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भ्रष्टाचार का जिंदा मुद्दा छोड़ जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह या आत्मनिर्णय का मुर्दा मसला क्यों पकड़ा-हिन्दी लेख (bhrashtachar ka jinda mudda chhod jammu kashmir mein janmat sangrah ka murda masla kyon pakda-hindi lekh


           भारत में महात्मा गांधी के चरणचिन्ह पर चल रहे लोगों को यह गलतफहमी कतई नहीं रखना चाहिए कि अहिंसा के हथियार का उपयोग देशी लोगों को तोड़ने के लिये किया जाये। उनको एक बात याद रखना चाहिए कि गांधी जी ने अंिहंसा का प्रयोग देश के लोगों को एकजुट करने के साथ ही विदेशों में भी अपने विषय को चर्चा योग्य बनाने के लिये किया था। उन्होंने अपनी अहिंसा से देश को जोड़ा न कि अलग होने के लिये उकसाया। जम्मू कश्मीर के मसले पर जनमत संग्रह की मांग का समर्थन कर अन्ना हजारे के सहयोगी ने ऐसा ही काम किया है जैसे कि अपनों का जूता देश अपनों की ही सिर। उनके बयान के कारण उनसे मारपीट हुई जिसकी निंदा पूरे देश में कुछ ही घंटे टीवी चैनलों पर चली जबकि उनके बयान के विरोध की बातें करते हुए दो दिन होने जा रहे हैं। अहिंसा की बात निहत्थे लोगों के लिये ठीक है पर जो हथियार लेकर हमला कर रहे उन उग्रवादियों से यह आशा करना बेकार है कि वह गांधीवाद को समझेंगे। फिर जम्मू कश्मीर का मसला अत्यंत संवेदनशील है ऐसे में अन्ना के सहयोगी का बयान अपने प्रायोजकों में अपनी छवि बनाये रखने के लिये जारी किया गया लगता है। अन्ना हजारे को भारत का दूसरा गांधी कहा जाता है पर वह गांधी नहंी है। इसलिये तय बात है कि अन्ना हजारे के किसी सहयोगी को भी अभी गांधीवाद की समझ नहंी है। महात्मा गांधी देश का विभाजन नहीं चाहते यह सर्वज्ञात है। ऐसे में गांधीवादी अन्ना हजारे के किसी सहयोगी का जम्मू कश्मीर के जनमत संग्रह कराने तथा वहां से सेना हटाने का बयान संदेह पैदा करता है। क्या गांधीजी ने कहा था कि अपने देश में कहीं किसी प्रदेश में सेना न रखो।
        बहरहाल कुछ लोगों को अन्ना के सहयोगी का बयान के साथ ही उसका विरोध भी प्रायोजित लग सकता है। अन्ना के सहयोगी के साथ मारपीट हुई यह दुःख का विषय है। प्रचार माध्यमों से पता चला कि आरोपियों की तो जमानत भी हो चुकी है। इसका सीधा मतलब है कि बयान के विरोधियों ने अन्ना के सहयोगी को उनके इसी बयान की वजह से खलनायक बनाने के लिये इस तरह का तरीका अपनाया जिससे उनके शरीर को अधिक क्षति भी न पहुंचे और उनकी छवि भी खराब हो। यह मारपीट भले ही अब हल्का विषय लगता हो पर यकीनन यह अंततः अन्ना के उस सहयोगी के लिये संकट का विषय बनने वाला है।
       भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के वजह से अन्ना हजारे की राष्ट्रीय छवि बनी तो तय था कि उसका लाभ उनके निकटस्थ लोगों को होना ही था। अन्ना के जिस सहयोगी के साथ मारपीट हुई वह उनके साथ उस पांच सदस्यीय दल का सदस्य था जो सरकारी प्रतिनिधियों के साथ जनलोकपाल विधेयक बनाने पर चर्चा करती रहीं। एक तरह से उसकी भी राष्ट्रीय छवि बनती जा रही थी जिससे अपने अन्य प्रतिबद्ध एजेंडों को छिपाने में सफल हो रहे थे। अब वह सामने आ गया है। इंटरनेट के एक दो हिन्दी ब्लॉग लेखकों ने जम्मू कश्मीर के मसले पर प्रथकतावादियों के साथ आयोजित एक कार्यक्रम में उनकी सहभागिता का जिक्र किया था तब हैरानी भी हुई थी। ऐसे में हमें संदेह भी हो रहा था कि अन्ना हजारे साहब की आड़ के कुछ ऐसे तत्व तो नहीं आगे बढ़ रहे जो राष्ट्रीय छवि के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय छवि तो नहीं बनाने का प्रयास कर रहे हैं । ऐसे में अन्ना जी के सहयोगी ने ऐसा बयान इस तरह दे दिया कि जैसे वह आम बयान हो पर उनके विरोधियों के लिये इतना ही काफी था।
        एक बात निश्चित है कि कुछ अदृश्य शक्तियां अन्ना साहब के आंदोलन को बाधित करना चाहती होंगी पर जिस तरह अन्ना के सहयोगी अपने मूल उद्देश्य से अलग हटकर बयान दे रहे हैं उसे देखकर नहीं लगता कि उन्हें  प्रयास करने होंगे क्योंकि यह काम अन्ना के सहयोगी ही कर देंगे। अब एक सवाल हमारे मन में आता है कि अन्ना के सहयोगी ने यह बयान कहीं जानबूझकर तो नहीं दिया कि अन्ना जी का आंदोलन बदनाम हो। वह पेशेवर समाज सेवक हैं ऐसी बातें प्रचार माध्यम ही कहते हैं। अन्नाजी के अनेक सहयोगियों को विदेशों से भी अनुदान मिलता है ऐसा सुनने को मिलता रहता है। तब लगता है कि अन्ना के सहयोगी कहीं अपने प्रायोजकों के ऐजेंडे को बढ़ाने का प्रयास न करें। दूसरी यह भी बात है कि अन्ना साहेब का आंदोलन अभी लंबा चलना है। ऐसे में उनके निकटस्थ सहयोगियों के चेहरे भी बदलते नजर आयेंगे। यह देखकर स्वयं की पदच्युत होने की संभावनाओं के चलते कोई सहयोगी अफलातूनी बयान भी दे सकता है। कहा भी जाता है कि बिल्ली दूध पीयेगी भी तो फैला जरूर देगी।
        बहरहाल अगर अन्ना के सहयोगी का जम्मू कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का बयान प्रायोजित है तो फिर यह मारपीट भी कम प्रायोजित नहीं लगती। प्रचार माध्यमों के अनुसार 24 या 25 सितम्बर को यह बयान दिया गया जबकि उनके साथ मारपीट 13 अक्टोबर को हुई। अक्सर देखा गया है कि संवेदनशील बयानों पर प्रतिक्रिया एक दो दिन मेें ही होती है पर यहां 18 दिन का अंतर देखा गया। संभव है आरोपियों ने यह घटना भावावेश में आकर की हो पर उनके प्रेरकों ने कहीं न कहीं यह हमला फिक्स किया होगा। उनके पीछे कौनसा समूह है यह कहना कठिन है। पहली बात तो यह अगर यह मारपीट नहीं होती तो बयान को 18 दिन बाद कोई पूछता भी नहीं। अब यह संभव है कि जम्मू कश्मीर के मसले पर भारत में प्रचार बनाये रखने वाले समूह का भी यह काम हो सकता हैं। दूसरा अन्ना के सहयोगी के ऐसे विरोधियों का भी यह काम हो सकता जो उनकी छवि बिगाड़ना चाहते रहे होंगे-यह अलग बात है कि उन्होंने स्वयं ही यह बयान देकर यह अवसर दिया।
