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मुफ्त में ईमानदारी-लघु हिन्दी हास्य व्यंग्य


                विद्यालय के संचालक ने प्राचार्य को बुलाकर कहा कि-‘‘देखो मैंने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में भाग लेने का फैसला किया है। तुम अपने साथ शिक्षकों को मेरे साथ रैली में भाग लेने के लिये तैयार रहने के लिये कहो। विद्यालय के छात्रों के लिये देश में व्याप्त भ्रष्टाचार रोकने के संबंध में विशेष ज्ञान देने का प्रबंध करो। मैं चाहता हूं कि मेरे साथ मेरे विद्यालय का नाम भी प्रचार के शीर्ष पर पहुंचे।’’
           प्राचार्य ने कहा-‘‘महाशय, आपका आदेश सिर आँखों  पर! मगर इसी आंदोलन  की वजह से हमारे विद्यालय के शिक्षक अब जागरुक हो गये हैं। आप जितने वेतन की रसीद पर हस्ताक्षर करते हो उसका चौथाई ही केवल भुगतान करते हैं। वह चाहते हैं कि कम से कम आधी रकम तो दें। विद्यार्थियों के पालक भी तयशुदा फीस से अलग चंदा या दान देकर नाराज होते हैं। ऐसे में आप स्वयं भले ही इस आंदोलन में सक्रियता दिखायें पर विद्यालय की सक्रियता पर विचार न करें, संभव है यह बातें आपके विरुद्ध प्रचार का कारण बने।’’
संचालक ने कहा-‘‘तुम कहना क्या चाहते हो, यह भ्रष्टाचार है! कतई नहीं, यह तो मेरा निजी प्रबंधन है। हम तो केवल सरकारी भ्रष्टाचार की बात कर रहे हैं!’’
            प्राचार्य ने कहा-‘हमारे पास कुछ मदों मे सरकारी पैसा भी आता है।’’
संचालक ने कहा-‘‘वह मेरा निजी प्रभाव है। ऐसा लगता है कि तुम देश का भ्रष्टाचार रोकने की बजाय उसकी आड़ में तुम मेरे साथ दाव खेलना चाहते हो! तुम मेरा आदेश मानो अन्यथा अपनी नौकरी खोने के लिये तैयार हो जाओ।’’
             आखिर प्राचार्य ने कहा-‘‘आपका आदेश मानने पर मुझे क्या एतराज हो सकता है? पर संभव है कि छात्रों के पालक अपने बच्चों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध तिरस्कार का भाव देखकर नाराज हो जायें। आप तो जानते हैं कि अधिकतर माता पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा पढ़ लिखकर बड़े पद पर पहुंचे। बड़ा पद भी वह जो मलाईदार हो। ऐसे में अगर उसकी निष्ठा कहीं ईमानदारी से हो गयी तो संभव है वह अधिक पैसा न कमा पाये। भला कौन माता पिता चाहेगा कि उसका बेटा मलाई वाली जगह पर बैठकर माल न कमाये। सभी चाहते हैं कि देश में भ्रष्टाचार खत्म हो पर उनके घर में ईमानदार पैदा हो यह कोई नहंीं चाहता। कहंी ऐसा न हो कि हमारे इस प्रयास पर पालक नाराज न होकर अपने बच्चों को दूसरे स्कूल पर भेजना शुरु करें और आपकी प्रसिद्धि ही विद्यालय की बदनामी बन जाये।’’
             संचालक कुछ देर खामोश रहा और फिर बोला-‘‘तुम क्या चाहते हो मैं भी वहां न जाऊं?’
प्राचार्य ने कहा-‘‘आप जाईये, पर अपने स्कूल का परिचय न दें। आप सारे देश में ईमानदारी लाने की बात अवश्य करें पर उसे अपने विद्यालय से दूर रखें।’’
           संचालक खुश हो गया। प्राचार्य बाहर आया तो एक अन्य शिक्षक जिसने दूसरे कमरे में यह वार्तालाप सुना था उससे कहा-‘‘आपने मना किया तो अच्छा लगा। बेकार में हमारे हिस्से एक ऐसा काम आ जाता जिसमें हमें कुछ नहीं मिलता। यह संचालक वैसे ही छात्रों से फीस जमकर वसूल करता है पर हम शिक्षकों को देने के नाम पर इसकी हवा निकल जाती है। वैसे आपके दिमाग में ऐसा बोलने का विचार कैसे आया?’’
