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वह पर्स-हिन्दी हास्य व्यंग्य


एक बेजान पर्स की भी कहानी हो सकती है! क्यों नहीं, अगर वह सब्जी की तरह कटने का जुमला उस पर फिट हो सकता है तो कोई कहानी भी हो सकती है। पर्स में माल होता है और माल के पीछे धमाल! धमाल पर्स नहीं करता, बल्कि आदमी करते हैं इसलिये कहानी तो बन ही जाती है।
उस दिन वह बालिका अपने पिताजी के साथ हमारे घर के बाहर आटो से उतरी। मोबाइल से से पिता पुत्री के आने की खबर मिल गयी सो हम उनका इंतजार कर रहे थे।
उसके पिता से हमसे हाथ मिलाया उन्होंने अपने पर्स से सौ का नोट उसकी तरफ बढ़ाया तो वह बोला-‘साहब खुला साठ रुपया दो।’
हमने अपना पर्स खोला और उसमें से साठ रुपया निकालकर उसकी तरफ बढ़ाया।
पिता पुत्री दोनों घर के अंदर दाखिल होने लगे। बालिका ने कहा-‘वाह मौसा जी, अब तो आपने नया पर्स ले ही लिया। पहले हमारे यहां कितना पुराना पर्स ले आये थे। मैंने आपको टोका था न! इसलिये नया खरीदा होगा।’
हमने कहा-‘नहीं! पुराना कट गया तो नया खरीदना पड़ा।’
बालिका भौचक्की रह गयी-‘कब कटा! उसमें कितने पैसा थे।’
हमने कहा-‘नहीं, उसमेें दस या पंद्रह रुपया था। सबसे खुशी इस बात की है कि तुम्हारे घर से आते समय मैंने अपना ए.टी.एम. कार्ड अपनी शर्ट की जेब में रख लिया था।’
बालिका घर के अंदर दाखिल हुई तो हमारे घर में जान पहचान की एक महिला जो उस समय श्रीमतीजी से मिलकर बाहर जा रही थीं बालिका को देखते ही बोली-‘ तुम आ गयी अपने मौसी और मौसा को लेने। कब ले जायेगी?’
उसके पिता या चाचा हमारे पास छोड़ जाते थे और हम उसे छोड़ने मथुरा जाते थे। यह क्रम कई बरसों से चलता रहा है इसलिये उसके आने का मतलब यही होता है कि हम जरूरी उसे छोड़ने मथुरा जायेंगे।
बालिका ने कहा-‘हां, इस बार केवल सात दिन ही रहूंगी। मेरे अगले सोमवार से पेपर है। आज शुक्रवार है और अगले शुक्रवार चली जाऊंगी।’
हमने सिर खुजलाया, क्योंकि हम अगले सप्ताह सफर करने में मूड में नहीं थे। अलबत्ता अनेक बार अपने मन के विपरीत भी चलना ही पड़ता है।
सोमवार सुबह उसने याद दिलाया कि ‘शुक्रवार को मथुरा चलना है। ताज की टिकिट रिजर्व करवा लें।’
पहले छोटी थी तो वह इतने अधिकार से बात नहीं कहती थी पर बड़ी और सयानी होने के कारण अब उसमें दृढ़ता भी आ गयी थी। सोमवार को हम टिकिट नहीं करवा सके। मंगलवार को जाकर करवा ली।
रात को आकर अपने पर्स से टिकिट निकाला और उससे कहा कि‘सभाल कर रखना।’
सब कुछ ठीक ठाक था। वैसे मथुरा कई बार रेल की सामान्य बोगी में बैठकर अनेक बार सफर किया है पर वह हमेशा मुश्किल रहा है। दो बार आगरा में हमारी जेब कट चुकी है। फिर सामान्य बोगी में भीड़ और रिजर्वेशन डिब्बे में रेल कर्मचारियों से विवाद करने की परेशानियेां से बचने का हमें एक ही उपाय नजर आया कि ताज से ही यात्रा की जाये। वैसे मथुरा वृंदावन की यात्रा करने में हमको मजा आता है पर बीच की परेशानी दुःखदायी यादें बन जाती हैं। टिकिट रिजर्व करवाकर हम निश्चिंत हो गये कि यात्रा सुखदायी होगी, मगर यह केवल सोचना ही था!