आगे क्या होगा कहना कठिन है? इतना तय है कि अन्ना के यह सहयोगी अब जम्मू कश्मीर के मसले पर समर्थन कर भले ही अपने प्रायोजकों को प्रसन्न कर चुके हों पर भारतीय जनमानस उनके प्रति अब वैसे सद्भावना नहीं दिखायेगा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलनरत श्री अन्ना हजारे की टीम में फिलहाल उनकी जगह बनी हुई है पर विशुद्ध रूप से जनमानस के हार्दिक समर्थन से चल रहे अभियान को आगे चलाते समय उनके रणनीतिकारों के पास अपने विवादास्पद सहयोगी से पीछा छुड़ाने के अलावा कोई चारा नहीं रहने वाला। उनके साथ मारपीट करने वालों का उद्देश्य की उनका खून बहाना नहीं बल्कि छवि खराब करना अधिक लगता है। यह मारपीट अनुचित थी पर जिस लक्ष्य को रखकर की गयी वह भी अन्ना टीम के विरोधियों के हाथ लग सकता है। जनमानस की अनदेखी करना कठिन है। यह सही है कि महंगाई और भ्रष्टाचार देश में भयंकर रूप ले चुके हैं और जनमानस से विवादास्पद बयान भूल जाने की अपेक्षा की जा सकती थी पर यह काम तो अन्ना के वह कथित सहयोगी भी कर सकते थे। वरना संयुक्त राष्ट्रसंघ में धूल खा रहे प्रस्ताव की बात अब करने क्या औचित्य था? भ्रष्टाचार जैसे ज्वलंत मुद्दे में ऐसे मुर्दा सुझाव का कोई मतलब नहीं था।
इस विषय पर कल दूसरे ब्लाग पर लिखा गया यह लेख भी अवश्य पढें।

             अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के लक्ष्यों को लेकर तो उनके विरोधी भी गलत नहीं मानते। इस देश में शायद ही कोई आदमी हो यह नहीं चाहता हो कि देश में भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो। अन्ना हजारे ने जब पहली बार अनशन प्रारंभ किया तो उनको व्यापक समर्थन मिला। किसी आंदोलन या अभियान के लिये किसी संगठन का होना अनिवार्य है मगर अन्ना दिल्ली अकेले ही मैदान में उतर आये तो उनके साथ कुछ स्वयंसेवी संगठन साथ हो गये जिसमें सिविल सोसायटी प्रमुख रूप से थी। इस संगठन के सदस्य केवल समाज सेवा करते हैं ऐसा ही उनका दावा है। इसलिये कथित रूप से जहां समाज सुधार की जरूरत है वहां उनका दखल रहता है। समाज सुधार एक ऐसा विषय हैं जिसमें अनेक उपविषय स्वतः शामिल हो जाते हैं। इसलिये सिविल सोसायटी के सदस्य एक तरह से आलराउंडर बन गये हैं-ऐसा लगता है। यह अलग बात है कि अन्ना के आंदोलन से पहले उनकी कोई राष्ट्रीय छवि नहंी थी। अब अन्ना की छत्रछाया में उनको वह सौभाग्य प्राप्त हुआ है जिसकी कल्पना अनेक आम लोग करते हैं। इसलिये इसके सदस्य अब उस विषय पर बोलने लगे हैं जिससे वह जुड़े हैं। यह अलग बात है कि उनका चिंत्तन छोटे पर्दे पर चमकने तथा समाचार पत्रों में छपने वाले पेशेवर विद्वानों से अलग नहीं है जो हम सुनते हैं।

           बहरहाल बात शुरु करें अन्ना हजारे से जुड़ी सिविल सोसायटी के सदस्य पर हमले से जो कि वास्तव में एक निंदनीय घटना है। कहा जा रहा है कि यह हमला अन्ना के सहयोगी के जम्मू कश्मीर में आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करने पर दिया गया था जो कि विशुद्ध रूप से पाकिस्तान का ऐजंेडा है। दरअसल यह संयुक्त राष्ट्र में पारित उस प्रस्ताव का हिस्सा भी है जो अब धूल खा रहा है और भारत की सामरिक और आर्थिक शक्ति के चलते यह संभव नहीं है कि विश्व का कोई दूसरा देश इस पर अमल की बात करे। ऐसे में कुछ विदेशी प्रयास इस तरह के होना स्वाभाविक है कि भारतीय रणनीतिकारों को यह विषय गाहे बगाहे उठाकर परेशान किया जाये। अन्ना के जिस सहयोगी पर हमला किया गया उन्हें विदेशों से अनुदान मिलता है यह बात प्रचार माध्यमों से पता चलती रहती है। हम यह भी जानते हैं कि विदेशों से अनुदान लेने वाले स्वैच्छिक संगठन कहीं न कहीं अपने दानदाताओं का ऐजेंडा आगे बढ़ाते हैं।
           हमारे देश में लोकतंत्र है और हम इसका प्रतिकार हिंसा की बजाय तर्क से देने का समर्थन करते हैं। कुछ लोगों को यह लगता है कि मारपीट कर प्रतिकार करें तो वह कानून को चुनौती देते हैं। इस प्रसंग में कानून अपना काम करेगा इसमें भी कोई शक नहीं है।
           इधर अन्ना के सहयोगी पर हमले की निंदा का क्रम कुछ देर चला पर अब बात उनके बयान की हो रही है कि उसमें भी बहुत सारे दोष हैं। कहीं न कहीं हमला होने की बात पीछे छूटती जा रही है। एक आम लेखक और नागरिक के रूप में हम अपनी बात कहें तो शायद कुछ लोगों को अजीब लगे। हमने अन्ना के सहयोगी के इस बयान को उन पर हमले के बाद ही सुना। इसका मतलब यह कि यह बयान आने के 15 दिन बाद ही घूल में पड़ा था। कुछ उत्तेजित युवकों ने मारपीट कर उस बयान को पुनः लोकप्रियता दिला दी। इतनी कि अब सारे टीवी चैनल उसे दिखाकर अपना विज्ञापनों का समय पास कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि कहीं यह उत्तेजित युवक यह बयान टीवी चैनलों पर दिखाने की कोई ऐसी योजना का अनजाने में हिस्सा तो नहीं बन गये। संभव है उस समय टीवी चैनल किसी अन्य समाचार में इतना व्यस्त हों जिससे यह बयान उनकी नजर से चूक गया हो। यह भी संभव है कि दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई बैंगलौर या अहमदाबाद जैसे महानगरों पर ही भारतीय प्रचार माध्यम ध्यान देते हैं इसलिये अन्य छोटे शहरों में दिये