Tag Archives: लघुकथा

नैतिकता की शिक्षा-लघु हास्य व्यंग्य (naitikta ki shiksha-laghu hasya vyangya)


उस दिन वह शिक्षक अपनी पत्नी के ताने सुनकर घर से निकला था इसलिये उसकी मनस्थिति डांवाडोल हो गयी थी। दरअसल वह शिक्षक अपने यहां पढ़ने वाले छात्रों को बड़े मनोयोग से पढ़ाता था इसलिये उसके विषय में बच्चों का ज्ञान अच्छा हो गया था। अतः उसके यहां कोई ट्यूशन पढ़ने नहीं आता।
पत्नी ने उस दिन उसे ताना यह दिया कि ‘देखो तुम्हारे दोस्त शिक्षकों के यहां कितने ढेर सारे बच्चे ट्यूशन पढ़ने आते हैं। एक तुम हो नालायक निकम्मे! अनेक विद्यालयों से नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाने पर नौकरी से निकाला जा चुका है। खुद तो फंसे ही हो बच्चों का भी भविष्य बिगाड़ते हो। पता नहीं मेरे बाप ने क्या सोचकर तुम्हारे साथ बांध दिया था? यह भी पता नहीं किया कि तुम तनख्वाह से अलग कुछ कमाना जानते हो कि नहीं।
अतः विज्ञान का वह शिक्षक दुःखी था। उसके दिमाग में केवल पत्नी के ताने ही गूंज रहे थे। अपने अंदर की भड़ास निकालने के लिये कक्षा में आते ही अपने बच्चों को नैतिकता का पाठ पढ़ाना शुरु किया-
‘‘बच्चों, हमें चाहे कितना भी कष्ट हो पर ईमानदारी का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। जहां भी हम नौकरी करें अपना काम तनख्वाह से ही चलाने का प्रयास करना सबसे अच्छा है। ऊपरी कमाई की बात तो सोचना भी नहीं चाहिए। यह पाप है और राष्ट्र के साथ गद्दारी।’
वगैरह वगैरह।
अगले दिन बच्चों के अनेक पालक प्राचार्य के पास पहूंच गये। उन्होंने उसकी शिकायत की। एक ने तो यहां तक कहा कि ‘‘यह कौनसा शिक्षक आपने रखा है। हमारे बच्चों का भविष्य बिगाड़ रहा है। हम बच्चों को नौकरी करने के लिये पढ़ा रहे हैं तो केवल इसलिये नहीं कि केवल वेतन से घर चलायें। अरे, वेतन से भला घर चलते हैं। वह बीबी पाल लेंगे पर पर हम मां बाप को कहां से पालेंगे।’
प्राचार्य ने शिक्षक को बुलाया और उससे कहा-‘भईये, तुम क्या हमारे स्कूल को ताला लगवाओगे। मुझे तुम्हारे पिछले रिकार्ड का पता है इसलिये तुम्हें विज्ञान का विषय पढ़ाने के लिये दिया ताकि तुम नैतिकता का पाठ न पढ़ाने लगो। वैसे नैतिकता का पाठ पढ़ाना चाहिये पर बच्चों को नहीं बल्कि कहीं सेमीनार वगैरह हो, या कहीं आदर्श लोगों का सम्मेलन, तभी ऐसी बातें जमती हैं। अपनी ऐसी ही करनी की वजह से यह तुम्हारी बारहवीं नौकरी भी जा सकती है।’
उस शिक्षक ने प्राचार्य की बात सुनी। वहां बैठे पालकों को देखा। अब वह तेरहवीं नौकरी का आसरा इसलिये भी नहीं कर सकता क्योंकि नैतिकता के पाठ पढ़ाने की उसकी बदनामी अब सभी जगह फैल सकती थी।
उसने वहां सभी से माफी मांगी और कहा-‘दरअसल, मैं भूल गया था कि बच्चों को पढ़ा रहा हूं। उस दिन मेरा स्वास्थ्य खराब था इसलिये ऐसी गलती कर गया। अब नहीं करूंगा।’
पालक खुश हो गये। प्राचार्य ने कहा-‘अच्छा है जल्दी समझ गये। तुम भी जरा व्यवहारिक हो जाओ। अपना वर्तमान बिगाड़ा है पर बच्चों को भविष्य मत बिगाड़ो। ऐसी शिक्षा कच्ची उम्र के बच्चों को मत दो जिनसे भविष्य में वह केवल उधार पर जिंदा रहने के लिये मजबूर हों।’
पालक चले गये और शिक्षक भी वहां से निकल आया। प्राचार्य ने अपने पास बैठे लिपिक से कहा-‘पता नहीं, कैसे इस मूर्ख शिक्षक को अपने यहां रख लिया।’
———–

कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नैतिकता का पाठ-हास्य व्यंग्य (naitikta ka path-hasya vyangya)


उस दिन वह शिक्षक अपनी पत्नी के ताने सुनकर घर से निकला था इसलिये उसकी मनस्थिति डांवाडोल हो गयी थी। दरअसल वह शिक्षक अपने यहां पढ़ने वाले छात्रों को बड़े मनोयोग से पढ़ाता था इसलिये उसके विषय में बच्चों का ज्ञान अच्छा हो गया था। अतः उसके यहां कोई ट्यूशन पढ़ने नहीं आता।
पत्नी ने उस दिन उसे ताना यह दिया कि ‘देखो तुम्हारे दोस्त शिक्षकों के यहां कितने ढेर सारे बच्चे ट्यूशन पढ़ने आते हैं। एक तुम हो नालायक निकम्मे! अनेक विद्यालयों से नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाने पर नौकरी से निकाला जा चुका है। खुद तो फंसे ही हो बच्चों का भी भविष्य बिगाड़ते हो। पता नहीं मेरे बाप ने क्या सोचकर तुम्हारे साथ बांध दिया था? यह भी पता नहीं किया कि तुम तनख्वाह से अलग कुछ कमाना जानते हो कि नहीं।
अतः विज्ञान का वह शिक्षक दुःखी था। उसके दिमाग में केवल पत्नी के ताने ही गूंज रहे थे। अपने अंदर की भड़ास निकालने के लिये कक्षा में आते ही अपने बच्चों को नैतिकता का पाठ पढ़ाना शुरु किया-
‘‘बच्चों, हमें चाहे कितना भी कष्ट हो पर ईमानदारी का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। जहां भी हम नौकरी करें अपना काम तनख्वाह से ही चलाने का प्रयास करना सबसे अच्छा है। ऊपरी कमाई की बात तो सोचना भी नहीं चाहिए। यह पाप है और राष्ट्र के साथ गद्दारी।’
वगैरह वगैरह।
अगले दिन बच्चों के अनेक पालक प्राचार्य के पास पहूंच गये। उन्होंने उसकी शिकायत की। एक ने तो यहां तक कहा कि ‘‘यह कौनसा शिक्षक आपने रखा है। हमारे बच्चों का भविष्य बिगाड़ रहा है। हम बच्चों को नौकरी करने के लिये पढ़ा रहे हैं तो केवल इसलिये नहीं कि केवल वेतन से घर चलायें। अरे, वेतन से भला घर चलते हैं। वह बीबी पाल लेंगे पर पर हम मां बाप को कहां से पालेंगे।’
प्राचार्य ने शिक्षक को बुलाया और उससे कहा-‘भईये, तुम क्या हमारे स्कूल को ताला लगवाओगे। मुझे तुम्हारे पिछले रिकार्ड का पता है इसलिये तुम्हें विज्ञान का विषय पढ़ाने के लिये दिया ताकि तुम नैतिकता का पाठ न पढ़ाने लगो। वैसे नैतिकता का पाठ पढ़ाना चाहिये पर बच्चों को नहीं बल्कि कहीं सेमीनार वगैरह हो, या कहीं आदर्श लोगों का सम्मेलन, तभी ऐसी बातें जमती हैं। अपनी ऐसी ही करनी की वजह से यह तुम्हारी बारहवीं नौकरी भी जा सकती है।’
उस शिक्षक ने प्राचार्य की बात सुनी। वहां बैठे पालकों को देखा। अब वह तेरहवीं नौकरी का आसरा इसलिये भी नहीं कर सकता क्योंकि नैतिकता के पाठ पढ़ाने की उसकी बदनामी अब सभी जगह फैल सकती थी।
उसने वहां सभी से माफी मांगी और कहा-‘दरअसल, मैं भूल गया था कि बच्चों को पढ़ा रहा हूं। उस दिन मेरा स्वास्थ्य खराब था इसलिये ऐसी गलती कर गया। अब नहीं करूंगा।’
पालक खुश हो गये। प्राचार्य ने कहा-‘अच्छा है जल्दी समझ गये। तुम भी जरा व्यवहारिक हो जाओ। अपना वर्तमान बिगाड़ा है पर बच्चों को भविष्य मत बिगाड़ो। ऐसी शिक्षा कच्ची उम्र के बच्चों को मत दो जिनसे भविष्य में वह केवल उधार पर जिंदा रहने के लिये मजबूर हों।’
पालक चले गये और शिक्षक भी वहां से निकल आया। प्राचार्य ने अपने पास बैठे लिपिक से कहा-‘पता नहीं, कैसे इस मूर्ख शिक्षक को अपने यहां रख लिया।’
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फसाद फिक्सिंग-हिन्दी हास्य व्यंग्य (fasad-hindi comic story)


