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आध्यात्मिक ज्ञान तथा भक्ति के प्रति झुकाव सुखद लगता है-हिन्दी लेख (adhyamik prem and film actres-hindi article)


बंबई में हिन्दी फिल्मों और टीवी धारावाहिकों की अभिनेत्री सोनाली बैंद्रे  अनुपम सौंदर्य के साथ कुशल अभिनय तथा मधुर स्वर की स्वामिनी मानी जाती है। हैरानी की बात है कि फिल्मों में उनको अधिक अभिनय का अवसर नहीं मिला। इसलिये उन्होंने फिल्मों में सक्रिय एक व्यक्ति से विवाह कर लिया। सौंदर्य के साथ हर किसी में विवेक और बुद्धि हो या आवश्यक नहीं है। जिस नारी में सौंदर्य के साथ बुद्धि और विवेक तत्व हो उसे ही सर्वाग सुंदरी माना जाता है और सोनाली बेंद्र इस पर खरी उतरती हैं। ऐसे में जब अखबार में उनके आध्यात्मिक प्रेम के बारे में पढ़ा तो सुखद आश्चर्य हुआ। प्रसंगवश सोनाली बेंद्रे ने टीवी पर बच्चों के साथ प्रसारित एक संगीत प्रतियोगिता के रूप में प्रसारित एक कार्यक्रम में उनके संचालन के तरीके ने इस लेखक को बहुत प्रभावित किया था। शांति के साथ अपने कुशल संचालन के प्रसारण से यह तो उन्होंने साबित कर ही दिया था कि उनमें बुद्धिमता का भी विलक्षण गुण है। सच बात कहें कि अमिताभ बच्चन के कौन बनेगा करोड़पति के मुकाबले वह एक बेहतर प्रसारण लगा था।
अखबार में पढ़ने को मिला कि वह अभिनय के नये प्रस्ताव स्वीकार नहीं  कर रहीं। इसका कारण यह बताया कि वह अपने पांच वर्षीय बच्चे को संस्कारिक रूप से भी संपन्न बनाना चाहती हैं। उनका बच्चा जिस स्कूल में जाता है वहां श्रीमद्भागवत गीता का भी अध्ययन कराया जाता है। बहुत छोटे इस समाचार ने सोनाली बेंद्रे की याद दिला दी जो अब केवल कभी कभी बिजली के उपकरणों के विज्ञापन में दिखाई देती हैं। वैसे उसका अभिनय देखकर लगता था कि वह अन्य अभिनेत्रियों से कुछ अलग है पर अब इस बात का आभास होने लगा है कि वह अध्यात्मिक भाव से सराबोर रही होंगी और उनकी आंखों में हमेशा दिखाई देने वाला तेज उसी की परिणति होगी।
भारत की महान अदाकारा हेमा मालिनी भी अपनी सुंदरता का श्रेय योग साधना को देती हैं पर सोनाली बेंद्रे में कहीं न कहीं उस अध्यात्मिक भाव का आभास अब हो रहा है जो आमतौर से आम भारतीय के मन में स्वाभाविक रूप से रहता है।
जिस मां के मन में अध्यात्मिक भाव हो वही अपने बच्चे के लिये भी यही चाहती है कि उसमें अच्छे संस्कार आयें और इसके लिये बकायदा प्रयत्नशील रहती है। यहां यह भी याद रखें कि मां अगर ऐसे प्रयास करे तो वह सफल रहती है। अब यहां कुछ लोग सवाल उठा सकते हैं कि अध्यात्मिक भाव रखने से क्या होता है?