गये बयान उनकी नजर से चूक जाते हैं। इस बयान का बाद में जब उनका महत्व पता चलता है तो कोई विवाद खड़ा कर उसे सामने लाने की कोई योजना बनती हो। हमारे देश में अनेक युवक ऐसे हैं जो अनजाने में जोश के कारण उनकी योजना का हिस्सा बन जाते हैं। यह शायद इसी तरह का प्रकरण हो। हमला करने वाले युवकों ने हथियार के रूप में हाथों का ही उपयोग किया इसलिये लगता है कि उनका उद्देश्य अन्ना के सहयोगी को डराना ही रहा होगा। ऐसे में मारपीट कर उन्होंनें जो किया उसके लिये उनको अब अदालतों का सामना तो उनको करना ही होगा। हैरानी की बात यह है कि हमला करने वाले तीन आरोपियों में से दो मौके से फरार हो गये पर एक पकड़ा गया। जो पकड़ा गया वह अपने कृत्य पर शार्मिंदा नहीं था और जो फरार हो गये वह टीवी चैनलों पर अपने कृत्य का समर्थन कर रहे थे। हैरानी की बात यह कि उन्होंने अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रति समर्थन देकर अपनी छवि बनाने का प्रयास किया। इसका सीधा मतलब यह था कि वह अन्ना की आड़ में उनके सहयोगी के अन्य ऐजेंडों से प्रतिबद्धता को उजागर करना चाहते थे। वह इसमें सफल रहे या नहीं यह कहना कठिन है पर एक बात तय है कि उन्होंने अन्ना के सहयोगी को ऐसे संकट में डाल दिया है जहां उनके अपने अन्य सहयोगियों के सामने अपनी छवि बचाने का बहुत प्रयास करना होगा। संभव है कि धीरे धीरे उनको आंदोलन की रणनीतिक भूमिका से प्रथक किया जाये। कोई खूनखराबा नहीं  हुआ यह बात अच्छी है पर अन्ना के सभी सहयोगियों के सामने अब यह समस्या आने वाली है कि उनकी आलराउंडर छवि उनके लिये संकट का विषय बन सकती है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन निर्विवाद है पर जम्मू कश्मीर, देश की शिक्षा नीति, हिन्दुत्ववाद, धर्मनिरपेक्षता तथा आतंकवाद जैसे संवेदनशील विषयों पर अपनी बात सोच समझकर रखना चाहिए। यह अलग बात है कि लोग चिंत्तन करने की बजाय तात्कालिक लोकप्रियता के लिये बयान देते हैं। यही अन्ना के सहयोगी ने किया। स्थिति यह है कि जिन संगठनों ने उन पर एक दिन पहले उन पर हमले की निंदा की दूसरे दिन अन्ना के सहयोगी के बयान से भी प्रथक होने की बात कह रहे हैं। अन्ना ने कुशल राजनीतिक होने का प्रमाण हमले की निंदा करने के साथ ही यह कहकर भी दिया कि मैं हमले की असली वजह के लिये अपने एक अन्य सहयेागी से पता कर ही आगे कुछ कहूंगा।

            आखिरी बात जम्मू कश्मीर के बारे में की जाये। भारत में रहकर पाकिस्तान के ऐजेंडे का समर्थन करने से संभव है विदेशों में लोकप्रिय मिल जाये। कुछ लोग गला फाड़कर चिल्लाते हुए रहें तो उसकी परवाह कौन करता है? मगर यह नाजुक विषय है। भारत का बंटवारा कर पाकिस्तान बना है। इधर पेशेवर बुद्धिजीवी विदेशी प्रायोजन के चलते मानवाधिकारों की आड़ में गाहे बगाहे जनमत संग्रह की बात करते हैं। कुछ ज्ञानी बुद्धिजीवी इस बात को जानते हैं कि यह सब केवल पैसे का खेल है इसलिये बोलते नहीं है। फिर बयान के बाद मामला दब जाता है। इसलिये क्या विवाद करना? अलबत्ता इन बुद्धिजीवियों को कथित स्वैच्छिक समाज सेवकों को यह बता दें कि विभाजन के समय सिंध और पंजाब से आये लोग हिन्दी नहीं जानते थे इसलिये अपनी बात न कह पाये न लिख पाये। उन्होंने अपनी पीड़ा अपनी पीढ़ी को सुनाई जो अब हिन्दी लिखती भी है और पढ़ती भी है। यह पेशेवर बुद्धिजीवी अपने उन बुजुर्गों की बतायी राह पर चल रहे हैं जिसका सामना बंटवारा झेलने वाली पीढ़ी से नहीं हुआ मगर इनका होगा। बंटवारे का सच क्या था? वहां रहते हुए और फिर यहां आकर शरणार्थी के रूप में कैसी पीढ़ा झेली इस सच का बयान अभी तक हुआ नहीं है। विभाजन से पूर्व पाकिस्तान में सिंध, बलूचिस्तान और सिंध प्रांतों में क्या जनमत कराया गया था? पाकिस्तान जम्मू कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करता और जनमत संग्रह की मांग करने वाले खुले रूप से उससे हमदर्दी रखते हैं। ऐसे में जनमत संग्रह कराने का मतलब पूरा कश्मीर पाकिस्तान को देना ही है। कुछ राष्ट्रवादियों का यह प्रश्न इन कथित मानवाधिकारियों के सामने संकट खड़ा कर सकता है कि ‘सिंध किसके बाप का था जो पाकिस्तान को दे दिया या किसके बाप का है जो कहता है कि वह पाकिस्तान का हिस्सा है’। जम्मू कश्मीर को अपने साथ मिलाने का सपना पूरा तो तब हो जब वह पहले बलूचिस्तान, सीमा प्रांत और सिंध को आजाद करे जहां की आग उसे जलाये दे रही है। यह तीनों प्रांत केवल पंजाब की गुलामी झेल रहे हैं। इन संकीर्ण बुद्धिजीवियों की नज़र केवल उस नक्शे तक जाती है जो अंग्रेज थमा गये जबकि राष्ट्रवादी इस बात को नहीं भूलते कि यह धोखा था। संभव है कि यह सब पैसे से प्रायोजित होने की वजह से हो रहा हो। इसी कारण इतिहास, भूगोल तथा अपने पारंपरिक समाज से अनभिज्ञ होकर केवल विदेशियों से पैसा देकर कोई भी कैसा भी बयान दे सकता है। यह लोग जम्मू कश्मीर पर बोलते हैं पर उस सिंध पर कुछ नहीं बोलते जो हमारे राष्ट्रगीत में तो है पर नक्शे में नहीं है।

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

राजनीतिक शास्त्र के मूल तत्वों के ज्ञान के बिना जनहित संभव नहीं-हिन्दी लेख (janhit aur rajniti-hindi lekh)


