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हिन्दी ब्लाग जगत बनेगा देश में नये विचारों का केंद्र-हिन्दी लेख (hindi blog is new center of thinking-hindi lekh)


अंतर्जाल पर हिन्दी भाषा में लिख रहे लेखकों को अभी इसका अनुमान नहीं है कि संगठित प्रचार माध्यम-टीवी, रेडियो और समाचार पत्र पत्रिकाऐं-उनके ब्लाग पर नज़र रख रहे हैं। कुछ ब्लाग लेखक लिखते हैं कि इंटरनेट पर लिखने से समाज में कोई बड़ा वैचारिक बदलाव नहीं आने वाला तो उनकी स्थिति दो प्रकार की ही हो सकती है। एक तो यह कि वह अपने पाठों में कोई वैचारिक बात नहीं रखते और दूसरी यह कि रखते हैं तो उनके मौलिक न होने का अहसास स्वयं को है।
एक बड़े पत्रकार के व्यंग्य पर हिल जाने वाले हिन्दी ब्लाग जगत को अगर किसी बात की जरूरत है तो वह है आत्मविश्वास। प्रसंग वश यह लेख भी एक ऐसे ही टीवी और अखबार पत्रकार के लेख पर ही आधारित है जिसमें वह कुछ निष्पक्ष दिखने का प्रयास कर रहे थे। वह मान रहे थे कि केवल दो विचारधाराओं के मध्य ही प्रसारण माध्यमों में कार्यक्रम और समाचार पत्र पत्रिकाओं में आलेख होते हैं। उनका यह भी था कि जब हम कहीं बहस करते हैं तो एक तरफ राष्ट्रवादी तो दूसरी तरफ समतावादी विद्वानों को ही बुलाते हैं जो अपनी धुरी से इतर कुछ नहीं सोचते न बोलते। कहने का अभिप्राय यह है कि वह उस सत्य को स्वीकार कर रहे थे जिसे स्वतंत्र और मौलिक ब्लाग लेखक लिखते आ रहे हैं।
यहां यह भी उल्लेख करें कि वह पत्रकार स्वयं ही राष्ट्रवादियों पर सांप्रदायिक होने का ठप्पा लगाकर अपने को समतावादी बताते रहें तो राष्ट्रवादियों ने भी उनको अपने धुरविरोधियों की सूची में शामिल कर रखा है। इतने बरसों से प्रचार माध्यमों में सक्रिय विद्वान की अभिव्यक्त्ति अपनी ही थी पर विचारों का स्त्रोत हिन्दी ब्लाग जगत का दिखा जहां यह बातें लिखी गयी हैं। कहने को तो यह भी कह जा सकता है कि इतने बड़े आदमी को भला कहां फुरसत रखी है? मगर यह सोचना गलता होगा। दरअसल आम पाठक इतना ब्लाग जगत पर नहीं आ रहा जितना यह बुद्धिजीवी आ रहे हैं। वजह साफ है कि वह अभी तक एक तय प्रारूप में चलते आ रहे थे इसलिये कुछ नया सोचने की जरूरत उनको नही थी पर इधर हिन्दी ब्लाग एक चुनौती बनता जा रहा है इसलिये यह संभव है कि वह यहां से विचारों को उठकार उस पर अपने मौलिक होने का ठप्पा लगाये क्योंकि उनके पास प्रचार माध्यमों की शक्ति है।
इन दो विचारधाराओं पर चलने वाली बहसों में आम आदमी का एक विचारवान व्यक्ति की बजाय निर्जीव प्रयोक्ता के रूप में ही रखा जाता है। सवाल यह है कि उनको यह विचार कहां से आया कि प्रचलित विचाराधाराओं से अलग भी किसी का विचार हो सकता है?
