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अफगानिस्तान के राष्ट्रपति करजई ने गद्दाफी की तरह अमेरिका से वैर बांधा-हिन्दी लेख (afaganistan,america,pakistan and hamid karjai-hindi lekh)


          गद्दाफी की मौत ने अमेरिका के मित्र राजनयिको को हक्का बक्का कर दिया है। भले ही गद्दाफी वर्तमान समय में अमेरिका का मित्र न रहा हो पर जिस तरह अपने अभियान के माध्यम से राजशाही को समाप्त कर लीबिया के राष्ट्रपति पद पर उसका आगमन हुआ उससे यह साफ लगता है कि विश्व में अपनी लोकतंत्र प्रतिबद्धताओं को दिखाने के लिये उसे पश्चिमी राष्ट्रों ने समर्थन दिया था। ऐसा लगता है कि फ्रांस के ज्यादा वह करीब था यही कारण संक्रमणकाल के दौरान उसके फ्रांस जाने की संभावनाऐं सामने आती थी। संभवत अपनी अकड़ और अति आत्मविश्वास के चलते उसने ऐसा नहीं किया । ऐसा लगता है कि उसका बहुत सारा धन इन पश्चिमी देशों रहा होगा जो अब उनको पच गया है। विश्व की मंदी का सामना कर रहे पश्चिमी देश अब इसी तरह धन का जुगाड़ करेंगे और जिन लोगों ने अपना धन उनके यहां रखा है उनके सामने अब संशय उपस्थित हो गया होगा। प्रत्यक्ष विश्व में कोई अधिक प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दे रही पर इतना तय है कि अमेरिका को लेकर उसके मित्र राजनेताओं के हृदय में अनेक संशय चल रहे होंगे। मूल में वह धन है जो उन्होंने वहां की बैंकों और पूंजीपतियों को दिया है। हम पर्दे पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक दृश्य देखते हैं पर उसके पीछे के खेल पहले तो दिखाई नहीं देते और जब उनका पता लगता है तो उनकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाता है। इन सबके बीच एक बात तय हो गयी है कि अमेरिका से वैर करने वाला कोई राजनयिक अपने देश में आराम से नहंी बैठ सकता। ऐसे में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने अमेरिका और भारत से युद्ध होने पर पाकिस्तान का साथ देने की बात कहकर गद्दाफी के मार्ग पर कदम बढ़ा दिया है। उसका यह कदम इस बात का प्रमाण है कि उसे राजनीतिक ज्ञान नहीं है। वह घबड़ाया हुआ है और ऐसा अफलातूनी बातें कह रहा है जिसके दुष्परिणाम कभी भी उसके सामने आ सकते हैं।
        यह हैरानी की बात है कि जिन देशों के सहयोग से वह इस पद पर बैठा है उन्हें ही अपने शत्रुओ में गिन रहा है। इसका कारण शायद यह है कि अमेरिकी सेना अगले एक दो साल में वहां से हटने वाली है और करजई का वहां कोई जनाधार नहीं है। जब तक अमेरिकी सेना वहां है तब तक ही उसका राष्ट्रपति पद बरकरार है, उसके बाद वह भी नजीबुल्लाह की तरह फांसी  पर लटकाया जा सकता है। उसने किस सनक में आकर पाकिस्तान को मित्र बना लिया है यह तो पता नहीं पर इतना तय है कि वहां  की खुफिया संस्था आईएसआई अपने पुराने बदले निकाले बिना उसे छोड़ेगी नहीं। अगर वह इस तरह का बयान नहीं देता तो यकीनन अमेरिका नहीं तो कम से कम भारत उसकी चिंता अवश्य करता। भारत के रणनीतिकार पश्चिमी राष्ट्रों से अपने संपर्क के सहारे उसे राष्ट्रपति पद से हटने के बाद किसी दूसरे देश में पहुंचवा सकते थे पर लगता है कि पद के मोह ने उसे अंधा कर दिया है। अंततः यह उसके लिये घातक होना है।
         अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हटेगी पर वैकल्पिक व्यवस्था किये बिना उसकी वापसी होगी ऐसी संभावना नहीं है। इस समय अमेरिका तालिबानियों से बात कर रहा है। इस बातचीत से तालिबानी क्या पायेंगे यह पता नहीं पर अमेरिका धीरे धीरे उसमें से लोग तोड़कर नये तालिबानी बनाकर अपनी चरण पादुकाओं के रूप में अपने लोग स्थापित करने करने के साथ ही किसी न किसी रूप में सैन्य उपस्थिति बनाये रखेगा। अमेरिका दुश्मनों को छोड़ता नहीं है और जब तक स्वार्थ हैं मित्रों को भी नहीं तोड़ता। लगता है कि अमेरिका हामिद करजई का खेल समझ चुका है और उसके दोगलेपन से नाराज हो गया है। जिस पाकिस्तान से वह जुड़ रहा है उसका अपने ही तीन प्रदेशों में शासन नाम मात्र का है और वहां के बाशिंदे अपने ही देश से नफरत करते हैं। फिर जो क्षेत्र अफगानिस्तान से लगे हैं वहां के नागरिक तो अपने को राजनीतिक रूप से पंजाब का गुलाम समझते हैं। अगर पाकिस्तान को निपटाना अमेरिका के हित में रहा और उसने हमला किया तो वहीं के बाशिंदे अमेरिका के साथ हो लेंगे भले ही उनका जातीय समीकरण हामिद करजई से जमता हो। अमेरिका उसकी गीदड़ भभकी से डरेगा यह तो नहीं लगता पर भारत की खामोशी भी उसके लिये खतरनाक है। भारत ने संक्रमण काल में उसकी सहायता की थी। इस धमकी के बाद भारतीय जनमानस की नाखुशी को देखते हुए यहां के रणनीतिकारों के लिये उसे जारी रखना कठिन होगा। ऐसे में अफगानिस्तान में आर्थिक रूप से पैदा होने वाला संकट तथा उसके बाद वहां पैदा होने वाला विद्रोह करजाई को ले डूबेगा। वैसे यह भी लगता है कि पहले ही भारत समर्थक पूर्व राष्ट्राध्यक्षों की जिस तरह अफगानिस्तान में हत्या हुई है उसके चलते भी करजई ने यह बयान दिया हो। खासतौर से नजीबुल्लाह को फांसी देने के बाद भारत की रणनीतिक क्षमताओं पर अफगानिस्तान में संदेह पैदा हुआ है। इसका कारण शायद यह भी है कि भारत को वहां के राजनीतिक शिखर पुरुष केवल आर्थिक दान दाता के रूप में एक सीमित सहयोग देने वाला देश मानते हैं। सामरिक महत्व से भारत उनके लिये महत्वहीन है। इसके लिये यह जरूरी है कि एक बार भारतीय सेना वहां जाये। भारत को अगर सामरिक रूप से शक्तिशाली होना है तो उसे अपने सैन्य अड्डे अमेरिका की तरह दूसरे देशों में स्थापित करना चाहिए। खासतौर से मित्र पड़ौसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को सामरिक उपस्थिति के रूप में विश्वास दिलाना चाहिए कि उनकी रक्षा के लिये हम तत्पर हैं। यह मान लेना कि सेना की उपस्थिति रहना सम्राज्यवाद का विस्तार है गलत होगा। हमारे यहां कुछ विद्वान लोग इराक और अफगानिस्तान में अमेरिकी सुना को उपनिवेशवाद मानते हैं पर वह यह नहीं जानते कि अनेक छोटे राष्ट्र अर्थाभाव और कुप्रबंधन के