         प्राचार्य ने कहा-‘‘अपनी जरूरतें जब पूरी न हों तो ईमानदारी की बात करना भी जहर जैसा लगता है। वैसे फोकट में भ्रष्टाचार का विरोध करना मैं भी ठीक नहीं समझता। खासतौर से जब इस आंदोलन को चलाने वाले घोषित रूप से चंदा लेने वाले हों। हमें अगर कोई पैसा दे तो एक बार क्या अनेक बार ऐसे आंदोलन में जाते। फोकट में टांगें तोड़ना या भाषण देना तो तब और भी मुश्किल हो जब हमें यही अपनी मेहनत का पैसा कम मिलता है।’’

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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  Bharatdeep, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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एंजॉयमेंट(आनंद)-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन (enjoyment or anand-hindi satire thought)


       वर्षा ऋतु में मनुष्य मन को एक स्वाभाविक सुखद अनुभूति होती है। इस पर सावन का महीना हो तो कहना ही क्या? अनेक ऋषियों और कवियों ने सावन के महीने के सौंदर्य का वर्णन किया है। अनेक कवियों ने काल्पनिक प्रेयसी को लेकर अनेक रचनायें भी की जिनको गीत और संगीत से इस तरह सजाया गया कि उनको आज भी गुनगुनाया जाता है । इनमें कुछ प्रेयसियां तो अपने श्रीमुख से सावन के महीने में पियत्तम के विरह में ऐसी ऐसी कवितायें कहती हुई दिखाई देती हैं कि श्रृ्रंगार और करुण रस के अनुपम उदाहरण बन जाती हैं।
     उस दिन रविवार का दिन था हम सुबह चाय पीकर घर से बाहर निकले। साइकिल चलाते हुए कुछ दूर पहुंचे तो पास से ही एक सज्जन स्कूटर चलाते हुए निकले और हमसे बोले ‘‘आज पिकनिक चलोगे।’ यहां से आठ किलोमीटर दूर एक तालाब के किनारे हमने पिकनिक का आयोजन किया है। वैसे तो हमने अन्य लोगां से प्रति सदस्य डेढ़ सौ रुपये लिये हैं। तुम्हारे साथ रियायत कर देते हैं। एक सौ चालीस रुपये दे देना पर तुम्हें आना अपने वाहन से ही पड़गा।
            हमने कहा-‘‘न! वैसे हम इस साइकिल पर पिकनिक मनाने ही निकले हैं। यहां से तीन किलोमीटर दूर एक एक मंदिर और पार्क है वहां जाकर पिकनिक मनायेंगे। ’’
         वह सज्जन रुक गये। हमें भी साइकिल से उतरना पड़ा। यह शिष्टाचार दिखाना जरूरी था भले ही मन अपने निर्धारित लक्ष्य पर विलंब से पहुंचने की संभावना से कसमसा रहा था। वह हमार चेहरे को देखने के बाद साइकल पर टंगे झोले की तरफ ताकते हुए बोले-‘इस झोले में खाने का सामान रखा है?’’
         हमने झोले की तरफ हाथ बढ़ाकर उसे साइकिल से निकालकर हाथ में पकड़ लिया और कहा-‘‘ नहीं, इसमें पानी पीने वाली बोतल और शतरंज खेलने का सामान है।’’
      वह सज्जन बोले-‘केवल पानी पीकर पिकनिक मनाओगे? यह तो मजाक लगता है! यह शतरंज किससे खेलोगे। यहां तो तुम अकेल दिख रहे हो।’
     हमने कहा-‘वहां हमारा एक मित्र जिसका नाम फालतु नंदन आने वाला है। उसी ने कहा था कि शतरंज लेते आना।’’
      वह सज्जन हैरान हो गये और कहने लगे कि‘-‘‘वह तुम्हारा दोस्त वहां कैसे आयेगा उसके पास तो स्कूटर या कार होगी?’
     हमने कहा-‘स्कूटर तक तो ठीक, कार वाले भला हमें क्यों घास डालने लगे। वह बैलगाड़ी से आयेगा।’
वह सज्जन चौंके-‘‘ बैलगाड़ी से पिकनिक मनाने आयेगा?’’
      हमने कहा-‘नहीं, वह अपने किसी बीमार रिश्तेदार का देखने पास के गांव गया था। बरसात से वहां का रास्ता खराब होने की वजह से वह बैलगाड़ी से गया है। उसने मोबाइल पर कहा था कि वह सुबह दस बजे पार्क में पहुंच जायेगा और हमसे शतरंज खेलने के बाद ही घर जायेगा। ’’
     वह सज्जन बोले-‘मगर यह तो रुटीन घूमना फिरना हुआ! इसमें खानापीना कहां है जो पिकनिक में होता है?’’
     हमने कहा-‘‘खाने का तो यह है कि पार्क के बाहर चने वाला बैठता है वह खा लेंगे और पीने के लिये वह कुछ ले आयेगा।’’
     वह हमारी आंखों में आंखें डालते हुए पूछा-‘‘मतलब शराब लायेगा! यह तो वास्तव में जोरदार पिकनिक होगी।’
    हमने कहा-‘‘नहीं, वह नीबू की शिकंजी पीने का सामान अपने साथ लेकर निकलता है। गांव से ताजा नीबू लायेगा तो हम वहां दो तीन बार शिकंजी पी लेंगे। हो सकता है वह गांव से कुछ खाने का दूसरा सामान भी लाये।’ अलबत्ता हम तो चने खाकर कम चलायेंगे।’’
   वह सज्जन बोले-‘‘अब आपको क्या समझायें? पिकनिक मनाने का भी एक तरीका होता है। आदमी घर से खाने पीने का सामान लेकर किसी पिकनिक स्पॉट पर जाये। वहां जाकर एन्जॉय (आनंद) करे। यह कैसी पिकनिक है, जिसमें खाने पीने के लिये केवल चने और नीबू की शिकंजी और एन्जॉयमेंट (आनंद)के नाम पर शतरंज। पिकनिक में चार आदमी मिलकर खाना खायें, तालाब में नहायें गीत संगीत सुने और ताश वगैरह खेलें तब होता है एन्जॉयमेंट!’’
