जिन हिंन्दी के महानुभावों ने रसों की पहचान दी है वह भी खूब रहे होंगे। अगर वह इन रसों की पहचान नहीं कराते तो शायद हिन्दी वाले कई ऐसी चीजों को नहीं समझ पाते जिनको बाजार के सौदागर बेचने के लिये सजाते हैं। वात्सल्य, श्रृंगार, वीभत्स, हास्य, भक्ति, करुण तथा वीर रस की चाश्नी में डुबोकर फिल्में बनायी जाती थीं। फिर टीवी चैनल भी बनने लगे। अधिकतर धारावाहिक तथा फिल्मों की कथा पटकथा में सभी रसों का समावेश किया जाता है। मगर अब समाचारों के प्रसारण में भी इन रसों का उपयोग इस तरह होने लगा है कि उनको समझना कठिन है। कभी कभी तो यह समझ में नहीं आता है कि वीर रस बेचा जा रहा है कि करुणता का भाव पैदा किया जा रहा है या फिर देशभक्ति का प्रदर्शन हो रहा है।
इस देश में आतंकवाद की अनेक घटनायें हो चुकी हैं। पिछले साल 26 नवंबर को मुंबई पर हमला किया गया था। सैंकड़ों बेकसूरों की जान गयी। इससे पहले भी अनेक हमले हो चुके हैं और उनमें हजारों बेकसूर चेतना गंवा चुके हैं। मगर मुंबई हमले की बरसी मनाने में प्रचार तंत्र जुटा हुआ है। कहते हैं कि मुंबई पर हुआ हमला पूरे देश पर हमला था तब बाकी जगह हुआ हमला किस पर माना जाये? जयपुर, दिल्ली और बनारस भी इस देश में आते हैं। फिर केवल मुंबई हादसे की बरसी क्यो मनायी जा रही है? जवाब सीधा है कि बाकी शहरों में सहानुभूति के नाम पर पैसे खर्च करने वाले अधिक संभवतः न मिलें। मुंबई में फिल्म बनती है तो टीवी चैनलों के धारावाहिक का भी निर्माण होता है। क्रिकेट का भी वह बड़ा केंद्र है। सच तो यह है कि दिल्ली, बनारस और जयपुर किसी के सपनों में नहीं बसते जितना मुंबई। इसलिये उसके नाम पर मुंबई के भावुक लोगों के साथ बाहर के लोग भी पैसे खर्च कर सकते हैं। सो बाजार तैयार है!
वैसे संगठित प्रचार माध्यम-टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकायें-यह सवाल नहीं उठायेंगे कि क्या बाजार का आतंकवाद से किसी तरह का क्या कोई अप्रत्यक्ष संबंध है जो अमेरिका की तर्ज पर यहां भी मोमबतियां जलाने के साथ एस.एम.एस. संदेशों की तैयारी हो रही है। अलबत्ता अंतर्जाल पर अनेक वेबसाईटों और ब्लाग पर इस तरह के सवाल उठने लगे हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि बाजार का अब वैश्वीकरण हो गया है इसलिये उसके लिये देश की कोई सीमा तो हो नहीं सकती पर वह भक्ति रस बेचने के लिये देशभक्ति का शगुफा छोड़ने से बाज नहीं आयेगा। जहां तक संवेदनाओं के मानवीय गुण होने का सवाल है तो क्या बाजार इस बात की गारंटी दे रहा है कि वह मुफ्त में मोमबत्त्यिां बंटवायेगा या एस. एम. एस. करवायेगा। यकीनन नहीं!