कारण बाहर के ही नहीं वरन् आंतरिक खतरों से भी निपटने का सामर्थ्य नहीं रखते। वहां के राष्ट्राध्यक्षों को विदेशों पर निर्भर होना पड़ता है। ऐसे में वह विदेशी सहायक के मित्र बन जाते हैं। भारत का विश्व में कहीं कोई निकटस्थ मित्र केवल इसलिये नहीं है क्योंकि यहां की नीति ऐसी है जिसमें सैन्य उपस्थिति सम्राज्य का विस्तार माना जाता है। सच बात तो यह है आर्थिक रूप से शक्तिशाली होने का कोई मतलब नहीं है बल्कि सामरिक रूप से भी यह दिखाना आवश्यक है कि हम दूसरे की मदद कर सकते हैं तभी शायद हमारे लिये खतरे कम होंगे वरना तो हामिद करजई जैसे लोग चाहे जब साथ छोड़कर नंगे भूखे पाकिस्तानी शासकों के कदमों में जाकर बैठेंगे। यह बात अलग बात है कि ऐसे लोग अपना बुरा हश्र स्वयं तय करते हैं।

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लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

शादी और तलाक का प्रायोजित नाटक-हिन्दी व्यंग्य (shadi aur talaq-hindi vyangya)


हम यह बात तो पहले ही लिख देते कि ‘पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी तथा भारत की महिला टेनिस खिलाड़िन की यह शादी पंदह को होकर रहेगी’ तो यकीनन अंतर्जाल पर पढ़ने वाले पाठक लोहा मान जाते। ऐसा नहीं हो सका क्योंकि डार्विन के विकासवाद को लिखे एक लेख-जिसमें व्यंग्य और चिंतन दोनों प्रकार का भाव शामिल था-पर मित्र ब्लाग लेखकों ने अपनी टिप्पणियों से हड़का नहीं दिया जिससे यह सोचकर रुकना पड़ा कि एक दिन में एक साथ दो मूर्खतापूर्ण लेख प्रस्तुत नहीं करना चाहिये। दरअसल कुछ दिन पहले उन्मुक्त जी ने एक लेख में डार्विन के विकासवाद सिद्धांत को पतंजलि योग के संदर्भ में देखने का आग्रह हमसे सार्वजनिक रूप से पाठ लिखकर किया था। विकासवाद पर हमारी स्मृतियों में पहले से ही कुछ था पर विज्ञान के विषय में कोरे होने कारण वैसे भी कभी कुछ नहीं लिखते। उस दिन लिखा। एक विद्वान वकील ब्लाग लेखक मित्र ने कड़ी टिप्पणी की कि‘आप इस विषय पर कुछ नहीं जानते। आपने निराश किया।
टिप्पणियां दूसरी भी आईं पर हमारे मन में यह शक हो गया कि हम लिखने में कोई गलती कर गये हैं। संयोगवश दूसरे ब्लाग पर उन्मुक्त जी की टिप्पणी भी आयी पर उसमें उन्होंने कहीं हमारे विकासवाद के सिद्धांतों की जो स्मृतियां हैं उन पर आपत्ति नहीं की। इधर पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ी तथा भारत की एक टेनिस महिला खिलाड़ी-जिसे विश्व में नबेवीं वरीयता प्राप्त है-की शादी का नाटक सामने आ गया। इसी पाकिस्तानी खिलाड़ी से भारत के उसी शहर की एक लड़की के साथ पहले ही हो चुकी शादी की चर्चा भी हो रही थी जहां वह महिला टेनिस खिलाड़ी रहती है। वह भारत की महिला खिलाड़िन से शादी करने के पूर्व तलाक चाहती थी। इस पर भारत के संगठित प्रचार माध्यमों-टीवी, रेडियो और समाचार पत्र पत्रिकाओं- ने ढेर सारे समाचार प्रकाशित किये। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि विज्ञापनों का व्यापार खूब हुआ। जब कोई खास खबर होती र्है-या प्रायोजित कर बनाई जाती है-तब हर मिनट में विज्ञापन आता है। विज्ञापनदाताओं के इससे कोई मतलब नहीं होता कि किस कार्यक्रम में उनके विज्ञापन दिखाये गये बल्कि उनके प्रबंधक तो यह देखते हैं कि उस समय कितने दर्शक उसे देख रहे होंगे। इस लेखक ने कई बार यह बात लिखी है कि ऐसा लगता है कि आर्थिक तथा मनोरंजन क्षेत्र के विशेषज्ञ बकायदा योजना पूर्वक खबरें तैयार करवाते हैं या फिर कोई उनके लिये कोई स्वयंसेवी संगठन है तो निरंतर इसके लिये लगा रहता है जिसे इनसे रकम प्राप्त होती है।
यह शादी होकर रहेगी-यह बात हम उसी दिन लिखते अगर एक दिन पहले वर्डप्रेस पर प्रकाशित पाठ को अगले दिन ब्लागस्पाट पर बेफिक्री से नहीं  प्रकाशित करते। वह ब्लाग अनेक अन्य लेखक मित्रों के बीच में जाता है। ऐसे में चुनौती देती टिप्पणी-वह भी एक जानकारी ब्लाग लेखक से मिले-दिमागी रूप से हिला देती है। हमने डार्विन के विकासवाद पर अपने ही एक अन्य गुरु मित्र श्री एल.एम त्रिवेदी जी-जो अब ब्लाग पर अब कवितायें भी लिखते हैं-की शरण ली। उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि हमारी सोच ठीक है और विकासवाद का सिद्धांत वही है जैसा कि हम सोच रहे थे। उन्होंने कहा कि तुम तो उस ब्लाग का लिंक मेरे ब्लाग पर दे जाओ या ईमेल पर भेजो मैं पढ़कर उस टिप्पणी दूंगा।
इधर हमारे दिमाग में यह शादी का चक्कर भी फंसा हुआ था। फिर कुछ लिखने का समय नहीं मिला क्योंकि एक आम लेखक के लिये ढेर सारे अन्य संकट भी हुआ करते हैं। टीवी तो अब देखना बंद सा हो गया। कहते हैं कि एक झूठ सौ बार बोला जाये तो अपने को भी सच लगने लगता है। यही हाल हमारा है। अधिकतर खबरें और बयान समय पास करने के लिये प्रायोजित करने के लिये प्रस्तुत किये जाते हैं यह बात लिखते और कहते हुए हमारे दिमाग में इस तरह घर कर गयी है कि कहना ही क्या? हर खबर या बयान के पीछे हमें बस प्रायोजन ही नज़र आता है।
जिस पाकिस्तानी क्रिकेटर की शादी और तलाक का यह ड्रामा हुआ उस पर उसी के देश के पुराने तेज गेंदबाज ने फिक्सर होने का आरोप लगाया बल्कि यहां तक भी कह डाला कि वह अब टेनिस में फिक्सिंग का धंधा शुरु करने वाला है। कथित दूल्हा पाकिस्तानी क्रिकेट के चरित्र पर क्या लिखें? जिस समय यह पंक्तियां लिखी जा रही हैं उस पर अनुशासनहीनता के आरोप में एक साल का प्रतिबंध लगा हुआ है। यानि वह अपने ही देश में खलनायक है। पंद्रह अप्रैल को उसकी शादी के अवसर पर तोहफे के रूप में इस प्रतिबंध से मुक्ति देने के प्रस्ताव पर भी चल रहा है।
पुरानी शादी को लेकर चल रहे विवाद में पहली पत्नी का प्रचार आक्रमण-जी हां, यह शब्द व्यापक अर्थ में लें-का सामना कर रहे उस पाकिस्तानी क्रिकेटर और अपने होने वाले पति की बचाव में उतरी महिला टेनिस खिलाडी ने बचाव करते हुए कहा कि ‘वह लोग (पहली बीबी और उसके माता पिता) कैसे सामने आयेंगे यह बताने कि उन्होंने एक इंसान(पाकिस्तानी क्रिकेटर) को बेवकूफ बनाया है?