       हमने कहा-‘‘मगर साहब, हम तो वहां पिकनिक जैसा ही एन्जॉयमेंट करते हैं।’’
उन सज्जन से अपना सिर धुन लिया और चले गये। अगले दिन फिर शाम को मिले। हमने पिकनिक के बारे में पूछा तो बोले-‘यार, थकवाट हो गयी। लोग पिकनिक तो मनाने आते हैं पर काम बिल्कुल नहीं करते। पैसा देकर ऐसे पेश आते हैं जैसे कि सारा जिम्मा हमारा ही है। सभी के लिये खाना बनवाओ। बर्तन एकत्रित करो। पानी का प्रबंध करो।’ अपना एन्जॉयमेंट तो गया तेल लेने दूसरे भी खुश नहीं हो पाते। व्यवस्था को लेकर मीनमेख निकालने से बाज नहीं आते।’’
     हमने कहा-‘‘पर कल हमने खूब एन्जॉय मेंट किया। वहां एक नहीं चार शतरंज के खिलाड़ी मिल गये। बड़ा मजा आया।’’
    वैसे हमने अनेक बार अनेक समूहों में पिकनिक की है पर लगता है कि व्यर्थ ही समय गंवाया। आनंद या एन्जॉयमेंट करने के हजार तरीके हैं आजमा लीजिये पर अनुभूति के लिये संवदेनशीलता भी होना जरूरी है। सतं रविदास ने कहा था कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। यह कोई साधारण बात नहीं है। आदमी अपनी नियमित दिनचर्या से उकता जाता है इसलिये वह किसी नये स्थान पर जाना चाहता है। ऐसे में नदिया तालाब और उद्यान उसके लिये मनोरंजन का स्थान बन जाते हैं। खासतौर से वर्षा ऋतु में नदियों में पानी का बहाव बढ़ता है तो सूखे तालाब भी लुभावने हो जाते हैं। ऐसे में दूर के ढोल सुहावने की भावना के वशीभूत जलस्तोत्रों की तरफ आदमी भागता है यह जाने बगैर कि वर्षा ऋतु में पानी खतरनाक रूप भी दिखाता है।
         मुख्य बात यह है कि हम अपने कामों में इस तरह लिप्त हो जाते हैं कहीं ध्यान जाता नहीं है। हम जहां काम करते हैं और जिस मार्ग पर प्रतिदिन चलते हैं वहीं अगर मजेदार दृश्यों को देखें तो शायद मनोरंजन पूरा हो जाये। ऐसा हम करते नहीं है बल्कि अपनी नियमित दिनचर्या तथा परिवहन के मार्ग को सामान्य मानकर उनमें उदासीन भाव से संलिप्त होते हैं।
         एक दिन एक सज्जन हमारे घर आये और बोले-‘यार, तुम कहीं घूमने चलो। कार्यक्रम बनाते है।’’
उस समय बरसात का सुहाना मौसम था। हमने उसे घर के बाहर पोर्च में आकर बाहर का दृश्य देखने को कहा। वह बोला -‘‘यहां क्या है?’’
