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श्रीमद्भागवत गीता जीवन रहस्य की पहचान कराती है-विशेष हिन्दी लेख (special articoe on shri madbhagavat gita)


अगर श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन नित्य करें तो इस बात का आभास सहजता से होता है कि उसमें सिखाया कुछ नहीं गया है बल्कि समझाया गया कि इस संसार का स्वरूप क्या है? उसमें यह कहीं नहीं कहा गया कि आप इस तरह चलें या उस चलें बल्कि यह बताया गया है कि किस तरह की चाल से आप किस तरह की छबि बनायेंगे? उसे पढ़कर आदमी कोई नया भाव नहीं सीखता बल्कि संपूर्ण जीवन सहजता से व्यतीत करें इसका मार्ग बताया गया है।
श्रीमदभागवत गीता पर जब कहीं चर्चा पढ़ने को मिलती है तब इस लेखक के मन में कुछ कुछ नया विचार आता है। यह स्थिति वैसी है जैसे कि श्रीमद्भागवत गीता को रोज पढ़ने पर नित्य कोई नया रहस्य प्रकट होता है। अक्सर अखबार, टीवी तथा अंतर्जाल पर होने वाली चर्चाओं में एक नारा अक्सर सुनाई देता है कि ‘सब पवित्र ग्रंथ एक समान’ उसमें अनेक ग्रंथों का नाम देते हुए श्रीमद्भागवत गीता का नाम भी दे दिया जाता है। कुछ लोग तो यह भी नारा देते हैं कि ‘सभी पवित्र ग्रंथ प्रेम, अहिंसा तथा दया का मार्ग सिखाते हैं’।
ऐसा लगता है कि बड़ी बड़ी बातें करने वाले छोटे नारों को गढ़कर अपना लक्ष्य साधते हैं। उनका उद्देश्य समाज के हर वर्ग के लोगों को प्रभावित करना होता है-अब यह अलग बात है कि कोई दौलत के लिये तो कोई शौहरत के लिए ऐसा करता है। कभी कभी तो लगता है कि श्रीगीता को मानने वाले तो असंख्य है पर उसे समझने वाले बहुत कम है शायद इसलिये श्रीगीता का नाम लेकर ही अधिकतर कथित प्रतिभाशाली लोग लोकप्रियता पाना चाहते हैं।
दुनियां के अनेक ग्रंथ लिखे गये हैं और उनमें मनुष्य को देवताओं की तरह बनने के नुस्खे बताये गये हैं पर किसी ने देवताओं की पहचान नहीं बतायी। राक्षस या शैतान का उल्लेख सभी करते हैं पर उसे निपटने या वैसे न होने के लिये ज्ञान कहीं नहीं मिलता। दूसरी खुशफहमी यह पैदा की जाती है कि सभी मनुष्यों को देवता बनना चाहिए जो कि एक असंभव काम है। श्रीगीता बताती है कि इस संसार में विभिन्न प्रकार के लोग रहेंगे पर और उनकी पहचान समझना जरूरी है। वह एक आईना देती है जिसमें अपनी छबि देखी जा सकती है। वह ऐसा आईना देती है जो पारदर्शी है जिसमें आप दूसरे आदमी की पहचान कर उसे व्यवहार करने या न करने का निर्णय ले सकते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उसमें एक वैज्ञानिक सूत्र है कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं।’ इसका मतलब यह है कि जैसे संकल्पों, विचारों तथा कर्मों से आदमी बंधा है वैसा ही वह व्यवहार करेगा। उस पर खाने पीने और रहने के कारण अच्छे तथा बुरे प्रभाव होंगे। सीधी बात यह है कि अगर आप अगर यह चाहते हैं कि अपने ज्ञान के आईने में आप स्वयं को अच्छे लगें तो अपने संकल्प, विचारों तथा कर्मों में स्चच्छता के साथ अपनी खान पान की आदतों तथा रहन सहन के स्थान का चयन करें। दूसरी बात यह है कि अगर आप आने अंदर दोष देखते हैं तो विचलित होने की बजाय यह जानने का प्रयास करें कि आखिर वह किसी बुरे पदार्थ के ग्रहण करने या किसी व्यक्ति की संगत के परिणाम आया-एक बात यह भी कि जैसे श्रीगीता का अध्ययन करेंगे आपको अपने अंदर भी ढेर सारे दोष दिखाई देंगे और उन्हें दूर करने का मार्ग भी पता लगेगा।
दूसरे व्यक्ति में दोष देखें तो उस पर हंसने या घृणा करने की बजाय इस बात का अनुसंधान करें कि वह आखिर किस कारण से उसमें आया। अगर कोई दुष्ट व्यक्ति आपसे बदतमीजी करेगा तो आप दुःखी नहीं होंगे क्योंकि आप जानते हैं कि इसके पीछे अनेक तत्व है जिनका दुष्प्रभाव उस पर पड़ा है।