वह समाज सेवक निठल्ले घूम रहे थे। दरअसल अब कंप्यूटर और इंटरनेट आने से चंदा लेने देने का धंधा आनलाईन हो गया था और वह इसमें दक्ष नहीं थे। फिर इधर लोग टीवी से ज्यादा चिपके रहते हैं इसलिये उनके कार्यक्रमों के बारे में सुनते ही नहीं इसलिये चंदा तो मिलने से रहा। पहले वह अनाथ आश्रम के बच्चों की मदद और नारी उद्धार के नाम पर लोगों से चंदा वसूल कर आते थे। पर इधर टीवी चैनलों ने ही सीधे चैरिटी का काम करने वाले कार्यक्रम प्रस्तुत करना शुरु कर दिये हैं तो उनके चैरिटी ट्रस्ट को कौन पूछता? इधर अखबार भी ऐसे समाज सेवकों का प्रचार नहीं करते जो प्रचार के लिये तामझाम करने में असमर्थ हैं।
उन समाज सेवकों ने विचार किया कि आखिर किस तरह अपना काम बढ़ाया जाये। उनकी एक बैठक हुई।
उसमें एक समाज सेवक को बहुत तीक्ष्ण बुद्धि का-सीधी भाषा में कहें तो शातिर- माना जाता था। उससे सुझाव रखने का आग्रह किया गया तो वह बोला-आओ, दंगा फिक्स कर लें।
बाकी तीनों के मुंह खुले रह गये।
दूसरे ने कहा-‘पर कैसे? यह तो खतरनाक बात है?
पहले ने कहा-‘नहीं, दंगा नहीं करना! पहले भी कौनसा सच में समाज सेवा की है जो अब दंगा करेंगे! बस ऐसे तनावपूर्ण हालत पैदा करने हैं कि दंगा होता लगे। बाकी काम मैं संभाल लूंगा।’
तीसरे ने पूछा-‘ पर इसके लिये चंदा कौन देगा।’
पहले ने कहा-‘अरे, इसके लिये परेशान होने की जरूरत नहीं है। हमारे पूर्वज समाज को टुकड़ों में केक की तरह बांट कर रख गये हैं बस हमें खाना है।’
तीसरे ने कहा-‘मगर, इस केक के टुकड़ों में अकल भी है, आखें भी हैं, और कान भी हैं।’
पहला हंसकर बोला-‘यहीं तो हमारी चालाकी की परीक्षा है। अब करना यह है कि दूसरा और तीसरा नंबर जाकर अपने समाजों में यह अफवाह फैला दें कि विपक्षी समाज अपने इष्ट की दरबार सड़क के किनारे बना रहा है। उसका विरोध करना है। सो विवाद बढ़ाओ। फिर अमन के लिये चौथा दूसरे द्वारा और पहले के द्वारा आयोजित समाज की बैठकों मैं जाऊंगा। तब तक तुम दोनो गोष्ठियां करो तथा अफवाहें फैलाओ। समाज के अमीर लोगों के वातानुकूलित कमरों में बैठकें कर उनका माल उड़ाओ। पैसा लो। सप्ताह, महीना और साल भर तक बैठकें करते रहो। कभी कभी मुझे और चौथे नंबर वाले को समाज की बैठकों बुला लो। पहले विरोध के लिये चंदा लो। फिर प्रस्ताव करो कि उसी सड़क के किनारे दूसरे समाज के सामने ही अपने इष्ट का मंदिर बनायेंगे। हम दोनों हामी भरेंगे। संयुक्त बैठक में भले ही दूसरे लोगों को बुलायेंगे पर बोलेंगे हम ही चारों। समझौता करेंगे। दोनों समाजों के इष्ट की दरबार बनायेंगे। फिर उसके लिये चंदा वसूली करेंगे।’
दूसरे ने कहा-‘पर हम चारों ही सक्रिय रहेंगे तो लोगों का शक होगा।’
पहला सोच में पड़ गया और फिर बोला-‘ठीक है। पांचवें के रूप में हम अपने वरिष्ठ समाज सेवक को इस तरह उस बैठक में बुलायेंगे जैसे कि वह कोई महापुरुष हो। लोगों ने उनके बारे में सुना कम है इसलिये मान लेंगे कि वह कोई निष्पक्ष महापुरुष होंगे।’
तीसरे ने कहा-‘पर सड़कों का चौड़ीकरण हो रहा है। अब इतना आसान नहीं रहा है अतिक्रमण करना। अदालतें भी ऐसे विषय पर सख्त हो गयी हैं। कहीं फंस गये तो। इसलिये किसी भी समाज के इष्ट का दरबार नहीं बनेगा।’
पहला हंसकर बोला-‘इसलिये ही मुझे तीक्ष्ण बुद्धि का माना जाता है। अरे, दरबार बनाना किसे है। सड़क पर एक कंकड़ भी नहंी रखना। सारा झगड़ा फिक्स है इसलिये दरबार बनाने का सपना हवा में रखना है। बरसों तक मामला खिंच जायेगा। हम तो इसे समाजसेवा में बदलकर काम करेंगे। अब बताओ कपड़े, बर्तन तथा किताबें गरीबों और मजदूरों में बांटने के लिये कितना रुपया लिया पर एक पैसा भी किसी को दिया। यहां एक पत्थर पर भी खर्च नहीं करना। सड़क पर एक पत्थर रखने का मतलब है कि दंगा करवाना। जब पानी सिर के ऊपर तक आ जाये तब कानूनी अड़चनों का बहाना कर मामला टाल देंगे। फिर कहीं   किसी दूसरी जगह कोई नया काम हाथ में लेंगे। अब जाओ अपनी रणनीति के अनुसार काम करो।’
चारों इस तरह तय झगड़े और समझौते के अभियान पर निकल पड़े।