श्रीमद्भागवत गीता कहती है कि इंद्रियां ही इंद्रियों में और गुण ही गुणों में बरत रहे हैं। साथ ही यह भी कि हर मनुष्य इस त्रिगुणमयी माया में बंधकर अपने कर्म के लिये बाध्य होता है। इस त्रिगुणमयी माया का मतलब यह है कि सात्विक, राजस तथा तामस प्रवृत्तियों मनुष्य में होती है और वह जो भी कर्म करता है उनसे प्रेरित होकर करता है। जब बच्चा छोटा होता है तो माता पिता का यह दायित्व होता है कि वह देखे कि उसका बच्चे में कौनसी प्रवृत्ति डालनी चाहिए। हर बच्चा अपने माता पिता के लिये गीली मिट्टी की तरह होता है-यह भी याद रखें कि यह केवल मनुष्य जीव के साथ ही है कि उसके बच्चे दस बारह साल तक तो पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं हो पाते और उन्हें दैहिक, बौद्धिक, तथा मानसिक रूप से कर्म करने के लिये दूसरे पर निर्भर रहना ही होता है। इसके विपरीत पशु, पक्षियों तथा अन्य जीवों में बच्चे कहीं ज्यादा जल्दी आत्मनिर्भर हो जाते हैं। यह तो प्रकृति की महिमा है कि उसने मनुष्य को यह सुविधा दी है कि वह न केवल अपने बल्कि बच्चों के जीवन को भी स्वयं संवार सके। ऐसे में माता पिता अगर लापरवाही बरतते हैं तो बच्चों में तामस प्रवृत्ति आ ही जाती है। मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह व्यसन, दुराचरण तथा अभद्र भाषा की तरफ स्वाभाविक रूप ये आकर्षित होता है। अगर उसे विपरीत दिशा में जाना है तो अपनी बुद्धि को सक्रिय रखना आवश्यक है। उसी तरह बच्चों के लालन पालन में भी यह बात लागू होती है। जो माता पिता यह सोचकर बच्चों से बेपरवाह हो जाते हैं कि बड़ा होगा तो ठीक हो जायेगा। ऐसे लोग बाद में अपनी संतान के दृष्कृत्यों पर पछताते हुए अपनी किस्मत और समाज को दोष देते हैं। यह इसलिये होता है क्योंकि जब बच्चों में सात्विक या राजस पृवत्ति स्थापित करने का प्रयास नहीं होता तामस प्रवृत्तियां उसमें आ जाती हैं। बाहरी रूप से हम किसी बुरे काम के लिये इंसान को दोष देते हैं पर उसके अंदर पनपी तामसी प्रवृत्ति पर नज़र नहीं डालते। अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि रखने वालों में स्वाभाविक रूप से सात्विकता का गुण रहते हैं और उनका तेज चेहरे और व्यवहार में दिखाई देता है।
सोनाली बेंद्रे और हेमामालिनी फिल्म और टीवी के कारण जनमानस के परिदृश्य में रहती हैं और योग साधना और अध्यात्म के उनके झुकाव पर बहुत कम लोग चर्चा करते हैं। हम उनके इन गुणों की चर्चा इसलिये कर रहे हैं क्योंकि श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार श्रेष्ठ या प्रसिद्ध व्यक्त्तिवों से ही आम लोग सीखते हैं-विज्ञापनों का बढ़ता प्रभाव इसी का प्रमाण है। इसका उल्लेख हमने इसलिये भी किया कि लोग समझते हैं कि भारतीय अध्यात्म का ज्ञान बुढ़ापे में अपनाने लायक हैं जबकि यह दोनों हस्तियां आज भी युवा पीढ़ी के परिदृश्य में उपस्थित हैं और इस बात प्रमाण है कि बचपन से ही अध्यात्म ज्ञान होना जरूरी है। सोनाली बेंद्रे तो अभी युवावस्था में है और उसका अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति झुकाव आज की युवतियों के लिये एक उदाहरण है। श्रीमद्भागवत गीता को लोग केवल सन्यासियों के लिए पढ़ने योग्य समझते हैं जबकि यह विज्ञान और ज्ञान से परिपूर्ण ग्रंथ हैं जिसे एक बार कोई समझ ले तो कुछ दूसरी बात समझने को शेष नहीं  रह जाती। इससे मनुष्य चालाक होने के साथ उदार, बुद्धिमान होने के साथ सहृदय, और सहनशील होने के साथ साहसी हो जाता है। सामान्य स्थिति में इन गुणों का आपसी अंतर्द्वंद्व दिखाई देता है पर ज्ञानी उससे मुक्त हो जाते हैं।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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मैत्रीपूर्ण संघर्ष-हिन्दी हास्य व्यंग्य (friendly fighting-hindi comic satire article)