श्रीगीता किसी को प्रेम करना अहिंसा में लिप्त होना नहीं सिखाती बल्कि अंदर प्रेम और अहिंसा का भाव अंदर कैसे पैदा हो यह समझाती है। तय बात है कि ऐसे में आपको ऐसे तत्वों से संबद्ध होना होगा जो यह भाव पैदा करें। मतलब सिखाने से प्रेम या अहिंसा का भाव नहीं पैदा होगा बल्कि वैसे तत्वों से संपर्क रखकर ही ऐसा करना संभव है।
श्रीगीता को पढ़ने और उन पर ंिचंतन करने वाले इस बात को जानते हैं कि कोई दूसरे को प्रेम नहीं सिखा सकता क्योंकि जिस व्यक्ति का घृणा पैदा करने वाले तत्वों से संबंध है उसमें प्रेम कहां से पैदा होगा? अलबत्ता स्वयं किसी अन्य व्यक्ति से सद्व्यहार करें क्योंकि अंततः वह उसे लौटायेगा।
श्रीमद्भागत गीता में चार प्रकार के भगवान के भक्त बताये गये है। भगवान की भक्ति होती है तो जीव से प्रेम होता है। अतः भक्ति की तरह प्रेम करने वाले भी चार प्रकार के होते हैं-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा ज्ञानी। पहले बाकी तीन का प्रेम क्षणिक होता है जबकि ज्ञान का प्रेम हमेशा ही बना रहता है। अगर आपके पास तत्व ज्ञान है तो आप अपने पास प्रेम व्यक्त करने वालों की पहचान कर सकते हैं नहंी तो कोई भी आपको हांक कर ले जायेगा और धोखा देगा।
श्रीमद्भागवत गीता में यह बात साफ तौर से कही गयी है कि प्राणायाम ध्यान, ओम शब्द का स्मरण करने से संपन्न ज्ञान यज्ञ के अमृत की अनुभूति करने वाले भक्त मुझे प्रिय हैं-सीधा आशय यही है कि जीवन के कल्याण का यही उपाय है। यह अमृत पानी पीने वाला नहीं बल्कि मन में अनुभव किया जाने वाला है जिसकी अनुभूति देह और आत्मा दोनों में ही की जा सकती है। व्यक्ति की पहचान भी बताई गयी है जो दो प्रकार के होते हैं-दैवीय प्रकृति और आसुरी प्रकृति वाले। व्यक्ति की तरह भोजन के रूप का ज्ञान भी दिया गया जो तीन तरह का होता है-सात्विक, राजस और तामसी। जैसा भोजन वैसा मनुष्य! इसका ज्ञान होने पर मनुष्य आसानी से अपने आसपास के वातावरण और व्यक्ति की पहचान कर अपना कर्म करता है।
जब श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान कोई इंसान धारण कर लेता है तो वह निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया में इस तरह लिप्त होता है कि उसे सांसरिक पीड़ायें छू तक नहंी पाती क्योंकि वह जानता है कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं।’ दूसरी बात यह है कि पीड़ायें उसके पास आती भी नहीं क्योंकि वह उस श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान को आईना बनाकर सामने रख लेता है और पदार्थों को ग्रहण करने और अन्य व्यक्ति से व्यवहार करने में पहचान बड़ी सहजता से कर आगे बढ़ता है। अनुकूल लोगों से संपर्क करता है और प्रतिकूल लोगों से परे रहता है। प्रेम और अहिंसा का भाव उसमें इस तरह बना रहता है कि उसका आभास उसे स्वयं ही होता है। वह जानता है कि जीवन जीने का यही एक सहज रास्ता है।
इसलिये यह कहना ही गलत है कि श्रीमद्भागवत गीता भी अन्य ग्रंथों की तरह प्रेम करना या अहिंसा में लिप्त रहना सिखाती है संकीर्णता का परिचायक है। दरअसल प्रेम या अहिंसा सिखाने वाली बात नहीं बल्कि अपने अंदर कैसे पैदा हो इसका उपाय बताना जरूरी है। फिर इसके लिये अनेक तत्व हैं जिनका ज्ञान हुए बिना किसी में ऐसे भाव नहीं पैदा हो सकते जब तक श्रीगीता का अध्ययन न किया जाये। याद रखिये श्रीमदभागवत गीता दुनियां का अकेला ऐसा ग्रंथ है जिसमें ज्ञान तथा विज्ञान दोनो ही हैं।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चाणक्य संदेश-दूसरे की उन्नति देखकर प्रसन्न होने वाले साधु होते हैं (sadhu svbhav-chankya niti


