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व्यवसायिक प्रकाशनों से तो अध्यात्मिक पत्रिकाऐं हिन्दी के लिये उपयोग-हिन्दी आलेख (comerciao publication and religion megazine in hindi-hindi article


अगर समाचार पत्र पत्रिकाओं के पत्रकार यह सोचते हैं कि उनके समाचार या लेखों में देवनागरी में अंग्रेजी शीर्षक-जैसे ‘टाईम ऑफ न्यू जनरेशन,’ यूजर्स ऑफ इंटरनेट‘ या ‘न्यू टाईप ड्राइंग रूम’-लिखने से पाठक आकर्षित होता है तो गलतफहमी में हैं। एक नहीं अनेक समाचार पत्र यह मानकर चल रहे हैं कि आजकल के नये शिक्षित युवा ही उनके पाठक हैं और देवनागरी लिपि में अंग्रेजी शीर्षक लिखकर उनको प्रभावित करेंगे तो यह उनकी गलतफहमी के अलावा अन्य कुछ नहीं है। उन्हें इसके दुष्प्रभाव का अनुमान नहीं है क्योंकि इससे हिन्दी समाचार पत्रों के नियमित पाठक के मन में जो वितृष्णा का भाव आता है उसने हिन्दी अखबारों का महत्व कम ही किया है। दूसरी गलतफहमी उनकी यह है कि वह जैसी हिन्दी लिखेंगे वैसी ही समाज का हिस्सा बन जायेगी। उनको शायद अंदाज नहीं है कि उनका एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग तो हिन्दू संतों की हिन्दी पत्र पत्रिकाओं से जुड़ गया है और उनकी ताकत इतनी बड़ी है कि वह दैनिक समाचार पत्र पत्रिकाओं के अपने विरुद्ध होने वाले प्रचारात्मक हमलों की परवाह ही नहीं करते। इसमें संत प्रवर आसाराम बापू की ऋषि प्रसाद एक प्रमुख पत्रिका है। जब समाचार पत्र पत्रिकाओं की हिन्दी को देखते हैं और बाद में जब इन पत्रिकाओं को देखने का अवसर मिलता है तो कहना पड़ता ही है कि हिन्दी की ध्वज वाहक तो ऐसी ही पत्रिकाऐं हैं।
हिन्दी पाठक को बीच में मिलने वाले अंग्रेजी वाक्य व्यवधान पैदा करते हैं यह बात वही आदमी समझ सकता है जो खुद लिखने के साथ ही पढ़ता है। देश भर के कुछ अखबार अगर अंग्रेजी शीर्षकों के सहारे पाठक जुटाने का प्रयास कर रहे हैं तो यह मानना पड़ता है कि उनमें काम करने वाले पढ़ना नहीं जानते। ऐसा लगता है कि अंग्रेजी दुर्लभ आकर्षक छबि का शिकार देश के लेखन कर्मी हो गये हैं। उनको अंग्रेजी पूरी तरह से आती नहीं और आती है तो अंग्रेजी प्रकाशन संस्थाओं में उनको काम नहीं मिलता। हिन्दी प्रकाशन में काम मिलता है तो अपने को बुद्धिमान साबित करने के लिये अंग्रेजी शीर्षकों का उपयोग करते हैं। यकीनन वह अंग्रेजी के आड़ में अपने हाथ से लिखे जा रहे विषय के प्रति उनके अल्पज्ञान तथा प्रस्तुतीकरण में आत्मविश्वास की कमी साफ दिखाई देंती है।
यह आत्मविश्वास की कमी शायद इसलिये भी हो सकती है क्योंकि प्रकाशन जगत में गलाकाट प्रतियोगिता होने के कारण समाचार पत्र पत्रिकाओं के दाम आज भी बहुत कम हैं और यकीनन वह केवल पाठकों के सहारे जिंदा नहीं है बल्कि विज्ञापनों के आय से ही उनका काम चलता है। ऐसे में समाचार पत्र पत्रिकाओं के कार्यरत लेखन कर्मियों को इस बात का आभास है कि उनकी कलम में कोई व्यवसायिक शक्ति नहीं है। शायद इसी कारण वह ऐसे में किसी प्रकार भी हिन्दी से अपनी रोटी कमाने तक ही उनका लक्ष्य है और उसके स्वरूप बचाने का फिक्र उनमें नज़र नहीं आती।