दृश्यव्य एवं श्रव्य प्रचार माध्यमों के सीधे प्रसारणों पर कोई हास्य व्यंगात्मक चित्रांकन किया गया-अक्सर टीवी चैनल हादसों रोमांचों का सीधा प्रसारण करते हैं जिन पर बनी इस फिल्म का नाम शायद………… लाईव है। यह फिल्म न देखी है न इरादा है। इसकी कहानी कहीं पढ़ी। इस पर हम भी अनेक हास्य कवितायें और व्यंगय लिख चुके हैं। हमने तो ‘टूट रही खबर’ पर भी बहुत लिखा है संभव है कोई उन पाठों को लेकर कोई काल्पनिक कहानी लिख कर फिल्म बना ले।
उस दिन हमारे एक मित्र कह रहे थे कि ‘यार, देश में इतना भ्रष्टाचार है उस पर कुछ जोरदार लिखो।’
हमने कहा-‘हम लिखते हैं तुम पढ़ोगे कहां? इंटरनेट पर तुम जाते नहीं और जिन प्रकाशनों के काग़जों पर सुबह तुम आंखें गढ़ा कर पूरा दिन खराब करने की तैयारी करते हो वह हमें घास भी नहीं डालते।’
उसने कहा-‘हां, यह तो है! तुम कुछ जोरदार लिखो तो वह घास जरूर डालेेंगे।’
हमने कहा-‘अब जोरदार कैसे लिखें! यह भी बता दो। जो छप जाये वही जोरदार हो जाता है जो न छपे वह वैसे ही कूंड़ा है।’
तब उसने कहा-‘नहीं, यह तो नहीं कह सकता कि तुम कूड़ा लिखते हो, अलबत्ता तुम्हें अपनी रचनाओं को मैनेज नहीं करना आता होगा। वरना यह सभी तो तुम्हारी रचनाओं के पीछे पड़ जायें और तुम्हारे हर बयान पर अपनी कृपादृष्टि डालें।’
यह मैनेज करना एक बहुत बड़ी समस्या है। फिर क्या मैनेज करें! यह भी समझ में नहीं आता! अगर कोई संत या फिल्मी नायक होते या समाज सेवक के रूप में ख्याति मिली होती तो यकीनन हमारा लिखा भी लोग पढ़ते। यह अलग बात है कि वह सब लिखवाने के लिये या तो चेले रखने पड़ते या फिर किराये पर लोग बुलाने पड़ते। कुछ लोग फिल्मी गीतकारों के लिये यह बात भी कहते हैं कि उनमें से अधिकतर केवल नाम के लिये हैं वरना गाने तो वह अपने किराये के लोगों से ही लिखवाते रहे हैं। पता नहंी इसमें कितना सच है या झूठ, इतना तय है कि लिखना और सामाजिक सक्रियता एक साथ रखना कठिन काम है। सामाजिक सक्रियता से ही संबंध बनते हैं जिससे पद और प्रचार मिलता है और ऐसे में रचनाऐं और बयान स्वयं ही अमरत्व पाते जाते है।
अगर आजकल हम दृष्टिपात करें तो यह पता लगता है कि प्रचार माध्यमों ने धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक शिखरों पर विराजमान प्रतिमाओं का चयन कर रखा है जिनको समय समय पर वह सीधे प्रसारण या टूट रही खबर में दिखा देते हैं।
एक संत है जो लोक संत माने जाते हैं। वैसे तो उनको संत भी प्रचार माध्यमों ने ही बनाया है पर आजकल उनकी वक्रदृष्टि का शिकार हो गये हैं। कभी अपने प्रवचनों में ही विदेशी महिला से ‘आई लव यू कहला देते हैं’, तो कभी प्रसाद बांटते हुए भी आगंतुकों से लड़ पड़ते हैं। उन पर ही अपने आश्रम में बच्चों की बलि देने का आरोप भी इन प्रचार माध्यमों ने लगाये। जिस ढंग से संत ने प्रतिकार किया है उससे लगता है कि कम से कम इस आरोप में सच्चाई नहंी है। अलबत्ता कभी किन्नरों की तरह नाचकर तो कभी अनर्गल बयान देकर प्रचार माध्यमों को उस समय सामग्री देतेे हैं जब वह किसी सनसनीखेज रोमांच के लिये तरसते हैं। तब संदेह होता है कि कहीं यह प्रसारण प्रचार माध्यमों और उन संत की दोस्ताना जंग का प्रमाण तो नहीं है।
