया है। यह एक बहुदेशीय वेबसाईट है। अनेक पत्रकार इसमें अपने पाठ या पोस्ट रखते हैं और उनकी जांच के बाद उनको प्रकाशित किया जाता है। अपनी भद्द पिटते देखकर अमेरिकी सरकार इसके विरुद्ध कार्यवाही करने में लगी है। वह अन्य देशों से इसे अनदेखा करने का आग्रह कर रही है। दुनिया भर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रचार की जिम्मेदारी लेने वाले अमेरिकी रणनीतिकार अब ठीक उलट बर्ताव कर रहे हैं।
अमेरिका की विदेश मंत्री हेनरी क्लिंटन ने सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के भारत के दावे का मखौल उड़ाने के साथ ही हमारे देश के विशिष्ट वर्ग की जासूसी करने को कहा है। बात तो यह है कि अमेरिका अपनी आर्थिक विवशताओं के चलते ही भारत को पुचकार रहा है वरना उसकी आत्मा तो खाड़ी देश और उनके मानस पुत्र पाकिस्तान में ही बसती है। इसलिए अपनी साम्राज्यवादी भूख मिटाने तथा हथियार बिकवाने के लिये पाकिस्तान को भी साथ रख रहा है। अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान में फैले आतंकवाद से निपटने में भारतीय हितों की उसे परवाह नहीं है। उसका दोगलापन कोई ऐसी चीज नहीं है जिस पर चौंका जाये। सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता भी अब कितनी प्रासंगिक है यह भी हमारे लिये विचार का विषय है। ब्राजील, जापान, जर्मनी के साथ भारत को इसमें स्थाई सदस्यता दी भी गयी तो उसमें वीटो पॉवर का अधिकार मिलेगा इसमें संदेह है-कुछ प्रचार माध्यमों में इस आशय का समाचार बहुत पहले पढ़ने को मिला था कि अब नये स्थाई सदस्यों को इस तरह का अधिकार नहीं मिलेगा। बिना वीटो पॉवर की स्थाई सदस्यता को कोई मतलब नहीं है। यह अलग बात है कि अमेरिकी मोह में अंधे हो रहे प्रचार कर्मी उसकी हर बात को ब्रह्म वाक्य की तरह उछालते हैं। तब ऐसा भी लगता है कि वह अपने देश के जनमानस की बजाय पश्चिमी अप्रवासी भारतीयों को लिये अपने प्रसारण कर रहे हैं। अभी हाल ही में भारत के सुरक्षा परिषद में अस्थाई सदस्यता पर भी जिस तरह खुश होकर यह प्रचार माध्यम चीख रहे थे वह हास्यप्रद था क्योंकि यह क्रमवार आधार पर नियम से मिलनी ही थी। समाचारों पर बहुत समय से रुचि लेने वाले आम पाठक यह जानते हैं कि अनेक अवसरों पर भारत को यह सदस्यता मिली पर उसकी बात सुनी नहीं गयी।
इस चर्चा में विकीलीक्स के खुलासे चिंतन से अधिक मनोरंजन के लिये है। जिस तरह विदेशी राष्ट्रों के लिये संबोधन चुने गये हैं उससे भारतीय टीवी चैनलों के हास्य कलाकारों की याद आती है। यह अलग बात है कि यह कलाकार पेशेवर होने के कारण अमेरिकी रणनीतिकारों से अधिक शालीन और प्रभावी शब्द इस्तेमाल करते हैं। विकिलीक्स ने अमेरिकी रणनीतिकारों के दोहरेपन को प्रमाण के साथ प्रस्तुत किया है जो कि एक असामान्य घटना है। अमेरिकी जो कहते हैं और सोचते हैं इस पर अधिक माथा पच्ची करने की आवश्यकता नहीं है। सच तो यह है कि विकिलीक्स के खुलासे देखकर कभी कभी तो ऐसा लगता है कि अमेरिका एक स्वतंत्र राष्ट्र नहीं बल्कि पूंजीवाद का उपनिवेश है जो व्यापार या बाज़ार के वैश्वीकरण के साथ ही अपनी भूमिका का विस्तार कर रहा है। चाहे किसी भी देश के पूंजीपति या विशिष्ट वर्ग के लोग हैं अपने क्षेत्र में उसे कितनी भी गालियां देते हों पर अपनी संतान या संपत्ति