           जिस तरह भारत के धार्मिक आंदोलनों, अभियानों तथा संगठनों की स्थिति रही है कि उनके शिखर पुरुष श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान अल्प होने के बावजूद समाज का नेतृत्त करने लगते हैं। वही स्थिति सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों की भी है। वही अगर आप पिछले पचास साठ वर्षों से देश की स्थिति का अवलोकन करें तो पता चलेगा कि हमारे देश के अनेक संत माया मोह से परे रहने का उपदेश देते हुए अपने आश्रमों को महलनुमा तो अपने संगठन को लगभग कंपनी में बदल दिया है। दोनों हाथों  से माया बटोरी है। उन्होंने भारतीय अध्यात्म के ग्रंथों से अनेक पाठ रट लिये हैं उनको संस्कृत के श्लोक याद हैं। बड़े बड़े ग्रंथों का अध्ययन उन्होंने किया है। स्पष्टतः वह धर्म के वह व्यवसायी हैं जिनका अध्यात्मिक ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में अनेक महानायकों की कहानियां हैं उनका वह सरसपूर्ण ढंग से सुनाकर वाहवाही लूटते हैं पर तत्वज्ञान तथा ध्यान के प्रेरणा न देने का प्रयास करते हैं न ही ऐसा चाहते हैं क्योकि इससे उनके अनुयायी उनसे बड़े सिद्ध बन सकते है।। वह विफल रहते हैं। उनके ढेर सारे शिष्य अपने गुरुओं का बखान करते करते थकते नहीं है पर उनसे क्या सीख और कितना उस पर अमल कर रहे हैं यह कोई नहीं बता पाता। इनमें अनेक तो सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर भी बोलने का लोभ नहीं छोड़ पाते क्योंकि इससे प्रचार माध्यमों मे बने रहने का अवसर भी मिलता है।
        ऐसा लगता है कि भारतीय समाज पूर्वकाल में श्रमशील रहा होगा। अपने मानसिक तनाव की मुक्ति के लिये वह सांसरिक विषयों से इतर गतिविधियों में संलग्न रहने के लिये बौद्धिक विशेषज्ञों की शरण लेता होगा। ऐसे में मनोरंजन से उकताने के बाद उसे अध्यात्मिक विषय अत्यंत रुचिकर लगे होंगे क्योंकि न वह केवल मनोंरजन बल्कि ज्ञानबर्द्धक होने के साथ ही लंबे समय तक आत्मिक शांति के लिये उनका ज्ञान अत्यंत उपयेागी है। इसी कारण ही हमारे देश का अध्यात्मिक ज्ञान सर्वाधिक संपन्न बन गया क्योकि तपस्वियों, ऋषियों तथा ज्ञानियों ने जहां अनेक खोजें की तो समाज ने उनको स्वीकार भी किया। समाज अध्यात्मिक का मुरीद बना तो अल्पज्ञानियों के लिये यह व्यवसाय चुनने का एक महत्वपूर्ण साधन भी बना। प्राचीन तपस्पियों, ऋषियों और मुनियों ने जहां अपने सत्य ज्ञान से प्रसिद्धि प्राप्त करने के साथ ही अपना शिष्य समाज बनाकर अध्यात्मिक ग्रंथेां में देवत्व का दर्जा हासिल किया तो वहां समाज भी उनका गुणगायक बन गया।
           सर्वशक्तिमान का बनाया यह संसार अत्यंत अद्भुत है। इसमें सारी भौतिकता उसके संकल्प के आधार पर ही स्थित है पर वह सर्वशक्तिमान किसी को दिखता नहीं है। यह संसार अपने रूप बदलता है। बनता है और नष्ट होता है। विकास और विनाश के इस चक्र को कोई समझ नहंी पाया। संसार नश्वर है पर चमकदार है इसलिये कुछ लोग यहां अपनी देह, नाम तथा व्यवसाय की चमक बनाये रखने के लिये समाज से परे होकर उसका शीर्ष बनना चाहते हैं। ऐसे में भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के ग्रंथों की विषय सामग्री सरस तथा मनोरंजक होने के साथ ही ज्ञानवर्द्धक होन के पेशेवर धार्मिक लोगों के लिये बहुत सहायक होती है। जिसे ज्ञान चुनना है वह ज्ञान चुने जिसे मनोरंजन करना है वह मनोरंजन करे।
        इनमें कुछ लोग लोग तो समाज पर आर्थिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक शासन करना चाहते हैं और तब पैसे, पद और प्रतिष्ठा का उनका मोह अनंत हो जाता है। इसकी भूख शांत नहीं होती। जिस तरह सामान्य आदमी की भूख रोटी से मिट जाती है विशिष्टता की छवि रखने वाले आदमी की भूख उससे नहीं मिटती बल्कि पैसा, प्रतिष्ठा और पद का मोह उसे हमेशा पागल बनाये रहता है। इसमें भी कुछ आदमी ऐसे होते हैं जो समाज को पागल बनाये रखते हैं। उनका एकमात्र लक्ष्य समाज से परे बने अपने शिखर की रक्षा करना होता है। इसलिये वह दूसरे के सृजन को अपने नाम करना चाहते हैं। यहीं से शुरु होता है उनका अभियान जो अंततः निष्काम बौद्धिक लोगों लिये के अनुसंधान का विषय बन जाता है।
धार्मिक आंदोलनों की तरह सामाजिक और राजनीतिक विषयों के अनेक आंदोलन ऐसे हैं जिनको उनके शीर्ष पुरुष कथित रूप से जनप्रिय बताकर भ्रमित करते हैं। आज के बाज़ार और प्रचार से प्रायोजित अनेक ऐसे आंदोलन हैं जो प्रचारित हैं पर उनसे जनहित कितना हुआ या होगा यह अभी भी विचार का विषय है। हम यहां राजनीतिज्ञों के आंदोलनों की बात न कर उन लोगों के राजनीिितक आंदोलनों की बात करेंगे जिनको गैर राजनीतिक लोग प्रारंभ करते है। वह एक तरफ कहते हैं कि उनका आंदोलन गैर राजनीतिक है पर उसकी कोई दूसरी संज्ञा नहीं बताते-जैसे कि सामाजिक आंदोलन, नैतिक आंदोलन या शैक्षणिक आंदोलन। मजे की बात यह है कि उनकी मांगे सरकार से होती हैं जिनका नेतृत्व राजनीतिक लोग करते हैं। ऐसे में आंदोलनों के शीर्ष पुरुषों के बौद्धिक चिंत्तन पर ध्यान जाना जरूरी है। वह कहें या न कहें उनके आंदोलनों में कहीं न कहीं राजनीतिक तत्व रहता है-चाहे उनकी मांगों में हो या उनके पूरे होने में। दूसरी बात यह कि समाज में सर्वजन हित के लिये केाई भी कार्य राजनीतिक परिधि में आता है। मनुष्य नाम की ईकाई का समाज के रूप में परिवर्तन इसलिये ही होता है कि कम से कम वह अन्य जीवों की तरह हिंसक या अनुशासनहीनता का बर्ताव न करे। अगर कोई व्यक्ति अध्यात्मिक विषयों  में महारती है तो वह समाज के भले के लिये न काम कर मनुष्य के हित के लिये काम करता है। वह स्वयं पर अनुसंधान करता है फिर उसकी जानकारी दूसरे को देकर अपने मनुष्य के दायित्व का निर्वाह करता हे। वह मनुष्य को समाज मानकर नहीं बल्कि इकाई दर इकाई संपर्क बनाता है। जहां समाज मानकर मनुष्य को ईकाई दर इकाई मानकर काम किया जाता है वहां राजनीतिक क्षमतायें होना आवश्यक है।