हस्ती अंकुशमात्रेण वाजी हस्तेन ताडयते।
श्रृङगी लगुडहस्तेन खङगहस्तेन दुर्जनः।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह अंकुश से हाथी तथा चाबुक से घोड़ा, बैल तथा अन्य पशु नियंत्रित किये जाते हैं वैसे ही दुष्ट से निपटने के लिये खड्ग हाथ में लेना ही पड़ता है।
तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा धनगर्जिते।
साधवः परसम्पतिौ खलः परविपत्तिषुः।।
हिंदी में भावार्थ-
विद्वान अच्छा भोजन, मेघों की गर्जना से मोर तथा साधु लोग दूसरों की संपत्ति देखकर प्रसन्न होते हैं वैसे ही दुष्ट लोग दूसरों को संकट में फंसा देखकर हंसते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में भांति भांति प्रकार के लोग हैं। जो ज्ञानी और विद्वान है उनको रहने, खाने,पीने और पहनने के लिये अच्छी सुविधा मिल जाये तो वह संतुष्ट हो जाते हैं। जो सच्चे साधु और सज्जन हैं वह दूसरों की भौतिक उपलब्धियों देखकर प्रसन्न होते हैं क्योंकि उनकी मान्यता होती है कि आसपास के लोग प्रसन्न होंगे तो उनके स्वयं के पास अच्छा वातावरण रहेगा और वह शांति से रह सकेंगे। इसके विपरीत कुछ लोग दुष्ट प्रवृत्ति के भी होते हैं जो स्वयं तो विपत्ति में पड़े रहते हैं पर उनका खेद तब कम हो जाता है जब कोई दूसरा भी विपत्ति मेें पड़ता है। ऐसे लोग अपने दुःख से अधिक दूसरे के सुख से अधिक दुःखी होती हैं। इसके अलावा अपने सुःख से अधिक दूसरे का दुःख उनको अधिक प्रसन्न करता है।
वैसे तो जीवन में हिंसा कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि फिर प्रतिहिंसा का सामना करने पर स्वयं को भी कष्ट उठाना पड़ा सकता है, पर इस संसार में कुछ ऐसे दुष्ट लोग भी हैं जिनको कितना भी समझाया जाये वह दैहिक आक्रमण से बाज नहीं आते। उनसे शांति और अहिंसा की अपील निरर्थक साबित होती है। ऐसे लोगों से मुकाबला करने के लिये अपने अस्त्रों शस्त्रों तथा अन्य साधनों उपयोग करने में कोई झिझक नहीं करना चाहिये। ऐसे लोगों के लिये धर्म और ज्ञान एक निरर्थक वस्तु हैं। देहाभिमान से ग्रस्त ऐसे लोगों के विरुद्ध लड़ना पड़े तो संकोच त्याग देना चाहिए।
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श्रीगीता संदेश -दूसरे धर्म का परिणाम सदैव भयावह रहता है


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।
हिंदी में भावार्थ-
श्रीगीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि अपने धर्म से पराया धर्म श्रेष्ठ लगता है तब उसको कभी श्रेय न प्रदान करें। अपना धर्म संपन्न नहीं दिखता पर दूसरे का धर्म तो हमेशा भयावह परिणाम देने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग धर्म को लेकर बहस करते हैं पर उसका मतलब नहीं समझते। हर टीवी चैनल, अखबार और पत्रिका को उठाकर देख लें धर्म को लेकर तमाम सतही बातें लिखी मिल जायेंगी जिनका सार तो विषय सामग्री प्रस्तुत करने वाले स्वयं नहीं जानते न ही पाठक या दर्शक समझने का प्रयास करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि धर्म बिकने, खरीदने, और लाभ हानि वाली व्यापारिक वस्तु हो गयी है। अनेक प्रचार माध्यम बकायदा धर्मपरिवर्तित कर जिंदगी में भौतिक उपलब्धि प्राप्त करने वाले लोगों का प्रचार करते हैं। इतना ही नहीं धर्म परिवर्तित कर विवाह करने पर लड़कियों को वीरांगना करार दिया जाता है। यह केवल प्रचार है जिससे बुद्धिमान भारतीय तत्व ज्ञान से दिखने वाले कटु सत्यों से भागते हुए करते हैं क्योंकि भारतीय अध्यात्म ज्ञान जीवन के ऐसे रहस्यों को उद्घाटित करने के सत्यों से भरा पड़ा है जिसको जानने वाला धर्म न पकड़ता है न छोड़ता है।