सूचना-यह लघु व्यंग्य काल्पनिक है तथा इसे मनोरंजन के लिये लिखा गया है। इसका किसी घटना या व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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युवा पीढ़ी को प्रोत्साहन-(हास्य व्यंग्य)


वह पुराना अभिनेता अपने बैठक कक्ष में सिगरेट पर सिगरेट फूंकता हुआ इधर से उधर चहलकदमी कर रहा था। उसने अपने सचिव से कहा-‘तुमने उस दो कौड़ी के निर्देशक को फोन किया कि नहीं?‘
सचिव ने कहा-‘कर दिया साहब! आता होगा!’
वह पुराना अभिनेता चिल्लाया-‘उसकी हिम्मत कैसे हुई यह कहने की कि वह अपनी अगली पीढ़ी में किसी नौजवान को अवसर देगा। क्या उसने हमारी फिल्मों से इतना पैसा कमा लिया है कि वह अपनी अलग से फिल्म बनायेगा। अभी तक तो उसकी कंपनी को अप्रत्यक्ष रूप से हम ही मदद करते हैं। क्या उसने अपनी कंपनी इतनी दमदार कर ली है कि क्या वह हमारे बिना फिल्म बनायेगा। अखबारों में कहता है कि अगली फिल्म में किसी नौजवान पीढ़ी के लड़के को हीरो बनायेगा। वह क्या सोचता है कि हम पचास के हो गये तो क्या बूढ़े हो गये हैं। अरे, वह तो हमने अपनी उम्र नहीं छिपायी वरना यहां तो लोग पांच पांच साल उम्र कम बताते हैं। क्या वह उन्हीं में से किसी को चांस देगा? उसकी हिम्मत कैसे हो गयी यह कहने कि अब फिल्मों में युवा पीढ़ी को आना चाहिये।’
सचिव ने कहा-‘साहब, अभी आप पचास के कहां हैं? आपकी उम्र अभी चालीस साल है। आप अपने रक्तचाप को सामान्य रखने का प्रयास करें। हो सकता है कि यह खबर गाॅसिप हो? आजकल समाचार पत्र पत्रिकायें और टीवी चैनल इतने हो गये हैं कि अपने समाचार बेचने के लिये इस तरह की सनसनी पैदा करते हैं।’
इतने में वह निर्देशक अंदर आया और हाथ जोड़कर पुराने अभिनेता के सामने खड़ा हो गया। अभिनेता ने उसे घूरकर देखा और फिर कहा-‘ओ! तो तुम आ गये। भई, हम तो सोच रहे हैं कि अब तुम्हारी कंपनी से दूर हो जायें ताकि नौजवान पीढ़ी को मौका मिल सके।’