वहां स्थापित करने में उनको अपनी तथा भविष्य की पीढ़ी की सुरक्षा नज़र आती है। तय बात है कि वह कभी वहां के रणनीतिकारों के निर्देश पर चलते हैं तो कभी उनको चलाते हैं। अमेरिकी रणनीतिकारों की भी क्या कहने? एक ग्राहक कुछ मांगता है दूसरे से उसकी आपूर्ति करवाते हैं। दूसरा कहे तो तीसरे से करवाते हैं। खुलासों से पता लगता है कि खाड़ी देश दूसरे के परमाणु संयत्र पर अमेरिका को हमले के लिये उकसा रहा है। मतलब यह कि अमेरिका अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहा है या पूंजीतंत्र के शिखर पुरुष अपने क्षेत्र में उसे घसीट रहे हैं, यह अब चर्चा का विषय हो सकता है। ऐसे में अमेरिकी रणनीतिकारों के औपचारिक या अनौपचारिक बयानों, कमरे में या बाहर की गयी टिप्पणियों तथा कहने या करने में अंतर की चर्चा करना भी समय खराब करना लगती है।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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हिन्दी ब्लॉग दे सकते हैं प्रचार माध्यमों को चुनौती-आलेख


उस दिन चिट्ठकार चर्चा का नियमित ईमेल पढ़ा-यह ईमेल इसके सदस्यों को नियमित भेजा जाता है-जिसमें तमिल बच्चों द्वारा हिंदी सीखने की बात कही गयी थी। यह कोई नई खबर नहीं है क्योंकि अब कई ऐसे तमिल भाषी है जो हिंदी में लिखते और पढ़ते हैं-शायद इस ईमेल का आशय यह हो सकता है कि अब अधिक दिलचस्पी से तमिल भाषी बच्चे इसे पढ़ने लगें हों। इस प्रसंग का उल्लेख इसलिये करना ठीक लगा क्योंकि ईमेल पढ़ते हुए ही एक घटना इस लेखक के जेहन में आयी थी और वह कोई अधिक पुरानी नहीं थी। उस पर लिखने का दिल था पर इस ईमेल को देखकर यह प्रबल विचार उठा कि उस पर लिखा जाये।

एक मित्र सज्जन ने कुछ इस तरह एक घटना सुनाई। एक महिला के दो लड़के हैं एक अमेरिका में दूसरा मध्यप्रदेश में रहता है। मध्यप्रदेश में रहने वाला लड़का अपनी मां को अमेरिका में छोटे बेटे की तरफ रवाना करने के लिये चेन्नई गया। उसने विमानतल से अपनी मां को वायुयान में बिठाकर रवाना किया पर उसे अपनी मां को लेकर एक चिंता थी जो शायद नई थी। इससे पहले भी वह कई बार अमेरिका अकेले जा चुकी है पर इस बार कोई अन्य साथ जाने वाला यात्री नहीं था दूसरा उस महिला को हीथ्रो हवाई अड्डे पर टर्मिनल बदलना था जिसमें भाषा आड़े आने वाली थी। तमिल भाषी महिला को अंग्रेजी कम ही आती है पर हिंदी का ठीकठाक ज्ञान है।
उस महिला के बड़े पुत्र को इस टर्मिनल बदलने के दौरान ही मां के लिये चिंतायें थीं। इन टर्मिनलों पर यात्रियों की सहायता के लिये बहुभाषी होते हैं पर समस्या उनसे संपर्क की थी।

बहरहाल वह भद्र महिला हीथ्रो हवाई अड्डे पर उतरी कोई दुभाषिया ढूंढने लगी क्योंकि उसको दूसरे टर्मिलन पर जाने के लिये बस का पता पूछना था। एक दुभाषिया उससे मिला तो उसने उससे कहा कि‘आधे घंटे में आता हूंं।’
महिला बेबस खड़ी रह गयी। फिर उसने वहां खड़ी एक कर्मचारी से टूटी फूटी अंग्रेजी में उस बस का पता पूछा तो उस लड़की ने बता दिया। वह उस बस में चढ़कर दूसरे टर्मिनल पर पहुंची। वहां फिर वह कोई दुभाषिया ढूंढने लगी। वहां तमाम कर्मचारी थे जो चेहरे से ही विभिन्न देशों के लग रहे थे। वहां एक दुभाषिया उस महिला के पास आया और अंग्रेजी में पूछा कि ‘क्या आप भारत से आईं हैं।’
महिला ने कहा-‘हां!’