हमारे भारतीय अध्यात्म में स्पष्ट रूप से धर्म को कर्म से जोड़ा गया न कि कर्मकांडों से। कर्मकांडों और रूढ़ियों को लेकर भारतीय धर्मों की आलोचना करने वाले मायावी लोग उस तत्व ज्ञान को जानते नहीं है पर उनको यह पता है कि अगर उसका प्रचार हो गया तो फिर उनकी माया धरी की धरी रह जायेगी।
एक मजे की बात है कि धर्म परिवर्तित दूसरा धर्म अपनाने वाली युवतियां विवाह कर लेती हैं इसमें बुराई नहीं है पर उसके बाद उनको जब दूसरे धर्म के संस्कार अपनाने पड़ते हैं तब उन पर क्या गुजरती है इस पर कोई प्रकाश नहीं डालता। दरअसल फिल्मों की कहानियों को केवल विवाह तक ही सीमित देखने वाले बुद्धिजीवी उससे आगे कभी सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि विवाह के बाद जब पराये धर्म के कर्मकांडों को मन मारकर अपनाना पड़ता है तब उन युवतियों की क्या कहानी होती है इस पर कोई भी आज का महापुरुष नहीं लिखता।
दरअसल धर्म दिखाने या छूने की वस्तु नहीं बल्कि हृदय में की जाने वाली अनुभूति है। बचपन से जिस धर्म के संस्कार पड़ गये उनसे पीछा नहीं छूटता विवाह या अन्य किसी भौतिक प्राप्ति के लिये धर्म परिवर्तन तो लोग कर लेते हैं उसके बाद जो उनपर तनाव आता है उसकी चर्चा भी गाहे बगाहे करते हैं। एक मजे की बात है कि कथित आधुनिक लोग धर्म परिवर्तन करते हैं पर उसके साथ अपना नाम और इष्ट भी परिवर्तित कर लेते हैं। मतलब वह दूसरे धर्म के के बंधन को ओढ़ते है और दावा आजादी का करते हैं। सच बात तो यह है कि धर्म का आशय सही मायने में भारतीय अध्यात्म में ही है जिसका आशय है कि बिना लोभ लालच और कामना के भगवान की भक्ति करते हुए जीवन व्यतीत करना न कि उनके वशीभूत होकर धर्म मानना। दूसरी बात यह है कि धर्म परिवर्तित करने वाले अपनी पहचान गुम होने के भय से अपना पुराना नाम भी साथ लगाते हैं। दूसरे के धर्म के क्या कर्मकांड हैं किसी को पता नहीं होता? इसलिये उस धर्म के लोग मजाक उड़ाते हैं जिसे अपनाया गया है।

संत कबीरदास और चाणक्य भी कहते हैं कि दूसरे धर्म या समुदाय का आसरा लेना हमेशा दुःख का कारण होता है। किसी भी व्यक्ति या समाज को बाहर से देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि उसका धर्म कैसा है या वह उसे कितना मानता है। वह तो जब कोई नया आदमी धर्म परिवर्तन कर उस धर्म में जाता है तब उसे पता लगता है कि सच क्या है? इसके बावजूद यह सच है कि दूसरा धर्म नहीं अपनाना चाहिये क्योंकि उससे तनाव बढ़ता है। हालांकि आजकल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षा लाभों के लिये अनेक लोग धर्म बदल लेते हैं। वह भले ही दावा करें कि उनको ज्ञान प्राप्त हुआ है पर यह झूठ है। जिसे ज्ञान प्राप्त होता है वह धर्म से परे होकर योग साधना, ध्यान और भक्ति में रहते हुए निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया करता है न कि धर्म छोड़ने या पकड़ने के चक्कर में पड़ता है।
हां एक बात महत्वपूर्ण है कि भारतीय धर्म व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं क्योंकि इसमें किसी प्रकार की भाषा या उस पर आधारित नाम या कर्मकांड की बाध्यता नहीं होती। हमारा श्रीगीता ग्रंथ दुनिया का अकेला ऐसा धर्म ग्रंथ है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की भी चर्चा है। इसमें निरंकार परमात्मा की निष्काम भक्ति के साथ ही अन्य जीवों पर निष्प्रयोजन दया करने का भी संदेश है। यह मनुष्य को विकास की तरफ जाने के लिये प्रेरित करने के साथ विनाश से भी रोकता है।
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बुरी नज़र से डरें कि हाय से-हास्य व्यंग्य


भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान एक तरह से स्वर्णिम शब्द रहस्यों से भरा एक समूह है बस इसका एक ही दोष है कि आपको शब्दों के अर्थ के साथ उनका भाव भी ग्रहण करना पड़ता है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने हमारे समाज की चिंतन क्षमताओं का कम कर दिया है इसलिये शब्द ज्ञान का अर्थ तो हम जानते हैं पर भाव के लिये हमें विद्वान चाहिये हैं और यह काम आजकल व्यवसायिक हो गया है। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान कोई एक महापुरुष की देन नहीं है बल्कि समय समय पर वह इस पावन धरा पर वह प्रकट होते रहे हैं और अपनी तपस्या, निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया के प्रभाव से इस समाज को वह शब्द ज्ञान देते रहे जो विश्व में कहीं अन्य नहीं है। यही कारण है कि विदेशी संस्कृतियों और विचारों के लोग भी आजकल इसकी कदर करने लगे है। सच बात तो यह है कि यह ज्ञान की खान अनेक लोगों के लिये धन कमाने का साधन बन गयी है इस चक्कर में अनेक कथित विद्वान इसे थोड़ा बहुत रटकर अपनी दुकान जमाने लगते हैं।
वैसे ज्योतिष का अध्यात्मिक ज्ञान से कोई अधिक लेना देना नहीं है पर अनेक ज्योतिषी अपने को ज्ञानी साबित करने के लिये महापुरुषों के संदेशों के साथ अपने आपको प्रस्तुत करते हैं ताकि वह अध्यात्मिक गुरु भी दिख सकें।
यह विचार हमारे दिल में पैदा क्यों हुआ? हुआ यूं कि उस दिन एक ज्योतिषी शायद कोई अपना मंत्र,यंत्र या तंत्र बेचने के लिये एक चैनल पर अपना कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे थे। हमें इसमें कोई आपत्ति नहीं थी पर उन्होंने संत प्रवर कबीर का दोहे का सहारा जिस तरह लिया वह हमें तो अर्थ का अनर्थ लगा।
यहां यह भी बता दें कि अपने शतप्रतिशत सही होने का दावा हम कभी नहीं करते। इसका कारण यह है कि एक मित्र ने बताया था कि जब हम अपने को सही और दूसरों को गलत समझने लगें तो इसका आशय यह है कि हम मनोरोग से ग्रसित हैं। वह एक मानसिक चिकित्सालय में किसी से मिलने गया था। वहां उसे एक बोर्ड पर दस ऐसे लक्षण पढ़े जो आदमी के मनोरोगी होने का प्रमाण देते है। उनमें एक यह भी था कि ‘क्या आप समझते हैं कि आप हमेशा सही होते हैं दूसरे गलत‘।
तब से हमने यह बात गांठ बांध ली कि कभी अपने आपको सही बताने की जिद्द पर नहीं अड़ेंगे। यह बात भले ही किसी अन्य को नही मालुम पर हमें तो मालुम है इसलिये ऐसी स्थिति में स्वयं को ही मनोरोगी प्रतीत हों इससे अच्छा है कि अपने को एकदम सही तो मानो ही नहीं । भले ही मनोरोगी हों पर कम से कम अपने को तो न लगें।
बहरहाल वह ज्योतिषी लोगों को ‘बुरी नजरों’ से बचने का उपाय बता रहे थे। यह भी अच्छी बात है। मगर उन्होंने कबीर दास जी का एक दोहा सुनाया जिसका आशय यह था कि आप अगर गरीब, निरीह, या परेशानहाल आदमी को सताते हैं तो आपको उसकी हाय लग सकती है। जहां तक हमारा ज्ञान कहता है कि बुरी नजर और बद्ददुआ में अंतर होता है। एक बार बुरी नजर से आदमी बच जाये पर बद्ददुआ से नहीं बच सकता। वह ज्योतिष यही कह रहे थे कि‘ बुरी नजर से बचने का यह उपाय है’। बुरी नजर का प्रभाव होता है और हमारे महान संत कबीरदास जी ने भी कहा है कि’…………….उन्होंने अपना दोहा सुनाया और फिर उसके अर्थ में भी कहीं बुरी नजर शब्द का उपयोग न कर हाय शब्द ही बताया।
हम तो मानते हैं कि बुरी नजर वाले का मूंह काला पर कबीरदास जी ने जिस दोहे में गरीब, निरीह और परेशान हाल आदमी की हाय न लेने का संदेश दिया है उसका उपयोग ‘बुरी नजर’ के प्रभाव बताने वाली बात समझ में नहीं आयी। फिर हमने सोचा कि उनका भी क्या दोष?
