Tag Archives: दीपक राज कुकरेजा

विकास पर दो हिंदी क्षणिकाएँ


आओ विकास के मसले पर बहस करे,

गड्ढों में सड़क है

अस्पतालों में दवायें नहीं तो क्या

चिकित्सक तो हैं,

बदबूदार है तो क्या

पानी मिलता तो है,

सच्चाई हमेशा कड़वी रहेगी

आओ कुछ देर के लिये

अपनी जुबान से

अपने दिमाग में कुछ सपने भरें।

—————

अंधे हाथी को पकड़कर कर

गलतबयानी करते

तो समझ में आता है,

मगर अब तो आंखें वाले भी

अपने अपने नजरिये से देखने लगे हैं,

दिमाग से नहीं रहा जुबां का रिश्ता

आंखों में तारों की जगह पत्थर लगे है।

————–

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 

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प्रचार की हवस-हिंदी व्यंग्य कविता


कहीं आग लगी है

यकीनन कोई रोटी सेक रहा होगा,

कहीं पानी नदी का

मर्यादा  तोड़कर बाहर आया है,

यकीनन कोई किनारे तोड़ रहा होगा,

कहीं भीड़ के बीच जंग छिड़ी है

यकीनन किसी ने लोगों के बीच

रिश्ता तोड़ा होगा।

कहें दीपक बापू

दर्द देते हैं जो धोखा देकर

वही इलाज का भरोसा देते हैं,

गम पैदा करने का इंतजाम करते है पहले

बांटने के लिये आते है ढोल बजाते हुए

साथ में लश्कर भी लेते हैं,

लोगों की आंखों की किरकिरी

बनने पर आमादा है चालाक सौदागर

कहीं खबर पक रही है

 उनमें से कोई भी

कुछ भी करने के लिए तैयार होते हुए

कैमरों से रिश्ता जोड़ रहा होगा ।

—————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप

ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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इंसान की समझ-हिंदी व्यंग्य कविता


हर रात की तरह आज भी

महफिलों में जाम छलकेंगे,

कुछ लोग मदहोशी में खामोश होंगे,

कुछ अपना मुद्दा उठाकर भड़केंगे,

जाम के पैमाने का हिसाब पीने वाले नहीं रखते

चढ़ गया नशा उनके दिमाग भी बहकेंगे।

कहें दीपक बापू

कमबख्त! शराब चीज क्या है

कोई समझ नहीं पाया,

जिसने नहीं पी वह रहा उदास

जिसने पी वह भी अपने दर्द का

पक्का इलाज नहीं कर पाया,

शराब न खुशी बढ़ाती है,

न गम कभी घटाती है,

छोड़ गयी हमें फिर भी उसके कायल हैं,

अपने घाव कभी नहीं भूलते, ऐसे हम भी घायल हैं,

सच यह है कि शराब का नशा एक भ्रम है,

नशा हो या न हो

इंसान के जज़्बातों के बहने का तय क्रम है,

पीकर कोई अपने नरक में

स्वर्ग के अहसास करे यह संभव है

मगर जिसने नहीं पी

वह भी नरक के अहसास भुला नहीं पाते,

शराब का तो बस नाम है

इंसान अपने जज़्बातों में यूं ही बह जाते,

अपने दर्द का इलाज इंसान क्या करेगा

अपने घाव की समझ नहीं दवा क्या भरेगा,

अलबत्ता, रात में खामोशी बढ़ती जायेगी

बस, पीने वाले ही नशे में नहाकर गरजेंगे।

————–

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

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उदासी का दर्शन-हिंदी व्यंग्य कविता


अपनी घर की छत के नीचे

उदास मन रहता है जिनका

वही खिड़कियों से बाहर

दूसरों के घर में झांकते हैं,

हम ज्यादा दुःखी है या पड़ौसी

दिल ही दिल में आंकते हैं।

कहें दीपक बापू

अपनी अमीरी पर इतराते लोग

एकदम झूठे हैं,

जेब हैं भरी पर दिल टूटे हैं,

पैसा खर्च कर श्रद्धा दिखाते हैं,

दौलतमंद के साथ दरियादिल के रूप में

अपना नाम लिखाते हैं,

अपने बदचलनी पर उनकी सफाई यही होती

हमसे तो बड़ी और बुरी दूसरे की भूल होती,

अपने घर से उकताये लोग

बाहर व्याकुलता फैलते  देखने को तैयार हैं,

दूसरों की खुशी के रस में

गम की बूंद डालने वाले यार हैं,

कभी न की किसी की भलाई

अपने भलमानस की बात खुद ही हांकते हैं

————–

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

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प्रवचन का तमाशा-हिंदी व्यंग्य कविता


 

बंदर दे रहा था धर्म पर प्रवचन

उछलकूद करते हुए तमाशा भी

दिखा रहा था

यह सनसनीखेज खबर है

उसके मुखौटे के पीछे

इंसान का चेहरा है

आंखें देखती हैं पर पहचानती नहीं

कान सुनते है मगर समझ नहीं इतनी

बंदर के बोलों में इंसान का ही स्वर है।

कहें दीपक बापू

ज़माना बंटा है टुकड़ों में

कोई दौलत के नशे में मदहोश है,

कोई गरीबी के दर्द से बेहोश है,

जज़्बात सभी के घायल है,

ख्वाबी अफसानों के फिर भी कायल है

दिल के सौदागरों के अपनी चालाकी से

रोते को हंसाने के लिये

खुश इंसान के दिमाग में प्यास बढ़ाने के लिये

मचाया इस जहान  में विज्ञापनों का  कहर है।

देखते देखते

गांवों की खूबसूरती हो गयी लापता

नहीं रही वहां भी पुरानी अदा

घर घर पहुंच गया बेदर्द शहर है।

—————

 

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बंदर दे रहा था धर्म पर प्रवचन

उछलकूद करते हुए तमाशा भी

दिखा रहा था

यह सनसनीखेज खबर है

उसके मुखौटे के पीछे

इंसान का चेहरा है

आंखें देखती हैं पर पहचानती नहीं

कान सुनते है मगर समझ नहीं इतनी

बंदर के बोलों में इंसान का ही स्वर है।

कहें दीपक बापू

ज़माना बंटा है टुकड़ों में

कोई दौलत के नशे में मदहोश है,

कोई गरीबी के दर्द से बेहोश है,

जज़्बात सभी के घायल है,

ख्वाबी अफसानों के फिर भी कायल है

दिल के सौदागरों के अपनी चालाकी से

रोते को हंसाने के लिये

खुश इंसान के दिमाग में प्यास बढ़ाने के लिये

मचाया इस जहान  में विज्ञापनों का  कहर है।

देखते देखते

गांवों की खूबसूरती हो गयी लापता

नहीं रही वहां भी पुरानी अदा

घर घर पहुंच गया बेदर्द शहर है।

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