हम पाकिस्तानी क्रिकेट की पहली और संभावित पत्नी पर कुछ नहीं लिखेंगे। क्योंकि हमारा मानना है कि छोटी उमर की लडकियां इतनी चालाक नहीं होती कि वह कोई स्वयं दांव पैंच खेंलें पर उनको बरगला कर शातिर लोग अपने पक्ष में कर ही लेते हैं। इस शादी तलाक नाटक में हमें नहीं  लगता कि लड़कियों की कोई सीधी भूमिका इस नाटकबाजी में होगी पर उनका इस्तेमाल किया गया है यह बात तय लगती है।
शक के कई कारण है। इस शादी नाटक पर ढेर सारा सट्टा लगा-यह बात संगठित प्रचार माध्यम स्वयं कह रहे हैं। इस नाटक के केंद्र बिन्दु में पाकिस्तान और मध्य एशियाई देशों का नाम अनेक बार आया और तीनों पात्र कहीं न कहीं उनसे जुड़े हुए थे। फिर क्रिकेट और टेनिस जैसे वह खेल जुड़े हुए हैं जिन पर बाजार तथा प्रचार माध्यमों का प्रत्यक्ष नियंत्रण है-संगठित प्रचार माध्यम कई बार यह बता चुके हैं कि इन पर सट्टा चलता है।
टीवी चैनलों और अखबारों की सुर्खियों में इस शादी तलाक नाटक को लाया गया दर्शकों और  पाठकों  के मनोरंजन के लिये-जिसमें व्यतीत समय पर करोड़ों रुपयों की आय होती है। पाकिस्तान के जिस पुराने तेज गेंदबाज ने अपने ही पाकिस्तानी दूल्हा क्रिकेटर पर यह भी आरोप लगाया कि उसने नया प्यार पाने के लिये 18 लाख डालर खर्च किये। इधर यह भी समाचार है कि भारत की महिला खिलाड़ी उस पाकिस्तानी से शादी कर दुबई में बसना चाहती है। फिर ऐसा दूल्हा जिस पर उसके ही देश के खिलाड़ी फिक्सिंग का आरोप लगा रहे हों तब लगता है कि उसने इस नाटक में वारे न्यारे किये होंगे। एक बात याद रखने वाली बात है कि भारत के बाहर अन्य देशों के खिलाड़ियों को इतने विज्ञापन नहीं मिलते इसलिये उनके पास अमीर होने के ऐसे ही नुस्खे हैं। क्रिकेट खिलाड़ी ने स्वयं यह नाटक न रचा हो पर उसके पीछे स्थित किसी प्रबंधकीय समूह ने यह सब रचा हो। वैसे भी वह मुखौटा ही लग रहा था।
इस नाटक मंडली के भारत से जुड़े सदस्यों ने मध्य एशिया के अमीरों को धर्म आधार विषय बनाकर खुश कर दिया होगा। मध्य एशिया के शिखर पुरुषों की यह खूबी है कि वह केवल पैसे से  नहीं  बल्कि अपने मजहब का प्रचार देखकर भी उछलते हैं। पांच छह दिन भारतीय टीवी चैनलों पर एक मजहब के ठेकेदार ही आते रहे। अन्य मजहब के लोगों को तो मानो यह बताया जा रहा था कि जैसे यह आपका कोई विषय नहीं है और न लेना देना। आपकी औकात तो दर्शक की है जिसे चाहे नाटक दिखायें चाहें विज्ञापन। इसलिये अपने दिमाग के दरवाजे बंद कर हमारा यह धार्मिक और आर्थिक कार्यक्रम देखो।
हम यह पहले ही दिन लिखते पर एक ही दिन दो मूर्खतायें नहीं करना चाहिये। कम से कम अंतर्जाल पर जहां टिप्पणियों की सुविधा है। वैसे श्री त्रिवेदी जी से दोनों मसलों पर हमारी चर्चा हुई थी। उन्होंने हौंसला बढ़ाया तो अब सोच रहे हैं कि कुछ अन्य विषयों पर भी इस तरह लिखा जाये। बात गलत निकले तो हार मान लो। सच निकले तो वाह वाह तो्र होगी ही।
वैसे पहले दिन से हमने अनुमान लगाया था वह एक समय गलत होता दिख रहा था तब लगा कि अच्छा हुआ नहंी लिखा पर बाद में जब परिणाम सामने आया तो लगा कि एक मौका अपने हाथ से निकल गया। बहरहाल अब ऐसे सीधे प्रसारित नाटकों का अंत का अनुमान पहले लगाना आसान नहीं है क्योंकि इस पर भी सट्टा चलता है और इसमें अभिनय करने वाले पात्रों की डोर उनके हाथों में ही होती है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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पाकिस्तान की पैंतरेबाजी और उसके मित्र देश-आलेख


