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गुरु पूर्णिमा-तत्वज्ञान दे वही होता है सच्चा गुरु (article in hindi on guru purnima


गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दांव।
दो बूड़े वापूरे,चढ़ि पाथर की नाव

         जहां गुरु लोभी और शिष्य लालची हों वह दोनों ही अपने दांव खेलते हैं पर अंततः पत्थर बांध कर नदिया पर करते हुए उसमें डूब जाते हैं।

            आज पूरे देश में गुरु पूर्णिमा मनाई जा रही है। भारतीय अध्यात्म में गुरु का बहुत महत्व है और बचपन से ही हर माता पिता अपने बच्चे को गुरु का सम्मान करने का संस्कार इस तरह देते हैं कि वह उसे कभी भूल ही नहीं सकता। मुख्य बात यह है कि गुरु कौन है?
दरअसल सांसरिक विषयों का ज्ञान देने वाला शिक्षक होता है पर जो तत्व ज्ञान से अवगत कराये उसे ही गुरु कहा जाता है। यह तत्वज्ञान श्रीगीता में वर्णित है। इस ज्ञान को अध्ययन या श्रवण कर प्राप्त किया जा सकता है। अब सवाल यह है कि अगर कोई हमें श्रीगीता का ज्ञान देता है तो हम क्या उसे गुरु मान लें? नहीं! पहले उसे गुरु मानकर श्रीगीता का ज्ञान प्राप्त करें फिर स्वयं ही उसका अध्ययन करें और देखें कि आपको जो ज्ञान गुरु ने दिया और वह वैसा का वैसा ही है कि नहीं। अगर दोनों मे साम्यता हो तो अपने गुरु को प्रणाम करें और फिर चल पड़ें अपनी राह पर।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में गुरु की सेवा को बहुत महत्व दिया है पर उनका आशय यही है कि जब आप उनसे शिक्षा लेते हैं तो उनकी दैहिक सेवा कर उसकी कीमत चुकायें। जहां तक श्रीकृष्ण जी के जीवन चरित्र का सवाल है तो इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उन्होंने अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त कर हर वर्ष उनके यहां चक्कर लगाये।
गुरु तो वह भी हो सकता है जो आपसे कुछ क्षण मिले और श्रीगीता पढ़ने के लिये प्रेरित करे। उसके बाद                    अगर आपको तत्वज्ञान की अनुभूति हो तो आप उस गुरु के पास जाकर उसकी एक बार सेवा अवश्य करें। हम यहां स्पष्ट करें कि तत्वज्ञान जीवन सहजता पूर्ण ढंग से व्यतीत करने के लिये अत्यंत आवश्यक है और वह केवल श्रीगीता में संपूर्ण रूप से कहा गया है। श्रीगीता से बाहर कोई तत्व ज्ञान नहीं है। इससे भी आगे बात करें तो श्रीगीता के बाहर कोई अन्य विज्ञान भी नहीं है।
इस देश के अधिकतर गुरु अपने शिष्यों को कथायें सुनाते हैं पर उनकी वाणी तत्वाज्ञान से कोसों दूर रहती है। सच तो यह है कि वह कथाप्रवचक है कि ज्ञानी महापुरुष। यह लोग गुरु की सेवा का संदेश इस तरह जैसे कि हैंण्ड पंप चलाकर अपने लिये पानी निकाल रहे हैं। कई बार कथा में यह गुरु की सेवा की बात कहते हैं।
सच बात तो यह है गुरुओं को प्रेम करने वाले अनेक निष्कपट भक्त हैं पर उनके निकट केवल ढोंगी चेलों का झुंड रहता है। आप किसी भी आश्रम में जाकर देखें वहा गुरुओं के खास चेले कभी कथा कीर्तन सुनते नहीं मिलेंगे। कहीं वह उस दौरान वह व्यवस्था बनाते हुए लोगों पर अपना प्रभाव जमाते नजर आयेंगे या इधर उधर फोन करते हुए ऐसे दिखायेंगे जैसे कि वह गुरु की सेवा कर रहे हों।

कबीरदास जी ने ऐसे ही लोगों के लिये कहा है कि

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जाका गुरु आंधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद।

      “जहां गुरु ज्ञान से अंधा होगा वहां चेला तो उससे भी बड़ा साबित होगा। दोनों अंधे मिलकर काल के फंदे में फंस जाते है।”