एक बाद दूसरी भी है कि इधर मुंबई के हमलावारों के बारे में अनेक जानकारी इन्हीं प्रचार माध्यमों में छपी हैं। योजनाकर्ताओं के मुंबईया फिल्म हस्तियों से संबंधों की बात तो सभी जानते हैं। इतना ही नहीं उनके भारतीय बैंकों में खातों की भी चर्चा होती है। पहले भी अनेक आतंकवादियों के भारत की कंपनियों में विनिवेश की चर्चा होती रही है। फिल्मों में भी ऐसे अपराधियों का धन लगने की बात इन्हीं प्रचार माध्यमों में चलती रही है जो आतंकवाद को प्रायोजित करते हैं। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि इस देश के पैसे से ही आतंकवादी अपना तंत्र चला रहे हैं। एक बात तय रही है कि यह अपराधी या आतंकवादी कहीं पैसा लगाते हैं तो फिर चुप नहीं बैठते होंगे बल्कि उन संगठनों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अपना नियंत्रण रखते होंगे जिनमें उनका पैसा लगा है। मतलब सीधा है कि बाजार के कारनामों में में उनकी अप्रत्यक्ष भूमिका हो सकती है पर शायद बाजार के प्रबंधक इसका आभास नहीं कर पाते। सच तो हम नहीं जानते पर इधर उधर देखी सुनी खबरों से यह आभास किसी को भी हो सकता है। ऐसे में आतंकवाद की घटनाओं में बाजार का रवैया उस हर आम आदमी को सोचने को मजबूर कर सकता है जो फालतु चिंतन में लगे रहते हैं। वैसे पता नहीं आतंकवादी घटनाओं को लोग सामान्य अपराध शास्त्र से पृथक होकर क्यों देखते हैं क्योंकि उसका एक ही सिद्धांत है कि जड़ (धन), जोरु (स्त्री) तथा जमीन के लिये ही अपराध होता है। आतंकवादी घटनाओं के बाद अगर यह देखा जाये कि किसको क्या फायदा हुआ है तो फिर संभव है कि अनेक प्रकार के ऐसे समूहों पर संदेह जाये जिनका ऐसी घटनाओं से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई संबंध नहीं होता? हालांकि इस विचार से भाषा, जाति, तथा धर्म तथा क्षेत्र के नाम पर होने वाली आतंकवादी घटनाओं की विवेचना भी भटक सकती है क्योंकि बाजार में सभी सौदागर ऐसे नहीं कि वह आतंकवाद को धन से प्रश्रय दें अलबत्ता वह लोगों में करुण रस को दोहने इसलिये करते हैं क्योंकि यह उनका काम है? बहरहाल प्रस्तुत है इस पर कुछ काव्यात्मक पंक्तियां-
सज रहा है
देश का बाजार रस से।
कुछ देर आंसु बहाना
दिल में हो या न हो
पर संवेदना बाहर जरूर बरसे।।
———
कभी कभी त्यौहार पर
जश्न की होती थी तैयारी।
अब विलाप पर भी सजने लगा है बाजार
सभी ने भर ली है जेब
उसे करुण रस में बहाकर निकालने की
आयी अब सौदागरों की बारी।।
————-
तारीखों में इतने भयंकर मंजर देखे हैं
कि दर्द का कुंआ सूख गया है।
इतना खून बहा देख है इन आंखों ने कि
आंसुओं की नयी धारा बहाये
वह हिमालय अब नहीं रहा,
देशभक्ति के जज़्बात
हर रोज दिखाओ
यह भी किसने कहा,
जो दुनियां छोड़ गये
उनकी क्या चिंता करना
जिंदा लोगों का भी हो गया रोज मरना
ऐ सौदागरों,
करुण रस में मत डुबोना पूरा यह ज़माना,
इस दिल को तुमने ही आदत डाली है
और अधिक प्यार मांगने की
क्योंकि तुम्हें था अधिक कमाना,
अब हालत यह है इस दिल की
प्यार क्या मांगेगा
नफरत करने से भी रूठ गया है।।
———————–
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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हिंदी ब्लाग जगत के कुछ ब्लाग लेखक अंतर्जाल पर वैसी ही गुटबाजी देख रहे हैं जैसी कि सामान्य रूप से बाहर देखने को मिलती है। यहां हम इस बात पर विचार नहीं करेंगे कि क्या वाकई कोई गुटबाजी है या नहीं बल्कि इस बात पर विचार करेंगे कि उन्हें ऐसा देखना चाहिये कि नहीं। सच कहें तो हम हिंदी ब्लाग जगत में सक्रिय ऐसे ब्लाग लेखकों से आग्रह करेंगे कि वह गुलामी की मानसिकता से बाहर निकलकर इस कथित गुटबाजी को देखना ही बंद कर दें। दिखती हो तो आंखें फेर लें। यहां सवाल कुछ ब्लाग लेखकों की गुटबाजी से अधिक उनकी सोच पर उठेगा जो कि स्वतंत्र एवं मौलिक हैं पर उनकी सोच वैसी नहीं हो पाई।