एक तो बड़ी धार्मिक संस्था है। वह आये दिन अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों के लिये अनर्गल फतवे जारी करती है। सच तो यह है कि इस देश में कोई एक व्यक्ति, समूह या संस्था ऐसी नहंी है जिसका यह दावा स्वीकार किया जाये कि वह अपने धर्म की अकेले मालिक है मगर उस संस्था का प्रचार यही संचार माध्यम इस तरह करते हैं कि उस धर्म के आम लोग कोई भेड़ या बकरी हैं और उस संस्था के फतवे पर चलना उसकी मज़बूरी है। वह संस्था अपने धर्म से जुड़े आम इंसान के लिये कोई रोटी, कपड़े या मकान का इंतजाम नहंी करती और उत्तर प्रदेश के एक क्षेत्र तक ही उसका काम सीमित है पर दावा यह है कि सारे देश में उसकी चलती है। उसके उस दावे को प्रचार माध्यम हवा देते हैं। उसके फतवों पर बहस होती है! वहां से दो तीन तयशुदा विद्वान आते हैं और अपनी धार्मिक पुस्तक का हवाला देकर चले जाते हैं। जब हम फतवों और चर्चाओं का अध्ययन करते हैं तो संदेह होता है कि कहीं यह दोस्ताना जंग तो नहीं है।
एक स्वर्गीय शिखर पुरुष का बेटा प्रतिदिन कोई न कोई हरकत करता है और प्रचार माध्यम उसे उठाये फिरते हैं। वह है क्या? कोई अभिनेता, लेखक, चित्रकार या व्यवसायी! नहीं, वह तो कुछ भी नहीं है सिवाय अपने पिता की दौलत और घर के मालिक होने के सिवाय।’ शायद वह देश का पहला ऐसा हीरो है जिसने किसी फिल्म में काम नहीं किया पर रुतवा वैसा ही पा रहा है।
लब्बोलुआब यह है कि प्रचार माध्यमों के इस तरह के प्रसारणों में हास्य व्यंग्य की बात है तो केवल इसलिये नहीं कि वह रोमांच का सीधा प्रसारण करते हैं बल्कि वह पूर्वनिर्धारित लगते हैं-ऐसा लगता है कि जैसे उसकी पटकथा पहले लिखी गयी हों हादसों के तयशुदा होने की बात कहना कठिन है क्योंकि अपने देश के प्रचार कर्मी आस्ट्रेलिया के उस टीवी पत्रकार की तरह नहीं कर सकते जिसने अपनी खबरों के लिये पांच कत्ल किये-इस बात का पक्का विश्वास है पर रोमांच में उन पर संदेह होता है।
ऐसे में अपने को लेकर कोई भ्रम नहीं रहता इसलिये लिखते हुए अपने विषय ही अधिक चुनने पर विश्वास करते हैं। रहा भ्रष्टाचार पर लिखने का सवाल! इस पर क्या लिखें! इतने सारे किस्से सामने आते हैं पर उनका असर नहीं दिखता! लोगों की मति ऐसी मर गयी है कि उसके जिंदा होने के आसार अगले कई बरस तक नहीं है। लोग दूसरे के भ्रष्टाचार पर एकदम उछल जाते हैं पर खुद करते हैं वह दिखाई नहीं देता। यकीन मानिए जो भ्रष्टाचारी पकड़े गये हैं उनमें से कुछ इतने उच्च पदों पर रहे हैं कि एक दो बार नहीं बल्कि पचास बार स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र, गांधी जयंती या नव वर्ष पर उन्होंने कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि की भूमिका का निर्वाह करते हुए ‘भ्रष्टाचार’ को देश की समस्या बताकर उससे मुक्ति की बात कही होगी। उस समय तालियां भी बजी होंगी। मगर जब पकड़े गये होंगे तब उनको याद आया होगा कि उनके कारनामे भी भ्रष्टाचार की परिधि में आते है।
कहने का अभिप्राय यह है कि लोगों को अपनी कथनी और करनी का अंतर सहजता पूर्वक कर लेते हैं। जब कहा जाये तो जवाब मिलता है कि ‘आजकल इस संसार में बेईमानी के बिना काम नहीं चलता।’

जब धर लिये जाते हैं तो सारी हेकड़ी निकल जाती है पर उससे दूसरे सबक लेते हों यह नहीं लगता। क्योंकि ऊपरी कमाई करने वाले सभी शख्स अधिकार के साथ यह करते हैं और उनको लगता है कि वह तो ‘ईमानदार है’ क्योंकि पकड़े आदमी से कम ही पैसा ले रहे हैं।’ अलबत्ता प्रचार माध्यमों में ऐसे प्रसारणों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह दोस्ताना जंग है। यह अलग बात है कि कोई बड़ा मगरमच्छ अपने से छोटे मगरमच्छ को फंसाकर प्रचार माध्यमों के लिये सामग्री तैयार करवाता  हो या जिसको हिस्सा न मिलता हो वह जाल बिछाता हो । वैसे अपने देश में जितने भी आन्दोलन हैं भ्रष्टाचार के विरुद्ध नहीं बल्कि उसके बंटवारे के लिए होते हैं । इस पर अंत में प्रस्तुत है एक क्षणिका।
एक दिन उन्होंने भ्रष्टाचार पर भाषण दिया
दूसरे दिन रिश्वत लेते पकड़े गये,
तब बोले
‘मैं तो पैसा नहीं ले रहा था,