 
बहुत कटु सत्य यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान एक स्वर्णिम शब्दों का बड़ा भारी भंडार है जिसकी रोशनी में ही यह ढोंगी संत चमक रहे हैं। इसलिये ही भारत में अध्यात्म एक व्यापार बन गया है। श्रीगीता के ज्ञान को एक तरह से ढंकने के लिये यह संत लोग लोगों को सकाम भक्ति के लिये प्रेरित करते हैं। भगवान श्रीगीता में भगवान ने अंधविश्वासों से परे होकर निराकर ईश्वर की उपासना का संदेश दिया और प्रेत या पितरों की पूजा को एक तरह से निषिद्ध किया है परंतु कथित रूप से श्रीकृष्ण के भक्त हर मौके पर हर तरह की देवता की पूजा करने लग जाते हैं। गुरु पूर्णिमा पर इन गुरुओं की तो पितृ पक्ष में पितरों को तर्पण देते हैं।
मुक्ति क्या है? अधिकतर लोग यह कहते हैं कि मुक्ति इस जीवन के बाद दूसरा जीवन न मिलने से है। यह गलत है। मुक्ति का आशय है कि इस संसार में रहकर मोह माया से मुक्ति ताकि मृत्यु के समय उसका मोह सताये नहीं। सकाम भक्ति में ढेर सारे बंधन हैं और वही तनाव का कारण बनते हैं। निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया ऐसे ब्रह्मास्त्र हैं जिनसे आप जीवन भर मुक्त भाव से विचरण करते हैं और यही कहलाता मोक्ष। अपने गुरु या पितरों का हर वर्ष दैहिक और मानसिक रूप से चक्कर लगाना भी एक सांसरिक बंधन है। यह बंधन कभी सुख का कारण नहीं होता। इस संसार में देह धारण की है तो अपनी इंद्रियों को कार्य करने से रोकना तामस वृत्ति है और उन पर नियंत्रण करना ही सात्विकता है। माया से भागकर कहीं जाना नहीं है बल्कि उस पर सवारी करनी है न कि उसे अपने ऊपर सवार बनाना है। अपनी देह में ही ईश्वर है अन्य किसी की देह को मत मानो। जब तुम अपनी देह में ईश्वर देखोगे तब तुम दूसरों के कल्याण के लिये प्रवृत्त होगे और यही होता है मोक्ष।
इस लेखक के गुरु एक पत्रकार थे। वह शराब आदि का सेवन भी करते थे। अध्यात्मिक ज्ञान तो कभी उन्होंने प्राप्त नहीं किया पर उनके हृदय में अपनी देह को लेकर कोई मोह नहीं था। वह एक तरह से निर्मोही जीवन जीते थे। उन्होंने ही इस लेखक को जीवन में दृढ़ता से चलने की शिक्षा दी। माता पिता तथा अध्यात्मिक ग्रंथों से ज्ञान तो पहले ही मिला था पर उन गुरु जी जो दृढ़ता का भाव प्रदान किया उसके लिये उनको नमन करता हूं। अंतर्जाल पर इस लेखक को पढ़ने वाले शायद नहीं जानते होंगे कि उन्होंने अपने तय किये हुए रास्ते पर चलने के लिये जो दृढ़ता भाव रखने की प्रेरणा दी थी वही यहां तक ले आयी। वह गुरु इस लेखक के अल्लहड़पन से बहुत प्रभावित थे और यही कारण है कि वह उस समय भी इस तरह के चिंतन लिखवाते थे जो बाद में इस लेखक की पहचान बने। उन्हीं गुरुजी को समर्पित यह रचना।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

चाणक्य दर्शन-धर्म परिवर्तन करने से मनुष्य बाद में दु:खी हो जाता है(hindi sandesh-dharm parivaratan anuchit-chankya niti


नीति विशारद चाणक्य कहते हैं
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आत्मवर्ग परित्यन्य परवर्गे समाश्रितः।
स्वयमेव लयं याति यथा राजात्यधर्मतः।।

हिन्दी में भावार्थ कि अपना समूह,समुदाय वर्ग या धर्म त्याग कर दूसरे का सहारा लेने वाले राजा का नाश हो जाता है वैसे ही जो मनुष्य अपने समुदाय या धर्म त्यागकर दूसरे का आसरा लेता है वह भी जल्दी नष्ट हो जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- अक्सर लोग धर्म की व्याख्या अपने ढंग से करते हैं। अनेक लोग निराशा, लालच या आकर्षण के वशीभूत होकर धर्म में परिवर्तन कर दूसरा अपना लेते हैं-यह अज्ञान का प्रतीक है। दरअसल मनुष्य के मन में जो विश्वास बचपन में उसके माता पिता द्वारा स्थापित किया जाता है उसी को मानकर वह आगे बढ़ता जाता है। कहा भी जाता है कि माता पिता प्रथम गुरू होते हैं। उनके द्वारा मन में स्थापित संस्कार,आस्था तथा इष्ट के स्वरूप में बदलाव नहीं करना चाहिये। इसका कारण यह है कि बचपन से ही मन में स्थापित संस्कार और आस्थाओं से आदमी आसानी से नहीं छूट पाता-एक तरह से कहा जाये कि पूरी जिंदगी वह उनसे परे नहीं हो पाता।
कहा भी जाता है कि आदमी में संस्कार,नैतिकता और आस्था स्थापित करने का समय बाल्यकाल ही होता है। ऐसे में कुछ लोग निराशा, लालच,भय या आकर्षण की वजह से से अपने धर्म या आस्था में बदलाव लाते हैं पर बहुत जल्दी ही उनमें अपने पुराने संस्कार, आस्थाऐं और इष्ट के स्वरूप का प्रभाव अपना रंग दिखाने लगता है पर तब उनको यह डर लगता है कि हमने जो नया विश्वास, धर्म या इष्ट के स्वरूप को अपनाया है उसको मानने वाले दूसरे लोग क्या कहेंगे? एक तरफ अपने पुराने संस्कार और आस्थाओं की खींचने वाला मानसिक विचार और दूसरे का दबाव आदमी को तनाव में डाल देता है। धीरे धीरे यह तनाव आदमी की देह और मन में विकार पैदा कर देता है। इसलिये अपने अंदर बचपन से स्थापित संस्कार,आस्था और इष्ट के स्वरूप में में कभी बदलाव नहीं करना चाहिये बल्कि अपने धर्म के साथ ही चलते हुए सांसरिक कर्मों में निष्काम भाव से लिप्त होना चाहिये। भगवान श्रीकृष्ण ने भी श्रीगीता में कहा भी है कि अपना धर्म गुणहीन क्यों न हो पर उसका त्याग नहीं करें क्योंकि दूसरे का धर्म कितना भी गुणवान हो अपने लिये डरावना ही होता है। धर्म परिवर्तन करने वाले कभी सुखी नहीं रहते है और आस्था बदलने वालों का भटकाव कभी ख़त्म नहीं होता यह  अंतिम सत्य है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