कुछ लोगों को लगता है कि समाचार पत्र पत्रिकाओं की वजह से भाषा में बिगाड़ आयेगा तो वह भी शायद गलत ही है क्योंकि हम जब अध्यात्म पत्र पत्रिकाऐं तथा पाठकों के साथ उसका जुड़ाव देखते हैं तो लगता है कि हिन्दी भाषा का सतत प्रवाह बनाये रखने में उनकी बहुत बड़ी भूमिका रहेगा।
इस संदर्भ में हम गायत्री पीठ की अखण्ड ज्योति का भी नाम ले सकते हैं तो गोरखपुर के प्रकाशनों को भी नहीं भुलाया जा सकता है। सच बात तो यह है कि हिन्दी अध्यात्म और उसके ज्ञान की भाषा है और समाचार या सामयिक आलेखों में अंग्रेजी का इस तरह इस्तेमाल से उनका प्रभाव ही कम होता है और उनसे भाषा के क्षरण आशंका निर्मूल इसलिये लगती है क्योंकि आज हम अपने देश में हमेशा ही हिन्दी पाठकों का झुकाव अध्यात्म की तरफ रहा है और जब उनसे संबंधित पत्रिकाओं का प्रचलन बढ़ रहा है और समाचार पत्र पत्रिकाऐं हिन्दी से प्रतिबद्धता छोड़कर अपना ही महत्व खो रहे हैं।
दरअसल हिन्दी समाचार पत्र पत्रिकाऐं फिल्मों से बहुत प्रभावित लगते हैं जिनमें आधी अंग्रेजी होती है पर उनको शायद इस बात का अंदाज नहीं कि उससे अधिक व्यापक दायरा तो उनका खुद का है। फिल्में देखने वालों से ज्यादा संख्या अखबार पढ़ने वालों की है और हिन्दी का पाठक इस तरह के अंग्रेजी के इस्तेमाल से नाराज ही हो सकता है।
हम आसाराम बापू के ऋषि प्रसाद की बात करें तो इस बात का अंदाज लग जाता है कि वह पत्रिका उनकी बहुत बड़ी ताकत है। उनके विरुद्ध पूरा प्रचार जगत मोर्चा खोलकर खड़ा रहता है पर वह उसका प्रतिकार वह अपनी इस पत्रिका से करते हैं। जब उनके विरुद्ध कोई बड़ी खबर आती है तो अनेक लोग ‘ऋषि प्रसाद’ का इंतजार करते हैं। जब संत आसाराम जी पर प्रचार के रूप में प्रहार होता है तो ऋषि प्रसाद में प्रतिवाद आता है तो उनके शिष्य सहमत हो जाते हैं। देखा जाये तो संत आसाराम धार्मिक शिखर पुरुष हैं और प्रचार जगत के अनेक शिखर पुरुषों से उनका द्वंद्व चल रहा है पर उसमें अकेले ऋषि प्रसाद से ही वह उनके हमले बेकार कर देते हैं। बड़ों की लड़ाई में हम जैसे छोटे लेखकों की कोई बिसात नहीं है पर हिन्दी के पाठक के रूप में हम यह तो कह ही सकते हैं कि भाषा की दृष्टि से तो उनकी ऋषि प्रसाद ही अच्छी है। महत्वपूर्ण बात यह कि वह अंततः वह भारतीय अध्यात्म का ही वह प्रचार भी करती है।
हम यहां किसी के चरित्र या आरोप के समर्थन या विरोध में नहीं खड़े हैं बल्कि भाषा की दृष्टि से यह बात कह रहे हैं कि हिन्दी भाषा से जुड़े कर्मियों को कई प्रकार की गलतफहमियां निकाल देनी चाहिए। वह भाषा के साथ खिलवाड़ कर सफलता का गुमान न पालें। हिन्दी का पाठक अपनी भाषा से प्रेम करता है और अध्यात्म के प्रति उसका झुकाव विश्व प्रसिद्ध है ऐसे में अगर हिन्दी व्यवसायिक प्रकाशन जगत हिन्दी से खिलवाड़ कर रहा है तो यह अध्यात्मिक पत्रिकायें उनकी जगह ले रही हैं। कम से कम उसमें पढ़ते हुए भाषाई व्यवधान तो नहीं होता जो कि इन पत्र पत्रिकाओं में होता है। यह बात उनको समझ लेना चाहिए कि व्यवसायिक प्रकाशक हिन्दी से प्रतिबद्धता नहीं रख सकते तो पाठक भी उनके प्रति सद्भाव नहीं दिखा सकता।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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गुलाम बौद्धिकता की आदत-हिन्दी संपादकीय