जवाब हम देते हैं। हिन्दी ब्लाग जगत पर बहुत कम लिखा जा रहा है पर याद रखिये न छपने की कुंठा लेकर आये ब्लाग लेखकों के साथ उनकी अभिव्यक्त होने के लिये तरस रही अपनी विचाराधारायें हैं। यह विचाराधारायें न तो विदेश से आयातित हैं और न अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से संपन्न देशी विद्वानों के सतही सोच पर आधारित है। वह उपजी है उनके स्वयं के विचार से। कहने का अभिप्राय है कि इंटरनेट पर हिन्दी में लिखने वाले ब्लाग लेखक बाहर चल रही गतिविधियों और प्रचार पर नज़र रखें। उनमें वैचारिक बदलाव नज़र आ रहा है। यह सच है कि हिन्दी ब्लाग जगत पर आम पाठकों की संख्या कम है पर खास वर्ग उस पर नज़र रखे हुए है क्योंकि एक ही विचार या नारे पर चलते हुए उसको अपना भविष्य अंधकार मय नज़र आ रहा है। दूसरा यह कि ब्लाग जगत से खतरे का आभास उनको है इसलिये वह अब कहीं कहीं यहां से विचार भी ग्रहण करने लगे हैं-इसे हम चोरी नहीं कह सकते-और उनको प्रस्तुत करते हैं। उनका नाम है इसलिये लगता है कि मौलिक हैं जबकि सच यह है कि हिन्दी ब्लाग लेखकों द्वारा आपसी चर्चाओं से उनका जन्म हुआ है। आप कुछ विचारों की बानगी देखिये।
1-इतने वर्षों से यह प्रचार माध्यम विज्ञापन पर चल रहे हैं पर बाजार और उसके प्रबंधकों को दबाव को कभी जाहिर नहीं किया। अब तो वह बहस करते हैं कि बाजार किस तरह तमाम क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा है। समाज के साथ ही वह खेलों और फिल्मों में बाजार के हस्तक्षेप की चर्चा करते हैं। लोग यकीन नहीं करेंगे कि पर सच बात यह है कि बाजार के इस रूप पर सबसे पहली चर्चायें हिन्दी ब्लाग जगत पर ही हुईं थी। यहां यह बात नहीं भूलना चाहिये कि इस लेखक को तीन साल अंतर्जाल पर हो गये हैं और अनेक पाठों पर दूसरे ब्लाग लेखकों की बाजार के इस कथित प्रभाव की चर्चा करती हुईं अनेक टिप्पणियां हैं जो इतनी ही पुरानी हैं।
2-गांधीजी पर लिखे गये इस लेखक के पाठों को यहां के ब्लाग लेखकों ने पढ़ा होगा। गांधीजी को नोबल न दिये जाने के विषय पर लिखे गये इस लेखक के विचारों को एक स्तंभकार ने जस का तस अपने लेख में लिखा। सच है उसे आम पाठकों ने अभी कम पढ़ा होगा पर उस स्तंभकार ने लाखों लोगों तक वह बात पहुंचा दी। अखबारों ने इस लेखक के वैचारिक चिंतन बिना नाम के छापे। यहां हम कोई शिकायत नहीं कर रहे बल्कि इंटरनेट लेखकों को बता रहे हैं कि वह अपने अंदर कुंठा न पालें। अगर वह मौलिकता के साथ आयेंगे तो वह वैचारिक शक्ति केंद्र का बिन्दु बनेंगे। आम पाठकों की कम संख्या को लेकर अपने अंदर कुंठा पालना व्यर्थ है।
3-कलकत्ता में एक धर्म के युवक की मौत पर एक वर्ग बावेला मचाता है पर कश्मीर पर दूसरे धर्म के युवक की मौत पर वही खामोश हो जाता है तो दूसरा मचाता है। हम यहां इस विषय पर बहस नहीं कर रहे कि कौन गलत है या कौन सही्! मुख्य बात यह है कि कथित विचारधाराओं ने लोगों को सोच तो प्रदान की है पर एक दायरे के अंदर तक सिमटी है। ऐसे में मुक्त भाव से लिखने वाले हिन्दी लेखक कई ऐसी बातें लिख जाते हैं जिनको स्थापित विद्वान सोच भी नहीं सकता।
अब संगठित प्रचार माध्यम में सक्रिय बुद्धिजीवियों को यह लगने लगा है कि उनकी विचारों की पूंजी बहुत कम है भले ही उनके द्वारा लिखे गये शब्दों की संख्या हिन्दी ब्लाग लेखकों से अधिक है। उनका नाम ज्यादा है पर उनका सोच आजाद नहीं है।