व्यक्ति में चेतना लाने से ही समाज जागृत होगा-चिंतन


अक्सर यह सुनने को मिलता है कि ‘महाभारत घर में नहीं रखना चाहिए क्योंकि इससे क्लेश होता है’। हो सकता है या सच हो या भ्र्म! एक बात जरूर है कि जैसा साहित्य आप पढ़ते हैं वैसे ही आपकी बुद्धि भी हो जाती है। शायद यही कारण है कि घर में महाभारत रखने के लिये रोका जाता है कि घर में अगर होगी तो पढ़ी जाएगी और फिर लोगों में क्लेश की भावना पैदा हो सकती है। शायद इसीलिये हमारे देश के अध्यात्मिक चिंतकों ने महाभारत से श्रीगीता को अलग कर दिया। इसक मतलब सीधा है कि उसमें कुछ ऐसे प्रसंग है जिनका दुहराव हमारे समाज में पसंद नहीं किया जायेगा। महाभारत प्रायः घरों में नहीं रखा जाता है पर शायद ही ऐसा घर हो जहां श्रीमदभागवत गीता नहीं रखी जाती हो। सच बात तो यह है कि श्रीगीता न केवल चारों वेदों का सार संग्रह है बल्कि वह हमारे अध्यात्मिक ज्ञान का खजाना होने के साथ ही सभ्य संस्कृति और पवित्र संस्कारों के निर्माण का स्तोत्र भी है।
मजे की बात यह है कि श्रीगीता को जाने बिना ही संस्कार और संस्कृति बचाने के लिये कुछ लोग अनवरत अभियान छेड़े रहते हैं पर अगर उनसे उसका स्वरूप पूछा जाये तो उनकी हवा निकल आयेगी। पाश्चात्य सभ्यता से खतरा बतारने वाले लेाग बताते हैं कि-
1.पश्चिम में माता पिता और गुरु को सम्मान नहीं दिया जाता पर हमारे यहां उसकी परंपरा है। बच्चे अगर अपने संस्कारों ओर संस्कृति से परिचित नहीं होंगे तो बिगड़ जायेंगे और हमारे समाज का ढांचा बिगड़ जायेगा।
2.स्त्रियों को वह वस्त्र पहनने चाहिये जो पूरा शरीर ढंकते हों। अर्द्धनग्न होकर घूमने वाली स्त्रियों इस देश के लिये बहुत बड़ा खतरा है।
3.देश में केवल पुराने त्यौहार ही मनाने चाहिये ताकि संस्कृति बची रहे। पश्चिम के त्यौहार मनाने की प्रवृत्ति नहीं होना चाहिये।
शायद और भी बहुत सारी बातें बतायेंगे। पुत्र के रूप में श्रवण कुमार और भगवान श्रीराम जी और बहु के रूप में श्रीसीता जी का उदाहरण देंगे। यह सब ठीक है। हमारे देश के अनेक धार्मिक गुरु भी खूब उनका बखान करते हैं। देखो कैसे श्रवण कुमार ने माता पिता की सेवा की और भगवान श्रीराम ने पिता की आज्ञा का पालन किया। पत्नी के रूप में स्त्री से पतिव्रता की आशा की जाती है। गौर करें तो पायेंगे कि केवल सारी शिक्षा शासित होने वाले संबंधों पर है और वैसा न होने पर सजा का भी प्रावधान किया गया है ‘रौरव नरक का’। मगर शासक संबंधों का कोई वर्णन नहीं करना चाहता क्योंकि बूढ़े लोग ही धर्म के अधिक सहायक होते हैं और युवाओं से ऐसी अपेक्षा नहीं की जाती। एक अच्छी माता और पिता बनने की शिक्षा युवाओं को शायद ही कोई देता हो और शायद ही कोई ऐसा आदमी मिले जो अच्छे माता पिता न बनने पर उसकी सजा भुगतने की चेतावनी देने का साहस करता हो।
हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि ‘जैसा आदमी कर्म करता है वैसा ही फल उसके सामने आता है’। संस्कृति और संस्कारों के रक्षक यहां आकर खामोश हो जाते हैं। अगर कोई व्यक्ति अच्छा पिता नहीं बना तो उससे कुपुत्र के दुष्कर्मों या अपने प्रति उपेक्षा का भाव उसे झेलना ही है। इसमें पश्चिम संस्कृति के प्रभाव जैसी कोई बात नहीं है। जब वह अपने अकर्मण्यता या दुष्कर्म का दुष्परिणाम भोग रहा है तब उसके साथ सहानुभूति जताते हुए यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि‘आजकल जमाना खराब आ गया।’
ऐसा नहीं है कि पश्चिमी सभ्यता आने के पहले कोई इस देश में सभी पुत्र श्रवण कुमार, भगवान श्रीराम तथा अन्य महापुरुषों जैसे थे। अगर होते तो फिर इनके अलावा उनका नाम भी कहीं आता।
सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे समाज में अपनी संतानों को हथियार की तरह उपयोग करने की प्रवृत्ति है वह बहुत खतरनाक है और इस कारण लेाग अपने बच्चों को अपने जीवन मेें केवल एक ही बात सिखाते हैं कि किसी भी तरह कमाओ। उसके बाद जब बच्चे आत्मनिर्भर होते हैं तो उनसे अपेक्षा करने लगते हैं कि वह संस्कार और संस्कृति से परिचित हों। जब बच्चे में संस्कार भरने का समय था तब तो भरा नहीं और जब समय आया तो फिर ऐसे फल की कामना करने लगे जो उन्होंने बोया ही नहीं।