किसी भी राष्ट्र का सम्मान न तब तक नहीं बढ़ सकता जब तक वह दूसरों से मदद लेता है और जब वह दान लेने लगे तो समझ लेना चाहिये कि वह पतन के गर्त में गिर चुका है। पाकिस्तान की स्थिति भी कुछ वैसे ही है पर लगता है कि वह मदद और दान एक तरह हफ्ता वसूली की तरह ले रहा है।

आजकल पाकिस्तान पर दानदाता देशों का विशेष अनुग्रह हो गया है। वैसे तो पाकिस्तान को अनेक देश घोषित अघोषित रूप से सहायता देते रहे हैं पर उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता था। मुंबई पर हमले के पश्चात् पूरे विश्व में उसकी कड़ी प्रतिक्रिया हुूई और उसके लिये पूरी दुनियां ने पाकिस्तान को जिम्मेदार माना। इससे उसको सहायता देने वाले देशों के लिये उसको बड़ी राशियां देना कठिन हो गया। फिर यह भी सभी जानते हैं कि पाकिस्तान को मिली ऐसी सहायता आतंकवादियों तक ही पहुंच जाती है। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति करीब छःह महीने से खराब है और उसे बीच में चीन ने राहत देकर दिवालिया होने से बचाया था। अब अमेरिका आगे आया है और उसके मित्र देश अब उसकी मदद कर रहे हैं पर अब इसे दान का नाम दिया जा रहा है। हुआ यह है कि पाकिस्तान की मदद को लालायित यह देश पिछले कुछ दिनों से अपना खजाना उसके लिये खोल नहंीं पा रहे थे क्योंकि इससे उनके कर्णधारों की अपने देश में जनता की नजरों में छबि खराब हो जाती। फिर भारतीय जनता की नजरें भी सभी पर लगी हुई हैं। मगर विश्व में अमीर देशों को तो बस पाकिस्तान की मदद का नशा है सो अब इस मदद को नाम दिया गया है ‘दान’। यानि अपने देश और विश्व के लोगों को भ्रमित करना। मदद से थोड़ी संवेदना कम हो जाती है और अब तो पाकिस्तान का नाम जिस तरह से विश्व में जाने लगा है उससे हर जगह आम आदमी उससे घृणा करता है। ऐसे में दान शब्द से आदमी की भावनायें थोड़ा अलग हो जाती हैं कि क्योंकि ‘दान’ करना एक अच्छा काम माना जाता है। फिर ‘दान’ देने वाले देशों के लोग शायद विश्व में अपनी ‘दानदाता’ वाली छबि से शायद खुश होंगे। फिर भारत के लोग भी ‘दान’ को लेकर शायद ही गुस्से का इजहार करें-ऐसा अनुमान किया जा रहा होगा।

आखिर यह क्या हो रहा है? एक तरफ पाकिस्तान के नाकाम राष्ट्र होने का भय सभी को सता रहा है। पाकिस्तान के पास जो परमाणु बम हैं उसका वह अब भावनात्मक रूप से उपयोग कर रहा है। हालत यह है कि सर्वाधिक परमाणू बम रखने वाल अमेरिका तक उसके बमों से घबड़ाया हुआ है। अब जापान ने भी पाकिस्तान को दान देने का फैसला किया। यह आश्चर्य की बात है कि विश्व का हर बड़ा देश पाकिस्तान को दान देने के लिये तैयार बैठा है। वैसे एक बात मजे की है कि पाकिस्तान के कर्णधारों ने विश्व से कोई ऐसी अपील नहंी की है कि उसे दान दिया जाये। हो सकता है कि ऐसे में भारतीय जनता भी कुछ विचार कर सकती।