हम कौटिल्य का अर्थशास्त्र या मनु स्मृति को देखें तो वहां मनुष्य को इकाई मानकर संबोधित किया गया है न कि समाज मानकर। उसमें मनुष्य निर्माण के लिये संदेश दिये गये हैं। यह मानकर कि अगर मनुष्य के व्यक्त्तिव का निर्माण होगा तो समाज स्वयं ही अपनी राह चलेगा। कहीं न कहीं यह स्वीकार किया गया है कि समूचा मनुष्य समुदाय एक जैसा नहीं हो सकता। इसलिये उसमें जितने बेहतर लोग होंगे  उतना ही वह चमकदार भी होगा । इसके विपरीत भारतीय आंदोलक पुरुष समाज को संबोधित करते हुए अपनी बात करते हैं। वह यह नहीं बताते कि मनुष्य क्या करे? वह कहते हैं कि समाज यह करे तो सरकार वह करे। यह हवा में तीर चलाने जैसा है। वह समाज में व्यक्ति निर्माण के लिये अपनी भूमिका निभाने से कतराते हैं। भले ही वह सामाजिक नेता होने का दावा करें पर अपनी भूमिका को राजपुरुष की तरह देखना चाहते हैं। यह उनके राजनीतिक अल्पज्ञान का प्रमाण है। अध्यात्मिक पुरुष की छवि सौम्य और शांत होती है। उसकी सक्रियता में आकर्षण नहीं होता जबकि राजपुरुष की छवि में आक्रामकता, सुंदरता तथा प्रभावी छवि है और इसलिये हर कोई उसी तरह दिखना चाहता है।
        हम यहां कुछ आंदोलनों की चर्चा करना चाहेंगे जो जनमानस के लिये महत्वपूर्ण रहे हैं। सबसे पहले सामाजिक कार्यकर्ता श्री अन्ना हजारे और विश्व प्रसिद्ध  योग  शिक्षक बाबा रामदेव के आंदोलन की बात करना अच्छा रहेगा। मूलतः दोनों  ही राजनीतिक क्षेत्र के नहीं है। दोनों ही अपनी छवि महात्मा गांधी की तरह बनाना चाहते हैं। दोनों ही यह कहते हैं कि वह कोई सरकारी पद ग्रहण नहीं करेंगे और न ही चुनाव लड़ेंगे। गैर राजनीतिक दिखने वाले उनके आंदोलनों के विषय बिना राजनीतिक दावपैंचों के सिद्ध नहीं हो सकते यह उनको कोई न समझा पा रहा है। वजह दोनेां ही राजनीति के पश्चिमी सिद्धांतों का अनुकरण कर रहे हैं जिसमें आंदोलन एक विषय और सरकार चलाना दूसरा विषय माना जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि राजधर्म का मतलब वह क्या समझते हैं जो दूसरों को बता रहे हैं। चलिये वह जानते भी होंगे फिर कोई बड़ा पद लेने की बात से इंकार क्यों करते हैं? क्या सरकारी पद केवल उपभोग के लिये होता है। विश्व भर की लोकतंत्रिक सरकारों में बैठे उच्च पदासीन लोग क्या राजसुख भोगने आते हैंे। क्या पद लेना केवल प्रतिष्ठा का प्रतीक है और दायित्व निभाकर दूसरों के सामने प्रस्तुत करने का कोई सिद्धांत वहां नहीं है।
       हैरानी की बात है कि भारतीय जनमानस उनके पद ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की वैसे ही प्रशंसा करता है जैसे भीष्म पितामह की। यह सभी लोग क्या भीष्मपितामह बनना चाहते है पर याद रखना चाहिए कि उन्होंने इस प्रंतिज्ञा को निभाया तो उसकी वजह से अंततः महाभारत युद्ध हुआ। अगर वह स्वयं राजा के पद पर बैठते तो न पांडु राजा बनते और न ही धृतराष्ट के पुत्र पांडवों के साथ युद्ध करते। भीष्म पितामह अपने राज्य की रक्षा करने के वचन से बंधे रहे पर अंततः उनको युद्ध में प्राण गंवाने पड़े। इस एक घटना को भारतीय इतिहास मंें हमेशा मिसाल नहीं माना जाता क्योंकि राजकाज का जिम्मा निभाने में तो हमारे आदर्श भगवान श्रीराम माने जाते हैं। राज्य का त्याग उन्होंने किया पर वापस लौटकर फिर वापस सिंहासन पर विराजे और प्रजा हित के लिये काम किया।
        श्री अन्ना हजारे ने कहा था कि वह दूसरा स्वतंत्रता संग्राम लड़ रहे हैं तब यह विचार सभी लोगों के मन में आया होगा कि महात्मा गांधी के स्वतंत्रता संग्राम भारत को पूर्णता नहीं दिला सका शायद तभी वह ऐसी बात कही हैं। बात निकली है तो श्री महात्मा गांधी जैसे पुण्यात्मा के विचार पर प्रतिविचार आयेगा और हम उसे व्यक्त करने से पीछे नहीं हटेंगे। महात्मा गांधी ने अंग्र्रेजों से आजादी दिलाने का बीड़ा उठाया यह स्वीकार्य है पर उसके बाद राज्य कौन संभालेगा इसकी जिम्मेदारी कौन तय करने वाला था? महात्मा गांधी ने क्या ऐसी गांरटी ली थी कि अंग्रेजों के बाद राज्य चलाने वाले अपने काम में दक्ष होंगे! भारत एक विशाल देश था और उसे दो टुकड़ों में बांटा गया। इसके बावजूद आज का भारत बहुत विशाल था? उसका राजकाज कैसे चलेगा और कौन चलायेगा इसकी भूमिका क्या महात्मा गांधी ने तय की थी? उन्होंने अपने आंदोलन के दौरान सुखद भारत की कल्पना व्यक्त की पर उसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभाना क्या सत्ता का सुख भोगना समझा? यह पलायन माना जाये कि त्याग?
         वह परिवार, समाज, और राष्ट चलाने के सिद्धांतों पर खूब बोले होंगे पर आजादी के बाद के भारत में उन्होंने सक्रिय भागीदारी न देकर क्या जनता के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह किया था? सरकार और राजकाज कोई स्वचालित मशीन नहीं है जिसके साथ खिलवाड़ किया जाये। उसके लिये कुशल लोग होना चाहिऐं। मूल बात यह है कि महात्मा गाीधी अंग्रेजों के हाथ से राजकाज लेकर जिन स्वदेशी लोगों को दे रहे थे उनके ज्ञान पर उनको केवल विश्वास था या उन्होंने उसे प्रमाणिक रूप देखाय भी था? आज अन्ना कहते हैं कि हम काले अंग्रेजों के राज्य को झेल रहे हैं तो सीधे महात्मा गांधी के आंदोलन का विचार आता है। जब उनको कोई राज्य का पद लेना नहंी था तो फिर वह स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के नेता क्यों बने? क्या वह मानते थे कि अं्रग्रेजों ने जिस व्यवस्था को बनाया है उसमें सरकार तो स्वतः चलेगी और उच्च पद तो केवल भोगने के लिये हैं उनमें कोई जिम्मेदारी नहीं होगी?