निर्देशक ने कहा-‘आप कैसी बात करते हैं? आप तो मेरे अन्नदाता हैं।’
अभिनेता ने गुस्से में उसके सामने वह पत्रिका फैंक दी जिसमें उसका नौजवान पीढ़ी को अवसर देने का बयान छपा था।

निर्माता ने उसे देखा और फिर हंसने लगा तो अभिनेता का दिमाग घूम गया और बोला-‘मैं तुम्हारे इंतजार में दस सिगरेट फूंक चुका हूं और तुम्हें हंसी आ रही है। लगता है तुम्हारे पर निकल आये हैं। अभी इसी वक्त यह बयान जारी करो कि यह गाॅसिप है वरना अपना खेल मेरे घर से खत्म ही समझो।’

निर्देशक ने कहा-‘साहब, आपने इतना गुस्सा कर अपना खूना जलाने से पहले मुझसे पूछा तो होता। अरे, यह बयान मैंने आपके यह कहने के बाद ही दिया है कि ‘आपके सुपुत्र बाबा को लेकर एक छोटे बजट की फिल्म बनाऊं। अरे, अपने बाबा ही तो वही युवा पीढ़ी है। आपने क्या समझा था मैं कि किसान या मजदूर के बेटे को फिल्म का हीरो बनाने वाला हूं। हां, पर मेरी उस छोटे बजट की फिल्म में बाबा को एक मजदूर के बेटे की ही भूमिका निभानी है। क्या मुझे आप नासमझ समझते हैं। आजकल कहीं भी ‘युवा पीढ़ी को आगे लाने’ का मतलब किसी भी बड़े क्षेत्र में सक्रिय परिवार के युवा सदस्य को आगे लाना ही है। अपना बाबा नौजवान है………………………’’

अभिनेता ने संकोच के साथ कहा-‘पर वह पच्चीस का है।’
निर्देशक ने एकदम उतावली के साथ कहा-‘आप किसी दूसरे को यह मत बताईये कि वह पच्चीस के हैं। हम तो उन्हें अट्ठारह साल का कहकर प्रचारित करेंगे। फिल्म में एक गाना भी होगा जिसमें हीरो की उम्र अट्ठारह और हीरोईन की उम्र सोलह लिखी जायेगी।’
अभिनेता ने खुश होकर कहा-‘यार, यह बात तो मैं भूल ही गया था। शायद इसलिये कि मुझे उसकी उम्र तीस ही याद थी और ‘नौजवान और युवा पीढ़ी’ से मैंने समझा कि तुम किसी दूसरे लड़के की बात कर रहे हो।’

निर्देशक ने कहा-‘हुजूर! आप इतने बड़े आदमी होकर भी कभी छोटी बात कर जाते हैं तब मेरा मन दुःखी हो जाता है। यह तो छोटे परिवारों में होता है कि चालीस और पचास के पास पहुंचे आदमी को बूढ़ा कहा जाता है जबकि बड़े परिवार में तो साठ साल तक आदमी को जवान माना जाता है। यकीन न हो तो आप बाजार में चलते फिरते किसी आदमी से पूछ लो वह तो आपको जवान बाबा को नौजवान कहेगा।’
अभिनेता ने चैन की सांस ली और कहा-‘ठीक है! अब तुम बाबा पर फिल्म बनाने की तैयारी करो। मैं तो डर ही गया था। नौजवान पीढ़ी की बात पढ़कर मेरे दिमाग में घबड़ाहट फैल गयी थी।’
निर्देशक बाहर चला तो उसके पीछे अभिनेता का सचिव भी आया। उसने निर्देशक से कहा-‘एक समस्या खड़ी हो गयी है। अभिनेता जी अपनी शादी की तीसवीं सालगिरह मनाना चाहते हैं। उम्र अपनी पचास बताते हैं। उनकी शादी के वीडियो देखो तो उसमें वह तीस के वैसे ही दिख रहे हैं। अब क्या करें? मैंने तो मना किया कि इससे बाबा और उनकी दोनों की उम्र सभी को पता चल जायेगी। बाबा भी उन्तीस वर्ष के हैं।’
निर्देशक ने कहा-‘इतनी सी बात! शादी की सालगिरह को बीसवी बता दो।’