सच बात तो यह है कि पाकिस्तान के रणनीतिकारों ने पूरे विश्व के देशों को चक्करघिन्नी बना दिया है। सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्या हो गया है कि पाकिस्तान को दान पर दान दिया जा रहा है। एक अखबार में यह विश्लेषण छपा था कि अमेरिका अब केवल अपना ध्यान अलकायदा से संघर्ष पर केंद्रित करना चाहता है। तालिबान को उसने अपने लक्ष्य से परे कर दिया है। इसलिये संभव है यह दान कथित रूप से तालिबान को अलकायदा से अलग करने के काम आ सकता है। तालिबान से केवल अफगानिस्तान और भारत को परेशानी है और अभी तक आतंकवाद पर साझे संघर्ष करने के दावे करने वाले विश्व के अमीर और बड़े राष्ट्रों ने अब अपनी नीति बदल ली हैं। वह तालिबान और अलकायदा को अलग करना चाहते हैं। अब यह कहना कठिन है पर अभी तक समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर जो विश्लेषण हमने देखें हैं उससे नहीं लगता कि इसमें कोई बहुत जल्दी सफलता मिल पायेगी। तालिबान के पास जो मानवीय शक्ति है उसका उपयोग अलकायदा अपने धन और तकनीकी कौशल के कारण अपने सहायक के रूप में करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि तालिबान से जुड़े अधिकतर लोग धन के कारण उसमेंे हैं पर दूसरा सच यह भी कि लड़ना उनकी प्रवृत्ति है। पाकिस्तान के जिन इलाकों में तालिबान सक्रिय है उसकी उपस्थिति का कारण यह है कि वहां लोगों की अशिक्षा और गरीबी के कारण उनका उपयोग करने के सुविधा होती है। इसके अलावा वह इलाके बहुत सुंदर और उपजाऊ हैं जहां सूखे मेवे पैदा होता है। अलकायदा के लोग मध्य एशिया से आकर वहां ऐश की जिंदगी जीते हैं और तालिबान को आर्थिक सहायता देकर उसे अपनी सुरक्षा के लिये उपयोग करते है। दरअसल अलकायदा और तालिबान तो बस नाम भर है वहां के स्थानीय निवासियों की जुझारु प्रवृति विश्व विख्यात है जो अपने विरोधी पर कभी हिंसा के रूप में प्रकट होती है। आपने डूरंड लाईन का नाम सुना होगा। उसे कभी अंग्रेज पार नहीं कर पाये और इसलिये अफगानिस्तान कभी उनके हाथ नहीं आया। जब तालिबान और अलकायदा नहीं थे तब भी वहां पाकिस्तान का संविधान नहीं चलता था और आगे भी चलेगा इसकी संभावना नहीं है। इन जुझारु जातियों का खौफ पाकिस्तान के हर शहर में रहता है। आजादी से पहले भी अनेक नृशंस हत्यााओं का जिक्र अनेक बुजुर्ग करते रहे हैं। आदमी को काट देना वहां कोई कठिन काम नहीं माना जाता। अलकायदा और तालिबान ने तो वहां के लोगो की अशिक्षा,गरीबी और जुझारु प्रवृति को भुनाया है न कि बनाया है-कम से विद्वानों की अभी तक जो विश्लेषण हैं वह तो यही बताते हैं।
बहरहाल अब पाकिस्तान अपने हालत बनाने के लिये दान ले रहा है और वह यही दान अब उन लोगों तक पहुंचेगा जो हिंसा में लिप्त हैं। यह पैसा लेने वालों को दान और मदद की अंतर से कोई मतलब नहंीं हैं। वह भी जानते हैं पड़ौसी देश भारत के दबाव की वजह से यह हो रहा है। आतंकवाद के विरुद्ध संयुक्त संघर्ष की बात करने वाले देशों के चरित्र की यही असलियत है कि वह उसी आतंकवादी समूह को अपने विरुद्ध मानते हैं जिसकी गतिविधियां उनको त्रस्त करती हैं और दूसरे के विरुद्ध सक्रिय आतंकवादी गिरोह उनको मित्र लगते हैं या वह उसकी उपेक्षा कर देते हैं। जबकि यह सभी को पता है इन आतंकवादियों के गिरोह आपस में मिले हुए हैं। मदद हो या दान, मजे में रहेगा पाकिस्तान। उसे अपने मनोमुताबिक धन मिल रहा है तो वह क्यों आतंकवाद को समाप्त करना चाहेगा।
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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