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श्रीमद्भागवत गीता जीवन रहस्य की पहचान कराती है-विशेष हिन्दी लेख (special articoe on shri madbhagavat gita)


अगर श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन नित्य करें तो इस बात का आभास सहजता से होता है कि उसमें सिखाया कुछ नहीं गया है बल्कि समझाया गया कि इस संसार का स्वरूप क्या है? उसमें यह कहीं नहीं कहा गया कि आप इस तरह चलें या उस चलें बल्कि यह बताया गया है कि किस तरह की चाल से आप किस तरह की छबि बनायेंगे? उसे पढ़कर आदमी कोई नया भाव नहीं सीखता बल्कि संपूर्ण जीवन सहजता से व्यतीत करें इसका मार्ग बताया गया है।
श्रीमदभागवत गीता पर जब कहीं चर्चा पढ़ने को मिलती है तब इस लेखक के मन में कुछ कुछ नया विचार आता है। यह स्थिति वैसी है जैसे कि श्रीमद्भागवत गीता को रोज पढ़ने पर नित्य कोई नया रहस्य प्रकट होता है। अक्सर अखबार, टीवी तथा अंतर्जाल पर होने वाली चर्चाओं में एक नारा अक्सर सुनाई देता है कि ‘सब पवित्र ग्रंथ एक समान’ उसमें अनेक ग्रंथों का नाम देते हुए श्रीमद्भागवत गीता का नाम भी दे दिया जाता है। कुछ लोग तो यह भी नारा देते हैं कि ‘सभी पवित्र ग्रंथ प्रेम, अहिंसा तथा दया का मार्ग सिखाते हैं’।
ऐसा लगता है कि बड़ी बड़ी बातें करने वाले छोटे नारों को गढ़कर अपना लक्ष्य साधते हैं। उनका उद्देश्य समाज के हर वर्ग के लोगों को प्रभावित करना होता है-अब यह अलग बात है कि कोई दौलत के लिये तो कोई शौहरत के लिए ऐसा करता है। कभी कभी तो लगता है कि श्रीगीता को मानने वाले तो असंख्य है पर उसे समझने वाले बहुत कम है शायद इसलिये श्रीगीता का नाम लेकर ही अधिकतर कथित प्रतिभाशाली लोग लोकप्रियता पाना चाहते हैं।
दुनियां के अनेक ग्रंथ लिखे गये हैं और उनमें मनुष्य को देवताओं की तरह बनने के नुस्खे बताये गये हैं पर किसी ने देवताओं की पहचान नहीं बतायी। राक्षस या शैतान का उल्लेख सभी करते हैं पर उसे निपटने या वैसे न होने के लिये ज्ञान कहीं नहीं मिलता। दूसरी खुशफहमी यह पैदा की जाती है कि सभी मनुष्यों को देवता बनना चाहिए जो कि एक असंभव काम है। श्रीगीता बताती है कि इस संसार में विभिन्न प्रकार के लोग रहेंगे पर और उनकी पहचान समझना जरूरी है। वह एक आईना देती है जिसमें अपनी छबि देखी जा सकती है। वह ऐसा आईना देती है जो पारदर्शी है जिसमें आप दूसरे आदमी की पहचान कर उसे व्यवहार करने या न करने का निर्णय ले सकते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उसमें एक वैज्ञानिक सूत्र है कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं।’ इसका मतलब यह है कि जैसे संकल्पों, विचारों तथा कर्मों से आदमी बंधा है वैसा ही वह व्यवहार करेगा। उस पर खाने पीने और रहने के कारण अच्छे तथा बुरे प्रभाव होंगे। सीधी बात यह है कि अगर आप अगर यह चाहते हैं कि अपने ज्ञान के आईने में आप स्वयं को अच्छे लगें तो अपने संकल्प, विचारों तथा कर्मों में स्चच्छता के साथ अपनी खान पान की आदतों तथा रहन सहन के स्थान का चयन करें। दूसरी बात यह है कि अगर आप आने अंदर दोष देखते हैं तो विचलित होने की बजाय यह जानने का प्रयास करें कि आखिर वह किसी बुरे पदार्थ के ग्रहण करने या किसी व्यक्ति की संगत के परिणाम आया-एक बात यह भी कि जैसे श्रीगीता का अध्ययन करेंगे आपको अपने अंदर भी ढेर सारे दोष दिखाई देंगे और उन्हें दूर करने का मार्ग भी पता लगेगा।
दूसरे व्यक्ति में दोष देखें तो उस पर हंसने या घृणा करने की बजाय इस बात का अनुसंधान करें कि वह आखिर किस कारण से उसमें आया। अगर कोई दुष्ट व्यक्ति आपसे बदतमीजी करेगा तो आप दुःखी नहीं होंगे क्योंकि आप जानते हैं कि इसके पीछे अनेक तत्व है जिनका दुष्प्रभाव उस पर पड़ा है।
श्रीगीता किसी को प्रेम करना अहिंसा में लिप्त होना नहीं सिखाती बल्कि अंदर प्रेम और अहिंसा का भाव अंदर कैसे पैदा हो यह समझाती है। तय बात है कि ऐसे में आपको ऐसे तत्वों से संबद्ध होना होगा जो यह भाव पैदा करें। मतलब सिखाने से प्रेम या अहिंसा का भाव नहीं पैदा होगा बल्कि वैसे तत्वों से संपर्क रखकर ही ऐसा करना संभव है।
श्रीगीता को पढ़ने और उन पर ंिचंतन करने वाले इस बात को जानते हैं कि कोई दूसरे को प्रेम नहीं सिखा सकता क्योंकि जिस व्यक्ति का घृणा पैदा करने वाले तत्वों से संबंध है उसमें प्रेम कहां से पैदा होगा? अलबत्ता स्वयं किसी अन्य व्यक्ति से सद्व्यहार करें क्योंकि अंततः वह उसे लौटायेगा।
श्रीमद्भागत गीता में चार प्रकार के भगवान के भक्त बताये गये है। भगवान की भक्ति होती है तो जीव से प्रेम होता है। अतः भक्ति की तरह प्रेम करने वाले भी चार प्रकार के होते हैं-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा ज्ञानी। पहले बाकी तीन का प्रेम क्षणिक होता है जबकि ज्ञान का प्रेम हमेशा ही बना रहता है। अगर आपके पास तत्व ज्ञान है तो आप अपने पास प्रेम व्यक्त करने वालों की पहचान कर सकते हैं नहंी तो कोई भी आपको हांक कर ले जायेगा और धोखा देगा।
श्रीमद्भागवत गीता में यह बात साफ तौर से कही गयी है कि प्राणायाम ध्यान, ओम शब्द का स्मरण करने से संपन्न ज्ञान यज्ञ के अमृत की अनुभूति करने वाले भक्त मुझे प्रिय हैं-सीधा आशय यही है कि जीवन के कल्याण का यही उपाय है। यह अमृत पानी पीने वाला नहीं बल्कि मन में अनुभव किया जाने वाला है जिसकी अनुभूति देह और आत्मा दोनों में ही की जा सकती है। व्यक्ति की पहचान भी बताई गयी है जो दो प्रकार के होते हैं-दैवीय प्रकृति और आसुरी प्रकृति वाले। व्यक्ति की तरह भोजन के रूप का ज्ञान भी दिया गया जो तीन तरह का होता है-सात्विक, राजस और तामसी। जैसा भोजन वैसा मनुष्य! इसका ज्ञान होने पर मनुष्य आसानी से अपने आसपास के वातावरण और व्यक्ति की पहचान कर अपना कर्म करता है।