जाने के एक दिन पहले बालिका की उससे उम्र में बड़ी एक सहेली का फोन आया कि वह भी उसके साथ चलेगी। बालिका ने हामी भर दी।
रात को उसने बताया कि ‘उसकी सहेली का पति उसे छोड़ने आयेगा। वैसे तो वह अकेली भी चली जाती पर उसके साथ छोटा बच्चा है इसलिये मेरी मदद ले रही है।
हमारा माथा ठनका। हमने कहा-‘देखो, हमारी टिकिट रिजर्व है और मैं नहीं चाहता कि उसकी वजह से टिकिट चेकरों से लड़ता फिरूं। ग्वालियर में तो ठीक है पर आगरा में उनसे जूझना पड़ता है।’
बालिका ने कहा-‘उसका पति भी टिकिट रिजर्वेशन कराकर देगा।’
हमने चुप्पी साध ली।
अगले दिन हम शाम को अपने बालिका तथा श्रीमतीजी के साथ घर से निकले। हमने अपना पर्स देखा। उसमें कुछ पांच और दस के नोट थे। अपना ए. टी. एम. निकाल कर शर्ट की जेब में रखा। कुछ चिल्लर जेब में रखी ताकि कहीं पैसा निकालने के लिये पर्स न निकालना पड़े। स्टेशन पर पहुंचने से पहले ही आटो के पैसे भी जेब से निकाल लिये।
स्टेशन पर उसकी सहेली का पति अपनी पत्नी को छोड़ने आया। दोनोें सहेलियां मिली। उसके पति ने एक टिकिट देकर मुझसे कहा कि ‘यह लीजिये आज ही रिजर्व करवाई है।’
मैंने टिकिट में बोगी का नंबर देखा तो मेरा माथा ठनका। वह हमारी बोगी से बहुत दूर थी। मैंने वह टिकिट अपने रखने के लिये पर्स निकाला और उसमें रखा। तत्काल मुझे अपने पर्स निकालने का पछतावा भी हुआ पर सोचा कि ‘यह तो ग्वालियर है? यहंा कभी पर्स नहीं कटा। इसलिये चिंता की बात नहीं।’
मैंने उसके पति से कहा कि ‘यह तीनों एक साथ बैठ जायेंगी। मैं उसकी जगह पर बैठ जाऊंगा।’
उसने कहा-‘नहीं आप साथ ही बैठना। टीसी से कहना तो वह एडजस्ट कर देगा।’
गाड़ी आयी हम उसमें चढ़े। उसकी सहेली अपने नवजात शिशु के साथ ढेर सारा सामान भी ले आयी थी। उसका सामान चढ़ाने की जल्दी में हम यह भूल गये कि एक अदद पर्स की रक्षा भी करना है।’
अंदर बोगी में पहुंचे तो टिकिट का ख्याल कर हमने पीछे पर्स वाली जगह पर हाथ मारा। वह नदारत था। वह हम चिल्लाये क्योंकि गाड़ी चलने वाली थी और बालिका की सहेली का टिकिट उसी में था।
हमारी आवाज सुनकर वहीं खड़े एक आदमी ने पास ही एक लड़के को पकड़ा और कहा-‘शायद, इसने काटा हो। क्योंकि यह आपके पास आने के बाद बाहर भागने की तैयारी में है।’
लड़का हाथ छुराकर भागा पर बोगी के बाहर ही खड़े सहेली के पति के साथ आये एक मित्र ने जो यह माजरा देख रहा था उसे पकड़ लिया। हमने उसकी तलाशी ली। वह भी ललकार रहा था कि ‘ले लो मेरी जेब की तलाशी।’
वाकई उसकी जेबों में हमारा पर्स नहीं था।
हमारा मन उदास होते होते हाथ उसके पेट पर चले गये। जहां ठोस वस्तु का आभास होने पर हमने वहीं हाथ डाला। हमारा पर्स आ हमारे हाथ में आ गया।
हमने तत्काल उसे अपने हाथ में लिया और ट्रेन में चढ़ आये और वह चल दी।