कहने का तात्पर्य यह है कि हम जिस प्रकार की संस्कृति की बात करते हैं वह एक सामान्य आचार और व्यवहार का भाग मात्र है जो हमारे ही कर्म के आधार पर निर्धारित होता है। हम जैसा व्यवहार दूसरों से करते हैं वैसा ही हमें मिलता है। हम अपने से शासित लोगों से अपेक्षायें तो करते हैं पर सिखाते कुछ नहीं। फिर हम मानवीय रिश्तों के निर्वहन और पहनावे में जिस प्रकार संस्कृति और संस्कारों के मूल तत्व ढूंढते हैं वह तो पश्चिम में भी हैं। ऐसा नहीं है कि पश्चिम में पुत्री और पुत्र माता पिता को प्रेम और आदर नहीं देते। अपनी सफलताओं पर वह भी अपने माता पिता का ही नाम लेते हैं। तात्पर्य यह है कि केवल पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों की कथित पवित्रता को ही संस्कृति या संस्कार से को जोड़ना ठीक नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि हम अपने इन रिश्तों के निर्वाह से प्रथक किस तरह का आचार और व्यवहार करते हैं वह भी संस्कारों और संस्कृति से जुड़ा है-मसलन परिवार का भरण भोषण के लिये प्राप्त धन के स्तोत्र पवित्र होना, दूसरे की संपत्ति पर बुरी नजर न डालना तथा निष्काम भाव से दूसरों की सहायता करना।
पश्चिमी पहनावे या उत्सवों को अपनाने से अगर हमारी संस्कृति ढहने वाली होती तो शायद हम आज अपने सारे पवित्र ग्रथों का अध्ययन नहीं करते-जबकि उनका अध्ययन सामान्य शिक्षा में प्रचलित नहीं है। पश्चिमी परिधान पहनने वाले युवक युवतियां मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थानों पर दर्शनार्थ जाते हुए देखे जा सकते हैं। उनकी चारित्रिक दृढ़ता वैसे ही जैसे पहले की पीढ़ी में होती है। वह लोग वैलंटाईन डे मनाते हैं पर इसका मतलब यह नहीं है कि उनको दीपावली याद नहीं हैं। हां, यह सही है कि बाजार के प्रभाव में पश्चात्य उत्सवों को भी कुछ युवक युवतियां मनाते हैं-देश की जनसंख्या की दृष्टि से उनकी संख्या नगण्य है-पर इससे उनके स्वयं के संस्कार तो नष्ट नहीं हो जाते। फिर जो बाजार उनका प्रेरक है वह उन लोगों के दान और चंदे का स्तोत्र भी है जो संस्कृति और संस्कारों की रक्षा और धर्म के प्रचार के लिये कार्यरत हैं। इसलिये धर्म और संस्कृति रक्षकों को अपने अभियान में एक हद के अंदर तो रहना ही पड़ता है क्योंकि वह उस बाजार से अधिक देर तक लड़ नहीं सकते जो उनका भी मददगार है।
हमारे अध्यात्मिक ज्ञान में विराट शक्ति है क्योंकि वह सृष्टि और जीवन के उस सत्य के निकट है जिसके पास अभी पश्चिम का विज्ञान पहुंच रहा है। यही कारण है कि पश्चिम में भारतीय धर्मग्रथों का अध्ययन अब नये सिरे से किया जा रहा है। यहां यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि अगर हम इस समय देश का आचरण देखें तो शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो यह सके कि वह संतुष्ट है। हमें आत्मंथन करना चाहिये कि क्या हम जिस प्रकार का आचरण कर रहे हैं क्या वाकई पूरी तरह से पवित्र और शुद्ध है। केवल धर्म, संस्कृति और संस्कारों की रक्षा का नारा लगाने से काम नहीं चलने वाला। हमारा अध्यात्मिक दर्शन खाने या पहनने के मामले में कोई प्रतिबंध नहीं लगाता सिवाय इसके कि वह देह के स्वास्थ्य और मानसिक शांति के लिये उचित हो। सबसे बड़ा सवाल आचरण और व्यवहार के लिये है और उसके लिये किसी अभियान की बजाय ऐसे सम्मेलनों की जरूरत है जहां मिलकर लोग अपने आचार विचार पर आत्म मंथन कर उसमें सुधार सकें। मुख्य बात समाज को नहीं बल्कि व्यक्ति को सुधारने की की है। उसमें भी दूसरे पर नहीं बल्कि स्वयं पर दृष्टि डालने की है। समूहों में अभियान चलाने से शुद्धता नहीं आ सकती बल्कि उसके लिये स्वयं के स्तर पर प्रयास करना चाहिये।
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ज्ञान किसी समाज की संपत्ति नहीं होता-आलेख