रहीम, कबीर, तुलसी और सूर ने जीवन भर संघर्ष कर अपनी रचनायें कीं। किसी से कोई महल, रथ या सोने का दान नहीं लिया क्योंकि यह महापुरुष दान हमेशा सुपात्र को देने का संदेश देते रहे। उनकी रचनाओं में जो सुगंध है उससे सुनकर अच्छे खासे ऐसे लोग भी बेहोश हो जाते हैं जो इनको अपनी शैक्षणिक पुस्तकों में पढ़ चुके हैं। इसी बेहोशी का फायदा वह लोग उठाते हैं जो ज्ञान का व्यापार करते हैं। कबीरदास जी का दोहा सुना दिया तो लोगों ने ताली बजा दी। सुनाने वाला हिट हो गया। अब वह उसका किस संदर्भ में क्या अर्थ सुना रहा है कोई समझने वाला नहीं है। सो अनेक संत, साधु, कथावाचक और ज्योतिषी हिट होते जा रहे हैं। संत कबीर और रहीम के संदेशों में जो जिंदगी के रहस्य शाब्दिक सौंदर्य में सजा कर कहे गये हैं उनकी चकाचैंध से भला कौन बच सकता है पर उसका अर्थ समझकर ही उनको ग्रहण करना चाहिये। अगर संत कबीरदास जी के समय कोई ज्योतिषी उनके दोहे के सहारे अपनी इस तरह दुकान चलाता तो शायद उस पर दो चार दोहे रचकर उसकी हालत खस्ता कर देते।
पता नहीं ज्योतिषियों के पास ‘बुरी नजर’ से बचाने वाला जो मंत्र, यंत्र और तंत्र है उसका प्रभाव होता है कि नहीं पर जिस तरह वह ‘लोगों की हाय’ से बचाने के लिये उसका उपयोग बता रहे थे। उससे तो दो ही बातें सिद्ध होती हैं कि वह अल्प ज्ञानी थे और बोलने के लिये बोले जा रहे थे या चतुर व्यवसायी थे और वह सोच रहे थे कि आजकल सभी की नजरें तो बुरी हैं इसलिये भला उससे कौन डरता है, सभी तो एक दूसरे की टांग खींचने के पाप में लिप्त हैं सो ‘हाय’ लगने की बात कहकर उनका डराया जाये। उनकी माया वह जाने पर हम इतना जानते हैं कि किसी गरीब, निरीह और परेशान हाल आदमी की ‘हाय’ से बचाने का उपाय किसी महापुरुष ने नहीं बताया-कम से कम जहां तक हमारी जानकारी है।
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हिंदू विचारधारा:भारतीय और अफ़गानी-आलेख


एक बात निश्चित है कि धर्म नितांत एक निजी विषय है और उस पर सार्वजनिक विषय पर चर्चा करना केवल एक दिखावा करना लगता है। दूसरी बात यह है कि किसी धर्म की स्थापना या प्रचार का कार्य एक व्यवसाय का रूप ले चुका है और आम आदमी इस बात को समझ गया है और वह इन प्रचारकों को गंभीरता ने नहीं लेता। फिर भी समूह में रहने के अभ्यस्त इंसानों के लिये यह आवश्यक है कि वह भाषा,जाति और धर्म के नाम पर बने समूहों के प्रति निष्ठा जताते रहें ताकि विपत्ति के समय उनकी सहायता की आशा की जा सके।

इन्हीं समूहों में बदलाव आते जाते हैं और कई जगह झगड़े चलते हुए भी उनको रोकना कठिन लगता है। धर्म और अध्यात्म में अंतर है। धर्म मनुष्य को बर्हिमुखी और अध्यात्म अंतर्मुखी बनता है। सारे विवादों के बावजूद एक बात अंतिम सत्य के रूप में सामने आ चुकी है कि भारतीय अध्यात्म ज्ञान में ही वह शक्ति है जिसको ग्रहण और धारण कर कोई भी व्यक्ति मानसिक और शारीरिक रूप से शक्तिशाली हो सकता हैं। इस अध्यात्म ज्ञान की वजह से हिंदू धर्म निर्मित हुआ है। लंबे समय तक हिंदू धर्म को लेकर अेनक सवाल उठते रहे हैं पर उनके उत्तर में केवल विवाद ही खड़े होते हैं।

इस लेखक ने अपने एक पाठ में लिखा था कि ‘ हिंदी हिदू और हिंदूत्व’ शब्द में एक ऐसा बोध है जिसे धारण कर कोई भी अपने को शक्तिशाली समझने लगता है क्योंकि उसमें एक आकर्षण है। एकतरफ जहां हिंदू धर्म के बचाने और विस्तार करने के प्रयास हो रहे हैं तो दूसरी तरफ उसके नाम पर बने एक बृहद समाज के स्वरूप में बदलाव आते जा रहे हैं जिस पर विद्वान दृष्टिपात नहीं कर पाते। पहला तो यह है कि हमारे समाज में पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव इतना पड़ चुका है कि पता ही नहीं लगता कि हम धर्म या अध्यात्म ज्ञान के विषय में कहां खड़े हैं? धार्मिक कर्मकांड और अध्यात्मिक ज्ञान के के प्रथक होने की अनुभूति नहीं होने के कारण विचारों में भटकाव होता है और यही समाज को भी भ्रमित कर रहा है।