वह जबरदस्ती दे रहा था,
नोट असली है या नकली
मैं तो पकड़ कर देख रहा था।’

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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आर्थिक विकास के साथ सामाजिक अपराध बढ़ना स्वाभाविक-हिन्दी संपादकीय (arthik vikas aur apradh-hindi editorial)


क्या गजब समय है। पहले लूट की खबरें अखबारों में पढ़ते थे। फिर टीवी चैनलों पर यह लुटने वाले लोगों के और कभी कभी लुटेरों के बयान सुनते और देखते थे। अब तो लूट के दृश्य बिल्कुल रिकार्डेड देखने को मिलने लगे हैं जो लूट के स्थान पर लगे कैमरों में समा जाते हैं-इनको सी.सी.डी. कैमरा भी कहा जाता है।
पहले जयपुर में और अब मुंबई के एक जौहरी के यहां ऐसे लूट की फिल्में देखने को मिलीं। इस संसार में अपराध कोई नया नहीं है और न ही खत्म हो सकता है पर व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह तो उठते ही है न! कहा जाता है कि
इधर उधर की बात न कर, बता यह काफिले क्यों लुटे,
राहजनों की राहजनी का नहीं, रहबर की रहबरी का सवाल है।
दूसरी बात यह है कि अपराध के तौर तरीके बदल रहे हैं। उससे अधिक बदल रहा है अपराध करने वाले वर्ग का स्वरूप! पहले जब हम छोटे थे तब चोरी, डकैती, तथा पारिवारिक मारपीट के अपराधों में उस वर्ग के लोगों के नाम पढ़ने और सुनने को मिलते थे जिनको अशिक्षित, निम्न वर्ग तथा श्रमिक वर्ग से संबंधित समझा जाता था। अब स्थिति उलट होती दिखती है-शिक्षित, उच्च,धनी वर्ग तथा बौद्धिक समुदाय से जुड़ें लोग अपराधों में लिप्त होते दिख रहे हैं और कथित रूप से परंपरागत निम्न वर्ग उससे दूर हो गया लगता है। कम से कम बरसों से समाचार पत्र पढ़ते हुए इस लेखक का तो यही अनुभव रहा है। ऐसे में देश के आर्थिक, सामाजिक तथा बौद्धिक विकास को लेकर भी तमाम तरह के प्रश्न उठते हैं।
वैसे एक बात दूसरी भी है कि विकास का अपराध से गहरा संबंध है-कम से कम विकसित पश्चिमी देशों के अपराधों का ग्राफ देखकर तो यही लगता है और भारत के सामान्य लोगों को भी यह सब देखने के लिये तैयार हो ना चाहिए। जब समाज अविकसित था तब लोग मजबूरी वश अपराध करते थे पर विकास होते हुए यह दिख रहा है कि मजबूरी की बजाय लोग एय्याशी तथा विलासिता की चाहत पूरी करने के लिये ऐसा कर रहे हैं। इधर ऐसे भी समाचार पढ़ने को मिले कि क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाले भी इस तरह के अपराध करने लगे हैं। क्रिकेट के सट्टे का अपराध तथा सामाजिक संकट में क्या भूमिका है इसका आंकलन किया जाना चाहिऐ और स्वैच्छिक संगठनों को इस पर सर्वे अवश्य करना चाहिये क्योंकि जिस तरह समाचार हम टीवी और अखबारों में पढ़ते हैं उससे लगता है कि कहंी न कहीं इसके दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं।
जिन लोगों को सी.सी.डी कैमरे पर लूटपाट करते हुए देखा वह कोई लाचार या मजबूर नहंी लग रहे थे। विकास के साथ अपराध आधुनिक रूप लेता है, ऐसा लगने लगा है। विकास होने के साथ समाज के एक वर्ग के पास ऐशोआराम की ढेर सारी चीजें हैं। दूसरी बात यह है कि धन का असमान वितरण हो रहा है। संक्षिप्त मार्ग से धनी बनने की चाहत अनेक युवकों को अपराध की तरफ ले जा रही है। फिर दूसरी बात यह है कि अपराधियों का महिमा मंडन संगठित प्रचार माध्यमों द्वारा ऐसा किये जा रहा है जैसे कि वह कोई शक्तिशाली जीव हैं। इधर फिल्मों में अपराधों से लड़ने वाले सामान्य नागरिकों को बुरा हश्र दिखाकर आदमी आदमी को डरपोक बना दिया है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि अनेक फिल्में तो अपराधियों के पैसे से उनका रास्ता साफ करने के लिये बनी। यही कारण है वास्तविकस दृश्यों इतने सारे लोगों के