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श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान तथा श्रीकृष्ण के प्रति आस्था देश के लिये संजीवनी-हिन्दी लेख shri madbhagwat gita ka gyan aur bhagwan shri krishana ke prati aastha ka sawal-hindi lekh)


        श्रीमद्भागवत पर रूस के एक शहर में प्रतिबंध लगाने का विवाद हमारे देश में फिलहाल तो एक दो दिन चलकर समाप्त हो गया है। ऐसा लगता है कि इस पर सनसनी फैलाकर अधिक समय तक घसीटना शायद समाचार प्रायोजक रणनीतिकारों को अधिक लाभप्रद नहीं लगा होगा। संभव है समाचार माध्यमों में इस विवाद के प्रसारण से विज्ञापन समय अधिक बिताने के दूरगामी दुष्परिणामों को भय भी रहा होगा। आखिर सोवियत संघ कथित रूप से भारत का राजनीतिक मित्र कहा जाता है और भारत में प्रचलित समस्त विचाराधाराओं के शिखर पुरुष कहीं न कहीं मानसिक रूप से उसके प्रभाव में रहते हैं। प्रगतिशील हों या जनवादी या फिर दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी कहीं न कहीं आज भी यह अपेक्षा रखते हैं कि संकट में सोवियत संघ हमारे काम आ सकता है जैसे कि 1973 में पाक युद्ध के दौरान अमेरिकी दखल की संभावना के समय आया था। ऐसे में वहां श्रीमद्भागवत गीता पर प्रतिबंध लगाने जैसा विषय इतना संवेदनशील है कि भारतीय जनमानस में सोवियत संघ की मैत्री वाली छवि खराब हो सकती है इस भय ने विवाद के प्रचार को रोक लिया। वैसे भी बाज़ार तथा प्रचार के शिखर पुरुषों की उस मूल विचाराधारा के विपरीत है जिसके अनुरूप व्यवसायिक पेशेवर बुद्धिजीवियों को चलना होता है।
           हमारा तात्पर्य यही है कि प्रचार माध्यमों में जब कोई बहस होती है तो वह स्पष्टतः प्रायोजित होती है और पक्ष के साथ विपक्ष के तर्क सुनाने के लिये विभिन्न विचारधाराओं के विद्वान जनमानस के समक्ष प्रायोजित रूप से ही प्रस्तुत होते हैं। इसके अलावा आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक संगठनों के प्रवक्ता इस बात का ध्यान रखते हैं कि जब किसी देश पर टिप्पणी करते समय उसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि अवश्य देखी जाये।
इस विवाद का संबंध धर्म की दृष्टि से प्रचारित हुआ। देखा जाये तो इसका अध्यात्मिक दर्शन से कोई संबंध नहीं है। हम जैसे चिंतक लोग अध्यात्म और धर्म का स्पष्ट रूप से विभाजन करते हैं। धर्म की बात करते समय केवल बाह्य पक्ष देखा जाता है जबकि अध्यात्म चर्चा करते हुए आंतरिक तत्व को भुलाना एक तरह से अज्ञानता है। जब हम कहते हैं कि ‘हम श्रीगीता का अपमान नहीं सहेंगे’, ‘भगवान श्रीकृष्ण का अपमान नहीं सहेंगे’, या ‘हिन्दू धर्म का अपमान नहीं होने देंगे’, तब स्पष्टतः हम बहिर्मुखी होते हैं। अंतर्मन की दृष्टि एकदम बंद हो जाती है।
            ऐसे में ज्ञानी खामोश रहते हैं। उनको पता है कि जिस गीता या श्रीकृष्ण को हम अपमानित अनुभव कर रहे हैं वह दरअसल एक भ्रम है। उसी श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह भक्त ज्ञानी है जो मान अपमान से परे है। हम एक बात तो यह पूछेंगे कि क्या तत्वज्ञान को अपमानित किया जा सकता है? दूसरी बात यह है कि हमने यह सोच कैसे लिया है कि हमारे श्रद्धेय श्रीकृष्ण तथा आदर्श श्रीमद्भागवत गीता का अपमान करने की किसी की औकात भी है? हम अपने ज्ञान की शक्ति को क्या नहीं जानते कि एक शहर या एक देश में प्रतिबंध लगने से आर्तनाद करने लगते हैं। इतना आर्तनाद कि हम प्रदर्शन कर भगवान श्रीकृष्ण और श्रीमद्भागवत गीता के लिये एक देश से याचना करने लगे। यह प्रदर्शन अपने देश में कर हम भले ही अपने आपको शक्तिशाली अनुभव करें पर सच यह है कि कहीं न कहीं हम सम्मान के याचक बन गये थे और ज्ञान कभी किसी को इस स्थिति में नहीं पहुंचाता। 
