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सट्टा खेलने वालों को समाज सम्मान से नहीं देखता-आलेख


सच बात तो यह है कि सट्टा एक विषय है जिस पर अर्थशास्त्र में विचार नहीं किया जाता। पश्चिमी अर्थशास्त्र अपराधियों, पागलों और सन्यासियों को अपने दायरे से बाहर मानकर ही अपनी बात कहता है। यही कारण है कि क्रिकेट पर लगने वाले सट्टे पर यहां कभी आधिकारिक रूप से विचार नहीं किया जाता जबकि वास्तविकता यह है कि इससे कहीं कहीं देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक स्थिति प्रभावित हो रही है।
पहले सट्टा लगाने वाले आमतौर से मजदूर लोग हुआ करते थे। अनेक जगह पर सट्टे का नंबर लिखा होता था। सार्वजनिक स्थानों-खासतौर से पेशाबघरों- पर सट्टे के नंबर लिखे होते थे। सट्टा लगाने वाले बहुत बदनाम होते थे और उनके चेहरे से पता लग जाता था कि उस दिन उनका नंबर आया है कि नहीं। उनकी वह लोग मजाक उड़ाते थे जो नहीं लगाते थे और कहते-‘क्यों आज कौनसा नंबर आया। तुम्हारा लगा कि नहीं।’
कहने का तात्पर्य यह है कि सट्टा खेलने वाले को निम्नकोटि का माना जाता था। चूंकि वह लोग मजदूर और अल्प आय वाले होते थे इसलिये अपनी इतनी ही रकम लगाते थे जिससे उनके घर परिवार पर उसका कोई आर्थिक प्रभाव नहीं पड़े।