हमने देखा कुछ दूसरे लोग उसे मार रहे थे। यह माजरा उत्तर प्रदेश का एक सिपाही देख रहा था वह बोला-‘देखो, अब उसके लोग ही दिखाने के लिये मार रहे हैं ताकि दूसरे लोग न मारें।
हमें पर्स से ज्यादा इस बात की खुशी थी कि हमें रेल्वे के कर्मचारियों के सामने चोर नहीं बनना पड़ेगा।
हमारे यहां सुबह लाईट जाने के बाद तब आती है जब हम घर से बाहर निकलने वाले होते हैं। कभी हमारे निकलने से पहले आती है तो अपना ईमेल देख लें। अक्सर नहीं होता पर जब होता है तो हम अपनी जेबें ढंग से देखना भूल जाते हैं। कई बार तो पर्स बाहर स्कूटर पर बैठकर यात्रा करता हुआ मिलता है। उस दिन ऐसा ही हुआ।
हमारी मोबाइल की घंटी बजी। हमारे एक मित्र का था। उसने पूछा‘तुम्हारा पर्स कहां है?’
हमने अपनी जेब पर हाथ फिराया। रास्ते में वह किसी आटो वाले को मिला था जिसने उसमें से एक कागज पर मित्र का नंबर देखकर फोन किया था। उस आटो वाले के मोबाइल पर हमने फोन किया और उससे कहा कि ‘आप, पता दें तो समय मिलने पर मैं ले जाऊंगा। उसमें ए.टी.एम. को छोड़कर कोई खास चीज नहीं है। पैसे तो शायद ही हों!’
उसने कहा कि ‘आप अपना पता दें।’
हमने उसे पता दिया तो वह कहने लगा कि ‘आप उस इमारत के बाहर खड़े हो जाईये मेरे पास उधर की ही सवारी है।’
हमारे साथ खड़े एक दोस्त ने कहा-‘देखो भलाई करने वाले आज भी लोग हैं।’
हम दोनों उस इमारत के बाहर होकर उस आटो वाले का इंतजार करते रहे।
उसका नंबर हमारे पास था। वह आया तो हमने उसके नंबर से पहचान लिया।
उसके साथ बैठा एक लड़का उतरा और बोला-‘लीजिये अपना पर्स! इसमें पैसा एक भी नहीं था। आपका ए.टी.एम किसी दूसरे के हाथ लग जाता तो वह आपका नुक्सान कर सकता था। इसलिये आप हमें दो सौ रुपये दो।’
मेरे दोस्त का गुस्सा आ गया। उसने कहा-‘अरे किसे चला रहे हो। चलो हमारे सामने निकाल कर बताओ ए.टी.एम. से पैसे! यह बैंक पास में ही है। अभी जाकर कैंसिल करा देते। वैसे भी यह ए.टी.एम. पुराना हो चुका है हम इसे बदलवाने वाले हैं।’
मैंने उसे पचास रुपये देने चाहे तो उसने नहीं लिये। सौ रुपये दिये तो नानुकर करने लगा। अंदर से आटो वाला बोला-‘अरे साहब दो सौ रुपया दो। अगर हम यह पर्स अपने पास रख लेते तो!
मैंने हंसकर कहा‘मैं तो कुछ नहीं करता। मगर याद रखना इस पर्स को रखने पर एक आदमी रेल्वे स्टेशन पर पिट चुका है। वैसे यह पर्स चार बार खो चुका हूं पर हर बार वापस आता है। आना तो इसे मेरे पास ही था, अलबत्ता संभव है तुम नहीं तो कोई और लाता। हां, इसकी तुम्हें क्या सजा मिलती पता नहीं। यह लो सौ रुपये और चलते बनो।’
बाद में दोस्त बोला-‘यार, इससे अच्छा तो पर्स वापस लेते ही नहीं। नया ए.टी.एम बनवा लेते।’
मैंने उससे कहा-‘सच तो यह है कि इज्जत का सवाल है। उसने हमारा नाम पता तो ले ही लिया था। दस लोगों को पर्स देखकर बताता कि देखो ऐसे भी लोग हैं जिनके पर्स में एक पैसा भी नहीं होता। यह सबूत वापस लेने के लिये मैंने ऐसा किया।’