सम्मान और अपमान को बोझ उठाते योगी 
             इस विवाद में एक बहुत मज़ेदार घटना सामने आयी। भारत के एक बहुत बड़े धार्मिक गुरु हैं जिनको योग और ध्यान की शिक्षा के लिये बहुत ख्याति मिली है उन्होंने जनसमर्थन पाने के लिये यहां तक कह डाला कि ‘अगर रूस में श्रमद्भागवत गीता पर प्रतिबंध लगा तो मैं वहां से मिले दो सम्मान वापस कर दूंगा।’
ज्ञान के अहंकार की यह चरम परकाष्ठा है। योग और ध्यान करने वाले ज्ञानी ऐसे सम्मानों और अपमानो का बोझ नहीं ढोते। उनके बयान का सीधा मतलब यही था कि वह रूस में मिले सम्मानों का बोझ अभी तक ढो रहे हैं और अगर श्रीमद्भागवत गीता पर प्रतिबंध लगता है तो अपमान का बदला अपमान से लेंगे। इस तरह वह व्यवसायिक गुरु अपने शिष्यों के साथ ही आम जनमानस में एक धर्मभीरु होने के साथ स्वयं चेतनावान होने का जो संकेत भेज रहे थे वह श्रीमद्भागवत गीता के साधकों के लिये हास्यास्पद था। सच कहें तो प्रातः योगसाधना करने वालों के लिये हास्यासन करने के लिये यह एक रोचक विषय हो सकता है।
           देश के अनेक शहरों में प्रदर्शन हुए! दूरदर्शन पर अनेक गेरुऐ वस्त्र पहले साधु संत पेशेवर चर्चाकारों से जूझने के लिये आये। श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान दोहराया गया। समझ में नहीं आ रहा था कि संकट अगर कहां है-सोवियत संघ में कि भारत में। ऐसा लगता है कि हमारे देश के प्रचारकों के पास सनसनी फैलाने के लिये विषयों की कमी है या फिर वह केवल लोगों को आवेश में लाकर ही सफलता प्राप्त करने का मंत्र जानते हैं। ऐसे में धर्म अधिक अच्छे ढंग से काम कर सकता है। हमारे देश के लोग भी ऐसे हैं कि भले ही धर्म की पुस्तकों को न पढ़ते हों पर उसके सम्मान की बात करते हुए अत्यंत प्रसन्न होते हैं। अगर कोई विदेशी जोड़ा भारतीय पद्धति से विवाह करता है कि उसके खूब प्रचार मिलता है। ऐसे में समाचार माध्यम तो जानकारी देने से अधिक मनोरंजन करने में लगे हैं। जहां तक भगवान श्रीकृष्ण के प्रति श्रद्धा और श्रीमद्भागवत गीता के तत्वज्ञान के महत्व का प्रश्न है ज्ञानी लोग जानते हैं कि वह अक्षुण्ण रहना है।
                  इस विषय पर दीपक भारतदीप का चिंत्तन ब्लाग पर लिखा गया लेख अवश्य पढ़ें।
समाचार तो यह है कि श्रीमद्भागवत गीता पर प्रतिबंध लगाने के लिये रूस के एक शहर में की अदालत में याचिका दायर की गयी है। यहां इस समाचार को लेकर गीता के विषय में संशय उठ रहे हैं। जिस तरह भगवान श्रीराम के विभिन्न रूप हैं उसी तरह श्रीगीता ने भी अपने भक्तों के अनुरूप धारण कर लिये हैं। भगवान श्रीराम के स्वरूप का प्रश्न है तो अनेक प्रचलित हैं-बाल्मीकी के राम, दशरथ पुत्र राम, कौशल्या के राम, तुलसी के राम-उनमें सबसे श्रेष्ठ रूप माना गया है घट घट में बसे राम! महाभारत युद्ध के समय श्रीकृष्ण ने अपने सखा अर्जुन को जो तत्वज्ञान दिया था वह श्रीमद्भागतगीता के रूप में स्मरण किया जाता है। मूलतः यह वेदव्यास रचित महाभारत ग्रंथ का एक महत्वपूर्ण भाग है। अगर कहें अगर श्रीमद्भागत गीता वाला अंश नहीं होता तो शायद ही कोई महाभारत काल को याद करता। यह भी संभव है कि अगर यह अंश न होता तो भगवान श्रीकृष्ण ने भी वह प्रतिष्ठा अर्जित नहीं की होती जो आज तक अक्षुण्ण बनी हुई है। हम इससे भी आगे जाकर यह कहें कि आज हमारे देश की विश्व में अध्यात्म गुरु की जो छवि है वह श्रीमद्भागवत गीता के कारण ही है तो गलत न होगा। गीता के