पहले करें हिंदी साहित्य और प्रचार जगत में फैली गुटबाजी की। उससे ऐसे अनेक लेखक-जिनमें इस ब्लाग/पत्रिका का लेखक भी-त्रस्त रहे हैं। यह त्रस्तता इतनी भयानक रही है कि कुछ लोगों ने तो लिखना ही बंद कर दिया और कुछ स्वांत सुखाय लिखते रहे पर उन्हें देश का एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग नहीं पढ़ सका। दरअसल लेखक और पाठक के बीच जो बाजार या संस्थान हैं उनके केंद्र बिंदू में सक्रिय पूंजीपति, मठाधीशों और उनके प्रतिनिधियों ने अपनी शक्ति के आगे नतमस्तक लोगों का वहां बनाये रखा। बाजार को पैसे की तो हिंदी संस्थानों को प्रचार की जरूरत थी और जिसने उनकी जरूरतों को पूरा किया वही उनका लाड़ला बना। बाजार के पूंजीपति और हिंदी संस्थानों के कर्णधार अपनी प्रतिभा का उपयोग हिंदी के लेखकों को आगे आने देने की बजाय उनको भेड़ की तरह हांकने में करना चाहते हैं। उनकी मानसिकता एक सभ्य व्यापारी से अधिक ग्वाले की तरह है जो बस अपने पालित पशुओं को हांकना ही जानता है। सच कहें तो लेखकों को एक तरह से लिपिक माना गया।
परिणाम सामने है। पिछले कई दशकों से हिंदी में एक भी ऐसी पुस्तक या रचना नहीं आयी जिसे सदियों तक याद रखा जा सके। हम ब्लाग लेखकों में कई ऐसे हैं जो अपनी नौकरी और व्यापार से जुड़े रहते हुए अपना लेखन सामान्य पाठक तक पहुंचाने में नाकाम रहे पर इसका हमें क्षोभ या दुःख नहीं होना चाहिए क्योंकि ऐसे में हम इसे भाग्य कहें या कर्म कि अंतर्जाल पर स्वतंत्र रूप से ब्लाग/पत्रिका लिखने का अवसर मिला। यहां अंतर्जाल पर ऐसे लेखकों को असफल लेखक कहकर मजाक भी उड़ाया जाता है ऐसा कहने वाले पुरानी प्रवृत्ति के लोग हैं और उनके लिये सफलता का पैमाना अधिक छपना और प्रसिद्ध होने से अधिक कुछ नहीं है। किसी लेखक के पाठ की मौलिकता, गुणवत्ता और कालजयित से उनको कोई मतलब नहीं है। ऐसी रचनायें अब अंतर्जाल पर ही आना संभावित हैं जिसके सामने प्रकाशन व्यवसाय और हिंदी संस्थानों की शक्ति अत्यंत सीमित है।
यहां भले ही कोई पूंजीपति कुछ ब्लाग लेखकों को खरीदकर उसमें अपने यहां के प्रकाशन की पुस्तकों का प्रचार कराये या कोई हिंदी संस्थान अपने निर्धारित लेखकों के प्रचार के लिये कुछ ब्लाग लेखकों को तैयार करे पर समूचे हिंदी ब्लाग जगत का कोई स्वामी नहीं बन सकता। यहां हर ब्लाग लेखक एक प्रकाशन और संस्थान स्वयं हैं। वह किसी सेठ या मठाधीश का मोहताज नहीं है। अपने की बोर्ड को वह एक तोप या मिसाइल लांचर की तरह उपयोग कर अपने पाठ कहीं भी बम या मिसाइल की तरह पहुंचा सकता है। ब्लाग स्पाट या वर्डप्रेस के ब्लाग किसी भारतीय की संपत्ति नहीं है इसलिये पूरा हिंदी ब्लाग जगत किसी एक का बंधुआ बनने की संभावना नहीं है। जहां तक आर्थिक उपलब्धियों का प्रश्न है तो उसकी संभावना स्वतंत्र एवं मौलिक लेखकों के लिये इस समय लगभग नहीं के बराबर है। फिर जो इस समय लिख रहे हैं वह संभवतः आत्मनिर्भर हैं और शौकिया तौर पर ही यहां सक्रिय हैं। जब उनमें से कुछ लोग प्रसिद्धि पा लेंगे तो संभावना है कि बाजार उसका लाभ उठाना चाहे-उसमें भी इस देश से अधिक विदेश से ही संभावना है क्योंकि देशी बाजार के लिये हिंदी लेखक कोई मायने नहीं रखता, अगर स्वतंत्र और मौलिक है तो बिल्कुल नहीं। अनुवाद टूलों के जरिये हिंदी की रचनायें अन्य भाषाओं में पढ़ी जा रही हैं और हिंदी में मौलिक और स्वतंत्र लेखकों के प्रसिद्ध होने का यही एक मार्ग दिखता है। यही वह मार्ग है जहां हिंदी प्रकाशनों और संस्थानों के कर्णधारों की इच्छा और सहयोग के बिना हिंदी लेखकों का प्रसिद्धि के शिखर पर जाने का अवसर मिल सकता है।