बीच अपराधी सभी को धमका रहा है पर कोई उसका प्रतिरोध करने की सोचता नहीं दिखता। अगर ऐसी में भीड़ पांच लोग ही आक्रामक हो जायें तो लुटेरों की हालत पस्त हो जाये पर ऐसा होता नहीं। इसका कारण यह है कि आधुनिक शिक्षा आदमी को कायर बनाती है और ऐसे में वह या तो सब कुछ होते हुुए देखता है या करता है। करता इसलिये है कि उसे पता है कि यहां कायरों की फौज खड़ी है और खामोश इसलिये रहता है कि कहीं इस तरह युद्ध करने की प्रेरणा ही लोगों को नहीं मिलती। फिर समाज का ढर्रा यह है कि वह बहादूरों के लिये सम्मानीय न रहा है। अनेक बार देश के सैनिकों की विधवाओं के बुरे हालों को समाचार आते रहते हैं तब मन विदीर्ण हो जाता है। दरअसल अपराध का संगठनीकरण हो गया है और कहीं न कहीं उसे आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य आधारों पर खड़े शिखर पुरुषों का संरक्षण मिल रहा है। अनेक शिखर पुरुष तो सफेदपोश बनकर घूम रहे हैं और उनके मातहत अपराध कर उनकी शरण में चले जाते हैं। ऐसे में सामान्य आदमी यह सोचकर चुप हो जाता है कि घटनास्थल अपराधी को तो यहां निपटा दें पर उसके बाद उसके आश्रयदाता कहीं बदला लेने की कार्यवाही न करें।
सामान्य आदमी की निष्क्रियता के अभाव में ऐसे अपराध रोकना संभव नहीं है क्योंकि सभी जगह आप पुलिस नहीं खड़ा कर सकते। ऐसे में समाज चेतना में लगे संगठनों को अब इस बात पर विचार करना चाहिए कि किस तरह सामान्य नागरिक की भागीदारी अपराधी को रोकने के लिये बढ़े। इसके लिये यह जरूरी है कि अपराध करना या उसको प्रश्रय देना एक जैसा माना जाना चाहिये। इसके साथ ही अपराध रोकने वाली संस्थाओं को इस बात के लिये प्रेरित करना चाहिये कि वह अपराधियों से लड़ने वालो नागरिकों को संरक्षण दें तभी विकास दर के साथ अपराधों की बढ़ती दर पर अंकुश लग सकेगा।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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प्रजातंत्र में ब्लॉग की महत्वपूर्ण भूमिका-हिंदी लेख (democracy and hindi blog-hindi article)


भारत में इंटरनेट प्रयोक्ताओं की संख्या सात करोड़ से ऊपर है-इसका सही अनुमान कोई नहीं दे रहा। कई लोग इसे साढ़े बारह करोड़ बताते हैं। इन प्रयोक्ताओं को यह अनुमान नहीं है कि उनके पास एक बहुत बड़ा अस्त्र है जो उनके पास अपने अनुसार समाज बनाने और चलाने की शक्ति प्रदान करता है-बशर्ते उसके उपयोग में संयम, सतर्कता और चतुरता बरती जाये, अन्यथा ऐसे लोगों को इस पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जायेगा जो समाज को गुलाम की तरह चलाने के आदी हैं।

यह इंटरनेट न केवल दृश्य, पठन सामग्री तथा समाचार प्राप्त करने के लिये है बल्कि हमें अपने फोटो, लेखन सामग्री तथा समाचार संप्रेक्षण की सुविधा भी प्रदान करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम केवल प्रयोक्ता नहीं निर्माता और रचयिता भी बन सकते हैं। अनेक वेबसाईट-जिनमें ब्लागस्पाट तथा वर्डप्रेस मुख्य रूप से शामिल हैं- ब्लाग की सुविधा प्रदान करती हैं। अधिकतर सामान्य प्रयोक्ता सोचते होंगे कि हम न तो लेखक हैं न ही फोटोग्राफर फिर इन ब्लाग की सुविधा का लाभ कैसे उठायें? यह सही है कि अधिकतर साहित्य बुद्धिजीवी लेखकों द्वारा लिखा जाता है पर यह पुराने जमाने की बात है। फिर याद करिये जब हमारे बुजुर्ग इतना पढ़े लिखे नहीं थे तब भी आपस में चिट्ठी के द्वारा पत्राचार करते थे। आप भी अपनी बात इन ब्लाग पर बिना किसी संबंोधन के एक चिट्ठी के रूप में लिखने का प्रयास करिये। अपने संदेश और विचारों को काव्यात्मक रूप देने का प्रयास हर हिंदी नौजवान करता है। इधर उधर शायरी या कवितायें लिखवाकर अपनी मित्र मंडली में प्रभाव जमाने के लिये अनेक युवक युवतियां प्रयास करते हैं। इतना ही नहीं कई बार अपने ज्ञान की अभिव्यक्ति के लिये तमाम तरह के किस्से भी गढ़ते हैं। यह प्रयास अगर वह ब्लाग पर करें तो यह केवल उनकी अभिव्यक्ति को सार्वजनिक रूप ही नहीं प्रदान करेगा बल्कि समाज को ऐसी ताकत प्रदान करेगा जिसकी कल्पना वह नहीं कर सकते।