जब श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान कोई इंसान धारण कर लेता है तो वह निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया में इस तरह लिप्त होता है कि उसे सांसरिक पीड़ायें छू तक नहंी पाती क्योंकि वह जानता है कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं।’ दूसरी बात यह है कि पीड़ायें उसके पास आती भी नहीं क्योंकि वह उस श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान को आईना बनाकर सामने रख लेता है और पदार्थों को ग्रहण करने और अन्य व्यक्ति से व्यवहार करने में पहचान बड़ी सहजता से कर आगे बढ़ता है। अनुकूल लोगों से संपर्क करता है और प्रतिकूल लोगों से परे रहता है। प्रेम और अहिंसा का भाव उसमें इस तरह बना रहता है कि उसका आभास उसे स्वयं ही होता है। वह जानता है कि जीवन जीने का यही एक सहज रास्ता है।
इसलिये यह कहना ही गलत है कि श्रीमद्भागवत गीता भी अन्य ग्रंथों की तरह प्रेम करना या अहिंसा में लिप्त रहना सिखाती है संकीर्णता का परिचायक है। दरअसल प्रेम या अहिंसा सिखाने वाली बात नहीं बल्कि अपने अंदर कैसे पैदा हो इसका उपाय बताना जरूरी है। फिर इसके लिये अनेक तत्व हैं जिनका ज्ञान हुए बिना किसी में ऐसे भाव नहीं पैदा हो सकते जब तक श्रीगीता का अध्ययन न किया जाये। याद रखिये श्रीमदभागवत गीता दुनियां का अकेला ऐसा ग्रंथ है जिसमें ज्ञान तथा विज्ञान दोनो ही हैं।
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हिन्दू धर्म संदेश-ज्ञान आदमी को घमंडी भी बना देता है


महाराज भर्तृहरि नीति दर्शन के अनुसार
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यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः
हिंदी में भावार्थ –जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।
वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि
हिंदी में भावार्थ – बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि तथा अहंकार स्वाभाविक रूप से रहते हैं। अच्छे से अच्छे ज्ञानी को कभी न कभी यह अहंकार आ जाता है कि उसके पास सारे संसार का अनुभव है। इस पर आजकल अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लोग तो यह मानकर चलते हैं कि उनके पास हर क्षेत्र का अनुभव है जबकि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के बिना उनकी स्थिति अच्छी नहीं है। सच तो यह है कि आजकल जिन्हें गंवार समझा जाता है वह अधिक ज्ञानी लगते हैं क्योंकि वह प्रकृति से जुड़े हैं और आधुनिक शिक्षा प्राप्त आदमी तो एकदम अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गये हैं। इसका प्रमाण यह है कि आजकल हिंसा में लगे अधिकतर युवा आधुनिक शिक्षा से संपन्न हैं। इतना ही नहीं अब तो अपराध भी आधुनिक शिक्षा से संपन्न लोग कर रहे हैं।
जिन लोगों के शिक्षा प्राप्त नहीं की या कम शिक्षित हैं वह अब अपराध करने की बजाय अपने काम में लगे हैं और जिन्होंने अंग्रेजी में शिक्षा प्राप्त की और इस कारण उनको आधुनिक उपकरणों का भी ज्ञान है वही बम विस्फोट और अन्य आतंकवादी वारदातों में लिप्त हैं। इससे समझा जा सकता है कि उनके अपने आधुनिक ज्ञान का अहंकार किस बड़े पैमाने पर मौजूद है।