आजकल के बाज़ार और प्रचार का खेल देखकर लगता है कि कहीं न कहीं वह समाज को नियंत्रित करने के प्रयास निरंतर करता है। बुजुर्ग लोग कहते हैं कि ‘पीछे देख आगे बढ़’। हम पिछला इतिहास देखते हैं तो आगे का भविष्य लिखना मुश्किल होता है और वर्तमान में उसको देखकर आगे बढ़ते हैं तो समझ में यह नहीं आता कि पीछे वाले की रचना कैसी रही होगी? दूसरी बात यह भी कि पीछे वाले की चिंतन क्षमता और अभिव्यक्ति की शैली पर प्रश्न उठते हैं तो उसका निराकरण करना कठिन होता है। ऐसे में बेहतर तरीका यह है कि बहते हुए दरिया के किनारे पर बैठक उसमें बह रहे पानी स्त्रोत की कल्पना करें।
हमने देखा है कि सदा से ही राजनीति, समाज, तथा आर्थिक शिखर पुरुषों के प्रचार से भरा पड़ा रहा है। इसमें बुराई नहीं देखें पर आजकल तो बाज़ार तथा उसका प्रचार खुलकर शिखर पुरुषों के निर्माण का भी काम कर रहा है और इसमें कथित रूप आधुनिकता का दावा करने वाले पुराने वंशवाद के बीज समाज में बोते हैं-स्पष्टतः संदेश देते हैं कि आम आदमी की कोई औकात नहीं है। नेता के पुत्र-पुत्री को नेता, अभिनेता के पुत्र-पुत्री को अभिनेता तथा तथा पूंजीपति के पुत्र-पुत्री को पूंजीपति बताकर उनके शिखर पर बैठने से पहले ही उनका गुणगान करने लगते हैं। यह बाज़ार तथा उसका प्रचारतंत्र कभी कभी यह बताना भी नहीं भूलता कि समाजा के विभिन्न क्षेत्रों के शिखर पुरुषों के पुत्र पुत्रियां विरासत संभालने की तैयारी कर रहे हैं।
हम इस पर आपत्ति नहीं जता रहे बल्कि इतिहास को चुनौती देने जा रहे हैं क्योंकि भारत आज विश्व जगत पर महानतम होने की तरफ अग्रसर है पर उसका कोई शिखर पुरुष इसके योग्य नहीं है कि बाहरी दुनियां पर प्रभाव डाल सके। भारत में भी प्रचार माध्यम भले ही अपनी व्यवसायिक मजबूरियों के कारण भावी शिखर पुरुषों के स्वागत के लिये जुटा हुआ है पर आम जनता तो एक लाचार और बेबस सी दिखती है।
इसका मतलब यह है कि बाज़ार और उसका प्रचार तंत्र एक ऐसे नकली इतिहास का निर्माण करता है जो अस्तित्व नहीं होता। हमारा बाज़ार तथा प्रचार जिन शिखर पुरुषों को गढ़ता है विश्व समुदाय में उसका सम्मान न के बराबर है और है तो केवल इसलिये कि भारतीय समुदाय के शिखर पर वह बैठे हैं।
इधर एक दूसरी बात भी दिख रही है। विदेश में कोई किसी विश्वविद्यालय का कुलपति क्या प्रोफेसर बन जाये या किसी विदेशी प्रयोगशाला में काम करने लगे तो उसका खूब यहां प्रचार होता है। सवाल यह है क्या हमारे देश में कोई गौरवान्वित प्रतिभा नहीं है। दूसरी बात यह है कि देशभक्ति की बात करने वाले बाज़ार के सौदागर तथा उनके प्रचार प्रबंधक क्या इस बात को नहीं जानते कि हर कोई उस देश के लिये वफदार होता है जहां वह रहता है। ऐसे मे विदेश में प्रतिष्ठित भारतीयों से वह क्यों आशा करते हैं कि वह अपने देश के लिये वहां काम करेंगे?
खासतौर से ब्रिटेन और अमेरिका को लेकर भारतीय प्रचार माध्यम अपनी अस्थिर मनोवृति दिखाते हैं। सभी जानते हैं कि ब्रिटेन और अमेरिका स्वाभाविक समानताओं के बावजूद हमारे ही दुश्मन देश पर हाथ रखते हैं। अपने और भारत के आतंकवाद के बीच वह फर्क करते हैं। इतना ही नहीं मानवाधिकारों के नाम पर भारतीय आतंकवादियों को संरक्षण भी देते रहे हैं। सीधी बात कहें तो यह मित्र देश तो कतई नहीं कहे जा सकते। चीन का धोखा प्रमाणिक हैं पर इन दोनों देशों की मित्रता कोई प्रमाणिक नहीं है ऐसे में इनकी गुलामी करने वाले भारतीयों की अपने देश में गुणगान करने की बात समझ में नहीं आती। यह प्रचार माध्यमों की कमजोरी है जिसकी वजह से अमेरिका और ब्रिटेन के यही सोचते हैं कि हम चाहे भारत को कितना भी अपमानित करें वहां की जनता में हमारे विरुद्ध कभी वातावरण नहीं बन सकता क्योंकि वहां के प्रचार माध्यम तो हमारे यहां अपने गुलामों को देखकर खुश होते हैं।