          हम तो यह मानते हैं सरकार या राजकाज चलाना अंततः राजनीति ज्ञान के बिना संभव नहीं है। आप अगर उसमें कोई पद लेना नहीं चाहते तो इसका मतलब यह है कि आप में कुशलता की कमी है। उसके बाद आप राज्य में परिवर्तन के लिये कोई आंदोलन  चलाना चाहते हैं और पद भी लेना नहीं चाहते तो इसके तीन मतलब यह हैं। एक तो यह कि अप्रत्यक्ष रूप से राजकाज आपका ही रहेगा पर उसमें कमीपेशी होने पर अपनी जिम्मेदारी से भाग सकते हैं। दूसरा यह कि आपका मानना है कि राज्य तो भगवान भरोसे चलता है हम जिसे बिठायेंगे वह सुख भोगने के साथ हमें भी पूजता रहेगा। तीसरी स्थिति यह है कि आपमें आत्मविश्वास नहीं है कि आप सरकार या राज चला पायेंगे।
          ऐसे में कुछ निष्कर्ष भी निकल सकते हैं जो त्यागी आंदोलक पुरुषों और उनके समर्थकों को शायद अच्छे न लगें। एक तो यह कि गैरराजनतिक लोगों दो कारणों से ही राज्य पद त्यागते हैं। एक तो वह बहुत चालाक हैं क्योंकि इससे बिना जिम्मेदारी के वह राजसुख या सम्मान पाते हैंे या उनके पास राजनीतिक शास्त्र के ज्ञान का अभाव है। पहली स्थिति में तो उनको आंदोलक पुरुष होने का हक है क्योंकि राजनीतिक सिद्धांत इस कुटिलता की अनुमति देते हैं कि अगर कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदारी न लेकर अप्रत्यक्ष रूप से राजहित करता है तो कोई बात नहीं है पर दूसरी स्थिति में उनको इसका अधिकार नहीं है कि वह कथित रूप से एक अकुशल प्रशासक को हटाकर दूसरा स्थापित करें। अगर उनके पास कोई बेहतर विकल्प नहीं है और न ढूंढने की क्षमता से भी परे हैं तो उनके कथित गैरराजनीतिक आंदोलन संशय के घेरे में आयेंगै। इससे अच्छा है तो वह आंदोलन ही न चलायें और अगर चलायें तो समय आने पर राज्य चलाने के लिये व्यवस्था से जुड़कर उनको आदर्श स्थापित करें।
           अर्थशास्त्र में हमने भारतीय अर्थव्यवस्था के समस्याओं के बारे में पढ़ा है कि अकुशल प्रबंध का यहंा अभाव है। मतलब यह कि हमें कुशल प्रबंधक चाहिये जो व्यवस्था चला सकें। जो आदर्श की बात करें तो उसे व्यवस्था में आकर काम करते हुए साबित करे। अगर हम भ्रष्टाचार की बात करें तो वह अकुशल प्रबंध का एक हिस्सा होने के साथ ही परिणाम है। हम परिणाम बदलना चाहते हैं यानि भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं पर कुशल प्रबंध के बिना यह संभव नहीं है। बीमारी हटाने के लिये दवा चाहिये न कि हम नारे लगाते रहें कि बीमारी भाग जाओ नहीं तो हम आते हैं। मैं पद नहीं लूंगा मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा मेरा किसी राजनीतिक दल से संबंध नहीं रहेगा जैसी बातें कहते हुए राजनीतिक आंदोलक पुरुष वैसे ही हैं जैसे कोई डाक्टर तमाम तरह के शारीरिक परीक्षण कराकर मरीज को बीमारी का नाम बताकर पर दवा देने की बात आने पर कहीं दूसरे डाक्टर के पास भेज देता है। हम ऐसे आंदोलक पुरुषों की ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठाते क्योंकि वह प्रमाणिक है पर राजनीति शास्त्र के ज्ञान का अभाव उनमें साफ दिखाई देता है। इसलिये वह राजनीतिक खेल में ऐसे दर्शक की भूमिका निभाना चाहते हैं जो खिलाड़ी को सलाह देता रहे और जीतने पर अपनी वाह वाही स्वयं करे और हार हो तो दोष खिलाड़ी को दे। ऐसा आम तौर से हम गांवों में चौपालों और शहरों में बाजा़ारों में शतरंज और ताश खेलने वाली महफिलों में देखते हैं।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athour and writter-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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अमीर और गरीब के स्टार अलग अलग-हिन्दी लेख (amir aur garib ke star alag alag-hindi lekh)


बड़ी खबर या ब्रेकिंग न्यूज का सही स्तर तय करना मुश्किल हो गया है क्योंकि टीवी न्यूज चैनल हर सैकंड में एक बड़ी खबर लाते हैं। कहना तो यह भी चाहिए कि उनकी हर खबर पहले कहीं न कहीं बड़ी होती है या फिर वह अपनी हर आम खबर को भी खास कर परोसने की वैसी ही कोशिश करते हैं जैसे कोई हलवाई अपने एक घंटा पहले रखे समोसे को भी खस्ता और गर्म कहकर प्रस्तुत करता है। ऐसी ही एक खबर थी कि एक सरकारी दफ्तर में बार बालाओं ने सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर अश्लील डांस प्रस्तुत किया।
टीवी ऐंकर चिल्ला रहा था कि ‘उस समय अनेक वरिष्ठ अधिकारी भी मौजूद थे।’
बाकी सब तो ठीक पर उसका बार बार उस डांस को अश्लील कहना थोड़ा अज़ीब लग रहा था। ऐसा लगता है कि सेठ साहूकारों की-आजकल उनको कंपनियों के मैनेजिंग डाइरेक्टर या चीफ के रूप में जाना जाता है-छत्रछाया में पलने वाले हमारे बौद्धिक समाज की सोच भी अब केवल नीचे ही आंखें किये रहती है क्योंकि ऊपर देखने का मतलब है कि सड़क पर आ जाना। उनके लिये शालीनता और नैतिकता के मायने अब केवल गरीब और मध्यम वर्ग तक ही सिमट गये हैं।
किस्सा यह था कि एक सरकारी कर्मचारी यूनियन के पदाधिकारियों का चुनाव हुआ जिनके शपथ ग्रहण समारोह में सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान कथित रूप से यह डांस या नृत्य कार्यक्रम हुआ। फिल्मी गीत और नृत्य की नकल पर ऐसे कार्यक्रम अपने यहां आम बात हो गयी है इसलिये उनको असांस्कृतिक कहना ही अपने आप में गलत है। अगर टीवी चैनलों की बात मान ली जाये तो सरकारी कर्मचारियों या अधिकारियों को ऐसे कार्यक्रम आयोजित ही नहीं करना चाहिए। अगर करें तो उनको आधुनिक सेठ साहुकारों की छत्रछाया में पलने वाले कलाकारों को उसमें बुलाना चाहिये क्योंकि वह चाहे जैसे नृत्य करें या गायें वही शालीनता की परिधि में आता है।
सीधी बात कहें कि जो विज्ञापनदाता बनने की औकात नहीं रखते उनको कोई सार्वजनिक मनोरंजन कार्यक्रम आयोजित नहीं करना चाहिए। पूंजीपतियों, समाज सेवकों, अपराधियों तथा प्रचार माध्यमों के शिखर पुरुषों की छत्रछाया में एक सांस्कृतिक गिरोह बन गया है जो अपने आकाओं से कम ताकतवर या फिर अपने क्षेत्र के बाहर के आदमी की सार्वजनिक सक्रियता को खत्म किये दे रहा है। प्रचार माध्यम उसको हवा देने का एक सशक्त माध्यम बन गया है। यह गिरोह पूंजीपतियों तथा अपराधियों के पैसे पर बनने वाली फिल्मों की अश्लीलता को महान कला बताता है। इतना ही नहीं टीवी चैनलों पर चलने वाले कार्यक्रमों की अश्लीलता को भी उनके सहधर्मी चैनल भुनाते हैं। पहले तो वह अश्लीलता दिखाते हैं फिर उसकी आलोचना करते हैं। इतना ही नहीं फिर अश्लीलता परोसने वाले का साक्षात्कार भी प्रसारित करते हैं। यह सब चलेगा क्योंकि वह शिखर पुरुषों के गिरोह की छत्रछाया में हैं।