आदमी को अपने ज्ञान का अहंकार बहुत होता है पर जब वह आत्म मंथन करता है तब उसे पता लगता है कि वह तो अभी संपूर्ण ज्ञान से बहुत परे है। कई विषयों पर हमारे पास काम चलाऊ ज्ञान होता है और यह सोचकर इतराते हैं कि हम तो श्रेष्ठ हैं पर यह भ्रम तब टूट जाता है जब अपने से बड़ा ज्ञानी मिल जाता है। अपनी अज्ञानता के वश ही हम ऐसे अल्पज्ञानी या अज्ञानी लोगों की संगत करते हैं जिनके बारे में यह भ्रम हो जाता है वह सिद्ध हैं। ऐसे लोगों की संगत का परिणाम कभी दुखदाई भी होता है। क्योंकि वह अपने अज्ञान या अल्पज्ञान से हमें अपने मार्ग से भटका भी सकते हैं।

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पति पत्नी के बीच में दखल और कानून-हिन्दी लेख


श्रीमद्भागवत गीता ‘भेदात्मक बुद्धि’ रखने वालों को आसुरी प्रवृत्ति का मानती है। इसलिये किसी भी ज्ञानी ध्यानी को मनुष्यों के कर्म पर बोलते या लिखते समय उसकी जाति, भाषा या कथित धर्म-इनको भ्रम भी कहा जा सकता है-का उल्लेख नहीं करते। मुश्किल तब शुरु होती है जब कोई आदमी अपनी जाति, भाषा, धर्म या क्षेत्र के नाम से ही परिचय देकर इस बात की जिद्द करता है कि उसे अपने समूह से जोड़कर देखा जाये। ऐसी बाध्यता अगर सामने है तो फिर अपनी बात कहने में रुकना भी नहीं चाहिये।
यह लेखक पहली बार मुसलमान समाज पर इसलिये लिख रहा है क्योंकि इसके ब्लाग पर अनेक बार इसी समाज से जुड़े लोग टिप्पणी करते हैं। दूसरी बात यह कि उनमें भारतीय अध्यात्म के प्रति झुकाव भी देखा गया है। टिप्पणियाों की संख्या पाठकों की संख्या से बहुत कम होती है। ऐसे में यह मानना पड़ता है कि इस लेखक के पाठों पर मुस्लिम समाज के पाठकों की संख्या देश की आबादी के अनुरूप ही होगी। इसी विश्वास के कारण यह लिखा जा रहा है। इसमें आलोचना हो सकती है पर यह परंपरागत रूप से वैसी नहीं होगी जैसी अक्सर चिढ़ाने वाली होती है। कोई नाखुश बंदा इस लेख का गलत अर्थ न लगाये इसलिये यह सफाई लिखनी पड़ रही है।
हम पति पत्नी और मियां बीवी के-यह लेखक लकीर का फकीर है इसलिये जैसा कि धर्म के ठेकेदार भाषा से उसको जोड़ते हैं इसलिये यह बताना जरूरी है कि हिन्दू में पति पत्नी और मुसलमानों में मियां बीवी-रिश्तों में अक्सर धर्म के कथित तत्वों को देखना चाहते हैं। यह इच्छा दो ही कारण से पैदा होती है। एक तो अपने आंख, कान तथा दिमाग को दूसरे के घर में आग देखकर प्रसन्नता के कारण होती है। दूसरा स्वयं को ज्ञानी साबित करने के लिये पंच होकर जाने का अवसर मिलता है। हिन्दू धर्म कभी एक संगठन के रूप में नहीं रहा इसलिये उसमें किसी भी संस्था द्वारा नियम बनाने का प्रावधान नहीं है और न ही पति पत्नी के संबंधों में राज्य, समाज या किसी समूह द्वारा हस्तक्षेप का प्रावधान है। पति पत्नी के संबंध टूटें या जुड़ें इसके लिये वह जिम्मेदार होते हैं। सदियों तक तो यह कायदा रहा है कि घर से विवाह कर जाती हुई बेटी को बाप कहता है कि ‘बेटी, जिस घर तेरी डोली जा रही है, वहीं से तेरी अर्थी उठेगी।’