तत्वज्ञान के रूप में कोई बदलाव नहीं आया पर जिन भगवत्भक्तों ने इसकी साधना से कृपा पायी उन्होंने अपना जीवन इसके प्रचार में इस सीमा तक समर्पित कर दिया कि उनके शब्दों के संचय समूह भी गीतातुल्य सम्मानीय बन गये। उनके साथ उन महापुरुषों के नाम भी जुड़े। ऐसे में अनेक महापुरुषों के नाम से गीता का नाम जुड़ा है। उन महापुरुषों के शब्द संचय समूहों में श्रीमद्भागवत गीता शीर्षक सर्वोपरि है पर उपशीर्षक में कहीं न कहीं उनके स्वयं या आश्रम के नाम जुड़े हुए हैं। नहीं भी जुड़े हैं तो प्रतीक चिन्ह उनकी प्रथक गीता होने की पहचान देते हैं।
               दस बरस पूर्व जब हमें योगसाधक के रूप में ज्ञान पाने की जिज्ञासा जागी तो हमने गोरखपुर प्रेस की अपने घर में रखी श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन प्रारंभ किया। उसमें हर पाठ के साथ उसके अध्ययन की महत्ता तथा पुण्य का प्रभाव भी प्रकाशित था। हम तो श्रद्धा के साथ पढ़ते थे। एक दिन हमें एक ब्राह्मण मित्र मिला। वह हमारी तरह ही साहित्यक रुचि वाला है। अध्यात्म में उसकी रुचि शायद इतनी नहंी है पर पारिवारिक पृष्ठभूमि के नाते उसका ज्ञान की कमी भीनहीं थी। उसे हमने अपनी गीता साधना की चर्चा की तो उसने हमसे कहा‘भाई साहब, आप श्रीमद्भागवत गीता का वही प्रकाशन पढ़ें जिसमें केवल श्लोकों के अनुवाद हों कि साथ में महात्म्य हो। उसमें उसके अध्ययन का महत्व आदि नहीं बताया गया हो। तभी आप समझ पायेंगे वरना आप दूसरी तरह की कहानियों में अपनी ऊर्जा नष्ट करेंगें।’’
            हम हैरान रह गये। बात यह थी कि हम महत्त्ता बताने वाली जिन कहानियों को साथ में पढ़ रहे थे उसमें कोई एक भी पाठ नहीं था जिसमें ब्राह्मण पात्र न हो। ऐसे में उस मित्र की बात थोड़ी चौंकाने वाली लगी मगर जब हमने नयी श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करना प्रारंभ किया तो लगा कि वास्तव में मित्र के हृदय से यह बात भगवत्कृपा की उपज थी। उस दिन हमने अपने मित्र से जब इस बात की चर्चा करते हुए श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों की वर्तमान संदर्भ में व्याख्यान प्रस्तुत किया तो उसने जो कहा वह लिखना अपने मुंह मियां मिट्ठु बनना होगा।
              नियमित योग क्रिया से निवृत होने के बाद गीता की साधना करना हमारे दिन का सबसे स्वर्णिम समय होता है। अब यहां हम श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों की चर्चा करने नहीं जा रहे पर जो लिख रहे हैं वह कहीं न कहीं उनसे प्रभावित है।
           इस्कॉन नाम की एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था है जो भगवान श्रीकृष्ण के संदेशों का प्रचार करती है। उसके आश्रमों में हमारा जाना हुआ है। हम उनमें कोई दोष नहीं देखते। देखने वाले देखते भी हैं। हम देखते हैं सुनते हैं पर लिप्त नहीं होते। सुना देख और भूल गये। उनके संस्थान से प्रकाशित श्रीमद्भागवत का एक संस्करण हमारे पास भी है। इसका अनुवाद विश्व के अनेक भाषाओं के इसलिये हुआ है क्योंकि इस्कॉन ने अनेक देशों में अपना स्थान बनाया है। वैसे भगवान श्रीकृष्ण, भगवान श्रीराम तथा भगवान शिवजी के अनेक भक्तों ने विश्व में उनका प्रचार किया है पर संगठित रूप से यह काम इस्कॉन ने किया है उतना शायद ही कोई कर सका हो। अनेक भारतीय संतों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है पर इससे भारतीय अध्यात्म का प्रचार कम उनकी छवि अधिक बनी है। इस्कॉन की जो कार्यशैली हमने देखी है उसमें दोष हम नहीं देखते पर इतना तय है कि श्रीमद्भागवत गीता के प्रचार में उनकी