हो सकता है कि कुछ लेखक पुरानी प्रवृत्ति के चलते अंतर्जाल पर सक्रिय आर्थिक और सामाजिक शक्तियों के केंद्र बिन्दू में स्थित लोगों की चाटुकारिता करते हों और उनको लाभ भी मिले पर इसका आशय यह बिल्कुल नहीं है कि स्वतंत्र और मौलिक लेखकों के लिये कोई संभावना नहीं है। कई मायनों में स्वतंत्र और मौलिक लेखकों को तो एक नया खुला आकाश मिला है विचरण करने के लिये-जहां वह अपनी कविताओं, कहानियों और हास्य व्यंग्यों को कबूतर की तरह उड़ाने के लिये जिससे उनका नाम भी चमकता नजर आयेगा। जो कथित रूप से गुटबाजी में व्यस्त हैं उनके लिये तो सीमित संभावनायें रहेंगी पर जो स्वतंत्र और मौलिक रूप से लिखने वाले हैं उनके लिये प्रसिद्धि के मोती प्रदान करने वाला विशाल सागर है।
ऐसे में स्वतंत्र लेखक अंतर्जाल की व्यापाकता के साथ बाहर मौजूद प्रकाशनों और संस्थाओं की सीमित उपलब्धियों को समझें। वहां सीमित उपलब्धियां थी और इसलिये उनमें से अपना भाग पाने की प्रतियोगिता ने वहां गुटबाजी पैदा की जिससे हिंदी साहित्य में बेहतर लेखक और रचनाओं का लगभग टोटा पड़ गया। अंतर्जाल पर अपनी सक्रियता को अपना भाग्य मानते हुए स्वतंत्र और मौलिक लेखक अपने रचनाकर्म से जुड़े रहें और कथित गुटबाजी देखने में वह अपनी ऊर्जा को नष्ट करना उनके लिये ठीक नहीं है। वह स्वयं ही लेखक, संपादक और प्रकाशक हैं और उसी स्वाभिमान के अनुरूप उनको व्यवहार करना चाहिये। जो लोग ऐसा नहीं करते और निरंतर गुटबाजी पर ही दृष्टिपात करते हैं उनको यह बात समझ लेना चाहिये कि इस स्वतंत्र आकाश में उनको पुरानी गुलाम मानसिकता का प्रतीक माना जा सकता है।
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दीपक भारतदीप द्धारा
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प्रचार माध्यमों में अपराधियों की
चर्चा कुछ इस तरह ऐसे आती है
कि उनके चेहरे पर चमक छा जाती है
कौन कहां गया
और क्या किया
इसका जिक्र होता है इस तरह कि
असली शैतान का दर्जा पाकर भी
अपराधी खुश हो जाता है
पर्दे के नकली हीरो का नाम
देवताओं की तरह सुनाया जाता है
उसकी अप्सरा है कौन नायिका
भक्त है कौन गायिका
इस पर ही हो जाता है टाइम पास
असली देवताओं को देखने की किसे है आस
दहाड़ के स्वर सुनने
और धमाकों दृश्य देखने के आदी होते लोग
क्यों नहीं फैलेगा आतंक का रोग
पर्दे पर भले ही हरा लें
असली शैतानों को नकली देवता नहीं हरा सकते
रोने का स्वर गूंजता है
पर दर्द किसे आता है
कविता हंसने की हो या रोने की
बस वाह-वाह किया जाता है
दर्द का व्यापार जब तक चलता रहेगा
तब तक जमाना यही सहेगा
ओ! अमन चाहने वाले
मत कर अपनी शिकायतें
न दे शांति का संदेश
यहां उसका केवल मजाक उड़ाया जाता है
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
दीपक भारतदीप द्धारा
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विद्यालय के प्रबंधन ने
छात्रो की भर्ती बढाने के लिए
अपने प्रचार के पर्चों में
शिक्षा के अलावा अन्य गतिविधियों में
संगीत, गायन, नृत्य और अभिनय में
इस तरह प्रशिक्षण देने का
दावा किया गया कि
बच्चा इंडियन आइडियल प्रतियोगिता में
नंबर वन पर आ जाये
ट्वंटी ओवर में विश्व कप मे देश जीता
मिटा कर लिखा गया अन्य गतिविधियों में
यहाँ ट्वंटी ओवर क्रिकेट सिखाने की
विशेष सुविधा उपलब्ध है
जिसमे सिक्स लगाने का
जमकर अभ्यास कराया जाता है
जिससे खिलाड़ी सिक्स सिक्सर
लगाने वाला बन जाये
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दीपक भारतदीप द्धारा
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