        हमने उससे कहा-‘देखो हमारे घर के बाहर ही पेड़ लगा है। सामने भी फूलों की डालियां झूल रही हैं। । आगे देखो नीम का पेड़ खडा है। यहां पोर्च में खड़े होकर ही इतनी हरियाली दिख रही है। शीतल हवा का स्पर्श तन मन को आनंदित किये दे रहा है। अब बताओ ऐसा ही इससे अधिक शुद्ध हवा कहां मिलेगी। फिर अगर इससे मन विरक्त हो जायेगा तो शाम को पार्क चले जायेंगे। तब वहां भी अच्छा लगेगा। हमारी दिक्कत यह है कि बाहर हमें ऐसा देखने को मिलेगा या नहीं इसमें संशय लगता है। फिर इसी दिनचर्या में मन तृप्त हो जाता है तब बाहर कहां आनंद ढूंढने चलें। केवल शरीर को कष्ट देने में ही आनंद मिल सकता है तो वह भी हम रोज कर ही रहे हैं।’’
       हम पिछले साल उज्जैन गये थे। यात्रा ठीकठाक रही पर वहां दिन की गर्मी ने जमकर तपा दिया शाम को बरसात हुई और तब हम बस से घर वापस लौटने वाले थे। सारे दिन पसीने से नहाये। अपने शहर वापस लौटने के बाद एक रविवार हम जल्दी उठकर योगाभ्यास, स्नान और नाश्ता करने के बाद अपने शहर के मंदिरों में गये। एक नहीं पांच छह मंदिरों में गये तो ऐसा लगा कि किसी धार्मिक पर्यटन केंद्र में हों। एक शिव मंदिर पर हमारी एक पुराने मित्र से मुलाकात हुई। जब पता लगा कि वह वहां रोज आता है तो हमने पूछा कि‘यार, बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति के हो कहीं तीर्थ वगैरह पर भी जाते हो।’
       वह हंसकर बोला-‘यार, मेरे लिये तो यह मंदिर ही सबसे बड़ा तीर्थ है। यहीं आकर रोज मन तृप्त हो जाता है।’
      अनेक बार ऐसा लगता है कि जिन लोगों को अपने शहर में ही धूमने की आदत नहीं है या वह जानते ही नहीं कि उनका शहर भी अनेक तरह के रोमांचक केंद्र धारण किये हुए वही दूसरे शहरों में घूमने को लालायित रहते हैं। यह दूर के ढोल सुहावने वाली बात लगती है। मन भटकाता है। अगर वह चंगा नहीं है तो गंगा भी तृप्त नहीं कर सकती और मन चंगा है तो अपने घर के पानी से नहाने पर भी वह शीतलता मिलती है जो पवित्र होने के साथ ही दिन भरी के संघर्ष के लिये प्रेरणादायक भी होती है। अपने अपने अनुभव है और अपनी अपनी बात है। हमें तो हर मौसम में लिखने में मजा आता है पर क्योंकि उससे मन शीतल हो जाता है।
लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

writer aur editor-Deepak ‘Bharatdeep’ Gwalior

मैत्रीपूर्ण संघर्ष-हिन्दी हास्य व्यंग्य (friendly fighting-hindi comic satire article)


दृश्यव्य एवं श्रव्य प्रचार माध्यमों के सीधे प्रसारणों पर कोई हास्य व्यंगात्मक चित्रांकन किया गया-अक्सर टीवी चैनल हादसों रोमांचों का सीधा प्रसारण करते हैं जिन पर बनी इस फिल्म का नाम शायद………… लाईव है। यह फिल्म न देखी है न इरादा है। इसकी कहानी कहीं पढ़ी। इस पर हम भी अनेक हास्य कवितायें और व्यंगय लिख चुके हैं। हमने तो ‘टूट रही खबर’ पर भी बहुत लिखा है संभव है कोई उन पाठों को लेकर कोई काल्पनिक कहानी लिख कर फिल्म बना ले।
उस दिन हमारे एक मित्र कह रहे थे कि ‘यार, देश में इतना भ्रष्टाचार है उस पर कुछ जोरदार लिखो।’
हमने कहा-‘हम लिखते हैं तुम पढ़ोगे कहां? इंटरनेट पर तुम जाते नहीं और जिन प्रकाशनों के काग़जों पर सुबह तुम आंखें गढ़ा कर पूरा दिन खराब करने की तैयारी करते हो वह हमें घास भी नहीं डालते।’
उसने कहा-‘हां, यह तो है! तुम कुछ जोरदार लिखो तो वह घास जरूर डालेेंगे।’
हमने कहा-‘अब जोरदार कैसे लिखें! यह भी बता दो। जो छप जाये वही जोरदार हो जाता है जो न छपे वह वैसे ही कूंड़ा है।’
तब उसने कहा-‘नहीं, यह तो नहीं कह सकता कि तुम कूड़ा लिखते हो, अलबत्ता तुम्हें अपनी रचनाओं को मैनेज नहीं करना आता होगा। वरना यह सभी तो तुम्हारी रचनाओं के पीछे पड़ जायें और तुम्हारे हर बयान पर अपनी कृपादृष्टि डालें।’