भूमिका हो सकती है वह उसमें वर्णित तत्वज्ञान के दर्शन उसमें नहीं होते। इस्कॉन के संस्थापक स्वामी प्रभुपाद की कृपा से श्रीमद्भागवत यथारूप प्रस्तुत की गयी है पर उसमें व्याख्या ज्यादा है। हमने नहीं पढ़ी पर उसमें कुछ आपत्तिजनक हो सकता है इस पर यकीन नहीं है। अनुवाद करने या पढ़ने वालों की समझ का फेर हो सकता है। इस फेर में कोई नाराज हो गया तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। जब आत्मा जीवन धारण करता है तो वह सत्य लगता है पर होता तो झूठ है। देहधारी जीव विवादास्पद हो जाते हैं पर आत्मा निर्विवाद है।  यही स्थिति तत्वज्ञान की है। वह सूक्ष्म है जब उसे व्याख्या देकर व्यापक बनाया जाता है तो वह देहधारी जीव की तरह विवादस्पद हो जाता है। यह समझ का फेर अपने देश में ही बहुत सारे गीता सिद्धों को भी है कि श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान अत्यंत गूढ़ है जबकि एक बार अगर श्रीमद्भागवत हृदय में आत्मसात होना प्रारंभ हो तो एक जीवन के प्रति स्वयमेव दृष्टिकोण अन्य लोगों से प्रथक हो जाता है। यह अलग बात है कि कथित गीता सिद्ध इसे रहस्यमय कहकर स्वयं को ज्ञानी साबित करते हैं जैसे उनको समझ में सब कुछ आ गया है। कुछ लोग इस बात से नाराज हो सकते हैं कि मगर गीता सिद्ध अपना ज्ञान दिखाने उन लोगों के पास नहीं जाते जिनकी उसमें रुचि नहीं है। न ही सार्वजनिक रूप से श्रीमद्भागवत गीता पर प्रवचन करते हैं। गीता सिद्ध संगठन बनाकर नहीं चलते क्योंकि वह हंस होते हैं। संगठन तो कौए बनाकर चलते हैं।
               अब तो प्रश्न हैं एक तो क्या इस्कॉन की श्रीमद्भागवत पर प्रतिबंध लगाने की बात है या मूल रूप से गोरखपुर प्रेस जैसे प्रकाशन से जुड़ी श्रीमद्भागवत गीता को भी उसमें शामिल किया गया है। उससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि क्या श्रीमद्भागवत गीता के शब्द उच्चारण पर ही प्रतिबंध लगाने का विचार हो रहा है या उसके श्लोकों के स्थानीय भाषा में अनुवाद पर भी रोक लगेगी। एक रूसी नेता ने भारत में इस विषय पर हो रहे प्रदर्शन पर कहा कि श्रीमद्भागवत गीता का प्रवेश हमारे देश में दो सौ वर्ष पहले ही हो गया था। इससे तो लगता है कि रूस में इसके इतने अनुवाद हो चुके होंगे कि उनको रोकना संभव नहीं होगा।
         जिस तरह का इसमें तत्वज्ञान है और आधुनिक विज्ञान उसके सामने फीका है उसे देखकर तो यह लगता है कि इसका प्रचार वहां स्वयमेव बढ़ेगा। इस विवाद की भारत में चर्चा करने का मतलब इसलिये भी नहीं है क्योंकि यह तत्वज्ञान है इसे कोई नहीं बदल सकता। जहां तक हम जैसे आम गीता साधकों की भावनाओं के आहत होने का प्रश्न है तो यह एक भुलावा है। यह प्रचार माध्यमों के लिये समय पास करने के लिये अच्छा विषय बन गया है।
           हमारा मानना है कि श्रीमद्भावगत गीता में मनोरंजन नहीं है। जिसकी रुचि नहीं है उसे अहंकारवश गीता का ज्ञान देना भी तामस बुद्धि का परिचायक है। जिसकी भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति नहीं है उसके सामने तो इसका नाम लेना भी निरर्थक है। अगर कोई यह सोचकर कि श्रीमद्भागवत गीता से ज्ञान मिल जाये ताकि लोगों के सामने अपने ज्ञानवान होने का प्रदर्शन करूं और वह इसे पढ़ने लगे तो जल्दी बोर हो जायेगा। संभव है कि वह अर्थ रटकर उसे सुनाने लगे पर इसका आशय यह कतई नहीं कि वह ज्ञानी है। सच्चे गीता साधक श्रीमद्भागवत गीता शब्द सुनकर न तो भावविभोर होते हैं न उसकी निंदा सुनकर विचलित होते हैं। उनके लिये यह विवाद एक हल्की मुस्कराहट लाने से अधिक प्रभाव नहीं रखता। मान अपमान से परे होने के गुण का महत्व आखिरी श्रीगीता में ही बताया गया है। ऐसी श्रीमद्भागवत गीता और उसके सृजनकर्ता भगवान श्रीकृष्ण का कोई अपमान भी कर सकता है या किसी में इतनी औकात है यह गीता सिद्ध नहीं मानते। ऐसा करने वालों का जो हश्र होगा उसकी कल्पना वही कर सकते हैं जो तत्वज्ञानी हैं।
वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
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नेपाल की उठापठक और हिंदुत्व-हिंदी लेख


नेपाल कभी हिन्दू राष्ट्र था जिसे अब धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया है। वहां की निवासिनी और भारतीय हिन्दी फिल्मों की अभिनेत्री मनीक्षा कोइराला ने अब जाकर इसकी आलोचना की है। उनका मानना है कि नेपाल को एक हिन्दू राष्ट्र ही होना चाहिए था। दरअसल नेपाल की यह स्थिति इसलिये बनी क्योंकि वह राजशाही का पतन हो गया। वहां के राजा को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता था या हम कहें कि उनको ऐसी प्रतिष्ठा दी जाती थी। दूसरी बात यह है कि नेपाल के हिन्दू राष्ट्र के पतन को एक व्यापक रूप में देखा जाना चाहिए न कि इसके केवल सैद्धान्तिक स्वरूप पर नारे लगाकर भ्रम फैलाना चाहिये। इसलिये यह जरूरी है कि हम हिन्दुत्व की मूल अवधारणाओं को समझें।
वैसे हिन्दुत्व कोई विचाराधारा नहीं है और न ही यह कोई नारा है। अगर हम थोड़ा विस्तार से देखें तो हिन्दुत्व दूसरे रूप में प्राकृतिक रूप से मनुष्य को जीने की शिक्षा देने वाला एक समग्र दर्शन है। अंग्रेजों और मुगलों ने इसी हिन्दुत्व को कुचलते हुए भारतवर्ष में राज्य किया किया। अनेक डकैत और खलासी यहां आकर राजा या बादशाह बन गये। अंग्रेजों ने तो अपनी ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया जिससे कि यहां का आदमी उनके जाने के बाद भी उनकी गुलामी कर रहा है। देश के शिक्षित युवक युवतियां इस बात के लिये बेताब रहते हैं कि कब उनको अवसर मिले और अमेरिका या ब्रिटेन में जाकर वहां के निवासियों की गुलामी का अवसर मिले।
मुगलों और अंग्रेजों ने यहां के उच्च वर्ग में शासक बनने की ऐसी प्रवृत्ति जगा दी है कि वह गुलामी को ही शासन समझने लगे हैं। अक्सर समाचार पत्र पत्रिकाओं में ऐसी खबरे आती हैं कि अमुक भारतवंशी को नोबल मिला या अमुक को अमेरिका का यह पुरस्कार मिला। अमुक व्यक्ति अमेरिका की वैज्ञानिक संस्था में यह काम कर रहा है-ऐसी उपलब्धियों को यहां प्रचार कर यह साबित किया जाता है कि यहां एक तरह से नकारा और अज्ञानी लोग रहते हैं। सीधी भाषा में बात कहें तो कि अगर आप बाहर अपनी सिद्धि दिखायें तभी यहां आपको सिद्ध माना जायेगा। उससे भी बड़ी बात यह है कि आप अंग्रेजी में लिख या बोलकर विदेशियों को प्रभावित करें तभी आपकी योग्यता की प्रमाणिकता यहां स्वीकार की जायेगी। नतीजा यह है कि यहां का हर प्रतिभाशाली आदमी यह सोचकर विदेश का मुंह ताकता है कि वहां के प्रमाणपत्र के बिना अपने देश में नाम और नामा तो मिल ही नहीं सकता।
मुगलों ने यहां के लोगों की सोच को कुंद किया तो अंग्रेज अक्ल ही उठाकर ले गये। परिणाम यह हुआ कि समाज का मार्ग दर्शन करने का जिम्मा ढोने वाला बौद्धिक वर्ग विदेशी विचाराधाराओं के आधार पर यहां पहले अपना आधार बनाकर फिर समाज को समझाना चाहता है। कहने को विदेशी विचारधाराओं की भी ढेर सारी किताबें हैं पर मनुष्य को एकदम बेवकूफ मानकर लिखी गयी हैं। उनके रचयिताओं की नज़र में मनुष्य को सभ्य जीवन बिताने के लिये ऐसे ही सिखाने की जरूरत है जैसे पालतु कुत्ते या बिल्ली को मालिक सिखाता है। मनुष्य में मनुष्य होने के कारण कुछ गुण स्वाभाविक रूप से होते हैं और उसे अनेक बातें सिखाने की जरूरत नहीं है। जैसे कि अहिंसा, परोपकार, प्रेम तथा चिंतन करना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियां हैं। कोई भी मनुष्य मुट्ठी भींचकर अधिक देर तक नहीं बैठ सकता। उसे वह खोलनी ही पड़ती हैं।