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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भावी सातवीं पीढ़ी के लिये-लघुकथा


दो धनी लोगों के पास पैसा फालतू पड़ा हुआ था। वह अपना व्यापार फैलाने के लिये एक नये बसे दूसरे शहर की ओर नया व्यापार स्थापित करने के लिये रवाना हुए। दोनों विचार करते हुए जा रहे थे कि कौनसा व्यवसाय करें ताकि उनका धन इतना हो जाये कि सात पीढि़यों तक वह काम आये। आने वाली पीढि़यां कुछ भी न करें तो तभी उसका जीवन यापन शान से चलता रहे। उनका अपने यहां एकत्रित धन के बारे में यह अनुमान था कि अभी वह आगे की छह पीढि़यों तक के लिये ही पर्याप्त है सातवी पीढ़ी तक वह पहुंचेगा उसमें उनको संदेह था।

बस में बैठकर दोनों बातें कर रहे थे। एक ने कहा-‘आखिर हम वहां कौनसा काम करेंगे? यह समझ में नहीं आ रहा। कैसे तेजी से पैसा आये यह सोचना जरूरी है क्योंकि अपनी भावी सातवीं पीढ़ी के लिये धन का इंतजाम करने के लिये हमें तेजी से कमा करनेा होगा। हमारी उमर भी अब हो चली है। आजकल उमर का क्या भरोसा? उससे पहले ही इस दुनियां से रवाना हो जायें।’
दूसरे ने कहा-’पहले चलकर वहां जायजा तो लें कि वहां के लोग और वातावरण कैसा है। वैसे हम दोनों को ऐसा काम करना चाहिये जो एक दूसरे का पूरक हो। जैसे मैं तुम किसी ऐसी खाने-पीने की चीज का काम करो जो लोगों का बीमार करती हो तो मैं ऐसी दवाई बेचने का काम करूंगा जो ठीक करती हो।’
पहले सेठ ने कहा-‘तुम पागल हो गये हो। लोग समझ नहीं जायेंगे।’
दूसरे सेठ-‘समझदार तो पहले दिन ही समझ लेंगे पर वह अपने ग्राहक नहीं होंगे पर ऐसे लोगों की संख्या कम ही होगी। तुम कोई ठंडी गरम चीज बनाकर बेचने का धंधा शुरू करना मैं और उनसे पैदा होने वाली बीमारियों के इलाज की दवा बेचूंगा।
पहला-‘पर लोग सीधे बीमार होकर तुम्हारे पास दवाई लेने आयेंगे। उसके लिये डाक्टर की जरूरत होगी।’
दूसरा-‘उसकी चिंता तुम मत करो। मैं खुद ही डाक्टर बन जाऊंगा।’
बस में एक चोर उनकी बात सुन रहा था और वह दोनों के पास आ गया और बोला-‘आप लोग मुझे डाक्टर बना देना।’
दूसरे सेठ ने पूछा-‘तुम कौन हो? और तुम्हारे पास कोई डिग्री है जो डाक्टर बनाकर बिठा दें।’
चोर बोला-‘मैं एक चोर हूं। कुछ दिन पहले एक चोरी करने गया था तो एक बैग को मैंने यह सोचकर हाथ में उठा लिया कि उसमें पैसा होगा पर उसमें तो डाक्टर होने की नकली प्रमाण पत्र हैं। असली होते तो कोई भी खरीद लेता पर नकली थे तो कोई खरीददार नहीं मिला। इतना बड़ा धोखा होने के बाद मैंने चोरी से सन्यास ले लिया। आपको डाक्टर की जरूरत है इसलिये मुझे अब इस समाज से बदला लेने का विचार आया जिसकी वजह से मुझे नकली डिग्री का बोझ उठाना पड़ा। आप तो बस एक छोटा अस्पताल खुलवा देना।