ज्ञान किसी समाज की संपत्ति नहीं होता-आलेख
इस बार गुडफ्राइडे के अवसर पर वैटिकन सिटी में आयोजित एक प्रार्थना में हिन्दू धर्म के महान ग्रंथ श्रीगीता सार भी उल्लेख किया गया। इसके साथ ही वहां भारत के अन्य महानपुरुषों के संदेशों पर चर्चा हुई। श्रीगीता के निष्काम भाव तथा महात्मा गांधी के अहिंसा संदेश का भी उल्लेख किया गया। दरअसल इसका श्रेय भारत के ही एक पादरी को जाता है जिनको उनके प्रभावी भाषण बाद उनको खास प्रार्थना के लिये चुना गया था।
कुछ लोग इसे ईसाई धर्म के नजरिए में अन्य धर्म के प्रति बदलाव के संकेत के रूप में देख रहे हैं। यह एक अलग से चर्चा का विषय है पर इतना जरूर है कि भारत विश्व में अध्यात्मिक गुरु के रूप में जाना जाता है और श्रीगीता के मूल तत्वों को विश्व का कोई अन्य धर्मावलंबी अपने हृदय में स्थान देता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मुख्य बात यह है कि इसे उनकी सदाशयता माने या विद्वता? यकीनन दोनों ही बातें हैं। सदाशयता इस मायने में कि वह भारतीय विचारों के मूल तत्वों को पढ़ने और समझने में अपनी कट्टरता को आड़े आने नहीं देते। विद्वता इस मायने में कि वह उसे समझते हैं।
यहां ईसाई और हिंदूओं समाजों के आपसी एकता से अधिक यह बात महत्वपूर्ण है कि पूरा विश्व अब पुरानी धार्मिक परंपराओं पर अंधा होकर चलने की बजाय तार्किक ढंग से चलना चाहता है। विश्व में आर्थिक उदारीकरण ने जहां बाजार की दूरियां कम की हैं वही प्रचार माध्यमों ने भी लोगों के विचारों और विश्वासों में आपस समझ कायम करने में कोई कम योगदान नहीं दिया है-भले ही उसमें काम करने वाले कुछ लोग कई विषयों में लकीर के फकीर है।
वैसे देखा जाये तो आज जो आधुनिक भौतिक साधन उपलब्ध हैं उनके अविष्कारों का श्रेय पश्चिम देशों के वैज्ञानिकों को ही जाता है जो कि ईसाई बाहुल्य है। ईसाई धर्म को आधुनिक सभ्यता का प्रवर्तक भी माना जा सकता है पर उसका दायरा केवल भौतिकता तक ही सीमित है। हम यहां किसी धर्म के मूल तत्वों की चर्चा करने की बजाय उनके वर्तमान भौतिक स्वरूप की पहले चर्चा करें। अगर हम पूरे विश्व के खान पान रहन सहन और सोचने विचारने का तरीका देखें तो वह अब पश्चिम से प्रभावित है। आज भारत के किसी भी शहर में चले जायें वहा आपको पैंट शर्ट और जींस पहने लोग मिल जायेंगे और यकीनन वह भारत की पहचान नहीं है। खान पान में भी आप देखें तो पता लगेगा कि उस पर पश्चिमी प्रभाव है। इसे ईसाई प्रभाव कहना संकुचित मानसिकता होगी पर यह भी सच है कि पश्चिम की पहचान इसी धर्म के कारण ही यहां अधिक है।

कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे समाज पर भौतिक रूप से विदेशी प्रभाव हुआ है पर इसके बावजूद हमारी मूल सोच आज भी अपने प्राचीन अध्यात्मिक ज्ञान से जुड़ी हुई है। भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आधुनिक विश्व में भारत को पहचान दी यह भी एक बहुत बड़ी सच्चाई है-इसका विरोध करना रूढ़वादिता से अधिक कुछ नहीं है। अन्य धार्मिक ग्रंथों से श्रीगीता सबसे छोटा ग्रंथ है पर जीवन और सृष्टि के ऐसे सत्य उसमें वर्णित हैं जो कभी नहीं बदल सकते। इस संसार में समस्त जीवों का दैहिक रूप और उसके पोषण के साधन कभी नहीं बदल सकते -हां उसके वस्त्र, वाहन और व्यापर में बदलाव आ सकता है। इसके साथ ही यह भी सत्य है कि सृष्टि द्वारा प्रदत्त देह में मन, बुंद्धि अहंकार तीन ऐसी प्रवृत्तियों हैं जो हर जीव को पूरा जीवन नचाती हैं। इन पर नियंत्रण करना ही एक बहुत बड़ा यज्ञ है। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीगीता का सत्य सार कभी बदल नहीं सकता।
कुछ लोग इतिहास की बातें कर अपने धर्म की प्रशंसा करते हुए दूसरे धर्म की आलोचना करने लगते हैं। ऐसे लोग हर धर्म में हैं ऐसे में ईसाई धार्मिक स्थान पर श्रीगीता की चर्चा एक महत्वपूर्ण घटना है। विश्व में अनेक ऐसे धार्मिक संगठन है जो धर्म के नाम पर भ्रांति फैलाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और धार्मिक सिद्धांतों से उनका वास्ता बस इतना ही होता है कि उनके पास पोथियां होती है।
एक पश्चिमी विद्वान ने ही कहा था कि भारतीय की असली शक्ति श्रीगीता का ज्ञान और ध्यान है। उसने यह बात धर्म से ऊपर उठकर प्रमाण के साथ यह बात कही थी। इतिहास लिखने में गड़बड़ियां होती हैं-लेखक अपने नायकों और खलनायकों की अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। इसलिये उसके साथ चिपक कर बैठना पौंगेपन के अलावा कुछ नहीं है।
आखिरी बात श्रीगीता के उल्लेख पर हमें अधिक प्रसन्न होने की आवश्यकता नहीं है। सच बात तो यह है कि हमारा समाज उससे दूर होकर चल रहा है। कहने को सभी कहते हैं कि ‘हमारे लिये वह पावन ग्रंथ हैं’पर उसका ज्ञान कितने लोग धारण करते हैं यह अलग से शोध का विषय है। पश्चिम के लोग भौतिकता से ऊब गये हैं इसलिये वह अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि रखते हैं और उसका महान स्त्रोत श्रीगीता है। पश्चिम के अनेक लोग अपने धर्म से उठकर श्रीगीता के संदेश को सर्वोत्तम मानते हैं। भारत में भी हिंदुओं के अलावा अन्य धर्म के वह लोग श्रीगीता को समझते हैं जो कट्टरता छोड़कर इसका अध्ययन करते हैं। इतना ही नहीं कबीर और रहीम जैसे महापुरुषों के संदेशों में में भी पूरा विश्व रुचि ले रहा है जिनको हम पुरानी बातें कहकर भूलना चाहते हैं। श्रीगीता का संदेश हो या कबीर दर्शन उस पर अपना अधिकार इसलिये जताते हैं क्योंकि उनका सृजन हमारे देश में हुआ पर याद रखें कि ज्ञान किसी की पूंजी नहीं होता और उसका उपयोग कोई भी कर सकता है। हमने परमाणु तकनीकी इसलिये तो नहीं छोड़ी कि उसका पश्चिम में हुआ है-उसकी बिजली बनाने के अनेक संयंत्र हमारे देश में हैं-उसी तरह पश्चिम भी इसलिये तो हमारे अध्यात्म से मूंह नहीं फेरेगा कि उनका सृजक भारत है। ऐसे में उस भारतीय पादरी की प्रशंसा करना जरूरी है जिसने ईसाई धर्म के लोगों को भारतीय अध्यात्म के मूल तत्वों से परिचय कराने का निष्काम प्रयास किया है।
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हिंदू विचारधारा:भारतीय और अफ़गानी-आलेख


एक बात निश्चित है कि धर्म नितांत एक निजी विषय है और उस पर सार्वजनिक विषय पर चर्चा करना केवल एक दिखावा करना लगता है। दूसरी बात यह है कि किसी धर्म की स्थापना या प्रचार का कार्य एक व्यवसाय का रूप ले चुका है और आम आदमी इस बात को समझ गया है और वह इन प्रचारकों को गंभीरता ने नहीं लेता। फिर भी समूह में रहने के अभ्यस्त इंसानों के लिये यह आवश्यक है कि वह भाषा,जाति और धर्म के नाम पर बने समूहों के प्रति निष्ठा जताते रहें ताकि विपत्ति के समय उनकी सहायता की आशा की जा सके।

इन्हीं समूहों में बदलाव आते जाते हैं और कई जगह झगड़े चलते हुए भी उनको रोकना कठिन लगता है। धर्म और अध्यात्म में अंतर है। धर्म मनुष्य को बर्हिमुखी और अध्यात्म अंतर्मुखी बनता है। सारे विवादों के बावजूद एक बात अंतिम सत्य के रूप में सामने आ चुकी है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान में ही वह शक्ति है जिसको ग्रहण और धारण कर कोई भी व्यक्ति मानसिक और शारीरिक रूप से शक्तिशाली हो सकता हैं। इस अध्यात्म ज्ञान की वजह से हिंदू धर्म निर्मित हुआ है। लंबे समय तक हिंदू धर्म को लेकर अेनक सवाल उठते रहे हैं पर उनके उत्तर में केवल विवाद ही खड़े होते हैं।