चार साल का बच्चा घर के बाहर खड़ा है। कोई पथिक उससे पीने के लिये पानी मांगता है। वह बिना किसी सोच के उसे अपने घर के अंदर से पानी लाकर देता है। उस बच्चे ने न तो को पवित्र पुस्तक पढ़ी है और न ही उसे किसी ने सिखाया है कि ‘प्यासे को पानी पिलाना चाहिये’ फिर भी वह करता है। कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य अपनी सहज प्रवृत्तियों की वजह से सज्जन तो रहता ही है पर समाज का एक वर्ग उसकी जेब से पैसा निकालने या उससे सस्ता श्रम कराने के लिये उसे असहज बनाने का हर समय प्रयास करता है। विदेशी विचारधाराओं तथा बाजार से मनुष्य को काल्पनिक स्वप्न तथा सुख दिखकार उसे असहज बनाने का हमारे देश के लोगों ने ही किया है। इन्ही विचाराधाराओं में एक है साम्यवाद।
इसी साम्यवादी की प्रतिलिपि है समाजवाद। इनकी छत्रछाया में ही बुद्धिजीवियों के भी दो वर्ग बने हैं-जनवादी तथा प्रगतिशील। नेपाल को साम्यवादियों ने अपने लपेटे में लिया और उसका हिन्दुत्व का स्वरूप नष्ट कर दिया। सारी दुनियां को सुखी बनाने का ख्वाब दिखाने वाली साम्यवादी और समाजवादी विचारधाराओं में मूल में क्या है, इस पर अधिक लिखना बेकार है पर इनकी राह पर चले समाज सेवकों और बुद्धिजीवियों ने अपने अलावा किसी को खुश रखने का प्रयास नहीं किया। सारी दुनियां में एक जैसे लोग हो कैसे सकते हैं जब प्रकृत्ति ने उनको एक जैसा नहीं बनाया जबकि कथित विकासवादी बुद्धिजीवी ऐसे ही सपने बेचते हैं।
अब बात करें हम हिन्दुत्व की। हिन्दुत्व वादी समाज सेवक और बुद्धिजीवी भी बातें खूब करते हैं पर उनकी कार्य और विचार शैली जनवादियों और प्रगतिशीलों से उधार ली गयी लगती है। हिन्दुत्व को विचाराधारा बताते हुए वह भी उनकी तरह नारे गढ़ने लगते हैं। नेपाल में हिन्दुत्व के पतन के लिये साम्यवाद या जनवाद पर दोषारोपण करने के पहले इस बात भी विचार करना चाहिये कि वहां के हिन्दू समाज की बहुलता होते हुए भी ऐसा क्यों हुआ?
हिन्दुत्व एक प्राकृतिक विचाराधारा है। हिन्दू दर्शन समाज के हर वर्ग को अपनी जिम्मेदारी बताता है। सबसे अधिक जिम्मेदारी श्रेष्ठ वर्ग पर आती है। यह जिम्मेदारी उसे उठाना भी चाहिए क्योंकि समाज की सुरक्षा से ही उसकी सुरक्षा अधिक होती है। इसके लिये यह जरूरी है कि वह योग्य बुद्धिजीवियों को संरक्षण देने के साथ ही गरीब और मजदूर वर्ग का पालन करे। यही कारण है कि हमारे यहां दान को महत्व दिया गया है। श्रीमद्भागवत गीता में अकुशल श्रम को हेय समझना तामस बुद्धि का प्रमाण माना गया है।
मगर हुआ क्या? हिन्दू समाज के शिखर पुरुषों ने विदेशियों की संगत करते हुए मान लिया कि समाज कल्याण तो केवल राज्य का विषय है। यहीं से शुरु होती है हिन्दुत्व के पतन की कहानी जिसका नेपाल एक प्रतीक बना। आर्थिक शिखर पुरुषों ने अपना पूरा ध्यान धन संचय पर केंद्रित किया फिर अपनी सुरक्षा के लिये अपराधियों का भी महिमा मंडन किया। भारत के अनेक अपराधी नेपाल के रास्ते अपना काम चलाते रहे। वहां गैर हिन्दुओं ने मध्य एशिया के देशों के सहारे अपना शक्ति बढ़ा ली। फिर चीन उनका संरक्षक बना। यहां एक बात याद रखने लायक है कि अनेक अमेरिकी मानते हैं कि चीन के विकास में अपराध से कमाये पैसे का बड़ा योगदान है।