हां, यह सच है कि हम ब्लाग लेखक कुंठित होकर यहां आते हैं पर ब्लाग शुरु करने के बाद उसका नशा सब भुला देता है। जहां तक मठाधीशी का सवाल है तो हर ब्लाग लेखक जैसे ही ब्लाग खोलता है यह पदवी उसके पास स्वयं ही आ जाती है। इंटरनेट पर लिखने वाले लेखकों यह बात समझ लेना चाहिये कि उनका अकेला होना ही उनको स्वतंत्र बनाता है। वह जिन संघर्षों से गुजर रहे हैं वह उनके लिये सोच को विकसित करने वाला है। उनको संगठित प्रचार माध्यमों में गढ़े गये विचारों से आगे जाना है। जैसे जैसे ब्लाग लेखकों की संख्या बढ़ेगी वैसे उनकी सोच का दायरा भी बड़ा होगा। संगठित प्रचार माध्यमों में नाम पाना किसे बुरा लगता है पर दूसरा सच यह है कि वहां नवीन और मौलिक विचार या विद्या को साथ लेकर स्थान पाना कठिन है। ऐसे में ब्लाग जगत पर आकर दायरा बढ़ जाता है। जब तब आम पाठक है स्थापित विद्वान ब्लाग लेखकों के विचारों को ग्रहण कर अपना जाहिर कर सकते हैं पर कालंातर में यह तो जाहिर होना ही है कि उनका जनक कौन है?
जब कोई स्थापित विद्वान यह मान रहा है कि सीमित विचाराधाराओं के इर्दगिर्द प्रचार माध्यम घूमते रहे हैं वह अप्रत्यक्ष रूप से स्वयं को भी जिम्मेदार मान रहा है क्योंकि अभी तक तो वह भी यही करते रहे थे।
हिन्दी ब्लाग जगत पर कुछ गजब के लिखने वाले हैं। यह सही है कि उनमें कुछ लकीर के फकीर है तो कुछ नये ढंग से सोचने वाले भी है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि नये ढंग से सोचने वाले अधिक भाषा सौंदर्य से नहीं लिख पाते पर उनकी बातें बहुत प्रभावी होती हैं और वह शायद स्वयं ही नहीं जानते कि ऐसी बात कह रहे हैं जिनको संगठित प्रचार माध्यम जगह नहीं देंगे अलबत्ता कुछ स्थापित विद्वान उनके विचारों को उठा भी सकते हैं। आप कहेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है? इसका जवाब यह है कि हमारे आसपास घटता बहुत कुछ है पर शाब्दिक अभिव्यक्ति कैसे की जाये यह महत्वपूर्ण बात है। बड़े विद्वान अभिव्यक्ति तो कर सकते हैं पर नवीन विचार के जनक तो हिन्दी ब्लाग लेखक ही बनेंगे। यह बात हमने अपने अनुभव से कही है। ऐसे विचारों को लिखते हुए हम यह कहना नहीं भूलते कि यह जरूरी नहीं कि हम सही हों। हो सकता है हमारा यह अनुमान हो, पर विचारणीय तो है। इतना तय है कि इस ब्लाग जगत पर अनेक लोग तो ऐसे हैं जो पाठ लिखने के साथ ही जोरदार वैचारिक टिप्पणियां भी लिख जाते हैं और भविष्य में उनकी चर्चा भी प्रचार माध्यमों में होगी।
आखिरी बात हम यह भी कह सकते हैं कि अगर विद्वानों ने हिन्दी ब्लाग जगत से विचार नहीं भी लिये होंगे पर यह हो सकता है कि यहां की जानकारी उनको तो हो ही गयी है और इसलिये प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभर रहे हिन्दी ब्लाग लेखकों को ध्यान में रखते हुए नये ढंग से सोचना शुरू किया हो-मतलब प्रभाव तो है न!