एक वरिष्ठ पत्रकार ने एक बार भारत के बंटवारे के बारे में लिखा था। उसने जो लिखा था उसे पढ़कर तो हमें यही लगा-उसकी भाषा में सीधे नहीं लिखा गया था-कि उस समय की पूंजीपति ताकतें जहां तक भारत को संभाल सकती थी वहीं तक उन्होंने अपना देश बनाया। बाकी जगह पाकिस्तान बनने दिया। उन्होंने तो यह बात केवल कश्मीर के संबंध में कही थी कि वहां का उस समय के लोकप्रिय नेता ने कहा था कि वह तो इतना ही कश्मीर देख सकता है और बाकी तक उसकी पहुंच नहीं है-जहां पहुंच नहीं थी वह पाकिस्तान के पास है। उसे पढ़कर तो एक बारगी यह लगा कि पूरा का पूरा स्वतंत्रता आंदोलन ही समाज को व्यस्त रखने का एक बहाना भर था, असली रूपरेखा तो बाज़ार तथा उसके प्रचार माध्यम तय करने लगे थे। यकीनन उस समय बाज़ार तथा प्रचार माध्यम इस तरह ही शिखर पुरुषों का निर्माण करते रहे होंगे जैसे कि आज कर रहे हैं। इतिहास तो जो लिखा गया उस पर अब क्या लिखें।
अपने सामने ही ढेर सारे झूठ को इतिहास बनते देखा है। कई घटनाओं को एतिहासिक बताया गया पर उनका प्रभाव समाज पर स्थाई रूप से नहीं पड़ते देखा। कई कथित महापुरुष जिन्होंने शिखर पर बैठकर केवल मुखौटे की तरह काम किया आज उन्हें देवता बताकर प्रस्तुत किया जाता है। अनेक ऐसे आंदोलन चले जिनका परिणाम नहीं निकला पर चल रहे हैं। इतना ही अनेक आंदोलनों के पीछे उनके आर्थिक स्त्रोत भी संदिग्ध रूप से दिखते रहे हैं पर प्रचार माध्यमों में चर्चा की जाती है
सैद्धांतिक मुद्दों पर जिनका कोई मतलब नहीं दिखाई देता।
देश के आम आदमी से कोई विशिष्टता प्राप्त न करे इसके लिये शिखर पुरुष, पूंजीपति तथा प्रचार एकजुट हैं। हम समाज के किनारे बैठकर देखें तो आजादी से पहले जो महान थे उसके बाद कोई बना ही नहीं। आजादी से पहले भी एक ही महान शख्सियत थी, महात्मा गांधी और फिर कोई नहीं हुआ। हिन्दी साहित्य की बात करें! कितने पद्मश्री बंट गये पर संत कबीर, तुलसी, मीरा, रहीम तथा अन्य भक्तिकालीन रचयिताओं के मुकाबले कोई नहीं ठहरा। बाज़ार और प्रचार प्रबंधकों ने कोशिश भी नहीं की केवल अपने अनुगामियों को ही आगे बढ़ाया। हालत यह हो गयी है कि अंग्रेजी से महान लेखक छांटे गये और जिनका नाम आम जनता के सामने नहीं आता उनको अनुवाद के माध्यम से लाया गया। हमने अनेक महान लेखक सुने, देखे और पढ़े पर जब भक्तिकालीन रचयिताओं पर नज़र डालते हैं तो सभी कंकड़ पत्थर लगते हैं।
बाज़ार और संगठित प्रचार माध्यमों का जब यह हाल देखते हैं तो उसमें सक्रिय लोगों की बुद्धि पर तरस आता है पर गुलामी संस्कृति के पोषकों से आशा भी क्या की जा सकती है। उनको पहले तो हिन्दी बोलने में ही हिचक होती है अगर बोलते हैं तो अंग्रेजी के शब्द उसमें मिलाते हैं ताकि आम आदमी से अलग लगें-वैसे यह उनकी भाषा संबंध कमजोरी भी हो सकती है। आजकल यह मांग भी होने लगी है कि हिन्दी में अंग्रेजी के शब्द शामिल किये जायें। दरअसल कुछ सतही सोच वाले विचार वालों का यह शगूफा है क्योंकि चाहे कितना भी कहा जाये पर सच यह है कि बाज़ार की जरूरत हिन्दी बन गयी है इसलिये हिन्दी न सीख सके वह अपनी पैठ बनाने के लिये ऐसे प्रयास कर रहे हैं क्योंकि अंग्रेजी में लिखेंगे तो उनको पढ़ेगा कौन? उसमें लिखने वाले भी कम थोड़े ही हैं। बहरहाल गुलामी संस्कृति को ढो रहा समाज अब भाषा के सहारे अपने ही देश के साफ सुथरी हिन्दी समझने वालों को भी अपना गुलाम बनाना चाह रहा है। बाज़ार में हिन्दी ही बिक रही है ऐसे में अंग्रेजी में पढ़े लिखे बौद्धिक वर्ग के पास अपना रोजगार बचाने के लिये यही एक रास्ता है कि वह अंग्रेज देश तथा वहां रहने वाले भारतीयों का गुणगान करने के साथ ही हिन्दी में अंग्रेजी शब्द लादने की वकालत करे ताकि शिखर पुरुषों के लिये वह जो चरण वंदना करे वह सुनी जाये क्योंकि वही तो इनाम बांटते और बंटवाते हैं। दरअसल उनकी भाषा ही गुलाम भाषा कही जा सकती है जिसमें स्वतंत्र और मौलिक रचनाओं की गुंजायश नहीं  रह जाती।