यह मैनेज करना एक बहुत बड़ी समस्या है। फिर क्या मैनेज करें! यह भी समझ में नहीं आता! अगर कोई संत या फिल्मी नायक होते या समाज सेवक के रूप में ख्याति मिली होती तो यकीनन हमारा लिखा भी लोग पढ़ते। यह अलग बात है कि वह सब लिखवाने के लिये या तो चेले रखने पड़ते या फिर किराये पर लोग बुलाने पड़ते। कुछ लोग फिल्मी गीतकारों के लिये यह बात भी कहते हैं कि उनमें से अधिकतर केवल नाम के लिये हैं वरना गाने तो वह अपने किराये के लोगों से ही लिखवाते रहे हैं। पता नहंी इसमें कितना सच है या झूठ, इतना तय है कि लिखना और सामाजिक सक्रियता एक साथ रखना कठिन काम है। सामाजिक सक्रियता से ही संबंध बनते हैं जिससे पद और प्रचार मिलता है और ऐसे में रचनाऐं और बयान स्वयं ही अमरत्व पाते जाते है।
अगर आजकल हम दृष्टिपात करें तो यह पता लगता है कि प्रचार माध्यमों ने धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक शिखरों पर विराजमान प्रतिमाओं का चयन कर रखा है जिनको समय समय पर वह सीधे प्रसारण या टूट रही खबर में दिखा देते हैं।
एक संत है जो लोक संत माने जाते हैं। वैसे तो उनको संत भी प्रचार माध्यमों ने ही बनाया है पर आजकल उनकी वक्रदृष्टि का शिकार हो गये हैं। कभी अपने प्रवचनों में ही विदेशी महिला से ‘आई लव यू कहला देते हैं’, तो कभी प्रसाद बांटते हुए भी आगंतुकों से लड़ पड़ते हैं। उन पर ही अपने आश्रम में बच्चों की बलि देने का आरोप भी इन प्रचार माध्यमों ने लगाये। जिस ढंग से संत ने प्रतिकार किया है उससे लगता है कि कम से कम इस आरोप में सच्चाई नहंी है। अलबत्ता कभी किन्नरों की तरह नाचकर तो कभी अनर्गल बयान देकर प्रचार माध्यमों को उस समय सामग्री देतेे हैं जब वह किसी सनसनीखेज रोमांच के लिये तरसते हैं। तब संदेह होता है कि कहीं यह प्रसारण प्रचार माध्यमों और उन संत की दोस्ताना जंग का प्रमाण तो नहीं है।
एक तो बड़ी धार्मिक संस्था है। वह आये दिन अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों के लिये अनर्गल फतवे जारी करती है। सच तो यह है कि इस देश में कोई एक व्यक्ति, समूह या संस्था ऐसी नहंी है जिसका यह दावा स्वीकार किया जाये कि वह अपने धर्म की अकेले मालिक है मगर उस संस्था का प्रचार यही संचार माध्यम इस तरह करते हैं कि उस धर्म के आम लोग कोई भेड़ या बकरी हैं और उस संस्था के फतवे पर चलना उसकी मज़बूरी है। वह संस्था अपने धर्म से जुड़े आम इंसान के लिये कोई रोटी, कपड़े या मकान का इंतजाम नहंी करती और उत्तर प्रदेश के एक क्षेत्र तक ही उसका काम सीमित है पर दावा यह है कि सारे देश में उसकी चलती है। उसके उस दावे को प्रचार माध्यम हवा देते हैं। उसके फतवों पर बहस होती है! वहां से दो तीन तयशुदा विद्वान आते हैं और अपनी धार्मिक पुस्तक का हवाला देकर चले जाते हैं। जब हम फतवों और चर्चाओं का अध्ययन करते हैं तो संदेह होता है कि कहीं यह दोस्ताना जंग तो नहीं है।
एक स्वर्गीय शिखर पुरुष का बेटा प्रतिदिन कोई न कोई हरकत करता है और प्रचार माध्यम उसे उठाये फिरते हैं। वह है क्या? कोई अभिनेता, लेखक, चित्रकार या व्यवसायी! नहीं, वह तो कुछ भी नहीं है सिवाय अपने पिता की दौलत और घर के मालिक होने के सिवाय।’ शायद वह देश का पहला ऐसा हीरो है जिसने किसी फिल्म में काम नहीं किया पर रुतवा वैसा ही पा रहा है।
लब्बोलुआब यह है कि प्रचार माध्यमों के इस तरह के प्रसारणों में हास्य व्यंग्य की बात है तो केवल इसलिये नहीं कि वह रोमांच का सीधा प्रसारण करते हैं बल्कि वह पूर्वनिर्धारित लगते हैं-ऐसा लगता है कि जैसे उसकी पटकथा पहले लिखी गयी हों हादसों के तयशुदा होने की बात कहना कठिन है क्योंकि अपने देश के प्रचार कर्मी आस्ट्रेलिया के उस टीवी पत्रकार की तरह नहीं कर सकते जिसने अपनी खबरों के लिये पांच कत्ल किये-इस बात का पक्का विश्वास है पर रोमांच में उन पर संदेह होता है।