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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सोचना और सच का सामना -हास्य व्यंग्य और कवितायें (sach ka samana-hindi vyangya aur kavitaen)


ख्याल कभी सच नहीं होते
आदमी की सोच में बसते ढेर सारे
पर ख्याल कभी असल नहीं होते।
कत्ल का ख्याल आता है
कई बार दिल में
पर सोचने वाले सभी कातिल नहीं होते।
धोखे देने के इरादे सभी करते
पर सभी धोखेबाज नहीं होते।
हैरानी है इस बात की
कत्ल और धोखे के ख्याल भी
अब बीच बाजार में बिकने लगे हैं
सच की पहचान वाले लोग भी अब कहां होते।।

…………………………..

आदमी का दिमाग काफी विस्तृत है और इसी कारण उस अन्य जीवों से श्रेष्ठ माना जाता है। यह दिमाग उसे अगर श्रेष्ठ बनाता है पर इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर उस पर कोई कब्जा कर ले तो वह गुलाम भी बन जाता है। इसलिये इस दुनियां में समझदार आदमी उसे ही माना जाता है जो बिना अस्त्र शस्त्र के दूसरे को हरा दे। अगर हम यूं कहे कि बिना हिंसा के किसी आदमी पर कब्जा करे वही समझदार है। हम इसे अहिंसा के सिद्धांत का परिष्कृत रूप भी कह सकते हैं।
अंग्रेजों ने भारत को डेढ़ सौ साल गुलाम बनाये रखा। वह हमेशा इसे गुलाम बनाये नहीं रख सकते थे इसलिये उन्होंने ऐसी योजना बनायी जिससे इस देश में अपने गोरे शरीर की मौजूदगी के बिना ही इस पर राज्य किया जा सके। इसके लिये उन्होंने मैकाले की शिक्षा पद्धति का सहारा लिया। बरसों से बेकार और निरर्थक शिक्षा पद्धति से इस देश में कितनी बौद्धिक कुंठा आ गयी है जिसे अभी दूरदर्शन पर प्रसारित कार्यक्रम सच का सामना में देखा जा सकता है।
‘आप अपने पति का कत्ल करना चाहती थीं?’
‘आप अपनी पत्नी को धोखा देना चाहते थे?’
पैसे मिल जायें तो कोई भी कह देगा हां! हैरानी है कि समाचार चैनल कह रहे हैं कि ‘हां, कहने से पूरा हिन्दुस्तान हिल गया।’
सबसे बड़ी बात यह है कि लोग सच और ख्याल के बीच का अंतर ही भूल गये हैं। कत्ल का ख्याल आया मगर किया तो नहीं। अगर करते तो जेल में होते। अगर धोखे का ख्याल आया पर दिया तो नहीं फिर अभी तक साथ क्यों होते?
वह यूं घबड़ा रहे हैं
जानते हैं कि झूठ है सब
फिर भी शरमा रहे हैं।
सच की छाप लगाकर ख्याल बेचने के व्यापार से
वह इसलिये डरे हैं कि
उसमें अपनी जिंदगी के अक्स
उनको नजर आ रहे हैं।
कहें दीपक बापू
ख्यालों को हवा में उड़ते
सच को सिर के बल खड़े देखा है
कत्ल और धोखे का ख्याल होना
और सच में करना
अलग बात है
ख्याल तो खुद के अपने
चाहे जहां घुमा लो
सच बनाने के लिये जरूरत होती है कलेजे की
साथ में भेजे की
अक्ल की कमी है जमाने के
इसलिये सौदागर ख्याल को सच बनाकर
बाजार में बेचे जा रहे हैं।
ख्यालों की बात हो तो
हम एक क्या सौ लोगों के कत्ल करने की बात कह जायें
सामना हो सच से तो चूहे को देखकर भी
मैदान छोड़ जायें
पैसा दो तो अपना ईमान भी दांव पर लगा दें
सर्वशक्तिमान की सेवा तो बाद में भी कर लेंगे
पहले जरा कमा लें
बेचने वालों पर अफसोस नहीं हैं
हैरानी है जमाने के लोगों पर
जो ख्वाबों सच के जज्बात समझे जा रहे हैं
शायद झूठ में जिंदा रहने के आदी हो
हो गये हैं सभी
इसलिये ख्याली सच में बहे जा रहे हैं।

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

प्रचार माध्यमों में संस्कृति-आलेख


समाज को सुधारने की प्रयास हो या संस्कृति और संस्कारों की रक्षा का सवाल हमेशा ही विवादास्पद रहा है। इस संबंध में अनेक संगठन सक्रिय हैं और उनके आंदोलन आये दिन चर्चा में आते हैं। इन संगठनों के आंदोलन और अभियान उसके पदाधिकारियेां की नीयत के अनुसार ही होते हैं। कुछ का उद्देश्य केवल यह होता है कि समाज सुधारने के प्रयास के साथ संस्कृति और संस्कारों की रक्षा का प्रयास इसलिये ही किया जाये ताकि उसके प्रचार से संगठन का प्रचार बना रहे और बदले में धन और सम्मान दोनों ही मिलता रहे। कुछ संगठनों के पदाधिकारी वाकई ईमानदार होते हैं उनके अभियान और आंदोलन को सीमित शक्ति के कारण भले ही प्रचार अधिक न मिले पर वह बुद्धिमान और जागरुक लोगों को प्रभावित करते हैं।
ईमानदारी से चल रहे संगठनों के अभियानों और आंदोलनों के प्रति लोगों की सहानुभूति हृदय में होने के बावजूद मुखरित नहीं होती जबकि सतही नारों के साथ चलने वाले आंदोलनों और अभियानों को प्रचार खूब मिलता है क्योंकि प्रचार माध्यम उनको अपने लिये भावनात्मक रूप से ग्राहकों को जोड़े रखने का एक बहुत सस्ता साधन मानते हैं। ऐसे कथित अभियान और आंदोलन उन बृहद उद्देश्यों को पूर्ति के लिये चलते हैं जिनका दीर्घावधि में भी पूरा होने की संभावना भी नहीं रहती पर उसके प्रचार संगठन और पदाधिकारियों के प्रचारात्मक लाभ मिलता है जिससे उनको कालांतर में आर्थिक और सामाजिक उपलब्धि प्राप्त हो जाती है।