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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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बौद्धिक पिंजरे में कैद बुद्धिजीवी-संपादकीय


वह जो सभी तरफ दिखाया जा रहा है उसका मुख्य उद्देश्य तुम्हें भीड़ बनाना है। वह भीड़ जो समय पड़े तो उसे जाति, भाषा,धर्म और क्षेत्र के आधार पर बांटा जा सके। इसे बांटकर उन लोगों के सामने प्रस्तुत किया जा सके जिनका काम ही भीड़ पर चला करता है। बदले में भीड़ जुटाने वाले सौंपते हैं उनको तमगे, कप, उपाधियां और सम्मान। भीड़ कभी एक न हो इसका पुख्ता इंतजाम कर लिया जाता है। भीड़ के एक हिस्से को इसलिये खुश किया जाता है कि दूसरा हिस्सा चिढ़े और इसकी अभिव्यक्ति के लिये साधन ढूंढे जो कि पैसे से बिकते हैं।
यह पूर्वनिर्धारित है पर लगता है कि स्वतः चल रहा है। दिखता तो यह स्वतः चलता है है पर इसका बौद्धिक ढांचा बरसों पहले से बनाया जा चुका है और इस पर नियंत्रण केवल खास लोग और उनके चाटुकारो का है। यकीन करो जो तुम कहीं भी कुछ देख और पढ़ रहे हो उसमें कोई सच्चाई नहीं है। अगर है तो वह ऐसी है जैसे किसी फिल्म की होती है-एक काल्पनिक कहानी पर जिस तरह कुछ लोग अभिनय करते हैं। लोग फिल्मों को सच मानने लगे हैं। उनमें अभिनय करने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियों को महानायक और महानायिका बना देते हैं। हालत यह है कि पर्दे का खलनायक भी बाहर नायक की तरह सम्मान पाता है और उसके बारे में कहते हैं कि ‘वह तो एक आम इंसान है।’ मगर नायक का पात्र तो महानता की उपाधि पाता है।