इस लेखक ने अपने एक पाठ में लिखा था कि ‘ हिंदी हिदू और हिंदूत्व’ शब्द में एक ऐसा बोध है जिसे धारण कर कोई भी अपने को शक्तिशाली समझने लगता है क्योंकि उसमें एक आकर्षण है। एकतरफ जहां हिंदू धर्म के बचाने और विस्तार करने के प्रयास हो रहे हैं तो दूसरी तरफ उसके नाम पर बने एक बृहद समाज के स्वरूप में बदलाव आते जा रहे हैं जिस पर विद्वान दृष्टिपात नहीं कर पाते। पहला तो यह है कि हमारे समाज में पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव इतना पड़ चुका है कि पता ही नहीं लगता कि हम धर्म या अध्यात्म ज्ञान के विषय में कहां खड़े हैं? धार्मिक कर्मकांड और अध्यात्मिक ज्ञान के के प्रथक होने की अनुभूति नहीं होने के कारण विचारों में भटकाव होता है और यही समाज को भी भ्रमित कर रहा है।

कल एक ब्लाग पढ़ रहा था। उसके लेखक श्री रजनीश मंगला ने जर्मनी में हिंदू मंदिर और अफगान हिंदू मंदिर बने होने की चर्चा अत्यंत दिलचस्प ढंग से उठाई थी। उसमें लिखा गया था कि आतंक से परेशान अफगानी हिंदुओं ने जर्मनी में पनाह ली और वहां उन्होंने आकर्षक मंदिरों का निर्माण कराया है। मंदिर मनाने के मामले में वहां भारतीय हिंदूओं के मुकाबले अफगानी हिंदू आगे हैं। किसी उत्सव पर भारतीय हिंदू मंदिर के मुकाबले अफगानी हिंदू मंदिर में कम ही भीड़ होती हैं। अफगानी मंदिर कर्ज लेकर बनाये गये हैं जिसकी वापसी किश्तों में की जा रही है। उन मंदिरों में पुजारी भारत के ही हैं।
अफगानियों के मंदिरों पर ही लिखा गया है ‘अफगानी हिंदू मंदिर’। रजनीश मंगला ने इस आलेख में सवाल उठाया कि क्या अफगानी हिंदू मंदिरों से कभी अफगानी हट जायेगा या कोई ःअफगानी हिदू विचारधारा के रूप में अलग धारा बहेगी। रजनीश मंगला के इस आलेख को दो बार मैंने पढ़ा क्योंकि उसमें मेरी दिलचस्पी बहुत थी। जहां तक अलगा धारा का प्रश्न है तो लगता है कि वह आगे ही बढ़ेगी कम शायद ही हो। सच तो यह है कि अलग धारा बहनी ही चाहिये क्योंकि हिंदू अध्यात्म एक हिमालय की तरह है जहां से कई धारायें प्रवाहित होंगी। अभी नहीं तो आगे इसकी संभावना है। एक ही धारा की कल्पना कर हिंदू धर्म को ही सीमित दायरे मेेंें बांधना होगा।

आखिर अलग धारा का प्रश्न क्यों उठा? अगर हम भारत में हिंदू धर्म की बात करें तो यहां का समाज जातियों और उपजातियेां में बंटा हुआ है और यही उसके शक्तिशाली होने कारण भी है। फिर अफगान हिंदू धारा के बहने से होगा यह कि आगे चलकर अन्य देशों के हिंदू भी इसी तरह अपनी धारा बहायेंगे। इस बात की भी संभावना है कि जब विश्व में सामाजिक और धार्मिक बदलाव आयेंगे तो तो अपनी अध्यात्मिक ज्ञान की शक्ति के कारण हिंदू धर्म ही विस्तार रूप से लेगा। यह लेखक इतिहास को एक कूड़ेदान की तरह मानता है पर उसमें वर्णित घटनाओं पर विचार करें तो हर भारतीय हिंदूओ की कार्यपद्धति को देखें। हिंदू धर्म की रक्षा के लिये सभी तैयार बैठे हैं पर केवल इसी देश के अंदर। बाहर भी हिंदू रहते हैं पर उनके लिये किसी ने कार्य नहीं किया। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि हिंदू धर्म से आशय उन सभी धर्मों से है जिनका उदय भारत में हुआ। यहां के शासकों का राज्य अफगानिस्तान तक फैला था पर धीरे धीरे वह सिकुड़ता गया। वजह यह है कि सीमावर्ती राज्यों पर आक्रमण होते रहे पर उनको अपने पीछे के क्षेत्रों से सहयोग न मिलने के कारण हारना पड़ा। इतिहास में इस बारे में बहुत सारे तथ्य दर्ज हैं। अंधविश्वास,कुप्रथाओं और अहंकार में फंसे हिंदू समाज के विभिन्न उपसमूहों में बंटे लोगों और उनके राजाओं ने कभी भी ईमानदारी से विचाराधारा और प्रजा की रक्षा का विचार ही नहीं किया। अपनी राज्य की सीमाओं को अंतिम और अखंड होने के अहंकार ने इस देश के पहले विदेशी आक्रमणकारियों और अब विचाराधाराओं के जाल में फंसा दिया। दो हजार वर्ष तक यह देश गुलाम रहा इस बात को भुलाया नहीं जा सकता।