वह दुभाषिया उस समय औपचारिक रूप से पेश आ रहा था। फिर उसने महिला से हिंदी में पूछा-क्या आपको हिंदी आती है।’
उस भद्र की महिला की बाछें खिल उठीं और बोली-हां, आती है।’
वह दुभाषिया औपचारिकता की बजाय आत्मीयता से बोला-आपने अपने कागजों में व्हील चेयर की मांग की है। मैं अभी मंगवाता हूं। अच्छा आपने शाकाहारी भोजन की मांग की है यह बात मैं वायुयान के कर्मचारियों को बता दूंगा। अभी आप आराम से उधर बैठ जाईये। आप बेफिक्र होकर अपनी यात्रा जारी रखिये।’
महिला जब तक वहां से रवाना नहीं हुई तब तक उसकी वहां अनेक कर्मचारियों से हिंदी में बातचीत हुई। वह बहुत खुश थी। निर्धारित समय पर वायुयान से वह अमेरिका से रवाना हो गयी। वहां पहुंचकर उसने अपने बड़े बेटे को अपनी पूरी यात्रा का वृतांत फोन पर सुनाया और कहा-‘जब उस लड़के ने हिंदी मेेंं बात की तो मुझे बहुत अच्छा लगा। उससे पहले तो बहुत अकेलापन लग रहा था। उसके मूंह से निकल हिंदी शब्द अमृत की तरह लगे थे।’
हिंदी के विकास को लेकर निराशाजनक बातें करने वालों का निहितार्थ क्या होता है यह समझ में नहीं आता। जहां तक हिंदी के संपर्क भाषा का प्रश्न है तो वह निरंतर बढ़ रही है-यहां अपवादों की चर्चा करना व्यर्थ होगा। सच बात तो यह है कि हिंदी अब भारत में उन क्षेत्रों में पहुंच रही है जहां उसे पहले जाना तक नहीं जाता था। हम जब हिंदी के सम्मान की बात करते हैं तो सवाल यह उठता है कि हम उसे किस रूप में प्रतिष्ठित देखना चाहते हैं? क्या यह चाहते हैं कि सारा विश्व ही हिंदी बोलने लगे। यह अतिश्योक्ति होगी। फिर हिंदी का आधुनिक स्वरूप बरकरार रहना चाहिये, अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग इसमें नियमित रूप से नहीं होना चाहिये, और अंग्रेजी की क्रियायें स्वीकार्य नहीं है जैसी बातों पर सहमति होने के बावजूद रूढि़वादिता को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
आजकल अंतर्जाल की हिंदी के वेबसाईटों और ब्लाग को भविष्य में एक समानांतर प्रचार माध्यम के रूप में स्थापित होने की बात कहीं जा रही है पर इधर यह भी दिखाई दे रहा है कि हमारे कुछ ब्लाग लेखक मित्र-जिनका चिंतन और हिंदी ज्ञान वाकई गजब का है-ऐसी रूढि़वादी बातें करते हैं कि लगता है कि उनको समझाना कठिन है। पिछले दो वर्षों से मेरे संपर्क में रहे कुछ मित्र हिंदी लिखने वाले टूलों से जुड़े हैं और सच बात तो यह है कि इस लेखक को आत्मविश्वास से हिंदी में लिखने का आत्मविश्वास भी उन्हीं से मिला है पर उनकी कुछ बातें हैरान कर देती हैं।

यहां विकिपीडिया के हिंदी टूल की बात करना जरूरी रहेगा जो मेरे डेस्कटाप पर है पर उसका उपयोग करने मेंे मुझे असहजता लगती है। यह तो गनीमत है कि गूगल का इंडिक टूल और फिर बाद में कृतिदेव का यूनिकोड टूल मिल गया जो अंतर्जाल पर नियमित लिखना संभव हो पाया। हिंदी के विकिपीडिया का करीब पंद्रह दिन तक उपयोग किया पर बाद में जब उसका संशोधित टूल उपयोग किया तो उससे असहजता लगने लगी। एक मित्र ने कुछ गजब की बातें लिखीं जो हिंदी टाईप राइटर को लेकर थीं