कल एक ब्लाग पढ़ रहा था। उसके लेखक श्री रजनीश मंगला ने जर्मनी में हिंदू मंदिर और अफगान हिंदू मंदिर बने होने की चर्चा अत्यंत दिलचस्प ढंग से उठाई थी। उसमें लिखा गया था कि आतंक से परेशान अफगानी हिंदुओं ने जर्मनी में पनाह ली और वहां उन्होंने आकर्षक मंदिरों का निर्माण कराया है। मंदिर मनाने के मामले में वहां भारतीय हिंदूओं के मुकाबले अफगानी हिंदू आगे हैं। किसी उत्सव पर भारतीय हिंदू मंदिर के मुकाबले अफगानी हिंदू मंदिर में कम ही भीड़ होती हैं। अफगानी मंदिर कर्ज लेकर बनाये गये हैं जिसकी वापसी किश्तों में की जा रही है। उन मंदिरों में पुजारी भारत के ही हैं।
अफगानियों के मंदिरों पर ही लिखा गया है ‘अफगानी हिंदू मंदिर’। रजनीश मंगला ने इस आलेख में सवाल उठाया कि क्या अफगानी हिंदू मंदिरों से कभी अफगानी हट जायेगा या कोई ःअफगानी हिदू विचारधारा के रूप में अलग धारा बहेगी। रजनीश मंगला के इस आलेख को दो बार मैंने पढ़ा क्योंकि उसमें मेरी दिलचस्पी बहुत थी। जहां तक अलगा धारा का प्रश्न है तो लगता है कि वह आगे ही बढ़ेगी कम शायद ही हो। सच तो यह है कि अलग धारा बहनी ही चाहिये क्योंकि हिंदू अध्यात्म एक हिमालय की तरह है जहां से कई धारायें प्रवाहित होंगी। अभी नहीं तो आगे इसकी संभावना है। एक ही धारा की कल्पना कर हिंदू धर्म को ही सीमित दायरे मेेंें बांधना होगा।

आखिर अलग धारा का प्रश्न क्यों उठा? अगर हम भारत में हिंदू धर्म की बात करें तो यहां का समाज जातियों और उपजातियेां में बंटा हुआ है और यही उसके शक्तिशाली होने कारण भी है। फिर अफगान हिंदू धारा के बहने से होगा यह कि आगे चलकर अन्य देशों के हिंदू भी इसी तरह अपनी धारा बहायेंगे। इस बात की भी संभावना है कि जब विश्व में सामाजिक और धार्मिक बदलाव आयेंगे तो तो अपनी अध्यात्मिक ज्ञान की शक्ति के कारण हिंदू धर्म ही विस्तार रूप से लेगा। यह लेखक इतिहास को एक कूड़ेदान की तरह मानता है पर उसमें वर्णित घटनाओं पर विचार करें तो हर भारतीय हिंदूओ की कार्यपद्धति को देखें। हिंदू धर्म की रक्षा के लिये सभी तैयार बैठे हैं पर केवल इसी देश के अंदर। बाहर भी हिंदू रहते हैं पर उनके लिये किसी ने कार्य नहीं किया। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि हिंदू धर्म से आशय उन सभी धर्मों से है जिनका उदय भारत में हुआ। यहां के शासकों का राज्य अफगानिस्तान तक फैला था पर धीरे धीरे वह सिकुड़ता गया। वजह यह है कि सीमावर्ती राज्यों पर आक्रमण होते रहे पर उनको अपने पीछे के क्षेत्रों से सहयोग न मिलने के कारण हारना पड़ा। इतिहास में इस बारे में बहुत सारे तथ्य दर्ज हैं। अंधविश्वास,कुप्रथाओं और अहंकार में फंसे हिंदू समाज के विभिन्न उपसमूहों में बंटे लोगों और उनके राजाओं ने कभी भी ईमानदारी से विचाराधारा और प्रजा की रक्षा का विचार ही नहीं किया। अपनी राज्य की सीमाओं को अंतिम और अखंड होने के अहंकार ने इस देश के पहले विदेशी आक्रमणकारियों और अब विचाराधाराओं के जाल में फंसा दिया। दो हजार वर्ष तक यह देश गुलाम रहा इस बात को भुलाया नहीं जा सकता।