स्वतंत्रता के बाद विदेशों से आयातित विचारधाराआों की आलोचना या समर्थन में समय नष्ट किया गया जिससे कुछ हाथ नहीं आना था न आया। सत्य यही है कि भौतिकतावाद से उपजे तनाव से बचने के लिये केवल शक्ति ‘भारतीय अध्यात्म ज्ञान’ में ही है। जिसका मूल मंत्र यही है कि प्रातः उठकर योगासन, प्राणायम,ध्यान और प्रार्थना के द्वारा अपने तन,मन और विचार के विकार बाहर निकालकर फिर नया दिन प्रारंभ किया जाये।
भारतीय अध्यात्म की सबसे बड़ी शक्ति ध्यान है। कुछ धार्मिक लोगों ने मूर्तिपूजा का विस्तार किया क्योंकि एक सामान्य आदमी के लिये एकदम ध्यान लगाना कठिन होता है। इसलिये किसी स्वरूप को मन में स्थापित कर उसकी आराधना करने से भी ध्यान का लाभ मिल सकता है। दरअसल ध्यान से आशय यह है कि अपने दिन प्रतिदिन के दैहिक कार्य से हटकर उसे कही अन्यत्र लगाया जाये। इसी मूर्तिपूजा का विरोध अन्य विचारधारा के लोगों ने ही नहीं बल्कि अनेक हिंदू भी करते हैं पर वह इसका महत्व नहीं समझते। विदेशी विचाराधारा से ओतप्रोत लोग भटकाव की स्थिति में दो ही मार्ग ढूंढते हैं-आत्म हत्या या दूसरे की हत्या। जबकि भारतीय निराशा की स्थिति में मंदिर की राह लेते हैं। हमारे देश में अपने अध्यात्म से दूर होने का कारण यहां भी हिंसा का प्रभाव बढ़ रहा है।

बहुत लंबे समय तक भारत के बाहर के हिंदूओं ने प्रतीक्षा की है कि वह भारत में रह रहे हिंदुओं से नैतिक समर्थन प्राप्त करें पर वह शायद नहीं मिल पाया। दूसरा यह है कि हम भारतीय हिंदूओं इस बात को समझ लें कि हमारी शक्ति धार्मिक कर्मकांड नहीं बल्कि अध्यात्मिक ज्ञान है जिस पर अभी तक केवल हम अपना ही अधिकार सकझते हैं। अब वह विश्व में फैल रहा हैं। भारतीय योग परंपरा और श्रीगीता के बारे में अब पूरा विश्व जान चुका है। संत कबीर जी के संदेशों से विदेशी भी प्रभावित हैं-यहां याद रहे कि संत कबीर ने सभी प्रकार के धार्मिक अंधविश्वासों का विरोध किया और किसी भी धर्म को उन्होंने बख्शा नहीं।

देश में अधिक आबादी होने के कारण अतिविश्वास के कारण हम भारतीय हिंदू उस अध्यात्म ज्ञान को जानते हैंे पर जीवन में धारण करने से कतराते हैं। जहां हिंदू अल्पसंख्यक हैं वह इस ज्ञान का मतलब जानते हैं। अनेक भारतीय भी जो विदेशों मेेंं बहुत समय से रह रहे हैं वह भी इस बात को समझते हैं। यह अलग बात है कि उनके इसी भाव का दोहने अपने आर्थिक लाभ के लिये कथित साधु और संत करते हैं। ऐसे में विदेशी हिंदू अगर अपनी अलग धारा में बह रहे हैं तो एक उम्मीद तो बंधती है कि वह भी भारतीय अध्यात्म के हिमालय से निकल रही है। जहां ऐसी जगह पर भारतीय हिंदू हैं उनका मार्गदर्शन करना चाहिये। भारतीय अध्यात्म ज्ञान न तो गूढ़ हैं न ही व्यापक जैसा कि कुछ धार्मिक विद्वान कहते हैं। बस वह एक ऐसा मार्ग है जिस पर चलकर देखा जा सकता है। भारतीय ज्ञान को गूढ या व्यापक कहना कुछ ऐसा ही है कि जैसे आप आगरा में खड़े होकर कहें कि मुझे दिल्ली जाना है क्योंंकि मुंबई दूर है या आप नासिक में खड़े होकर कहें कि मुझे मुंबई जाना है क्योंकि दिल्ली दूर है। ऐसे ही सत्य और माया के दो मार्ग हैं और सत्य का ज्ञान इतना दूर नहीं है जितना मायावी दूनियां की चाहत रखने वाले कथित संत और साधु कहते हैं।
अगर अफगानी लोगों ने लिख दिया है कि ‘अफगानी हिंदू मंदिर तो वह उसे शायद ही बदलें। इस धारा का बहना दिलचस्प भी है और इस बात का प्रमाण भी कि अब अन्य देशों में हिंदू भी खड़े होकर भारतीय अध्यात्म ज्ञान की रक्षा करेंगे। ऐसे में भारतीय हिंदूओं को उनका हौंसला बढ़ाना ही चाहिये। आखिर वह निकली तो भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान रूपी हिमालय से ही तो है।
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