दूसरे सेठ ने कहा-‘ठीक है चलेगा, क्योंकि उस इलाके में अभी लोग बसना शुरू हुए हैं और इसलिये हम अपना धंधा जमाने जा रहे हैं, तुम्हारा कमीशन अधिक नहीं दे पायेंगे। वैसे हमने सुना है कि चोर भले ही चोरी छोड़ दे पर हेराफेरी छोड़ नहीं सकता। तुम हमें धोखा नहीं दोगे कैसे मान लें। कहीं तुम नकली डिग्री में पकड़े गये तो हमारे धंधे का क्या होगा?’

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दीपक भारतदीप, लेखक संपादक

चोर ने कहा-‘मैं तो पकड़ा जाता हूं और छूट जाता हूं। मेरा धंधा जम जाये तो मैं अपना कोई चेला भी वहीं फिट कर दूंगा जो आपकी आपातकाल में सेवा करेगा।’

पहला सेठ बोला-‘मैं तुम लोगों के साथ शरीक नहीं हो सकता। मेरा काम तो खाने पीने की चीजें बेचने का है, जरूरी थोड़े ही मैं कोई खराब चीज बेचूं।’
दूसरे सेठ ने कहा-‘पांच-दस रुपये में तुम क्या लोगों को अमृत बेचोगे। तुम जो कच्चा माल लाओगे क्या उसमें बीमारी के कीटाणु नहीं होंगे? अरे, सुनते नहीं लोग कहते हैं कि बाजार की चीज मत खाया करो। इसलिये ही न कि बाजार में चीज खुले में रखे अपने आप ही खराब हो जाती है। वैसे भी तुम अपना दुकान वहीं खोलना जहां इसका अस्पताल खुलवायें।
पहला सेठ बोला-‘ नहीं, मैं इसकी संगत नहीं कर सकता? मैं तो अच्छा सामान बेचूंगा।’
दूसरे सेठ ने कहा-‘ बीमार होने की चीजें बेचना ताकि लोग इसके अस्पताल में भर्ती हों तो उनको पूछने वाले आयेंगे तो वह भी तुम्हारे ग्राहक होंगे। अगर ऐसी चीजें नहीं बेचोगे तो अधिक संख्या में उस इलाके में आयेंगे नहीं। तुम्हें और कुछ नहीं करना! बस, अपनी चीजों को अधिक सफाई से नहीं बनाना और खुले में रखना हैं ताकि वहां हवा में फैलने वाले बीमारियों के कीटाणु उसमें अपनी जगह बना लें। वैसे तुम्हें अपनी भावी सातवीं पीढ़ी के लिये कमाना है या नहीं?

पहला सेठ चुप हो गया। तीनों अपने गंतव्य की ओर बढ़ते जा रहे थे।

शब्दखोजी और शब्दयोगी-व्यंग्य कविता


शब्दखोजी ने कहा
‘अब तो मैं नये शब्द रचूंगा
फिर कोई जोरदार रचना करूंगा
पुराने शब्द लिखते हुए अब
मेरा मन नहीं भरता
लिखने बैठता हूं तो
रचना करने से पुराने शब्दों से
पीछा छुड़ाने का मन करता
कई नये शब्द गढ़ लूंगा
फिर कोई अपनी भाषा के ग्रंथ का सृजन करूंगा
जिससे मेरा नाम प्रसिद्ध हो जायेगा’