इसके बावजूद हिन्दुओं के लिये विवाह विच्छेद का कानून बना पर इसका किसी ने विरोध नहीं किया क्योंकि कोई व्यक्ति या संगठन ऐसा करने का न तो आधार रखता है और न उसके पास जनसमर्थन होता है। इसलिये ही हिन्दुओं के विवाह और तलाक के विषय आज के आधुनिक बाजार आधारित प्रचार माध्यमों के लिये कोई विषय नहीं बनते। मगर हाल ही में पाकिस्तान के एक दूल्हे को लेकर भारत की दो लड़कियों के बीच जो जंग हुई उसमें तलाक और शादी दोनों ही इसलिये ही प्रचार का विषय बने क्योंकि तीनों ही मुसलमान थे। इस पर नियम से काम करने वाला उनका संगठन है जिसमें शायद काजी और मौलवी होते हैं। मुसलमानों में तलाक जितनी आसानी से मुंहजबानी होता है वैसा हिन्दुओं में नहीं है। यह अच्छी बात है पर जिस तरह तलाक का नाटक उक्त प्रकरण में देखने को मिला उससे जरूर मुस्लिम ज्ञानी भी नाराज हुए होंगे। मगर उनको यह समझ लेना चाहिये कि उनके नियमों ने ही आधुनिक बाजार आधारित प्रचार माध्यमों को यह अवसर प्रदान किया। इस लेखक का मानना है कि जहां विवाह न निभता हो वहां तलाक आसानी से होने देना चाहिये पर जिस तरह पाकिस्तानी क्रिकेटर की पहली बीवी अपने मियां से तलाक लेकर दूसरी शादी करने के लिये दबाव बना रही थी और दूसरी होनी वाली बीवी पहली वाली का मजाक बना रही थी वह चर्चा का विषय बना। सच तो यह है कि जिस तरह इसमें क्रिकेट और मध्य एशिया देशों के नाम आये उससे लगा कि कहीं न कहीं इसमें प्रायोजन है-पाकिस्तानी क्रिकेटर पर दूसरी लड़की को प्रभावित करने के लिये 16 करोड़ का खर्च तथा तलाक के लिये पहली बीवी को पंद्रह करोड़ देने जैसी बातें यह समाचार माध्यम करेंगे तो यह शक होना स्वाभाविक है।
अब आते हैं असली बात पर! जब यह प्रकरण चल रहा था तब पाकिस्तानी क्रिकेटर की पहली बीवी ने तलाक न देने के कारण अपने ही देश की दूसरी लड़की से निकाह करने अपने ही शहर में आये उस शौहर पर ‘घरेलू हिंसा’ का मामला दायर कर दिया। मामला पुलिसा तक ही रहा। इस मामले के अदालत में जाने की संभावना नगण्य ही थी क्योंकि तब यह पेचीदा हो जाता। चूंकि तलाक होना था और निकाह भी इसलिये पर्दे के पीछे खेल चलता रहा।
इधर बहस भी हो रही थी। जिसमें कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवी, पत्रकार, तथा मुल्ला मौलवी भी शामिल थे। वह अपनी किताबों के अनुसार बहस कर रहे थे पर वह नहीं जानते थे कि वह ऐसा कर कानूनी संकट को न्यौता भी दे रहे थे। चलो यह प्रकरण तो चूंकि बाज़ार और प्रचार का संयुक्त प्रायोजन था-यह भी संभव है कि इन दोनों की सयुक्त समर्थक कोई लॉबी इससे जुड़ी हुई हो-इसलिये यह सब चल गया। भविष्य में वह याद रखें कि भारत में अब दहेज विरोधी कानून तथा घरेलू हिंसा ऐसे कानून हैं जो पति पत्नी तथा मियां बीवी पर समान रूप से लागू होते हैं। दहेज एक्ट तो केवल परिवार तथा रिश्तेदारों तक ही सीमित रहता है पर यह घरेलू हिंसा कानून तो किसी को भी लपेटे में ले सकता है।