ऐसे में अपने को लेकर कोई भ्रम नहीं रहता इसलिये लिखते हुए अपने विषय ही अधिक चुनने पर विश्वास करते हैं। रहा भ्रष्टाचार पर लिखने का सवाल! इस पर क्या लिखें! इतने सारे किस्से सामने आते हैं पर उनका असर नहीं दिखता! लोगों की मति ऐसी मर गयी है कि उसके जिंदा होने के आसार अगले कई बरस तक नहीं है। लोग दूसरे के भ्रष्टाचार पर एकदम उछल जाते हैं पर खुद करते हैं वह दिखाई नहीं देता। यकीन मानिए जो भ्रष्टाचारी पकड़े गये हैं उनमें से कुछ इतने उच्च पदों पर रहे हैं कि एक दो बार नहीं बल्कि पचास बार स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र, गांधी जयंती या नव वर्ष पर उन्होंने कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि की भूमिका का निर्वाह करते हुए ‘भ्रष्टाचार’ को देश की समस्या बताकर उससे मुक्ति की बात कही होगी। उस समय तालियां भी बजी होंगी। मगर जब पकड़े गये होंगे तब उनको याद आया होगा कि उनके कारनामे भी भ्रष्टाचार की परिधि में आते है।
कहने का अभिप्राय यह है कि लोगों को अपनी कथनी और करनी का अंतर सहजता पूर्वक कर लेते हैं। जब कहा जाये तो जवाब मिलता है कि ‘आजकल इस संसार में बेईमानी के बिना काम नहीं चलता।’

जब धर लिये जाते हैं तो सारी हेकड़ी निकल जाती है पर उससे दूसरे सबक लेते हों यह नहीं लगता। क्योंकि ऊपरी कमाई करने वाले सभी शख्स अधिकार के साथ यह करते हैं और उनको लगता है कि वह तो ‘ईमानदार है’ क्योंकि पकड़े आदमी से कम ही पैसा ले रहे हैं।’ अलबत्ता प्रचार माध्यमों में ऐसे प्रसारणों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह दोस्ताना जंग है। यह अलग बात है कि कोई बड़ा मगरमच्छ अपने से छोटे मगरमच्छ को फंसाकर प्रचार माध्यमों के लिये सामग्री तैयार करवाता  हो या जिसको हिस्सा न मिलता हो वह जाल बिछाता हो । वैसे अपने देश में जितने भी आन्दोलन हैं भ्रष्टाचार के विरुद्ध नहीं बल्कि उसके बंटवारे के लिए होते हैं । इस पर अंत में प्रस्तुत है एक क्षणिका।
एक दिन उन्होंने भ्रष्टाचार पर भाषण दिया
दूसरे दिन रिश्वत लेते पकड़े गये,
तब बोले
‘मैं तो पैसा नहीं ले रहा था,
वह जबरदस्ती दे रहा था,
नोट असली है या नकली
मैं तो पकड़ कर देख रहा था।’

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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आशीर्वाद-लघुकथा


वह युवक गरीब था तब संत के पास जाता था। वह उनके यहां आश्रम की साफ सफाई करता और फिर अपने काम पर चला जाता था। अक्सर वह संत से अपने लिये आशीर्वाद मांगता और कहता था कि ‘आप आशीर्वाद दें तो मेरे पास ढेर सारा पैसा और संपत्ति आ जाये।
संत ने कहा‘तुम क्या इसलिये ही इस आश्रम की सेवा करते हो?’
युवक ने पूरी ईमानदारी से कहा-हां, मेरा उद्देश्य तो यही है कि ढेर सारी संपत्ति आये। इसलिये ही सर्वशक्तिमान का दर्शन करने आपके यहां आता हूं। किराये का मकान है, पटरी पर सामान लगाकर बेचता हूं। पता नहीं नीली छतरी वाला मेरी कब सुनेगा?
संत ने कहा-‘चिंता मत करो। वह सभी को अवसर देता हैं।
युवक ने निराशा में कहा-‘पता नहीं कब सुनेगा?’
संत ने हंसकर कहा-‘जब तुम्हारे सामने अवसर आयेगा तो नीली छतरी वाला आवाज नहीं देगा। चुपचाप तुम्हारे लिये रास्ता खोलता जायेगा।’
युवक चला गया। समय ने पलटा खाया। वह अधिक धन कमाने लगा। वह इतना व्यस्त हो गया कि उसने आश्रम में जाना ही छोड़ दिया। कुछ बरस बाद वह एक दिन सुबह वैसे ही उस आश्रम पहुंचा और झाड़ू लगाने लगा।
संत ने उसे देखकर आश्चर्य जताया और कहा-‘क्या बात है? इतने बरसों बाद तुम यहां आये हो? सुना है कि बहुत बड़े सेठ बन गये हो।’
हां उसने कहा-‘बहुत धन कमाया। बच्चों की अच्छे घरों में शादी की। पैसे की कोई कमी नहीं। ढेर सारे रिश्ते बन गये हैं पर ऐसा लगता है कि सभी पैसे के लिये रिश्ता निभा रहे हैं। बहुत संपत्ति है पर दिल में चैन नहीं है। ऐसा लगता था कि यहां रोज मंदिर आता रहूं पर आ नहीं सका। आज तय किया कि यहीं आकर मुझे चैन मिल सकता है। वह धन दौलत तो बस दिखावा है। नीली छतरी वाले ने सब दिया पर जिंदगी का चैन नहीं दिया।