ऐसे में कई सवाल उठते हैं। बार बालाओं का डांस अश्लील है तो फिर उन अभिनेत्रियों के बारे में क्या ख्याल है जिनको पर्दे पर देखकर वह उनकी नकल करती हैं। इतना ही नहीं अनेक बार जलकल्याण तथा पुरस्कार वितरण के नाम पर होने वाले मनोरंजक कार्यक्रमों में बड़ी बड़ी अभिनेत्रियां इससे भी बुरे नृत्य प्रस्तुत करती हैं पर क्या मज़ाल उसे कोई अश्लील कह जाये? इतना ही नहीं ऐसे कार्यक्रमों में समाज के अनेक शिखर पुरुष आंखें फाड़कर देखते हैं पर कोई उन पर उंगली उठाकर तो देखे।
इन प्रचार माध्यमों ने ऐसा आंतक का वातावरण बना दिया है कि श्लीलता और अश्लीलता का आधार कोइ सामाजिक पैमाना नहीं बल्कि सामयिक और स्वार्थ से प्रभावित बन रहा है। यही कारण है कि इनके प्रचार की वजह से तीन अधिकारी तथा चार कर्मचारी निलंबित कर दिये गये। आगे उनका क्या होगा यह पता नहीं पर जब तक ऐसा नहीं होता यह चैनल इस खबर पर चर्चा करते रहते।
हम यह इस कार्यक्रम का समर्थन नहीं कर रहे। बल्कि यह तो चिंता की बात है कि इस देश में हर छोटा और बड़ा आदमी यह समझ रहा है कि इस तरह के ठुमके लगवाकर लोगों का मनोरंजन कर उनका दिल जीता जा सकता है। बड़े आदमी करें तो ठीक छोटा करे तो अश्लील! यह बात समझ से परे है। बार बालाऐं कोई बड़े धनपति से प्रायोजित नहीं होती। वह गरीब घरों से होती है। गाहे बगाहे उन पर कार्यवाही होती है। जब देश में रोजगार की कमी है तब बार बालाओं को नृत्य कर कमाने का अवसर मिलता है तो बुरा क्या है? उनके नृत्य में अश्लीलता ढूंढने वाले जरा प्रायोजित नृत्यांगनाओं के फिल्मी डांस देखें! अगर उनमें से किसी के पास हिम्मत हो तो उसे अश्लील बताये। चैनल बंद हो जायेगाा या प्रस्तोता फिर दूसरा कार्यक्रम देने लायक नहीं रहेगा। क्या हैरानी है कि बार बालाओं को चरित्रहीन और जिनकी वह नकल कर रही हैं उन महान महिलाओं को चरित्रवान बताया जाता है। यह प्रचारात्मक आतंकवाद समाज में अपनी नैतिकता-अनैतिकता और श्लीलता-अश्लीलता के ऐसे ही पैमाने बना रहा है जैसा कि अन्य धार्मिक आतंकवादी तय करते हैं। यह आतंकवादी स्वयं खूब मनोरंजन और मनमानी करते हैं पर दूसरे पर इसी वजह से हमला करते हैं कि वह वही कर रहा है। मतलब वह आतंकवादी बंदूक के दम पर करते हैं और प्रचार माध्यम अपनी खबरों के दम पर! मुश्किल यह है कि समझाया किसे जाये? धार्मिक आतंकवादी इसलिये नहीं समझते क्योंकि वह स्वयं ही अप्रत्यक्ष रूप से प्रायोजित हैं तो प्रचारात्मक आतंकवाद में लगे लोगों को तो इस बात का आभास ही नहीं कि वह कर क्या रहे है? समझकर करेंगे भी क्या वह तो प्रत्यक्ष रूप से ही विज्ञापनदाताओं से प्रायोजित हैं।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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अकुशल प्रबंध है देश की सबसे बड़ी समस्या-हिन्दी संपादकीय


अगर देश में व्याप्त भुखमरी, बेरोजगारी, बेबसी तथा भ्रष्टाचार से त्रस्तता को देखकर किसी भी क्षेत्र में हिंसा का समर्थन किया जायेगा तो यह समझ लीजिये मुद्दों से भटकाव की तरफ हम जा रहे हैं। मुश्किल यह है कि भुखमरी, बेरोजगारी तथा महंगाई समस्यायें नहीं बल्कि समस्याओं का दुष्परिणाम है। हमें भुखमरी, बेरोजगारी तथा महंगाई से सीधे नहीं लड़ना बल्कि जो कारण है उनकी तरफ देखकर जूझना है। कभी कभी तो लगता है कि संगठित प्रचार माध्यम–टीवी चैनल, रेडियो तथ समाचार पत्र पत्रिकायें-केवल प्रसिद्धि के आधार पर बुद्धिजीवियों के नामों का पैनल बनाकर चर्चा करते है यह जाने बिना कि उनकी शिक्षा का आधार क्या है? वह पत्र पत्रिकाओं के संपादकों, स्तंभकारों तथा समाज सेवकों की उनकी मूल शिक्षा के ज्ञान के बारे में जाने बिना ही उनके बयान छापते हैं। यही कारण है कि विज्ञान तथा कला स्नातक भी देश की आर्थिक समस्याओं पर बोलने लगते हैं।
हम बात कर रहे हैं नक्सलवाद की। कुछ मित्र ब्लाग लेखकों ने भी संगठित प्रचार माध्यमों के बुद्धिजीवियों जैसा ही लगभग रवैया अपना लिया है। वह नक्सलप्रभावित क्षेत्रों में फैली गरीब, भुखमरी और बेरोजगारी की स्थिति को हिंसक वारदातों से जाने अनजाने जोड़ने लगे हैं। इस लेख का मतलब उनपर आक्षेप करना नहीं बल्कि उनके सामने अपनी बात यह कहते हुए रखना है कि इन हिंसक वारदातों को करने वाले भले ही गरीब, भूखे और बेरोजगार के मसीहा बनने का प्रयास करते दिखते हों पर वास्तव में उनसे उसका कोई लेनादेना नहीं है। समाचारों का विश्लेक्षण करें तो शक होने लगता है कि जिन पूँजीवादी तत्वों द्वारा आदिवासी क्षेत्रों के दोहन के कारण अन्याय की बात करते हैं दरअसल उनसे चंदा लेकर उनका वर्चस्व बनाये रहते हैं।
एक ब्लाग पर पढ़ने को मिला कि अनेक शहरों में बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी तथा शोषण के शिकार लोगों के साथ नक्सली बैठकें कर रहे हैं। सवाल यह है कि इन बैठकों का क्या मकसद है? हथियार उठाकर शोषकों से निपटना।
यह एक धोखा है। अगर कथित मसीहा इतने ही ईमानदार हैं तो महंगी बंदूकें हाथ में देने की बजाय उनके हाथ में रोटी क्यों नहीं देते? वह अपने उगाहे चंदे से लघु उद्योग क्यों नहीं चलाते। पशुपालन में लिये लोगों को जानवर क्यों नहीं देते? सबसे बड़ी बात है कि पेयजल समस्या के हल के लिये हैंडपंप क्यों नहीं खुदवाते? कथित नक्सली संगठनों के आय के स्त्रोत किसी राज्य के मुकाबले कम नहीं लगते-यह बात अखबारों में छपी खबरों के आधार पर की जा रही है।
वह क्या चाहते हैं सरकार में आम जनता की भागीदारी। दुनियां का यह सबसे खूबसूरत धोखा है और इसके लिये चीन और रूसी बुद्धिजीवियों को इस देश में चर्चा के लिये आमंत्रित करना चाहिए।  तब यह पता लग जाएगा कि यह कभी पूरा न होने वाला सपना है। सच तो यह है कि अगर आप यह मानते हैं कि सारा विश्व पूंजीवाद का शिकार हो चुका है तो यकीन करिये इन नक्सली संगठनों को उससे बचा हुआ मानना अपने आपको धोखा देना है। अभी तक यह कोई नहीं बता सका कि इन नक्सली संगठनों के पास महंगे हथियार  , महंगी गाड़ियां तथा अवसर आने पर विदेश भाग जाने की सुविधा जुटाने के लिये पैसा कहां से आता है?