उक्त बहस में पहली बीवी की शादी की वैधानिकता पर सवाल उठाने वाले बहुत जोखिम ले रहे थे। एक पुराने अभिनेता की शायद मुराद थी कि क्रिकेटर की शादी दूसरी वाली लड़की से हो जाये इसलिये उसने पहली वाली पर सवाल उठाया कि ‘निकाह नामे में गवाहों की वल्दियत है पर दूल्हा दुल्हन का नाम नहीं है। इसलिये यह शादी नहीं मानी जा सकती।’
यह निकाहनामा दूल्हे ने पाकिस्तान में बनवाया था। मुस्लिम कानून के हिसाब से यह शादी अवैध भी होती तो भी वह घरेलू हिंसा के आरोप से बच नहीं सकता था उल्टे यही उसके खिलाफ सबूत भी बन सकता था कि उसने चालाकी की। बात यहीं नहीं रुकती। पीड़ित लड़की अगर उस समाचार की सीडी वगैरह लेकर अदालत में सीधे ‘घरेलू हिंसा’ का मामला दूल्हे पर दायर करती और साथ में अभिनेता का भी नाम यह कहते हुए देती कि यह भी हैं हमारे पाकिस्तानी क्रिकेटर मियां के भारतीय अभिनेता समर्थक।’ तब उनके लिये मुश्किल हो सकती थी। बाद में फैसला चाहे जो भी होता पर फिलहाल उनको अदालत में तो जाना ही पड़ सकता था।
कुछ मुल्ला मौलवी भी पहली बीवी के निकाह पर शक कर रहे थे पर यह उनके लिये परेशानी का कारण बन सकता था। कारण दहेज निरोध तथा घरेलू हिंसा कानून ऐसे हैं जिनमें किसी धर्म की पुस्तक का अध्ययन शामिल नहीं है। यही सही है कि इन कानूनों का दुरुपयोग इसलिये न्यायाधीश तथा पुलिस वाले बहुत सतर्कता पूर्वक विवेचना कर निर्णय तथा कार्यवाही करते हैं पर अगर उनको यकीन हो जाये कि महिला वाकई पीड़ित है तो उसके बाद जो होता है वह अभियुक्त के लिये तकलीफदेह हो सकता है।
इस प्रसंग में एक दिलचस्प बात पता चली कि पाकिस्तान में भी एक कानून है कि पहली पत्नी के रहते दूसरा विवाह करने पर वहां एक साल की सजा है। अनेक गैर मुस्लिम यहां ऐसा कानून न होने पर आपत्तियां कर रहे हैं। उनको शायद अंदाजा नहीं है कि घरेलू हिंसा तथा दहेज निरोध कानून ऐसे हैं जिनके चलते ऐसा कानून न होना कोई मायने नहीं रखता। अभी तक मुस्लिम समाज को लेकर अनेक ऐसे प्रायोजित समाचार और बहसें सुनने में आती हैं जिनका निष्कर्ष कुछ नहीं निकलता। मुल्ला मौलवी भी वहां आकर अपने धार्मिक कानून की वकालत करते हैं। अब उनके पास ऐसे अवसर आये तो वह पहले इस बात की तहकीकात कर लें कि जिस बहस में वह जा रहे हैं वह तथा जिस समाचार के लिये हो रही है वह प्रायोजित है। यह भी पक्का कर लें कि वह न्यायालय में नहीं जायेगा। कहने का आशय यह है कि नकली मुठभेड़ हो। अगर कहीं असली वाक्या हुआ और वह इसी तरह ही बयानबाजी करते रहे, उधर कोई महिला अत्यंत दुःखी है और इस तरह का अपमान होने पर वह क्रुद्ध हो उठी तो यह दहेज एक्ट और घरेलू हिंसा ऐसे कानून हैं कि उनको भी दायरे में वह पति उसके परिवार तथा सहयोगियों को भी ले सकती है। वैसे मुस्लिम महिलाओं की स्थिति देखते हुए ऐसी संभावना कम ही लगती है क्योंकि अभी भी मुस्लिम महिलायें सामाजिक शिकंजे में फंसी है जो मुक्त है वह ऐसे प्रायोजित प्रचारकों के दायरे बाहर रहती हैं।