उनकार कहना था कि पता नहीं किसने यह टाईपराईटर बनाया जिसमे ‘ ि’ की मात्र पहले लगती है जबकि इसे बाद में टाईप करना चाहिये क्योंकि इसे पढ़ा भी बाद में जाता है। तक यह था कि हिंदी जैसी बोली जाती है वैसे ही लिखी जाती है तो वैसी टाईप भी हो।
इसके बाद विकिपीडिया में यह परिवर्तन दिखाई दिया। इससे हुआ यह कि उस टूल पर टाईप करते हुए अपना लिखा ही पढ़ने मेें नहीं आता। इंडिक टूल से किसी शब्द के साथ आई लगाने से भी दी पी ही हो जाता है पर अगर इस विचार से विकिपीडिया पर टाईप किया जाये तो दि पि हि नि रहेगा। चलिये यह भी मान लें पर जब ‘’ि’ की मात्रा जब ल ि प ि जैसी दिखती हैं तो समझ में नहीं आता। पहले विकिपीडिया के आफलाईन टूल में हिंदी में ज्ञ शब्द आसानी से बन जाता था पर बाद में वह भी संभव नहीं रहा। हालत यह है कि कभी जल्दी में टिप्पणी लिखने लायक भी यह टूल नहीं रहा। यह कोई शिकायत नहीं है बल्कि कहना यही है कि अधिक रूढ़ता से आगे बढ़ेंगे तो शायद हम हिंदी के साथ न्याय नहीं कर पायेंगे।

अंतर्जाल पर दिखता सब कुछ है पर वैसा ही है जैसा दिख रहा है कहना कठिन है। गूगल के अनुवाद टूल से हिंदी के पाठ अन्य भाषाओं में पढ़े जा रहे हैं यह तो दिख रहा है पर वह वाकई उसी भाषा के लोग पढ़ रहे हैं जिसमें पढ़ा गया यह कहना कठिन है।
आखिर हिंदी को लेकर आशावादी क्यों होना चाहिये? दरअसल हिंदी को लेकर जब हम बात करते हैं तो एक दिलचस्प बात सामने आती है कि हमारे देश की पहचान जिन रचनाओं से है वह मूल रूप से आधुनिक हिंदी में नहीं हैंं। अन्य की बात तो छोडि़ये हिंदी भाषी लोग जो अपनी पहचान वाली रचनायें पढ़ते हैं वह मूल रूप से संस्कृत या क्षेत्रीय भाषाओं में है। आधुनिक हिंदी के शुरुआती दौर में मौलिक रूप से अच्छा लिखा गया पर बाद में तात्कालिक रूप से सम्मान और धन पाने के लिये अनेक समसामयिक विषयों पर लिखकर वाहवाही बटोरने में लग गये। इसलिये हमेशा ही प्रासंगिक रहने वाले विषयों पर बहुत कम ही मौलिक रूप से लिखा गया। यही कारण है कि हिंदी भाषा साहित्य समृद्ध होते हुए भी अप्रासंगिक होता चला जाता है। हास्य कवितायें और व्यंग्य लिखने वाले बहुत मिल जायेंगे पर उनका व्यंग्य सन् 2040 में पढ़ कर समझा जाये यह जरूरी नहीं है-यह इसलिये लिखा गया है क्योंकि इस लेखक के एक मित्र ब्लाग ने उसी सन् में जीवन पर्यंत हिंदी सम्मान देने की बात लिखी है। बहरहाल यह हालत हम आज के संदर्भ में लिख रहे हैं और वह भी अंतर्जाल से पूर्व के हिंदी साहित्य की-जो कि आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक दबावों से कभी उबर ही नहीं पाया।