तयशुदा पात्र हैं। कोई हंसता दिख रहा है कोई रोता। फिल्म की तरह समाचार हैं और समाचार ही फिल्म बना रहे हैं। आजकल नई सभ्यता है। पहले तो राहजन हथियारों की दम पर लूट लेते थे पर इस नई सभ्यता में हिंसा वर्जित है क्योंकि आदमी की बुद्धि को तमाम तरह की लालच देकर और काल्पनिक सुख दिखाकर भ्रमित किया जा सकता है और मन के स्वामी होने की वजह से मनुष्य कहलाने वाला जीव बिना किसी रस्सी और जंजीर के पशु बनकर जिस आदमी के पास काल्पनिक रस्सी है उसके पीछे चला जाता है।

जिनके पास धन, पद और बाहुबल है उनको कुछ नहीं करना बस इंसानी मन को पकड़ लेने वाले पिंजरे-फिल्म,टीवी चैनल, अखबार और अंतर्जाल-पर कब्जा करना है। वहां से उसे समयानुसार भड़काने, बहलाने, और हड़काने वाले संदेश, समाचार, कहानियां और कविताओं का प्रसारण करना है। सारे दृश्य काल्पनिक और पूर्व रचित हैं। सर्वशक्तिमान ने यह सृष्टि रची है पर बाकी सब तो उसने इस धरती पर विचरने वाले जीवों पर छोड़ दिया है पर फिर भी ऐसे लोग हैं जो ‘भाग्य का खेल है’ या ‘जैसा
उसने रचा है’हमें देखना है जैसे जुमले कहते हैं पर उनके मन में यही है कि हम ही सब कर रहे हैं। दूसरे को दृष्टा बनने का उपदेश देने वाले लोग स्वतः ही अपनी अंर्तज्योति बुझी होने के कारण भीड़ की तरह हांके जा रहे हैं पर इसे नहीं जानते।

बिल्कुल उत्तेजित मत हो! यकीन करो यह योजना है एक व्यापार की। तुम जिन दृश्यों से चिढ़ते हो उनसे मूंह फेर लो। जिन शब्दों से तुम आहत होते हो उनको पढ़ना या सुनना भूल जाओ। जिन लोगों से तुम्हें दुःख मिलता है उनको याद भी मत करो। तुम उन समाचारों पर ध्यान न देते हुए उनकी चर्चा से दूर हो जाओ जिनसे कष्ट पहुंचता है। यह दृष्टा बनना ही है और फिर देखो उन लोगों का खेल! वह जो तुम्हें हड़काते हैं वह स्वयं ही हडकते नजर आयेंगे। वह जो तुम्हें झूठे खेल से बहला रहे हैं पर खुद दहलने लगेंगे। तुम जिन दृश्यों और समाचारों को सत्य समझ कर विचलित होते हुए उन पर बहसें करते हो उनके पीछे के सच पर जब विचार करने लगोगे तो तुम्हें हंसी आयेगी। जो बाजार में बिक रहा है या दिख रहा है-वह आदमी
हो याशय-उसका मूंह तुम्हारी जेब की तरफ है। जैसे पहले बहुरूपिये दिल बहलाकर पैसे ले जाते थे पर अब उनको आने की जरूरत नहीं है। उन्होंने तुम्हारे घर में पर्दे सजा दिये हैं। तुम्हें पता ही नहीं चलता कि तुम्हारा पैसा कैसे उनके पास जा रहा है।

वह तुम्हारा ध्यान किसी चेहरे की तरफ खींचे-चाहे वह हीरोईन का चेहरा हो या सर्वशक्मिान के किसी रूप का-तुम उसे मत देखो और आंखें बंद कर भृकुटि पर नजर रखो। वह तुम्हें संगीत सुनायें तुम ओम शब्द का जाप करने लग जाओ। वह फिल्म चर्चा करें तुम गायत्री मंत्र का जाप करने लगो। अपनी अभिव्यक्ति का केंद्र अपने अंदर रखो। बाहर कोई सुने यह जरूरी नहीं। बस तुम अपने को सुनना शुरु कर दो। अपने को पढ़ो। अपने सत्य कर्म को देखो दूसरे के अभिनय में रुचि रखने से तुम्हारे मन को शांति नहीं मिल सकती। उन्होंने शोर मचा रखा है तुम शंाति अपने अंदर ढूंढो। कहीं दूसरे से सुख और मनोरंजन की आस तुम्हें कमजोर बना रही है। अपने मन में अपने लिये ख्वाब और सपने देखो उसने दूसरे पिंजरे में मत फंसने दो।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