सचिव ने कहा-‘पर अभिनेताजी की शादी तो फिल्म में आने के बाद ही हुई थी। उनके चाहने वालों को सब याद है। अभिनेता की शादी और बाबा की जन्म तारीख का सभी को पता है। हां, उनकी स्वयं की उम्र के बारे में दस वर्ष कम का प्रचार पहले से ही होता रहा है। इसलिये उसकी समस्या नहीं है।’
निर्देशक ने कहा-‘कोई बात नहीं! लोगों की याद्दाश्त कमजोर होती है। फिर पर्दे की चमक के सामने तो उसकी सोच वैसे ही गायब हो जाती है। यह पब्लिक सब जानती है पर उसे बताने वाले भी तो हम ही हैं न! जैसा हम बतायेंगें वैसा ही अखबार और टीवी चैनल बतायेंगे और वही तो वह जानेगी।’
सचिव खुश हो गया और बोला-‘ व्हाट इज आईडिया सर! नौजवान पीढ़ी जिंदाबाद।’
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आम भक्त,विशिष्ट भक्त-लघु हास्य व्यंग्य


गुरुजी टूथपेस्ट कर रहे थे और खास चेला पास में खड़ा था। गुरुजी ने पूछा-‘बाहर की क्या खबर है?’
चेले ने कहा-‘गुरुजी, आज तो बहुत सारे विशिष्ट भक्त आये हैं। आपसे मिलने को आतुर हो रहे हैं। मैंने सबसे कह दिया कि गुरु जी तो इस समय ध्यान कर रहे हैं। इसलिये देर से दर्शन होंगे।
गुरुजी ने कहा-‘कल तुम्हारे चक्कर में अधिक पी ली तो आज देर से नींद खुली है। अभी चाय पीकर टूथपेस्ट कर रहा हूं। फिर नहाधोकर आता हूं। तब तक लोगों से कहो कि गुरुजी आज खास ध्यान कर रहे हैं। वैसे बाहर कितनी भीड़ है?’
चेले ने कहा-‘भीड़ से क्या मतलब? विशिष्ट भक्तों में पान वाले सेठजी, दारूवाले साहब और कई साहूकार आये हैं। आम भक्त से क्या मिलता है? आप तो पहले विशिष्ट भक्तों से मिलें। मेरे विचार से आम भक्तों से मिलने का आपको आज समय ही नहीं मिल पायेगा। आम भक्तोें से कह देता हूं कि आप आज ध्यान में पूरे दिन लीन रहेंगे।
गुरुजी ने कहा-‘तुम पगला गये हो। हमारे विरोधियों ने कभी हमारे खिलाफ प्रचार किया तो हम अपने आश्रम को कैसे बचायेंगे? हमें तब धर्म पर हमला कहकर बचाने के लिये इन्हीं आम भक्तों की जरूरत पड़ती है। इसलिये उनको भी दर्शन देना जरूरी है। आम भक्त केवल उसी समय संक्रमण काल मेंबरगला कर अपने साथ लाने के लिये है। इसलिये उनको पहले पांच मिनट दर्शन देकर विशिष्ट भक्तों से मिल लेते हैं। उनके लिये तो पूरा दिन है।’
चेला बोला-‘वाह गुरुजी! आप वाकई महान हैं।
गुरु ने कहा-‘अगर ऐसा न होता तो क्या तुम गुरु मानते। आम भक्त तो केवल दिखाने के लिये है। असली काम तो विशिष्ट भक्तों से है। आम भक्त यह देखकर आता है कि हमारे पास विशिष्ट भक्त हैं और विशिष्ट भक्त इसलिये आता है कि इतने सारे आम भक्त हैं। जिनको दोनों का सानिध्य मिलता है उनके ही आश्रम हिट होते हैं नहीं तो फ्लाप शो हो जाता है।
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