अंतर्जाल पर भी इसे दबाव में रखने के प्रयास तो होंगे पर जिन लोगों को उस दबाव से लड़ने की ताकत है और जो मौलिक और स्वतंत्र रूप से लिखने के अभ्यस्त होंगे वह अपना अस्तित्व स्वयं ही बनायेंगे। जब वेबसाइटों या ब्लाग की बात करते हैं तो वह केवल हिंदी में लिखने तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि रिपोर्ताज, समाचारों और घटनाओंं के सीधे प्रसारण की संभावना भी वेबसाईटों पर हो सकती है। जैसे हम आजकल समाचार या साहित्यक पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों का स्वरूप देखते हैं ऐसा यहां होने की संभावना नहीं है। एक अखबार अनेक समाचारों और आलेखों के साथ पाठक के पास पहुंचता है पर ब्लाग या वेबसाईटें अगर लोकप्रिय हुई तो उन्हें जरूरी नहीं है कि वह सभी एकदम प्रस्तुत करें। दिन में पचास से पांच सों तक वह अपने पाठ जारी कर सकती हैं। कई ब्लाग बनाकर वह उसे चलायमान रख सकती हैं। ऐसे ही साहित्यक पत्रिकाओं के साथ भी है। यह जरूरी नहीं कि सप्ताह या दिन में एक ही बार सब प्रस्तुत किया जाये। प्रतिदिन अनेक रचनायें एकएक कर प्रस्तुत की जा सकती हैं। यही वीडियो और आडियो प्रसारणों के साथ भी हो सकता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि अंतर्जाल पर हिंदी एक नये स्वरूप के साथ सामने आयेगी। हिंदी का बाजार बहुत बड़ा है तो दूसरा सच यह भी है कि हिंदी के अब सार्थक लेखन की अपेक्षायें बढ़ रही है पर हिंदी को दोहन करने वाला बाजार नये और मौलिक लेखकोंं को संरक्षण देने के लिये उत्सुक नहीं है। वह चाहता है कि उसे लिखने वाले गुलाम मिलें पर हिंदी को अंतर्जाल पर ले जाने का एक ही उपाय है कि मौलिक और स्वतंत्र रूप से लिखा जाये तभी नवीनता आयेगी। अभी अंतर्जाल पर हिंदी में लिखने की विधा शेैशवकाल में हैं पर जैसे जैसे विस्तार रूप लेगी नये परिवर्तन आयेंगे। अभी तो यह भी एक ही समस्या है कि गूगल के इंडिक और कृतिदेव यूनिकोड टूल के अलावा कोई अन्य प्रमाणिक और सरल टूल ही लिखने के लिये उपलब्ध नहीं है। गूगल के इंडिक टूल और कृतिदेव यूनिकोड टूल का भी इतना प्रचार अभी लोगों में नहीं है। जब इस बारे में पांच छह वर्ष पहले से इंटरनेट पर काम करने वाले लोगों को बताया जाता है तो हैरान रह जाते हैं-उनको यह जानकारी नवीनतम लगती है। एक ब्लाग लेखक ने लिखा था कि हिंदी नयी भाषा है इसलिये उसका विस्तार प्राकृतिक कारणों से तय है। यह सच भी लगता है अगर इस बात को मान लिया जाये कि हिंदी में सार्थक और दीर्घाकलीन तक प्रभावी लेखन
भविष्य में अंतर्जाल पर होगा।
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यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की सिंधु केसरी-पत्रिका ’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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