संत के कहा-‘पर तुमने वह उससे मांगा ही कब था। वैसे तुम भी तो सर्वशक्तिमान की इस आश्रम की सेवा धन मांगने के लिये कर रहे थे तो फिर दूसरों को क्यों दोष देते हो?जो तुमने मांगा था वह मिल गया। फिर अब फिर इस आश्रम की सेवा करने क्यों आ गये? करो, हो सकता है कि दिल चैन भी मिल जाये। हम तो तुम्हें न पहले रोकते थे न अब रोकेंगे। न पहले कुछ मांगा था न अब मांगेंगे।’
उसने उदास होते हुए उनके चरणों में माथा टेक दिया और कहा-‘अब कुछ मांगने के लिये यहां सेवा नहीं करूंगा। बस दिल को शांति मिल जाये।’
संत ने कहा-‘पहले यह तय करो कि कुछ मांगने के लिये आश्रम की सेवा नहीं करोगे या बदले में दिल की शांति चाहिये। सच तो यह है कि चाहे कुछ भी मांगने से मिल जाये पर दिल का चैन नहीं मिलता। इसलिये पहले वाले ही रास्ते पर चलो कि सेवा के बदले कुछ मांगना नहीं है।’
वह उदास भाव से संत को देखने लगा और फिर बोला-‘मुझे कुछ नहीं चाहिये। बस मुझे सेवा करने दीजिये।’
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उसने बस यही कहा ‘अच्छा लिखो’(हास्य व्यंग्य)


दरवाजे पर दस्तक होते ही ब्लागर कंप्यूटर से उठा और बाहर आया तो उसे सीखचों के बाहर दूसरा ब्लागर दिखाई दिया। पहले ब्लागर ने दरवाजा खोले बगैर ही कह दिया-’‘यार, अभी मैं बिजी हूं। कल मिलने आना।’’
दूसरे ब्लागर ने हंसकर कहा-‘लगता है गृहस्वामिनी घर में नहीं है। तभी ऐसे जवाब दे रहे हो जैसे वह सैल्समेनों को देती हैं।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘कम से कम एक बात की तारीफ तो करो। तुम्हारी अकेले में सैल्समेनों जैसी इज्जत तो कर रहा हूं।’
उस समय पहला ब्लागर निकल और बनियान पहने हुए था। दूसरे ब्लागर ने कहा-‘तुम्हें शर्म आना चाहिये। इस तरह निकर और बनियान पहने घर में घूमते हो। अरे, भले ही जैसे भी लेखक हो पर हो तो सही। कोई प्रशंसक या प्रशंसिका आ जाये तो तुम्हें इस हाल में देखकर क्या कहेगी?’
पहले ब्लागर ने कहा-‘ऐसे प्रशंसक तो तुम्हें ही अधिक मिलते हैं। हमें कौन पूछता है।’
दूसरा ब्लागर ने कहा-‘नहीं ऐसी बात नहीं है! कवि चाहे जैसे भी हों उनके पास इक्का दुक्का प्रशंसक मिल ही जाते हैं। देखो मैं तुम्हारा प्रशसंक हूं न! तभी तो तुमसे मिलने आता हूं। मुझसे कई लोग तुम्हारे बारे में पूछते हैं पर तुम्हारी साहित्य साधना में विघ्न न पड़े इसलिये किसी को पता नहीं देता। अब तो दरवाजा खोलो। देखो बाहर अब कितनी धूप है।’
पहला ब्लागर-‘कोई बात नहीं! सामने वाले मकानों की लाईन से होते हुए चले जाओ। वहां छाया है। आज मेरे पास समय नहीं है।’
इतने में गृहस्वामिनी आ गयी और दूसरे ब्लागर से बोली-नमस्ते भाई साहब! बहुत दिनों बाद आये हो।’
दूसरे ब्लागर बोला-‘हां, आज आपके यहां चाय पीने का मन था और भाई साहब से भी साहित्यक चर्चा करनी थी। आप इस धूप में कहां गयी थी।’
गृहस्वामिनी ने कहा-‘यहीं पड़ौस में एक सहेली की तबियत खराब थी। उसे देखने गयी थी।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘भाभी जी, आपका स्वाभाव भी भाई साहब की तरह अच्छा है। अब देखिये यह मेरे साथ यहीं पर ही प्रेम से वार्ता करने लग गये। यह दरवाजा खोलना ही इनको याद ही नहीं रहा। हालांकि इनको थोड़ी देर बाद ही इस बात का अफसोस होगा कि मुझे धूप में खड़ा रखा।’
मन मारकर पहले ब्लागर को दरवाजा खोलना पड़ा। गृहस्वामिनी के साथ दूसरा ब्लागर बिना किसी आमंत्रण की प्रतीक्षा किये बिना अंदर दाखिल हो गया।’
गृहस्वामिनी तो दूसरे कमरे में चली गयी पर दूसरा ब्लागर चलते चलते पहले ब्लागर के पीछे उसके कंप्यूटर रूप तक आ गया। फिर कुर्सी पर बैठते हुए बोला-‘सच बात तो यह है कि तुम जैसी कचड़ा हास्य कवितायें लिखते हो उससे प्रशसंक तो कोई बन ही नहीं सकता। खास तौर से महिलायें तो बिल्कुल नहीं। हां, अगर कोई दूसरा हास्य कवि तुम्हें इस निकर और बनियान में देख ले तो जरूर उस पर हास्य कविता लिख लेगा।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘इधर उधर की बातें छोड़ो। बताओ कैसे आना हुआ?’