आप फिल्म, क्रिकेट,साहित्य,समाज,उद्योग व्यापार, पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनल तथा उन अन्य क्षेत्रों को देखियें जिससे बड़े वर्ग द्वारा छोटे वर्ग पर प्रभाव डाला जा सकता है वहां पर कुछ निश्चित परिवारों या गुटों का नियंत्रण है। यहां प्रभावी लोग जानते हैं कि यह सभी प्रचार साधन उनके पास ऐसी शक्ति है जिससे वह आम लोगों को अपने हितों के अनुसार संदेश देख और सुनाकर उनको अपने अनुकूल बनाये रख सकते हैं। क्रिकेट में आप देखें तो अनेक वर्षों तक एक खिलाड़ी इसलिये खेलता  है क्योंकि उसे पीछे खड़े आर्थिक शिखर पुरुष उसका व्यवसायिक उपयोग करना चाहते हैं। फिल्म में आप देखें तो अब घोर परिवारवाद आ गया है। सामान्य युवकों के लिये केवल एक्स्ट्रा में काम करने की जगह है नायक के रूप में नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे आर्थिक, सामाजिक तथा प्रचार के शिखरों पर जड़ता है। आप पत्र पत्रिकाओं में अगर लेख पढ़ें तो पायेंगे कि उसमें या तो अंग्रेजी के पुराने लेखक लिख रहे हैं या जिनको किसी अन्य कारण से प्रतिष्ठा मिली है इसलिये उनके लेखन को प्रकाशित किया जा रहा है। पिछले पचास वर्षों में कोई बड़ा आम लेखक नहीं आ पाया। यह केवल इसलिये कि समाज में भी जड़ता है। याद रखिये जब राजशाही थी तब यह कहा जाता था कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’, पर लोकतंत्र में ठीक इसका उल्टा है। इसलिये इस जड़ता के लिये सभी आम लोग जिम्मेदार हैं पर वह शिखर पर बैठे लोगों को दोष देकर अपनी असमर्थता जाहिर करते हैं कि ‘क्या किया जा सकता है।’

इस इंटरनेट पर जरा गौर करें। अक्सर आप लोग देखते होंगे कि समाचार पत्र पत्रिकाओं में में उसकी चर्चा होती है। आप सुनकर आश्चर्य करेंगे कि इनमें से कई ऐसे आलेख होते हैं जिनको इंटरनेट पर ब्लाग से लिया जाता है-जब किसी का नाम न दिखें तो समझ लें कि वह कहीं न कहीं इंटरनेट से लिया गया है। यह सब इसलिये हो रहा है क्योंकि अधिकतर इंटरनेट प्रयोक्ता केवल फोटो देखने या अपने पढ़ने के लिये बेकार की सामग्री पढ़ने में व्यस्त हैं। उनकी तरफ से हिंदी भाषी लेखकों के लिये प्रोत्साहन जैसा कोई भाव नहीं है। ऐसा कर आप न अपना समय जाया कर रहे हैं बल्कि अपने समाज को जड़ता से चेतन की ओर ले जाने का अवसर भी गंवा रहे हैं। वह वर्ग जो समाज को गुलाम बनाये रखना चाहता है कि फिल्मी अभिनेता अभिनेत्रियों के फोटो देखकर आप अपना समय नष्ट करें क्योंकि वह तो उनके द्वारा ही तय किये मुखौटे हैं। आपके सामने टीवी और समाचार पत्रों में भी वही आ रहा है जो उस वर्ग की चाहत है। ऐसे में आपकी मुक्ति का कोई मार्ग नहीं था तो झेल लिये। अब इंटरनेट पर ब्लाग और ट्विटर के जरिये आप अपना संदेश कहीं भी दे सकते हैं। इस पर अपनी सक्रियता बढ़ाईये। जहां तक इस लेखक का अनुभव है कि एक एस. एम. एस लिखने से कम मेहनत यहां पचास अक्षरों का एक पाठ लिखने में होती है। जहां तक हो सके हिंदी में लिखे गये ब्लाग और वेबसाईट को ढूंढिये। स्वयं भी ब्लाग बनाईये। भले ही उसमें पचास शब्द हों। लिखें भले ही एक माह में एक बार। अगर आप समाज के सामान्य आदमी है तो बर्हिमुखी होकर अपनी अभिव्यक्ति दीजिये। वरना तो समाज का खास वर्ग आपके सामने मनोरंजन के नाम पर कार्यक्रम प्रस्तुत कर आपको अंतर्मुखी बना रहा है ताकि आप अपनी जेब ढीली करते रहें। आप किसी से एस. एम. एस. पर बात करने की बजाय अपने ब्लाग पर बात करें वह भी हिंदी में। ऐसे टूल उपलब्ध हैं कि आप रोमन में लिखें तो हिंदी हो जाये और हिंदी में लिखें तो यूनिकोड में परिवर्तित होकर प्रस्तुत किये जा सकें।