शब्दयोगी ने कहा
‘खोज शब्द ही तुम्हें असहज बना देती है
अपनी इच्छा ही आदमी को हरा देती है
सहजत से रचना करने के लिये
अपने कदम जब उठ जाते हैं
शब्द अपने आप नया रूप गढ़ते हुए
कागज पर उतर आते हैं
लाखों लोग भी मिलकर बोलें तो
कोई नया शब्द नही बन पाता है
कोई एक सहजता से लिखे और बोले तो
वही भाषा का हिस्सा बन जाता है
कुछ शब्द छोटे करने या मिलाने से
अर्थ तो बना लेते
पर अपना सहज भाव गंवा देते
रचना करने की पहले सोचना
कोई शब्द खोजने की छोड़ो योजना
क्या पता कोई लिख जाये शब्द ऐसा
जिससे तुम और तुम्हारी रचना को
अपने आप अमरत्व मिल जायेगा’
………………………….

रहीम के दोहे:कपटी की संगत से भारी शारीरिक हानि


रहिमन लाख भली करो, अगुनी अगुन न जाय
राग सुनत पय पियत हू, सांप सहज धरि खाय

कविवर रहीम कहते हैं की असंख्य भलाई करे, परन्तु गुणहीन व्यक्ति का अवगुण नष्ट नहीं होता जैसे संगीत सुनते और दूध पीते हुए भी सर्प सहज भाव से व्यक्ति को काट लेता है.

रहिमन यहाँ न जाईये, जहाँ कपट को हेत
हम तन ढारत ढेकुली सींचत अपनों खेत

कविवर रहीम का कथन है वहाँ कदापि न जाईये, जहाँ प्रेम में कपट, छल छिपा हो. हमारे शरीर को तो वह कपटी सिंचाई के लिए कूएँ से पानी निकालने वाल यंत्र बना डालेगा और उससे अपना खेत सींच लेगा.

रहीम के दोहे:हंसिनी चुनती है केवल मोती


मान सहित विष खाप के, संभु भय जगदीश
बिना मान अमृत पिए, राहू कटाए शीश

कविवर रहीम कहते हैं सम्मान के के साथ विषपान कर शिव पूरे जगत में भगवान् स्वरूप हो गए. बिना सम्मान के अमृत-पान कर राहू ने चंद्रमा से अपना मस्तक कटवा लिया.

भाव-हमें वही कार्य करना चाहिए जिससे सम्मान मिले. समाज हित में कार्य करना विष पीने लायक लगता है पर प्रतिष्ठा उसी से ही बढती है. अपने स्वार्थ के लिए कार्य करने से यश नहीं बढ़ता बल्कि कई बार तो अपयश का भागी बनना पड़ता है. इसका एक आशय यह भी है हमें जो चीज सहजता और सम्मान से मिले स्वीकार करना चाहिए और कहीं हमें अपमान और घृणा से उपयोगी वस्तु भी मिले तो उसे त्याग देना चाहिए.

मान सरोवर ही मिले, हंसी मुक्ता भोग
सफरिन घरे सर, बक-बालकनहिं जोग

कवि रहीम कहते हैं की हंसिनी तो मान सरोवर में विचरण करती है और केवल मोतियों को ही चुनकर खाती है. सीपियों से भरे तालाब तो केवल बगुले और बच्चों के क्रीडा स्थल होते हैं.

भाव- विद्वान् और ज्ञानी व्यक्ति सदैव अपने जैसे लोगों से व्यवहार रखते हैं और उनके अमृत वचन सुनते हैं, किन्तु जो मूर्ख और अज्ञानी हैं वह सदैव बुरी संगति और आमोद-प्रमोद में अपना समय नष्ट करते हैं. जिस तरह हंसिनी केवल मानसरोवर में विचरण करती है उसी तरह ज्ञानी लोग सत्संग में अपने मन के साथ विचरण करते हुए अपना समय बिताते और ज्ञान प्राप्त करते हैं.