मुख्य बात यह है कि ऐसे संगठन दीवारों पर लिखने और सड़क पर नारे लगाने के अलावा कोई काम नहीं करते। उनके प्रायोजक भी इसकी आवश्यकता नहीं समझते क्योंकि उनके लिये यह संगठन केवल अपनी सुरक्षा और सहायता के लिये होते हैं और उनको समझाईश देना उनके लिये संभव नहीं है। अगर इस देश में समाज सुधार के साथ संस्कार और संस्कृति के लिये किसी के मन में ईमानदारी होती तो वह उन स्त्रोतों पर जरूर अपनी पकड़ कायम करते जहां से आदमी का मन प्रभावित होता है।
भाररीय समाज में इस समय फिल्म, समाचार पत्र और टीवी चैनलों का बहुत बड़ा प्रभाव है। भारतीय समाज की नब्ज पर पकड़ रखने वाले इस बात को जानते हैं। लार्ड मैकाले ने जिस तरह वर्तमान भारतीय शिक्षा पद्धति का निर्माण कर हमेशा के लिये यहां की मानसिकता का गुलाम बना दिया वही काम इन माध्यमों से जाने अनजाने हो रहा है इस बात को कितने लोगों ने समझा है?
पहले हिंदी फिल्मों की बात करें। कहते हैं कि उनमें काला पैसा लगता है जिनमें अपराध जगत से भी आता है। इन फिल्मों में एक नायक होता है जो अकेले ही खलनायक के गिरोह का सफाया करता है पर इससे पहले खलनायक अपने साथ लड़ने वाले अनेक भले लोगों के परिवार का नाश कर चुका है। यह संदेश होता है एक सामान्य आदमी के लिये वह किसी अपराधी से टकराने का साहस न करे और किसी नायक का इंतजार करे जो समाज का उद्धार करने आये। कहीं भीड़ किसी खलनायक का सफाया करे यह दिखाने का साहस कोई निर्माता या निर्देशक नहीं करता। वैसे तो फिल्म वाले यही कहते हैं कि हम तो जो समाज में जो होता है वही दिखाते हैं पर आपने देखा होगा कि अनेक ऐसे किस्से हाल ही में हुए हैं जिसमें भीड़ ने चोर या बलात्कारी को मार डाला पर किसी फिल्मकार ने उसे कलमबद्ध करने का साहस नहीं दिखाया। संस्कारों और संस्कृति के नाम पर फिल्म और टीवी चैनलों पर अंधविश्वास और रूढ़वादितायें दिखायी जाती हैं ताकि लोगों की भारतीय धर्मों के प्रति नकारात्मक सोच स्थापित हो। यह कोई प्रयास आज का नहीं बल्कि बरसों से चल रहा है। इसके पीछे जो आर्थिक और वैचारिक शक्तियां कभी उनका मुकाबला करने का प्रयास नहीं किया गया। हां, कुछ फिल्मों और टीवी चैनलों के कार्यक्रमों का विरोध हुआ पर यह कोई तरीका नहीं है। सच बात तो यह है कि किसी का विरोध करने की बजाय अपनी बात सकारात्मक ढंग से सामने वाले के दुष्प्रचार पर पानी फेरना चाहिये।