अब हालात बदल गये हैं। दिन ब दिन ऐसी घटनायें हो रही हैं जिसमें सट्टा लगाकर बरबाद हुए लोग अपराध या आत्महत्या जैसे जघन्य कार्यों की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। इतना ही नहीं कई जगह तो ऐसे सट्टे से टूटे लोग अपने ही परिवार के लोगों पर आक्रमण कर देते हैं। केवल एक ही नहीं अनेक घटनायें सामने आयी हैं जिसमें सट्टे में बरबाद हुए लोगों ने आत्मघाती अपराध किये। होता यह है कि यह खबरें आती हैं तो सनसनी कुछ यूं फैलायी जाती है जिसमें रिश्तों के खून होने की बात कही जाती है। कहा जाता है कि ‘अमुक ने अपने माता पिता को मार डाला’, अमुक ने अपनी पत्नी और बच्चों सहित जहर खा लिया’, ‘अमुक ने अपनी बहन या भाई के के घर डाका डाला’ या ‘अमुक ने अपने रिश्ते के बच्चे का अपहरण किया’। उस समय प्रचार माध्यम सनसनी फैलाते हुए उस अपराधी की पृष्ठभूमि नहीं जानते पर जब पता लगता है कि उसने सट्टे के कारण ऐसा काम किया तो यह नहीं बताते कि वह सट्टा आखिर खेलता किस पर था।’
सच बात तो यह है कि सट्टे में इतनी बरबादी अंको वाले खेल में नहीं होती। फिर सट्टे में बरबाद यह लोग शिक्षित होते हैं और वह पुराने अंकों वाले सट्टे पर शायद ही सट्टा खेलते हों। अगर खेलते भी हों तो उसमें इतनी बरबादी नहीं होती। बहुत बड़ी रकम पर सट्टा संभवतः क्रिकेट पर ही खेला जाता है। प्रचार माध्यम इस बात तो जानकर छिपाते हैं यह अनजाने में पता नहीं। हो सकता है कि इसके अलावा भी कोई अन्य प्रकार का सट्टा खेला जाता हो पर प्रचार माध्यमों में जिस तरह क्रिकेट पर सट्टा खेलने वाले पकड़े जाते हैं उससे तो लगता है कि अधिकतर बरबाद लोग इसी पर ही सट्टा खेलते होंगे।
अनेक लोग क्रिकेट खेलते हैं और उनसे जब यह पूछा गया कि उनके आसपास क्या कुछ लोग क्रिकेट पर सट्टा खेलते है तो वह मानते हैं कि ‘ऐसा तो बहुत हो रहा है।’
सट्टे पर बरबाद होने वालों की दास्तान बताते हुए प्रचार माध्यम इस बात को नहीं बताते कि आखिर वह किस पर खेलता था पर अधिकतर संभावना यही बनती है कि वह क्रिकेट पर ही खेलता होगा। लोग भी सट्टे से अधिक कुछ जानना नहीं चाहते पर सच बात तो यह है कि क्रिकेट पर सट्टा खेलना अपने आप में बेवकूफी भरा कदम है। सट्टा खेलने वालों को निम्न श्रेणी का आदमी माना जाता है भले ही वह कितने बड़े परिवार का हो। सट्टा खेलने वालों की मानसिकता सबसे गंदी होती है। उनके दिमाग में चैबीसों घंटे केवल वही घूमता है। देखा यह गया है कि सट्टा खेलने वाले कहीं से भी पैसा हासिल कर सट्टा खेलते हैं और उसके लिये अपने माता पिता और भाई बहिन को धोखा देने में उनको कोई संकोच नहीं होता। इतना ही नहीं वह बार बार मरने की धमकी देकर अपने ही पालकों से पैसा एैंठते हैं। कहा जाता है कि पूत अगर सपूत हो तो धन का संचय क्यों किया जाये और कपूत हो तो क्यों किया जाये? अगर धन नहीं है तो पूत ठीक हो तो धन कमा लेगा इसलिये संचय आवश्यक नहीं है और कपूत है तो बाद में डांवाडोल कर देगा पर अगर सट्टेबाज हुआ तो जीते जी मरने वाले हालत कर देता है।
देखा जाये तो कोई आदमी हत्या, चोरी, डकैती के आरोप में जेल जा चुका हो उससे मिलें पर निकटता स्थापित नहीं करे पर अगर कोई सट्टेबाज हो तो उसे तो मिलना ही व्यर्थ है क्योंकि इस धरती पर वह एक नारकीय जीव होता है। एक जो सबसे बड़ी बात यह है कि क्रिकेट पर लगने वाला सट्टा अनेक बड़े चंगे परिवारों का नाश कर चुका है और यकीनन कहीं न कहीं इससे देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है। देश से बाहर हो या अंदर लोग क्रिकेट पर सट्टा लगाते हैं और कुछ लोगों को संदेह है कि जिन मैचों पर देश का सम्मान दांव पर नहीं होता उनके निर्णय पर सट्टेबाजों का प्रभाव हो सकता है। शायद यही कारण है कि देश की इज्जत के साथ खेलकर सट्टेबाजों के साथ निभाने से खिलाड़ियों के लिये जोखिम भरा था।
इसलिये अंतर्राष्ट्रीय मैचों के स्थान पर क्लब स्तर के मैचों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। क्लब स्तर की टीमों मे देश के सम्मान का प्रश्न नहीं होता। सच क्या है कोई नहीं जानता पर इतना तय है कि क्रिकेट पर लगने वाला सट्टा देश को खोखला कर रहा है। जो लोग सट्टा खेलते हैं उन्हें आत्म मंथन करना चाहिये। वैसे तो पूरी दुनियां के लोग भ्रम में जी रही है पर सट्टा खेलने वाले तो उससे भी बदतर हैं क्योंकि वह इंसानों के भेष में कीड़े मकौड़ों की तरह जीवन जीने वाले होते हैं और केवल उसी सोच के इर्दगिर्द घूमते हैं और तथा जिनकी बच्चे, बूढे, और जवान सभी मजाक उड़ाते हैं।
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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बाज़ार में कोई नहीं लिखवा सकता दिल से-व्यंग्य कविता


बेचने के लिए लिखे या बोले शब्द
होते हैं बहुत चमकदार
पर पढ़कर या सुनकर
जल्दी खो देते हैं असर
क्योंकि उनकी आत्मा जल्दी मर जाती है
भले ही लगते हैं वजनदार
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बाज़ार में खरीदे और बेचे जाते शब्द
पढ़वाने और सुनाने के लिए
वैसे ही जैसे बाजार में रोटी भी
सजती है बिकने के लिए
शब्द भी कई रंगों से भर जाते हैं
नफरत और दिखावटी प्यार में
ढूंढते हुए अपनी जगह
दौलतमंदों के इशारे पर चलते
इसलिए महलों में पलते
फिर बिक जाते हैं बड़े बाज़ार में
बाज़ार में अपने लिए खुशी ढूंढता
आदमी उनसे भी लिपट जाता है
जैसे बाज़ार की रोटी खाता है
मगर बाजार के शब्द
सभी नहीं खरीद पाते
घर में ही दाल रोटी मुश्किल से पाते
लिखी जाती हैं उन पर भी कहानियां
शब्द बटोर लेते हैं
उन पर नाम, नामा और तालियाँ
फिर खो जाते हैं भीड़ में
बाज़ार जुट जाता है फिर नये तलाशने के लिए
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बिकने के लिए लिखे शब्द
चमककर फिर खो जाते
लोग पढ़कर और सुनकर सो जाते
बाज़ार में कोई नहीं लिखवा सकता दिल से
इसलिए वह इंसानों की रूह पर
असर नहीं कर पाते
लिखते हैं जो दिल से
वही जमीन और आसमान में छा जाते
बाज़ार में सौदागर कभी
नहीं ढूंढते दिल से लिखे शब्दों को
लिखने वाला कब आँखें मूंदे तो
मुफ्त में लूट लें शब्दों का खजाना
इसी इन्तजार में जुट जाते

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असली दानवों को नकली देवता नहीं पराजित कर सकते-हास्य कविता (hasya kavita)


प्रचार माध्यमों में अपराधियों की
चर्चा कुछ इस तरह ऐसे आती है
कि उनके चेहरे पर चमक छा जाती है
कौन कहां गया
और क्या किया
इसका जिक्र होता है इस तरह कि
असली शैतान का दर्जा पाकर भी
अपराधी खुश हो जाता है

पर्दे के नकली हीरो का नाम
देवताओं की तरह सुनाया जाता है
उसकी अप्सरा है कौन नायिका
भक्त है कौन गायिका
इस पर ही हो जाता है टाइम पास
असली देवताओं को देखने की किसे है आस
दहाड़ के स्वर सुनने
और धमाकों दृश्य देखने के आदी होते लोग
क्यों नहीं फैलेगा आतंक का रोग
पर्दे पर भले ही हरा लें
असली शैतानों को नकली देवता नहीं हरा सकते
रोने का स्वर गूंजता है
पर दर्द किसे आता है

कविता हंसने की हो या रोने की
बस वाह-वाह किया जाता है
दर्द का व्यापार जब तक चलता रहेगा
तब तक जमाना यही सहेगा
ओ! अमन चाहने वाले
मत कर अपनी शिकायतें
न दे शांति का संदेश
यहां उसका केवल मजाक उड़ाया जाता है

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अंतर्जाल पर विधा नहीं बल्कि कथ्य महत्वपूर्ण है-विशेष संपादकीय


आज यह दूसरा ब्लाग/पत्रिका है जिसने 30 हजार पाठ/पाठक संख्या को पार किया। इससे पहले हिंदी पत्रिका ने इस संख्या को पार किया था। इस ब्लाग/पत्रिका के बारे मेंें पहले भी लिख चुका हूं पर कहने के लिये यहां बहुत सारी सामग्री सामने आ जाती है। अंतर्जाल पर नित नित नये अनुभव हो रहे हैं और उनसे कुछ नया सीखने और समझने का अवसर मिलता है।
यह संख्या बहुत अधिक नहीं है और यहां रुकना भी नहीं है पर अंतर्जाल पर लिखना मेरे लिये एक अजीबोगरीब अनुभव है और यह बाहर पत्र पत्रिकाओं पर लिखने से कहीं अलग है। पत्र पत्रिकाओं में रचना छपने पर पाठक से सीधे कोई संवाद नहीं होता। हां, कुछ पत्र पत्रिकाओं में में अपनी रचनाओं की प्रशंसा में पत्र भी छपे देखे हैं पर वहां आलोचना कोई छपती नहीं देखी क्योंकि अगर वह आती भी होंगी तो कोई संपादक वहां क्यों छापना चाहेगा? फिर वहां आलोचना भेजने की सोचेगा भी कौन? पहले तो कोई जरूरत नहीं समझेगा और भेजेगा तो अपने वास्तविक नाम से नहीं भेजेगा। वैसे भी कोई पत्र पत्रिका अपने यहां छपी रचनाओं के बारे में आलोचनात्मक सामग्री छापना पसंद नहीं करती।

यहां त्वरित टिप्पणियों की सुविधा के कारण ब्लाग लेखक तथा पाठक अपनी प्रतिक्रिया देते हैं और यह अनुभव आम जीवन में लेखन के अनुभव से अलग है। कई बार कुछ आम पाठक ऐसे भी हैं जो छहः माह पुराने पाठ पर कमेंट देते हैं। कभी अच्छी और कभी बुरी भी। ऐसे में मन में उहापोह की स्थिति बनी रहती है कि उसे बनी रहने दें कि हटा दें। तब यह सोचकर कि अन्य पाठक भी वहां आयेंगे और उनका मन खराब न हो उसे स्पैम में डाल देते हैं और इंतजार करते हैं कि टिप्पणीकर्ता पुनः वहां आये और अपनी टिप्पणी न देखकर सवाल करे पर ऐसा हुआ नहीं।

कविताओं को लेकर फब्तियां कसते हैं कि क्या यह कविता है या गद्य! वह तो अपनी बात कहकर चले जाते हैं पर फिर दूसरी बार वह किसी कविता पर ही खुश होकर लिखते हैं कि क्या मजेदार है?
ऐसे अनेक उदाहरण देखकर यह लगता है कि अंतर्जाल पर किसी विद्या को लेकर कोई पूर्वाग्रह रखना ठीक नहीं है क्योंकि यहां महत्वपूर्ण होगा कथ्य और तथ्य। बस यह देखा जायेगा कि उसमें शब्दों का चयन और प्रस्तुतीकरण कैसा है? उसमें रचयिता का भाव क्या है और उसकी विषय सामग्री कैसी है?