यह सही है कि मुसलमानों के लिये अलग से व्यक्तिगत कानून हैं पर दहेज एक्ट तथा घरेलू हिंसा कानून आने से महिलाओं पर दबाव बनाये रखने की मुस्लिम शिखर पुरुषों की शक्ति अब वैसी नहीं रही। वैसे इन दोनों कानूनों में अधिकतर मामले हिन्दू समाज के ही दर्ज होने का अनुमान लगता है-सच का पता किसी को नहीं है-पर उस पाकिस्तानी दूल्हे की एक लड़की से बेवफाई तथा दूसरी से प्यार के नाटक में ‘घरेलू हिंसा’ कानून का उल्लेख होने के दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं। सो न केवल बहसों से बचें बल्कि मियां बीवी के निजी मसलों पर लिखित रूप से भी न कहें क्योंकि उसका इस्तेमाल सबूत के रूप में किसी महिला को पीड़ित करने में सहयोग करने के आरोप को सिद्ध करने में हो सकता है। यह लेखक न वकील है न इसे कोई धार्मिक प्रचारक, केवल इधर उधर देखे गये मामलों पर यह लिखा गया है। इसका पाठ का एक उद्देश्य अपने मुस्लिम समुदाय के पाठकों को यह समझाना भी है कि वह देशकाल की स्थिति को देखकर ही आगे चलें। जहां तक हो सके अपने घर की महिलाओं के प्रति सद्भाव रखें तथा दूसरे के पारिवारिक झगड़ों में पंचायत करने से बचें क्योंकि यह उनके लिये परेशानी का कारण बन सकता है। अब पुराना समय नहीं रहा और न चाहते हुए भी उनको अपनी सोच बदलनी होगी।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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भर्तृहरि नीति शतक-नौकरी करना कठिन काम (serivce a difficult word-hindu adhyatm sandesh)


मौनान्मूकः प्रवचनपटुर्वातुलो जल्प वा धृष्टः पाश्र्वे वसति च सदा दूरश्चाऽप्रगल्भः।
क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशा नाभिजातः सेवाधर्म परमगहनो योगिनामपयगभ्यः।।
हिंदी में भावार्थ-
सेवा करने वाला यदि मौन रहे तो गूंगा, वाक्पट् हो तो बकवादी, समीप रहे तो ढीठ और दूरी बनाकर रखे तो मूर्ख, क्षमाशील हो तो भीरु, असहनशील हो अकुलीन कहा जाता है। यह सेवा धर्म अत्यंत ही कठिन है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-यहां सेवा से आशय गरीबों की सेवा से नहीं बल्कि नौकरी से है। कहते हैं न नौकरी क्यों करी? आधुनिक शिक्षा प्रणाली से शिक्षित अधिकतर युवा नौकरी के लिये इधार फिरते हैं। नौकरी तो नौकरी है चाहे जैसी भी हो-एक तरह से गुलामी है। सच तो यह है कि इसमें स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त ही हो जाता है। यह सही है कि नौकरी करने वाले को वेतन मिलता है पर उसको काम का दबाव और स्वामी या उच्च अधिकारी के व्यवहार का भय घर तक पीछा नहीं छोड़ता। अगर स्वामी या अधिकारी की हां में हां मिलाओ तो वह मूर्ख समझते हैं। अगर कोई सलाह दो तो सही होने पर भी मातहत के सामने हेठी न हो इसलिये अस्वीकार कर दी जाती है। नौकरी करने वाला अपने स्वामी या अधिकारी को रोज झुककर सलाम ठोके तो चमचा कहलाता है और न करे तो मक्कार!