स्वतंत्रता के बाद विदेशों से आयातित विचारधाराआों की आलोचना या समर्थन में समय नष्ट किया गया जिससे कुछ हाथ नहीं आना था न आया। सत्य यही है कि भौतिकतावाद से उपजे तनाव से बचने के लिये केवल शक्ति ‘भारतीय अध्यात्म ज्ञान’ में ही है। जिसका मूल मंत्र यही है कि प्रातः उठकर योगासन, प्राणायम,ध्यान और प्रार्थना के द्वारा अपने तन,मन और विचार के विकार बाहर निकालकर फिर नया दिन प्रारंभ किया जाये।
भारतीय अध्यात्म की सबसे बड़ी शक्ति ध्यान है। कुछ धार्मिक लोगों ने मूर्तिपूजा का विस्तार किया क्योंकि एक सामान्य आदमी के लिये एकदम ध्यान लगाना कठिन होता है। इसलिये किसी स्वरूप को मन में स्थापित कर उसकी आराधना करने से भी ध्यान का लाभ मिल सकता है। दरअसल ध्यान से आशय यह है कि अपने दिन प्रतिदिन के दैहिक कार्य से हटकर उसे कही अन्यत्र लगाया जाये। इसी मूर्तिपूजा का विरोध अन्य विचारधारा के लोगों ने ही नहीं बल्कि अनेक हिंदू भी करते हैं पर वह इसका महत्व नहीं समझते। विदेशी विचाराधारा से ओतप्रोत लोग भटकाव की स्थिति में दो ही मार्ग ढूंढते हैं-आत्म हत्या या दूसरे की हत्या। जबकि भारतीय निराशा की स्थिति में मंदिर की राह लेते हैं। हमारे देश में अपने अध्यात्म से दूर होने का कारण यहां भी हिंसा का प्रभाव बढ़ रहा है।

बहुत लंबे समय तक भारत के बाहर के हिंदूओं ने प्रतीक्षा की है कि वह भारत में रह रहे हिंदुओं से नैतिक समर्थन प्राप्त करें पर वह शायद नहीं मिल पाया। दूसरा यह है कि हम भारतीय हिंदूओं इस बात को समझ लें कि हमारी शक्ति धार्मिक कर्मकांड नहीं बल्कि अध्यात्मिक ज्ञान है जिस पर अभी तक केवल हम अपना ही अधिकार सकझते हैं। अब वह विश्व में फैल रहा हैं। भारतीय योग परंपरा और श्रीगीता के बारे में अब पूरा विश्व जान चुका है। संत कबीर जी के संदेशों से विदेशी भी प्रभावित हैं-यहां याद रहे कि संत कबीर ने सभी प्रकार के धार्मिक अंधविश्वासों का विरोध किया और किसी भी धर्म को उन्होंने बख्शा नहीं।

देश में अधिक आबादी होने के कारण अतिविश्वास के कारण हम भारतीय हिंदू उस अध्यात्म ज्ञान को जानते हैंे पर जीवन में धारण करने से कतराते हैं। जहां हिंदू अल्पसंख्यक हैं वह इस ज्ञान का मतलब जानते हैं। अनेक भारतीय भी जो विदेशों मेेंं बहुत समय से रह रहे हैं वह भी इस बात को समझते हैं। यह अलग बात है कि उनके इसी भाव का दोहने अपने आर्थिक लाभ के लिये कथित साधु और संत करते हैं। ऐसे में विदेशी हिंदू अगर अपनी अलग धारा में बह रहे हैं तो एक उम्मीद तो बंधती है कि वह भी भारतीय अध्यात्म के हिमालय से निकल रही है। जहां ऐसी जगह पर भारतीय हिंदू हैं उनका मार्गदर्शन करना चाहिये। भारतीय अध्यात्म ज्ञान न तो गूढ़ हैं न ही व्यापक जैसा कि कुछ धार्मिक विद्वान कहते हैं। बस वह एक ऐसा मार्ग है जिस पर चलकर देखा जा सकता है। भारतीय ज्ञान को गूढ या व्यापक कहना कुछ ऐसा ही है कि जैसे आप आगरा में खड़े होकर कहें कि मुझे दिल्ली जाना है क्योंंकि मुंबई दूर है या आप नासिक में खड़े होकर कहें कि मुझे मुंबई जाना है क्योंकि दिल्ली दूर है। ऐसे ही सत्य और माया के दो मार्ग हैं और सत्य का ज्ञान इतना दूर नहीं है जितना मायावी दूनियां की चाहत रखने वाले कथित संत और साधु कहते हैं।
अगर अफगानी लोगों ने लिख दिया है कि ‘अफगानी हिंदू मंदिर तो वह उसे शायद ही बदलें। इस धारा का बहना दिलचस्प भी है और इस बात का प्रमाण भी कि अब अन्य देशों में हिंदू भी खड़े होकर भारतीय अध्यात्म ज्ञान की रक्षा करेंगे। ऐसे में भारतीय हिंदूओं को उनका हौंसला बढ़ाना ही चाहिये। आखिर वह निकली तो भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान रूपी हिमालय से ही तो है।
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