एक ढर्रे के तहत टीवी चैनलों और फिल्मों में कहानियां लिखी जाती हैं। यह कहानी हिंदी भाषा में होती है पर उसको लिखने वाला भी हिंदी और उसके संस्कारों को कितना जानता है यह भी देखने वाली बात है। मुख्य बात यह है कि इस तरह के कार्यक्रमों के पीछे जो आर्थिक शक्ति होती है उसके अदृश्य निर्देशों को ध्यान में रखा जाता है और न भी निर्देश मिलें तो भी उसका ध्यान तो रखा ही जाता है कि वह किस समुदाय, भाषा, जाति या क्षेत्र से संबंधित है। विरोध कर प्रचार पाने वाले संगठन और उनके प्रायोजक-जो कि कोई कम आर्थिक शक्ति नहीं होते-स्वयं क्यों नहीं फिल्मों और टीवी चैनलों के द्वारा उनकी कोशिशों पर फेरते? इसके लिये उनको अपने संगठन में बौद्धिक लोगों को शामिल करना पड़ेगा फिर उनकी सहायता लेने के लिये उनको धन और सम्मान भी देना पड़ेगा। मुश्किल यही आती है कि हिंदी के लेखक को एक लिपिक समझ लिया है और उसे सम्मान या धन देने में सभी शक्तिशाली लोग अपनी हेठी समझते हैं। यकीन करें इस लेखक के दिमाग में कई ऐसी कहानियां हैं जिन पर फिल्में अगर एक घंटे की भी बने तो हाहाकार मचा दे।

इस समाज में कई ऐसी कहानियां बिखरी पड़ी हैं जो प्रचार माध्यमों में सामाजिक एकता, समरसता और सभी धर्मों के प्रति आदर दिखाने के कथित प्रयास की धज्जियां उड़ा सकती है। प्यार और विवाह के दायरों तक सिमटे हिंदी मनोरंजन संसार को घर गृहस्थी में सामाजिक, धार्मिक और अन्य बंधन तोड़ने से जो दुष्परिणाम होते हैं उसका आभास तक नहीं हैं। आर्थिक, सामाजिक और दैहिक शोषण के घृणित रूपों को जानते हुए भी फिल्म और टीवी चैनल उससे मूंह फेरे लेते हैं। कटु यथार्थों पर मनोरंजक ढंग से लिखा जा सकता है पर सवाल यह है कि लेखकों को प्रोत्साहन देने वाला कौन है? जो कथित रूप से समाज, संस्कार और संस्कृति के लिये अभियान चलाते हैं उनका मुख्य उद्देश्य अपना प्रचार पाना है और उसमें वह किसी की भागीदारी स्वीकार नहीं करते।
टीवी चैनलों पर अध्यात्मिक चैनल भी धर्म के नाम पर मनोरंजन बेच रहे हैं। सच बात तो यह है कि धार्मिक कथायें और और सत्संग अध्यात्मिक शांति से अधिक मन की शांति और मनोरंजन के लिये किये जा रहे हैं। बहुत लोगों को यह जानकर निराशा होगी कि इनसे इस समाज, संस्कृति और संस्कारों के बचने के आसार नहीं है क्योंकि जिन स्त्रोतों से प्रसारित संदेश वाकई प्रभावी हैं वहां इस देश की संस्कृति, संस्कार और सामाजिक मूल्यों के विपरीत सामग्री प्रस्तुत की जा रही है। उनका विरोध करने से कुछ नहीं होने वाला। इसके दो कारण है-एक तो नकारात्मक प्रतिकार कोई प्रभाव नहीं डालता और उससे अगर हिंसा होती है तो बदनामी का कारण बनती है, दूसरा यह कि स्त्रोतों की संख्या इतनी है कि एक एक को पकड़ना संभव ही नहीं है। दाल ही पूरी काली है इसलिये दूसरी दाल ही लेना बेहतर होगा।

अगर इन संगठनों और उनके प्रायोजकों के मन में सामाजिक मूल्यों के साथ संस्कृति और संस्कारों को बचाना है तो उन्हें फिल्मों, टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में अपनी पैठ बनाना चाहिये या फिर अपने स्त्रोत निर्माण कर उनसे अपने संदेशात्मक कार्यक्रम और कहानियां प्रसारित करना चाहिए। दीवारों पर नारे लिखकर या सड़कों पर नारे लगाने या कहीं धार्मिक कार्यक्रमों की सहायता से कुछ लोगों को प्रभावित किया जा सकता है पर अगर समूह को अपना लक्ष्य करना हो तो फिर इन बड़े और प्रभावी स्त्रोतों का निर्माण करें या वहां अपनी पैठ बनायें। जहां तक कुछ निष्कामी लोगों के प्रयासों का सवाल है तो वह करते ही रहते हैं और सच बात तो यह है कि जो सामाजिक मूल्य, संस्कृति और संस्कार बचे हैं वह उन्हीं की बदौलत बचे हैं बड़े संगठनों के आंदोलनों और अभियानों का प्रयास कोई अधिक प्रभावी नहीं दिखा चाहे भले ही प्रचार माध्यम ऐसा दिखाते या बताते हों। इस विषय पर शेष फिर कभी।
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यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेखक के अन्य ब्लाग।
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