नौकरी करने वाले तो अनेक लोग तो यही कहते हैं कि ‘कितना भी काम करो अपने बोस को खुश नहीं रखा जा सकता’। सच तो यह है कि नौकरी में बंधी बंधायी आय मिलने से खर्च भी वैसे ही हो जाते हैं और उसके खोने का खतरा आदमी को एक तरह गुलाम बना देता है। एक दूसरी बात भी है कि अवकाश के दिनों में आदमी आराम करना चाहता है और उसे घर के अन्य काम बोझ लगते हैं। इस तरह उसकी सामाजिक स्थिति भी अधिक सुदृढ़ नहीं रहती।
इसके विपरीत जो स्वतंत्र व्यवसाय करते है उनका जीवन संघर्षमय होने के कारण उनका दिमाग और देह हमेशा ही सक्रिय रहती है। फिर उनको भविष्य में विकास की संभावना अधिक काम के लिये स्वतः प्रेरित करती है जबकि नौकरी करने वाले के लिये विकास तो छोटी से बड़ी गुलामी में ही है।
एक स्वतंत्र व्यवसायी और नौकरी करने वाले की मासिक आय एक समान भी हो तब भी व्यवसायी अधिक आजादी से सांस ले पाता है। वह आगे चलकर अपने एक रुपये का दो कर सकता है पर नौकरी वाले के लिये यह संभव नहीं है। हालांकि अनेक नौकरी वाले छोटे व्यवसाय करने वालों को हेय समझते हैं पर सच तो यह है कि वह उनके मुकाबले अधिक आजादी से सांस ले पाते हैं। नौकरी में दिल का चैन केवल कहने के लिये है क्योंकि वह तो एक तरह से रोटी का गुलाम हो जाता है। भले ही उपरी कमाई से धन भी अधिक हो जाता है पर इतिहास गवाह रहा है कि अनेक गुलामों ने भी बहुत धन पाया पर कहलाये तो गुलामी ही न!
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चाणक्य संदेश-दूसरे की उन्नति देखकर प्रसन्न होने वाले साधु होते हैं (sadhu svbhav-chankya niti


हस्ती अंकुशमात्रेण वाजी हस्तेन ताडयते।
श्रृङगी लगुडहस्तेन खङगहस्तेन दुर्जनः।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह अंकुश से हाथी तथा चाबुक से घोड़ा, बैल तथा अन्य पशु नियंत्रित किये जाते हैं वैसे ही दुष्ट से निपटने के लिये खड्ग हाथ में लेना ही पड़ता है।
तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा धनगर्जिते।
साधवः परसम्पतिौ खलः परविपत्तिषुः।।
हिंदी में भावार्थ-
विद्वान अच्छा भोजन, मेघों की गर्जना से मोर तथा साधु लोग दूसरों की संपत्ति देखकर प्रसन्न होते हैं वैसे ही दुष्ट लोग दूसरों को संकट में फंसा देखकर हंसते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में भांति भांति प्रकार के लोग हैं। जो ज्ञानी और विद्वान है उनको रहने, खाने,पीने और पहनने के लिये अच्छी सुविधा मिल जाये तो वह संतुष्ट हो जाते हैं। जो सच्चे साधु और सज्जन हैं वह दूसरों की भौतिक उपलब्धियों देखकर प्रसन्न होते हैं क्योंकि उनकी मान्यता होती है कि आसपास के लोग प्रसन्न होंगे तो उनके स्वयं के पास अच्छा वातावरण रहेगा और वह शांति से रह सकेंगे। इसके विपरीत कुछ लोग दुष्ट प्रवृत्ति के भी होते हैं जो स्वयं तो विपत्ति में पड़े रहते हैं पर उनका खेद तब कम हो जाता है जब कोई दूसरा भी विपत्ति मेें पड़ता है। ऐसे लोग अपने दुःख से अधिक दूसरे के सुख से अधिक दुःखी होती हैं। इसके अलावा अपने सुःख से अधिक दूसरे का दुःख उनको अधिक प्रसन्न करता है।
वैसे तो जीवन में हिंसा कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि फिर प्रतिहिंसा का सामना करने पर स्वयं को भी कष्ट उठाना पड़ा सकता है, पर इस संसार में कुछ ऐसे दुष्ट लोग भी हैं जिनको कितना भी समझाया जाये वह दैहिक आक्रमण से बाज नहीं आते। उनसे शांति और अहिंसा की अपील निरर्थक साबित होती है। ऐसे लोगों से मुकाबला करने के लिये अपने अस्त्रों शस्त्रों तथा अन्य साधनों उपयोग करने में कोई झिझक नहीं करना चाहिये। ऐसे लोगों के लिये धर्म और ज्ञान एक निरर्थक वस्तु हैं। देहाभिमान से ग्रस्त ऐसे लोगों के विरुद्ध लड़ना पड़े तो संकोच त्याग देना चाहिए।
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2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप