Category Archives: hindi poem

साधू, शैतान और इन्टरनेट-हिंदी हास्य व्यंग्य कविता


शैतान ने दी साधू के आश्रम पर दस्तक
और कहा
‘महाराज क्या ध्यान लगाते हो
भगवान के दिए शरीर को क्यों सुखाते हो
लो लाया हूँ टीवी मजे से देखो
कभी गाने तो कभी नृत्य देखो
इस दुनिया को भगवान् ने बनाया
चलाता तो मैं हूँ
इस सच से भला मुहँ क्यों छुपाते हो’

साधू ने नही सुना
शैतान चला गया
पर कभी फ्रिज तो कभी एसी ले आया
साधू ने कभी उस पर अपना मन नहीं ललचाया
एक दिन शैतान लाया कंप्यूटर
और बोला
‘महाराज यह तो काम की चीज है
इसे ही रख लो
अपने ध्यान और योग का काम
इसमें ही दर्ज कर लो
लोगों के बहुत काम आयेगा
आपको कुछ देने की मेरी
इच्छा भी पूर्ण होगी
आपका परोपकार का भी
लक्ष्य पूरा हो जायेगा
मेरा विचार सत्य है
इसमें नहीं मेरी कोई माया’

साधू ने इनकार करते हुए कहा
‘मैं तुझे जानता हूँ
कल तू इन्टरनेट कनेक्शन ले आयेगा
और छद्म नाम की किसी सुन्दरी से
चैट करने को उकसायेगा
मैं जानता हूँ तेरी माया’

शैतान एकदम उनके पाँव में गिर गया और बोला
‘महाराज, वाकई आप ज्ञानी और
ध्यानी हो
मैं यही करने वाला था
सबसे बड़ा इन्टरनेट तो आपके पास है
मैं इसलिये आपको कभी नहीं जीत पाया’
साधू उसकी बात सुनकर केवल मुस्कराया

आतंकवाद से लड़ने के दावे-हास्य कविता और चिंत्तन लेख


आतंकवाद एक व्यापार है, और यह संभव नहीं है कि बिना पैसे लिये कोई आतंक फैलाता हो। अभी अखबार में एक खबर पढ़ी थी कि उत्तरपूर्व में केंद्र सरकार ने आर्थिक विकास के लिये जो धन दिया उसमें से कुछ आतंकी संगठनों के पास पहुंचा जिससे आतंकियों ने हथियार खरीदे। स्पष्टतः इन हथियारों का पैसा उसके निर्माताओं को मिला होगा। इस संबंध में केंद्रीय खुफिया ऐजेंसियों की जानकारी के आधार पर कुछ सरकारी अधिकारियों, ठेकेदारों तथा अन्य लोगों के खिलाफ़ मामला दर्ज किया गया है और यकीनन यह इस तरह के सफेदपोश लोग हैं जो कहीं न कहीं समाज में अपना चेहरा पाक साफ दिखते हैं। जब आतंक की बात आती है तो चंद मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रभावित क्षेत्रों में धर्म और धन के आधार पर शोषण का आरोप लगाते हैं पर जब विकास के धन से आतंक को सहायता मिलती है तो उस पर खामोश हो जाते हैं।
ऐसे में आतंक को रंग से पहचाने वाले बुद्धिजीवियों पर तरस आता है पर उनको भी क्या दोष दें। सभी किसी न किसी रंग से प्रायोजित हैं और उनको अपने प्रायोजकों की बज़ानी है। एक स्वतंत्र और मौलिक लेखक होने के नाते हमने तो यह अनुभव किया है कि संगठित प्रचार माध्यमों-टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा रेडियो-में हमें जगह इसलिये नहीं मिल पाई क्योंकि किसी रंग ने प्रयोजित नहीं किया। हम इस पर अफसोस नहीं जता रहे बल्कि अपने जैसे स्वतंत्र लेखकों ओर पाठकों को यह समझा रहे हैं कि जब किसी आतंकवाद या उग्र आंदोलन का समर्थक कोई प्रसिद्ध बुद्धिजीवी बयान दे तो समझ लें कि वह दौलतमंदों का प्रयोजित बुत बोल रहा है। यकीनन उसे प्रयोजित करने वाला कोई ऐसा दौलतमंद ही हो सकता है जो अपने रंग की रक्षा केवल इसलिये करना चाहता है जिससे कि उसके काले धंधे चलते रहें। पहले गुस्सा आता था पर अब हंसी आती है जब आतंक या उग्रता की पहचान लिये आंदोलनों के समर्थक बुद्धिजीवी बयान देते हैंे और समझते हैं कि कोई इस बात को जानता नहीं है। एक रंग समर्थक बुद्धिजीवी उग्र बयान देता है तो उस पर अनेक बयान आने लगते हैं इस तरह आतंक के साथ ही उस पर बयान और बहस भी प्रचार का व्यापार हो गये हैं।
इस पर एक हास्य कविता लिखने का मन था पर लगा कि उसमें पूरी बात नहीं कह पायेंगे इसलिये यह गद्य भी लिखकर मन की भड़ास निकाल दी। इसका उद्देश्य यही है कि दुनियां भर के सभी शासक आतंकवाद से लड़ने का दावा करते हैं पर वह है कि बढ़ता ही जा रहा है। स्पष्टतः ऐसे में जिम्मेदार लोगों की अकुशलता, कुप्रबंधन के साथ इसमें कहीं न कहीं सहभागिता का भी शक होता है। सभी देश अपने अपने ढंग से आतंकवाद को समझ रहे हैं इसलिये लड़ कोई नहीं रहा। दावे केवल दावे लगते हैं
इस पर यह एक बेतुकी हास्य कविता प्रस्तुत है।