भारत के शिखर पुरुष अगर नेपाल पर ध्यान देते तो शायद ऐसा नहीं होता पर जिस तरह अपने देश में भी अपराधियों का महिमामंडन देखा जाता है उससे देखते हुए यह आशा करना ही बेकार है। सबसे बड़ी बात यह है कि नेपाल की आम जनता ने ही आखिर ऐसी बेरुखी क्यों दिखाई? तय बात है कि हिन्दुत्व की विचारधारा मानने वालों से उसको कोई आसरा नही मिला होगा। नेपाल और भारत के हिन्दुत्ववादी आर्थिक शिखर पुरुष दोनों ही देशों के समाजों को विचारधारा के अनुसार चलाते तो शायद ऐसा नहीं होता। हिन्दुत्व एक विचाराधारा नहीं है बल्कि एक दर्शन है। उसके अनुसार धनी, बुद्धिमान और शक्तिशाली वर्ग के लोगों को प्रत्यक्ष रूप से निम्न वर्ग का संरक्षण करना चाहिये। कुशल और अकुशल श्रम को समान दृष्टि से देखना चाहिये पर पाश्चात्य सभ्यता को ओढ़ चुका समाज यह नहीं समझता। यहां तो सभी अंग्रेजों जैसे साहब बनना चाहते हैं। जो गरीब या मजदूर तबका है उसे तो कीड़े मकौड़ों की तरह समझा जाता है। इस बात को भुला दिया गया है कि धर्म की रक्षा यही गरीब और मजदूर वर्ग अपने खून और पसीने से लड़कर समाज रक्षा करता है।
हमारे देश में कई ऐसे संगठन हैं जो हिन्दुत्व की विचारधारा अपनाते हुए अब गरीबों और मजदूरों के संरक्षण कर रहे हैं। उनको चाहिये कि वह अपने कार्य का विस्तार करें और भारत से बाहर भी अपनी भूमिका निभायें पर वह केवल नारे लगाने तक नहीं रहना चाहिये। इन हिन्दू संगठनों को परिणामों में शीघ्रता की आशा न करते हुए दूरदृष्टि से अपने कार्यक्रम बनाना चाहिये।
नेपाल का हिन्दू राष्ट्र न रहना इतनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी परेशानी इस बात पर होने वाली है कि वह एक अप्राकृतिक विचाराधारा की तरफ बढ़ गया है जो वहां की संस्कृति और धर्म के वैसे ही नष्ट कर डालेगी जैसे कि चीन में किया है। भारत और नेपाल के आपस में जैसे घनिष्ट संबंध हैं उसे देखते हुए यहां के आर्थिक, सामाजिक तथा बौद्धिक शिखर पुरुषों को उस पर ध्यान देना चाहिये।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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राम मिथक हैं तो यहाँ सत्य कौन है


राम अगर मिथक हैं तो यहाँ सत्य कौन है? शायद इस बात का उत्तर वह लोग भी नहीं दे सकते जो राम को मिथक मानते हुए भी उन्हें मानने को तैयार हैं। एक तरफ वह लोग हैं जो कहते हैं कि राम एक कल्पना हैं दूसरी तरफ वह हैं जो उनके आस्तित्त्व को सत्य मानते हैं। इन दोनों के बीच वह लोग भी जो कहते हैं कि अगर वह मिथक भी हैं तो हम उन्हें मानेंगे-क्योंकि उन्हें लगता है कि भगवान श्री राम के अस्तित्व का कोई वैज्ञानिक प्रमाण जुटाना तो कठिन है पर राम को काल्पनिक बताने वालों का सामना कराने के लिए यही एक तर्क है।

मैं प्रतिदिन इस विषय पर चल रही बहस को देख रहा हूँ, और तब मुझे आश्चर्य होता है कि राम को हृदय नायक मानने वालों द्वारा देश में राम के विषय में सही ढंग से तर्क प्रस्तुत नहीं किये जा रहे है-भावावेश में आकर अपनी प्रतिक्रिया देने से नकारात्मक सोच वालों को संतुष्ट नहीं किया जा सकता है. हमारे अध्यात्म में इतना गूढ़ ज्ञान है की हम किसी भी ऐसे तर्क का उत्तर दे सकते हैं जिसका प्रतिकार कोई नहीं कर सकता, जो मैंने यह प्रश्न किया है कि राम अगर मिथक है तो सत्य कौन हैं तो इसके पीछे मेरा ध्येय केवल यही है कि मैं जिस धर्म को मानता हूँ और जिस तरह समझ पाया हूँ उसे लेकर अपनी बात कह सकूं। प्रश्न का जवाब भी मैं देता हूँ कि हम राम के अस्तित्त्व का प्रमाण किसे दें? जो माँग रहे हैं पहले वह यह तो साबित करें कि वह स्वयं मिथक या कल्पना नहीं हैं? चक्कर में डाल देने वाली इस बात में कोई चुनौती नहीं है बल्कि सीधा विज्ञान हैं जो हमारे धर्म ग्रंथों में मौजूद हैं। मैं यह दावा नहीं करता कि मैं सही हूँ और मुझे अपनी गलती मानने में कोई झिझक भी नहीं है।