मनु स्मृति: राज्य के दण्ड से ही अनुशासन संभव


1.देश, काल, विद्या एवं अन्यास में लिप्त अपराधियों की शक्ति को देखते हुए राज्य को उन्हें उचित दण्ड देना चाहिए। सच तो यह है कि राज्य का दण्ड ही राष्ट्र में अनुशासन बनाए रखने में सहायक तथा सभी वर्गों के धर्म-पालन कि सुविधाओं की व्यवस्था करने वाला मध्यस्थ होता है।
2.सारी प्रजा के रक्षा और उस पर शासन दण्ड ही करता है, सबके निद्रा में चले जाने पर दण्ड ही जाग्रत रहता है। भली-भांति विचार कर दिए गए दण्ड के उपयोग से प्रजा प्रसन्न होती है। इसके विपरीत बिना विचार कर दिए गए अनुचित दण्ड से राज्य की प्रतिष्ठा तथा यश का नाश हो जाता है।
3.यदि अपराधियों को सजा देने में राज्य सदैव सावधानी से काम नहीं लेता, तो शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर लोंगों को उसी प्रकार नष्ट कर देते हैं, जैसे बड़ी मछ्ली छोटी मछ्ली को खा जाती है। संसार के सभी स्थावर-जंगम जीव राजा के दण्ड के भय से अपने-अपने कर्तव्य का पालने करते और अपने-अपने भोग को भोगने में समर्थ होते हैं ।

*अक्सर एक बात कही जाती है की हमारे देश को अंग्रेजों ने सभ्यता से रहना सिखाया और इस समय जो हम अपने देश को सुद्दढ और विशाल राष्ट्र के रूप में देख रहे हैं तो यह उनकी देन है. पर हम अपने प्राचीन मनीषियों की सोच को देखे तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि वह राज्य, राजनीति और प्रशासनिक कार्यप्रणाली से अच्छी तरह वाकिफ थे, मनु स्मृति में राजकाज से संबंधित विषय सामग्री होना इस बात का प्रमाण है. एक व्यसनी राजा और उसके सहायक राष्ट्र को तबाह कर देते हैं. अगर राजदंड प्रभावी नहीं या उसमें पक्षपात होता है तो जनता का विश्वास उसमें से उठ जाता है. यह बात मनु स्मृति में कही गयी है.

ब्लोग लेखक और लेखक ब्लोगर


ब्लोगरों के वर्गीकरण को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं. इसका वैसे कोई आधिकारिक वर्गीकरण नहीं हुआ है, पर निरंतर चिट्ठों का अध्ययन करते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुचा हूँ कि इसके दो वर्गीकरण हैं. -१. ब्लोग लेखक २.लेखक ब्लोग (writer cum blogar)

१.ब्लोग लेखक-इससे आशय यह है कि जिन लोगों ने कंप्यूटर के साथ इंटरनेट कनेक्शन लिया है और कुछ रचना कर्म के साथ संबध बढाने और उसे निभाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. उन्होने ब्लोग बना लिया है इसलिए लिख रहे हैं और लिखने की विधा में पारंगत भी हो रहे हैं.
२. लेखक (ब्लोग)- यह ऐसे लोग हैं जो कहीं भी लिखने के लिए प्रतिबद्ध हैं. उन्हें अपने लिखने से मतलब है और ऐसे लोग को मित्र मिल जाये तो उनके लिए बोनस की तरह होता है. लिखना उनके लिए नशा है. वह पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हैं और ब्लोग इसलिए बनाया है क्योंकि उस पर लिखना है. मैंने ब्लोग इसलिए बनाया क्योंकि मैं लिखना चाहता था, पर इसमें इतने सारे मित्र मिलेंगे यह सोचा नहीं था. मैं अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छप चुका हूँ पर इस ब्लोग विधा ने मुझे ब्लोगर बना दिया.