इसके अलावा एक बात दूसरी भी है कि नक्सलवाद कोई आज की समस्या नहीं है बल्कि बरसों से है। तब यह भी पूछा जाना चाहिये कि जहां यह नक्सलवाद है वहां की जनता क्या खुश है? यकीनन नहीं! यह नक्सलवादी किसी को रोटी या रोजगार तो दे नहीं सकते! अलबत्ता भय कायम कर दूसरे की आवाज दबा सकते हैं। इनके इलाकों में भूख, बेरोजगारी तथा बेबस लोगों की कमी नहीं है पर उनकी अभिव्यक्ति को बाहर लाने वाला कौन है? नक्सली लायेंगे  नहीं और निष्पक्ष प्रेषकों को वह अंदर आने नहीं देंगे। ऐसे में कथित रूप से कुछ प्रसिद्ध समाज सेवक वहां जाते हैं और वहां का दर्द आकर सुनाते हुए बताते हैं कि ‘भुखमरी, बेरोजगारी तथा शोषण के कारण वहां नक्सली अपना काम रहे हैं।’
तब सवाल यह है कि वहां नक्सलियों की उपस्थिति का औचित्य क्या है जब समस्यायें यथावत हैं। सीधा आशय यह है कि आप चाहे लाख सिर पटक लें कम से कम ज्ञान की चरम सीमा के निकट पहुंचे व्यक्ति को यह नहीं समझा सकते कि भूख, बेरोजगारी तथा शोषण की दवा गोली है और उसके चलाने वाले कोई प्रमाणिक चिकित्सक।
यह तो थी नक्सली हिंसा का सिद्धांत खारिज करने वाली बात। अब हम देश की हालतों पर चर्चा करें जिसका नक्सलवाद से कोई संबंध नहीं है। जिन्होंने अर्थशास्त्र पढ़ा है वह जानते हैं कि भारत की आर्थिक समस्यायें क्या हैं-बढ़ती जनसंख्या, अकुशल प्रबंध, रूढ़िवादिता तथा धन का असमान वितरण। इसका आशय यह है कि हमें अगर गरीबी, बेरोजगारी, शोषण तथा दमन जैसी बीमारियां भगानी हैं तो उनको पैदा करने वाली समस्याओं को दूर करना होगा। बढ़ती जनसंख्या का जिम्मा जनता का है। देश में अब भी आबादी का बढ़ना थम नहीं  रहा इसका मतलब यह है कि कम से कम इस विषय में  आम लोग ही इसके लिये जिम्मेदार हैं।
दूसरे नंबर पर आने वाली समस्या ‘अकुशल प्रबंध’ शायद पहली समस्या की भी जनक है। हम जिस भ्रष्टाचार की बात करते हैं वह इसी समस्या की देन है। मुश्किल यह है कि इस पर कोई ध्यान नहीं देता। अभी पिछले दिनों एक समाचार टीवी चैनलों पर दिखने के साथ अखबारों में भी छपा था कि 85 लाख टन गेंहूं एक गोदाम में सड़ रहा है। ऐसी एक नहंी अनेक घटनायें सामने आती हैं जिसमें यह बताया जाता है कि गोदामों में रखा गया अनाज सड़ गया। जब इनकी मात्रा की गणना करते हैं तब लगता है कि इस देश में अभी भी खाने वाले कम है। सड़ने से पूर्व ही यह अनाज गरीब और भूखों तक पहुंच जाये तो उनकी चालीस करोड़ की संख्या भी कम लगेगी। होना तो यह चाहिये कि इन जिन लोगों के पास इस अनाज को वितरण करने का निर्णय करने का अधिकार है वह ऐसी खबरों से उत्तेजित होकर निकल पड़ें और गोदामों से सामान निकालकर समस्याग्र्रस्त क्षेत्रों तक पहुंचायें। निजी क्षेत्र में अमीरों की संख्या कम नहीं है पर मुख्य मुद्दा यह है कि उनके मन में समाज का भला करने की चाहत नहीं है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन दान की महिमा स्वर्ग दिलाने के लिये नहीं बल्कि सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिये गाता है।
रूढ़िवादिता भी कम समस्या नहीं है। अनेक जगह लोगों ने अपने व्यवसायों के काम करने के तौर तरीकों में बदलाव नहीं किया। जमीन पर उनकी निर्भरता अधिक होने के कारण यह संभव नहीं है कि सभी को रोजगार दिया जा सके। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पूंजीपतियों का प्रवेश रोकने से वहां का औद्योगिक विकास अवरूद्ध होता है। भले ही स्थानीय लोग जमीन न देना चाहें पर सच तो यह है कि वह उनके समूचे परिवार का पेट नहीं पाल सकती क्योंकि उनके काम करने का तरीका पुराना है। वैसे एक बात दूसरी भी है कि पश्चिम बंगाल में ऐसी घटनायें भी सामने आयीं जिसमें किसानों ने अपनी जमीन स्वेच्छा से बेची पर बाद में वह कम कीमत या शोषण का आरोप लगाकर मुकर गये क्योंकि उनको कथित समाजसेवकों ने अपने की कीमत अधिक लगाने को कहा। पश्चिम बंगाल से टाटा की नैनो कार उत्पादन करने की परियोजना हटने से वहां की जो साख गिरी वह कोई कम नहीं है। वैसे टाटा घराने के बारे में कहा जाता है कि वह शोषण नहीं करता और उनके वहां से पलायन के बाद ऐसा कोई प्रमाण भी वह समाजसेवक नहीं ला सके कि उन्होंने जमीन लेने के मामले में किसी को दबाया, धमकाया या कम कीमत दी। उस समय कथित समाजसेवक वहां गये पर जब टाटा ने वहां से परियोजना हटाई तो फिर उन्होंने अपने आंदोलन का औचित्य सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण पेश नहीं किया। इस तरह अनेक कथित मसीहा किसानों, गरीबों, मजदूरों और भूखों का हितैषी होने का दावा करते हैं पर कोई प्रमाण नहीं देते। हमारे कहने का आशय यह नहीं है कि पूंजीपति शोषण या धोखा नहीं देते पर सवाल यह है कि जो उनसे लड़ने का दावा करते हैं वह उसको उजागर करने में नाकाम क्यों रहते हैं?
इसमें दो राय नहीं है कि देश में गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार, भुखमरी पर अंकुश करना जरूरी है वरना अपने आपको एकजुट रखना कठिन हो जायेगा। राजा या राज्य तभी तक अस्तित्व में रहते हैं जब तक जनता का विश्वास है। जब हम दावा करते हैं कि हम एक राष्ट्र हैं तो हमें यह सिद्ध करना होगा कि हम सभी एक दूसरे की फिक्र करते हैं। आजादी के साठ वर्ष बाद भी अगर हमारे अपने देश में इतने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, शोषण, दमन, बेरोजगारी तथा अशिक्षा का वर्चस्व है तो वह हमारे एक राष्ट्र होने पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इसलिये इनको पैदा करने वाली समस्याओं-बढ़ती जनसंख्या, अकुशल प्रबंध, धन के असमान वितरण तथा रूढ़िवादिता-से निपटना है। नक्सलवाद और उनके समर्थक लाख दावा कर लें कि वह गोली से निपटेंगे पर सच यह है कि यह कम बुद्धिमानी से योजना बनाकर ही किया जा सकता है। अगर हम ऐसा नहीं करते तो देश के मजदूरों, गरीबों, शोषितों, दलितों तथा लाचार लोगों को बरगला कर हमारे देशी तथा विदेशी दुश्मन उनको हमारे सामने खड़ा करते रहेंगे। उनको मजबूर करेंगे कि वह उनके हथियार खरीद कर क्रांति लायें। इस तरह वह देश को संकट में डालकर बंधक बनाये रखेंगे। याद रखिये मुगल और अंग्रेजी इस देश में व्याप्त वैमनस्य का लाभ उठाकर ही यहां शासन करते रहे। कमजोर वर्ग उनका हथियार बना यह अलग बात है कि उनके हाथ कुछ आया नहीं और वह अपनी समस्याओं को ढोता हुआ आगे चलता रहा क्योंकि उसके दर्द का निवारण करना दुश्मनों की नीयत नहीं थी भले ही कारण वही बतलाया जाता रहा हो। लगभग यही स्थिति यहां अब भी दिखती है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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