पहले तो यह जानना जरूरी हैं कि हम क्या हैं? इस शरीर को लेकर हम यह कहते हैं ‘हम हैं’। पर आंखों का काम है देखना वह देखती हैं, कानों का काम सुनना है वह सुनते और नाक का काम हैं सांस लेना और सूंघना वह भी करती है। मुख से भोजन को ग्रहण करने से लेकर उसके कचडे में परिवर्तित होकर देह से निष्कासन तक सारा काम शरीर में मौजूद इन्द्रियां करती हैं, अत: एक बात तो रही कि हम यह इन्द्रियां नहीं हैं। पांच तत्वों से बने इस शरीर में ‘मन, बुद्धि और अहंकार’ यह तीन प्रकार की प्रकृतियां होती हैं जिनके सहारे इस धरती पर समस्त देहधारी जीव अपने साथ मौजूद इन्द्रियों के समूह को लेकर विचरण करते हैं। मतलब एक चक्र है जो घूम रहा है और कहते हैं कि इसे हम घुमा रहे हैं। पंच तत्वों के समूह में स्थापित होने के बाद तीनों प्रकृतियां उस पर शासन करती हैं। मैं तो नहीं ढूँढ पाया कि हम कौन हैं पर रामजी के अस्तित्व पर सवाल उठाने वाला पहले इन सब से अलग होकर देख ले तो अपने आप जवाब मिल जाएगा कि राम मिथक थे या सत्य ।

इस धरती पर कुछ भी स्थिर नहीं है, सारा जगत चलायमान है इसलिये इसे मिथ्या और माया के स्वरूप भी कहा जाता है क्योंकि जो हम अपने को समझ रहे हैं वह हैं नहीं और जो हैं उसे जानते नहीं। चलते। फिरते और उठते-बैठते बस यही अहसास कि हम कर रहे हैं पर कर तो रहे हैं पर कर रही है यह देह अपने अन्दर मौजूद इन्द्रियों और प्रकृतियों की सहायता से वह भी उनके वशीभूत होकर। अब पलट कर हम सवाल करेंगे कि पूछ कौन रहा है और जवाब कौन दे?

अब रहा भौतिक प्रमाणों का सवाल। यह धरती कई करोड़ वर्ष से अस्तित्त्व में हैं इसके स्वरूप में परिवर्तन आते रहे हैं। हम ज्यादा दूर क्यों जाएँ अपने ही देश में देख ले ऐसे ढ़ेर सारे महल आज भी दिख जाते हैं जिनमें बैठे राजाओं ने अपने राज्य पर शासन किया और आज वह खँडहर हो गए। जिस समय वहाँ राजा रहते थे और वहाँ परिंदा भी नहीं आ सकता था वहां आज श्वान, गाय और भैसों का भी विचरण आसान हो गया है-और ऐसे महल पचास से पांच सो वर्ष से ज्यादा पुराने भी नहीं होंगे। आशय यह है कि इस धरती के स्वरूप में परिवर्तन आते हैं और मोहन-जोडदो और हडप्पा सभ्यता के अवशेषों से पता चलता है कि विकसित सभ्यता तब भी थी। अब कोई लोग अगर रामजी के होने के अस्तित्व के लिए भौतिक प्रमाण मांग रहे हैं तो उसे अज्ञानता के अलावा और क्या कहा जा सकता है? आखिर में यह बात कहना चाहता हूँ की हम देह या भौतिकता को महत्व नहीं देते इसलिए ही तो हमारे देश में शव को जला देने की प्रथा है ताकि पंचतत्वों से बने शरीर को लेकर कोई अंधविश्वास निमित न हो. यह भौतिक देह नश्वर है पर इसमें विचरने वाली आत्मा अमर है इसी शाश्वत सत्य पर आधारित है हमारा आध्यात्म.

संत कबीर वाणी:भक्त में अहंकार नहीं होता



जब लग नाता जाति का, तब लग भक्ति न होय
नाता तोड़े गुरू भजै, भक्त कहावै सोय

कविवर कबीर दास जी कहते हैं कि जाति-पांति का अभिमान है तब तक भक्ति नहीं हो सकती। अहंकार और मोह को त्यागा कर, सभी नाते-रिश्तों को तोड़कर भक्ति करो तभी भक्त कहला सकते हो।

भक्ति बिना नहिं निस्तरै, लाख कराइ जो कोय
शबद हृँ सनेही रहै, घर को पहुंचे सोय

भक्ति के बिना उद्धार नहीं हो सकता, चाहे लाख प्रयत्न करो, वे सब व्यर्थ ही सिद्ध होंगे, जो केवल सदगुरु के प्रेमी हृँ, उनके सत्य-ज्ञान का आचरण करने वाले हैं वही अपने उद्देश्य को पा सकते हैं, अन्य कोई नहीं।