वैसे दिलचस्प बात यह है कि ब्लोग बनाने वालों ने इन्हें संदेशों के आदान-प्रदान करने के लिए बनाया था, पर जैसा कि हमारे भारत के लोग हैं कि विदेश से अविष्कृत चीज को अपने हिसाब से इस्तेमाल करते हैं. वैसा ही कुछ लेखक इसे अपने लिखने के लिए इस्तेमाल करते हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि इधर कुछ गजब के लोग ब्लोग लिख रहे हैं. वैसे ब्लोग मैं पिछले डेढ़ वर्षों से देख रहा हूँ और मेरा मानना है कि इसमें बहुत अच्छे लेखक आ गए हैं. मैं जब अभिव्यक्ति पत्रिका पढता था तब यह उस पर लिंकित नारद चौपाल के ब्लोग भी देखता था और उस समय मुझे इनकी विषय सामग्री इतनी प्रभावित नहीं करती थी-क्योंकि इसमें साहित्य जैसी विषय वस्तु अधिक नहीं दिखती थी-इसलिए कोई ऐसा विचार नहीं आता था. वह तो एक दिन एक ऐसे ब्लोग पर नजर पड़ गयी और उसमें एक संवेदनशील विषय पर लिखी पोस्ट ने मुझे प्रभावित किया और तब मुझे लगा कि यह तो अपनी पत्रिका की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह एक रोचक विषय है. इसमें कई मित्र मिलना मेरे जैसे लेखक के लिए बोनस है. जो इस पर कमेन्ट देते हैं और या मैं जिन्हें देता हूँ उनके लिए मेरे मन में मैत्री भाव रहता है. इसका मतलब यह नहीं है कि सभी लोग हर पोस्ट कमेन्ट दें या मैं उन्हें दूं- क्योंकि इन फोरम पर कोई हमेशा बना नही रहता. लिखना एक तरह से आपस में मैत्री भाव बढाने का तरीका है. अधिकतर कमेन्ट विभिन्न फोरमों से आती है क्योंकि ब्लोगर कमेन्ट लगाना जानते हैं. आप ताज्जुब करेंगे कि मेरे निजी मित्र जो मेरे ब्लोग पढ़ते हैं उन्हें अभी तक यह समझ में नहीं आया कि कमेन्ट कैसे देते हैं? मैं उनको कमेन्ट देने के लिए अधिक प्रेरित भी नहीं करता. मेरी पोस्ट पर कमेन्ट देने वाले अनेक ब्लोगरों को उनको नाम याद हैं. अभी मैंने एक अपने मित्र को गूगल का इंडिक ट्रांसलेट टूल इस्तेमाल करना बताया तो वह हैरान हो गया. अभी इस विधा के बारे अधिक लोगों को पता नहीं है और जैसे-जैसे इसका प्रचार बढेगा अधिक से अधिक लेखक इसमें आयेंगे.

इन ब्लोग के साथ अभी समस्या यह है कि लंबी चौडी पोस्ट लिखने का समय नहीं आया, पर आगे चलकर यह समय भी आयेगा पर वह तभी संभव हो सकता है कि लेखक को यकीन हो जाये कि उसे पढ़ने वाले बहुत हैं. मुझे ब्लोग बनाये हुए एक वर्ष हो गया पर फोरम पर आये आठ महीने हुए हैं. यह आश्चर्य की बात है कि जिन पोस्टों को फोरम पर दस लोग भी नहीं पड़ते वह महीनों तक अन्य पाठकों द्वारा पढी जातीं हैं. चाणक्य, कौटिल्य, रहीम और कबीर से संबंधित विषय सामग्री पर निरंतर पाठक आते हैं. लोगों की दिलचस्पी को देखते मुझे इन पर लिखने में मजा आता है क्योंकि इससे मुझे ‘स्वाध्याय”का अवसर मिलता है-जो कि किसी लेखक के लिए एक अनिवार्य बौद्धिक व्यायाम है.

लेखक स्वांत सुखाय भाव के होते हैं पर इसका मतलब यह नहीं होता की उनका समाज से सरोकार नहीं होता. देखा जाये तो असली लेखक वही है जो सामाजिक सरोकारों से संबंधित विषयों पर लिखे. ब्लोग की विधा को ऐसे लोग बहुत लंबे समय तक जिंदा रख सकते हैं, पर अभी यह तय नहीं है इसका आगे क्या स्वरूप होगा-यह आने वाले समय पता लग जायेगा. इतना तय है कि प्रतिदिन तीन सौ से अधिक पाठक मेरे ब्लोग पर आते हैं उससे यह लगता है इसमें लोगों की दिलचस्पी बढ़ रही है.