दूसरे ब्लागर ने कहा-‘यार, मेरे पीछे कुछ उधार देने वाले पड़े हैं। मुझे एक बैंक से लोन चाहिये ताकि इन कर्जदारों से पीछा छुड़ाकर अपना काम ढंग से शुरु कर सकूं। एक बैंक मैनेजर है जो शायद तुम्हें जानता है, किसी ने मुझे बताया? तुम उससे जरा सिफारिश कर दो।’
पहले ब्लागर ने उसका नाम पूछा फिर दूसरे ब्लागर से कहा-‘यार, वह मुझे जानता है पर इतना नहीं कि मेरी सिफारिश को मान ले। एक बार पहले भी उसने मेरी बात नहीं मानी थी और कहा था कि तुम तो केवल कविता करना जानते हो बाकी कुछ नहीं जानते।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘हां, मुझे उसने बताया था कि वह तुम्हारी सिफारिश नहीं मानेगा। यही बात तुम्हें बताने मैं आया हूंं कि देखो तुम्हारे लिखने की वजह से तुम्हारा कोई सम्मान नहीं है।’
पहला ब्लागर-’ठीक है बता दिया अब जाओ।’
इतने में गृहस्वामिनी आ गयी तब दूसरा ब्लागर बोला-‘इसलिये मैं सभी से कहता हूं कि अच्छा लिखो। कुछ ऐसा लिखो जो समाज के मतलब का हो। यह व्यंग्य, कहानी,लघुकथा और हास्य कविता लिखने से काम नहीं चलेगा।’
गृहस्वामिनी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा-‘आप कौनसा ब्लाग लिखते हैं। जरा बताईये। मैं उसे पढ़ूंगी।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘अरे, इतनी सी बात! भाई साहब तो मेरे सारे ब्लाग के नाम जानते है।’
गृहस्वामिनी ने पूछा-‘पर आप लिखते क्या हैं?’
दूसरा ब्लागर ने कहा-‘यही कि अच्छा लिखो तभी तुम्हारा सम्मान होगा।’
गृहस्वामिनी ने कहा-‘अच्छा पढ़ूंगी। अभी आप बैठिये चाय बनने के लिये गैस पर रख दी है।’
वह चली गयी तो पहले ब्लागर ने कहा-‘अच्छा हुआ तुमने अपने ब्लाग का नाम नहीं बताया। उन पर हर दूसरे पाठ में यही लिखा है ‘अच्छा लिखो’। हालांकि कैसे लिखें यह उसमें नहीं लिखा। अलबत्ता दूसरों के पाठ पर कोसते हुए बहुत कुछ लिखते हो। कभी कभी अपने ही छद्म ब्लाग पर असली की तो असली पर छद्म नाम के ब्लाग की प्रशंसा करते हो। इसलिये कुछ अच्छे ब्लाग तुम्हारे बताकर पढ़वाने पढ़ेंगे।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘हां, यही ठीक रहेगा। बदले में ं तुम्हारी बेकार हास्य कविताओं की मै चर्चा यहां कभी नहीं करूंगा।’
पहले ब्लागर-‘वैसे यह तो बताओ कि अच्छा कैसे लिखा जाये।’
दूसरा ब्लागर-‘यही पता होता तो खुद ही लिखना शुरु नहीं कर देता।’
इतने में गृहस्वामिनी चाय लायी तब दूसरा ब्लागर बोला-‘इस चाय पर कभी हास्य कविता नहीं लिखना।‘
पहला ब्लागर बोला-‘अच्छा आईडिया दिया। इस पर तो हास्य कविता बनती है।’
दूसरा ब्लागर बोला-‘हां, पर इस मुलाकात पर एक बढि़या सी रिपोर्ट जरूर लिखना।’
पहला ब्लागर बोला-‘आज ऐसा क्या हुआ? जो रिपोर्ट लिखूं।’
दूसरा ब्लागर बोला-‘कितना अच्छा तो डिस्कशन हुआ। बस तुम तो यह लिखना कि ‘अच्छा लिखो।’
पहला ब्लागर-‘पर यह तो बताओ किसकी तरह अच्छा लिखो।’
दूसरे ब्लागर ने चाय का कप टेबल पर रखते हुए कहा-‘तुम अपना उदाहरण दे दो।’
इतने में गृहस्वामिनी बाहर चली गयी तो दूसरा ब्लागर बोला-‘यह बात मैंने मजाक मेंे कही थी ताकि तुम्हारा घर में अच्छा प्रभाव बना रहे। बस तुम तो एक ही बात लिखो कि ‘अच्छा लिखो’।
दूसरा ब्लागर चला गया। अंदर आकर गृहस्वामिनी ने पूछा क्या कह रहा था-‘तुमने सुना नहीं। यही कह रहा था कि अच्छा लिखो।
गृहस्वामिनी ने पूछा-‘पर यह भी तो पूछते कि कैसे अच्छा लिखना है?’
पहले ब्लागर ने कहा-‘यह बात मैं खुद ही समझ लूंगा अगर उससे पूछता तो अपने अल्प ज्ञान की उसके सामने पोल खुल जाती।’
नोट-यह हास्य व्यंग्य काल्पनिक है तथा इसका किसी घटना या व्यक्ति से लेना देना नहीं है। इसका लेखक किसी दूसरे ब्लागर को नहीं जानता।
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यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

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