याद रखें इस पर अपनी अभिव्यक्ति वैसी उग्र या गालीगलौच वाली न बनायें जैसी आपसी बातचीत में करते हैं। ऐसा करने का मतलब होगा कि उस खास वर्ग को इस आड़ में अपने पर नियंत्रण करने का अवसर देना जो स्वयं चाहे कितनी भी बदतमीजी कर ले पर समाज को तमीज सिखाने के लिये हमेशा नियंत्रण की बात करते हुए धमकाता है।
प्रसंगवश यहां यह भी बता दें कि यह ब्लाग भी पत्रकारिता के साथ ही चौथा स्तंभ है पांचवां नहीं जैसा कि कुछ लोग कह रहे हैं। सीधी सी बात है कि विधायिका, कार्यपालिका, न्याय पालिका और पत्रकारिता चार स्तंभ हैं। इनमें सभी में फूल लगे हैं। विधायिका में अगर हम देखें तो संसद, विधानसभा, नगर परिषदें और ग्राम पंचायतें आती हैं। कार्यपालिका में मंत्री, संतरी,अधिकारी और लिपिक आते हैं। न्याय पालिका के विस्तारित रूप को देखें तो उसमें भी माननीय न्यायाधीश, अधिवक्ता, वादी और प्रतिवादी होते हैं। उसी तरह पत्रकारिता में भी समाचार पत्र, पत्रिकायें, टीवी चैनल और ब्लाग- जिसको हम जन अंतर्जाल पत्रिका भी कह सकते हैं- आते हैं। इसे लोकतंत्र का पांचवां स्तंभ केवल अभिव्यक्ति के इस जन संसाधन का महत्व कम करने के लिये प्रचारित किया जा रहा है ताकि इस पर लिखने वाले अपने महत्व का दावा न करे।

कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी के ब्लाग जगत में आपकी सक्रियता ही इंटरनेट या अंतर्जाल पर आपको प्रयोक्ता के साथ रचयिता बनायेगी। जब ब्लाग आम जन के जीवन का हिस्सा हो जायेगा तक अब सभी क्षेत्रों में बैठे शिखर पुरुषों का हलचल देखिये। अभी तक वह इसी भरोसे हैं कि आम आदमी की अभिव्यक्ति का निर्धारण करने वाला प्रचारतंत्र उनके नियंत्रण में इसलिये चाहे जैसे अपने पक्ष में मोड़ लेंगे। हालांकि अभी हिंदी ब्लाग जगत अधिक अच्छी हालत में नहीं है- इसका कारण भी समाज की उपेक्षा ही है-तब भी अनेक लोग इस पर आंखें लगाये बैठे हैं कि कहीं यह माध्यम शक्तिशाली तो नहीं हो रहा। इसलिये पांचवां स्तंभ या रचनाकर्म के लिये अनावश्यक बताकर इसकी उपेक्षा न केवल स्वयं कर रहे हैं बल्कि समाज में भी इसकी चर्चा इस तरह कर रहे हैं कि जैसे इसको बड़े लोग-जैसे अभिनेता और प्रतिष्ठत लेखक-ही बना सकते हैं। जबकि हकीकत यह है कि अनेक ऐसे ब्लाग लेखक हैं जो अपने रोजगार से जुड़े काम से आने के बाद यहां इस आशा के साथ यहां लिखते हैं कि आज नहीं तो कल यह समाज में जनजन का हिस्सा बनेगा तब वह भी आम लोगों के साथ इस समाज को एक नयी दिशा में ले जाने का प्रयास करेंगे। इसलिये जिन इंटरनेट प्रयोक्ताओं की नजर में यह आलेख पड़े वह इस बात का प्रचार अपने लोगों से अवश्य करें। याद रखें यह लेख उस सामान्य लेखक है जो लेखन क्षेत्र में कभी उचित स्थान न मिल पाने के कारण यह लिखने आया है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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नये जमाने में-हिन्दी शायरी


एक दोस्त ने फोन पर
दूसरे दोस्त से
‘क्या स्कोर चल रहा है
दूसरा बिना समझे तत्काल बोला
‘यार, ऐसा लगता है
मेरी जेब से आज फिर
दस हजार रुपया निकल रहा है।’
……………………………..

इंसान के जज्ब़ात शर्त से
और समाज के सट्टे के भाव से
समझे जाते हैं।
नये जमाने में
जज़्बात एक शय है
जो खेल में होता बाल
व्यापार में तौल का माल
नासमझी बन गयी है
जज़्बात का सबूत
जो नहीं फंसते जाल में
वह समझदार शैतान समझे जाते हैं
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