बड़े बड़े आलेख बिना टिप्पणियों के पड़े हुए हैं और कविताओं पर निरंतर प्रतिक्रियायें आती हैं। आलेखों के विषयों पर सवाल उठाते हैं पर कविताओं पर नहीं। अव्यवसायिक और अप्रचारित लेखक हूं इसलिये लिखने में समय और ऊर्जा व्यय करने के लिये जूझना पड़ता है। कभी किसी विषय पर आलेख लिखने का मन हो पर समय और शक्ति नहीं हो तो सोचते हैं कि कविता से काम चला लो ब्लाग जगत में इसे ठेलना भी कहते हैं। क्योंकि पाठक संख्या बढ़ रही है पर उसकी गति संतोषजनक नहीं है इसलिये अपनी प्रेरणा बनाये रखने का काम भी स्वयं ही करना पड़ता है। कई बार गंभीर विषय पर भी कविता लिख लेते हैं कि कौन इसे हजारों लोग एक साथ पढ़ने वाले हैं बाद में इस विषय पर आलेख या व्यंग्य लिख लेंगे। कुल मिलाकर अपनी बात आम पाठक तक पहुंचाने के लिये एक संघर्ष करना ही पड़ रहा है क्योंकि मैं तो इसी भरोसे हूं कि आम पाठक ही मेरा प्रचारक हो सकता है। लिखने की प्रवृत्ति बचपन से ही है इसलिये लिखने के पूरे मजे लेता हूं। पैसा तो जेब से ही जा रहा है पर जीवन में जिज्ञासा का ऐसा भाव है कि लिखता ही चला जा रहा हूं। कई बार तो ऐसे पाठ भी लिखता हूं जिनका उद्देश्य लोगों को पढ़ाने की बजाय बल्कि स्वयं उनको पढ़ना होता है। हैरान हो जाता हूं जब शब्द भी आंखों से पढ़कर बता देते हैं कि उन्होने आज क्या पढ़ा? कविताओं की सफलता ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अगर कथ्य और तथ्य प्रभावपूर्ण हों तो वह यहां स्वीकार्य होंगी।
जहां तक अपने लिखे पाठों से मिले अस्पष्ट संदेशों को पढ़ा है लोगों का अध्यात्मिक सामाजिक चिंतन और हास्य व्यंग्य में समान रुचि है। हिंदी ब्लाग जगत में पता नहीं मेरा क्या मुकाम है या होगा इस पर मैं विचार नहीं करता मगर मुझे लोगों से प्यार पाकर बहुत अच्छा लगता है। मेरी मान्यता है कि अगर आप लेखक हैं तो भले ही आप उससे पैसा नहीं कमाते पर लोग आपको सम्मान और प्यार देते हैं जो कि या तो धन कमाने पर मिलता है या पद पाने पर। जब लिखना प्रारंभ किया तो पता ही नहीं था यह यात्रा कहां जायेगी। इसी लेखनी से मिले नाम की खातिर 1980 में एक अखबार में फोटो कंपोजिंग आपरेटर के रूप में अपना जीवन शुरू किया। उस समय विंडो नहीं था पर आज विंडो पर काम करने में आसानी होती है। फिर कुछ समय तक संपादक भी रहा और वहां के गुरु ने लिखने के गुर के साथ जीवन के दांव भी बताये। वह अध्यात्मिक नहीं थे पर उनकी शख्सियत मैं कभी नहीं भूलता। वह लिखने में किसी प्रकार के पूर्वाग्रह से दूर रहने के साथ ही निंरतर अभ्यास करने की प्रेरणा देते थे। यही कारण है कि जब कंप्यूटर पर लिखने के लिये बैठता हूं तो विचारों का क्रम आता चला जाता है।

जिनको मेरी कविताओं से नाराजगी है उन्हें इस बात के लिये अपना भाग्य सराहना चाहिये कि मुझे टिककर एक जगह बैठने की आदत नहीं है वरना मेरे लिये एक घंटे लिखने का मतलब होता है दस हास्य कवितायें। मैंने लोगों के हृदय में कविताओं के प्रति चिढ़ का भाव देखा है इसलिये अभी कम ही लिखता हूं। चूंकि ब्लाग पर कुछ न कुछ लिखने का पक्का विचार कर रखा है इसलिये कवितायें ही लिख लेता हूं। हां, अगर इससे कभी थोड़ी आय वगैरह की संभावना बनी तो फिर बड़े बड़े हास्य व्यंग्य भी लिखने का विचार कर सकता हूं। नहीं भी बनी तो अनेक ब्लाग की जगह एक ही ब्लाग पर सप्ताह में एक बार अवश्य लिखूंगा।
अंतर्जाल की यह यात्रा कैसे चलती रहेगी पता नहीं पर अपने अनुभव से सीखता हुआ अपने पाठकों के लिये ऐसे अवसरों पर उनको लिखता हूं। आजकल उमस बहुत है इसलिये अधिक लिखने का मन भी नहीं होता पर ऐसे अवसर लिखने का मोह संवरण भी नहीं कर सका। प्रशंसकों का आभारी हूं और आलोचकों से क्षमाप्रार्थी।
अनजाने में बहुत सारे ब्लाग/पत्रिका बना लिये पर सभी पर पाठकों की नजरें रहती हैं और शायद कुछ अदृश्य मित्र हैं जो इशारा कर जाते हैं कि देखो अपने इस ब्लाग/पत्रिका को जो आज बीस/पच्चीस/तीस हजार की पाठक संख्या के पार है। शायद वह चाहते हैं कि मैं कुछ लिखूं उन्हीं को समर्पित यह मेरा विशेष संपादकीय

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यह मूल पाठ इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्द- पत्रिका’ पर लिखा गया। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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पहले बनाओ पंगेबाज फिर बताओ चंगेबाज-हास्य व्यंग्य कविता


घर से निकले ही थे पैदल
देखा फंदेबाज को भागते हुए आते
इससे पहले कुछ कह पाते
वह हांफते हुए गिर पड़ा आगे
और बोला
’‘दीपक बापू अभी मुझे बचा लो
चाहे फिर भले ही अपनी हास्य कविता सुनाकर
हलाल कर मुझे पचा लो
रास्ते में उस पंगेबाज को जैसे ही मैंने
कहा बापू से मिलने जा रहा हूं
पत्थर लेकर मारने के लिये मेरे पीछे पड़ा है
सिर फोड़ने के लिये अड़ा है
कह रहा है ‘टीवी पर तमाम समाचार आ रहे है
बापू के नाम से बुरे विचार मन में छा रहे हैं
तू उनका नाम हमारे सामने लेता है
उनको तू इतना सम्मान देता है
अभी तेरा काम तमाम करता हूं
वीरों में अपना नाम करता हूं’
देखो वह आ रहा है
अच्छा होगा आप मुझे बचाते’’

पंगेबाज भी सीना तानकर खड़ा हो गया
हांफते हांफते बोला फंदेबाज
‘अच्छा होता आप इसे भी
अपनी हास्य कविता सुनाते’

कविता का नाम सुनकर भागा पंगेबाज
उसके पीछे दौडने को हुए
फंदेबाज का हाथ छोड़ने को हुए
पर अपनी धोती का एक हिस्सा
उसके हाथ में पाया
उनकी टोपी पा रही थी
अपने ही पांव की छाया
अपनी धोती को बांधते
टोपी सिर पर रखते बोले महाकवि दीपक बापू
‘कम्बख्त जब भी हमारे पास आना
कोई संकट साथ लाना
क्या जरूरत बताने थी उसे बताने की कि
हम हास्य कविता रचाते
कविता सुनने से अच्छे खासे तीसमारखां
अपने आपको बचाते
हम उसे पकड़कर अपनी कविता सुनाते
तुम अपने मोबाइल से कुछ दृश्य फिल्माते
वह नहीं भागता तो हम मीडिया में छा जाते
कैसे बचाया एक फंदेबाज को पंगेबाज से
इसका प्रसारण और प्रकाशन सब जगह करवाते
आजकल सभी जगह हिट हो रहे पंगे
रो रहे है फ्लाप काम करके भले चंगे
ऐसे ही दृश्य बनते हैं खबर
खींचो चाहे दृश्य और शब्द
जैसे कोई हो रबड़
पहले बनाते हैं ऐसी योजना जिससे
मशहूर हो जायें पंगे
फिर जिनको पहले बताओ बुरा
बाद में बताओ उनको चंगे
पहले बनाओ पंगेबाज फिर बताओ चंगेबाज
कितना अच्छा होता हम सीधे प्रसारण करते हुए
अपनी हास्य कविता से पंगेबाज को भगाते
हो सकता है उससे हम भी नायक बन जाते
हमारे ब्लाग पर भी छपती वह कविता
शायद इसी बहाने हिट हो जाते
इतने पाठ लिखकर भी कभी हिट नहीं पाते
पंगेबाज कुछ देर खड़ा रहा जाता तो
शायद हम भी कुछ हास्य कविता पका लेते
अपने पाठको का पढ़ाकर सकपका देते
पर तुमने सब मामला ठंडा कर दिया
अब हम तो चले घर वापस
इस गम में
कोई छोटी मोटी शायरी लिख कर काम चलाते
………………………………………………………

यह हास्य कविता काल्पनिक है तथा किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसक लिये जिम्मेदार होगा
दीपक भारतदीप

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