पोते ने दादा से कहा
‘‘बड़ा होकर मैं भी आतंकवादी बनूंगा
क्योंकि उनके साक्षात्कार टीवी पर आते हैं,
समाचारों में भी वह छाते हैं,
पूरी दुनियां में मेरा नाम छा जायेगा।
अमेरिका भी मुझसे घबड़ायेगा।’’

तब दादा ने हंसते हुए कहा
‘‘बेटा, यह क्या सपना तूने पाल लिया,
आतंकवादी सबसे बड़ा है यह कैसे मान लिया,
तू मादक द्रव्य का तस्कर बन जाना,
चाहे तो क्रिकेट पर सट्टा भी लगवाना,
मन में आये तो जुआ घर खोल देना,
अपहरण उद्योग भी बुरा नहीं है,
अपहृत के बदले भारी रकम मोल लेना,
जब ढेर सारा पैसा तेरे पास आयेगा,
तब क्या पहरेदार, क्या चोर,
आतंकवादी भी तेरे आगे सिर झुकायेगा।
बेटा, यह भी एक व्यापार है,
पर इसमें खतरे अपार हैं,
धंधा चाहे काला हो
पर दौलत होगी तो
हमेशा अपने को सफेदपोश पायेगा,
आतंकी बनकर भी रहेगा गुलाम,
हर कोई अपना रंग तुझ पर चढ़ायेगा।
टीवी पर चेहरा आने ,
या अखबार में खबर छप जाने पर
तेरे को चैन नहीं आयेगा,
मरने का डर तेरे को सतायेगा,
काम निकल जाने पर प्रायोजक ही

तेरा बैरी होकर ज़माने का नायक बन जायेगा
पहले तेरे को मरवायेगा,
या फिर इधर से उधर दौड़ाते हुए
तेरा पीछा करते अपने को दिखायेगा।
मेरी सलाह है
न तो सफेदपोश प्रयोजक बन,
न आतंकवादी होकर तन,
अपना छोटा धंधा या नौकरी करना,
चाहे तो कविता लिखना
या चित्र बनाकर उसमें रंग भरना,
दूसरे खुश हो या नहीं
तुम अपने होने का खुद करना अहसास,
दिल की खुशी का बाहर नहीं अंदर ही है वास,
ऐसा चेहरा रखना अपना
जो खुद आईने में देख सके,
दौलत, शौहरत और ताकत में
अंधे समाज को भला क्या दिखायेगा।
मुझे गर्व होगा तब भी जब
आतंकवादी की तरह प्रसिद्ध न होकर
अज्ञात श्रमजीवी की सूची में अपना नाम लिखायेगा।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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शादी और तलाक का प्रायोजित नाटक-हिन्दी व्यंग्य (shadi aur talaq-hindi vyangya)


हम यह बात तो पहले ही लिख देते कि ‘पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी तथा भारत की महिला टेनिस खिलाड़िन की यह शादी पंदह को होकर रहेगी’ तो यकीनन अंतर्जाल पर पढ़ने वाले पाठक लोहा मान जाते। ऐसा नहीं हो सका क्योंकि डार्विन के विकासवाद को लिखे एक लेख-जिसमें व्यंग्य और चिंतन दोनों प्रकार का भाव शामिल था-पर मित्र ब्लाग लेखकों ने अपनी टिप्पणियों से हड़का नहीं दिया जिससे यह सोचकर रुकना पड़ा कि एक दिन में एक साथ दो मूर्खतापूर्ण लेख प्रस्तुत नहीं करना चाहिये। दरअसल कुछ दिन पहले उन्मुक्त जी ने एक लेख में डार्विन के विकासवाद सिद्धांत को पतंजलि योग के संदर्भ में देखने का आग्रह हमसे सार्वजनिक रूप से पाठ लिखकर किया था। विकासवाद पर हमारी स्मृतियों में पहले से ही कुछ था पर विज्ञान के विषय में कोरे होने कारण वैसे भी कभी कुछ नहीं लिखते। उस दिन लिखा। एक विद्वान वकील ब्लाग लेखक मित्र ने कड़ी टिप्पणी की कि‘आप इस विषय पर कुछ नहीं जानते। आपने निराश किया।
टिप्पणियां दूसरी भी आईं पर हमारे मन में यह शक हो गया कि हम लिखने में कोई गलती कर गये हैं। संयोगवश दूसरे ब्लाग पर उन्मुक्त जी की टिप्पणी भी आयी पर उसमें उन्होंने कहीं हमारे विकासवाद के सिद्धांतों की जो स्मृतियां हैं उन पर आपत्ति नहीं की। इधर पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ी तथा भारत की एक टेनिस महिला खिलाड़ी-जिसे विश्व में नबेवीं वरीयता प्राप्त है-की शादी का नाटक सामने आ गया। इसी पाकिस्तानी खिलाड़ी से भारत के उसी शहर की एक लड़की के साथ पहले ही हो चुकी शादी की चर्चा भी हो रही थी जहां वह महिला टेनिस खिलाड़ी रहती है। वह भारत की महिला खिलाड़िन से शादी करने के पूर्व तलाक चाहती थी। इस पर भारत के संगठित प्रचार माध्यमों-टीवी, रेडियो और समाचार पत्र पत्रिकाओं- ने ढेर सारे समाचार प्रकाशित किये। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि विज्ञापनों का व्यापार खूब हुआ। जब कोई खास खबर होती र्है-या प्रायोजित कर बनाई जाती है-तब हर मिनट में विज्ञापन आता है। विज्ञापनदाताओं के इससे कोई मतलब नहीं होता कि किस कार्यक्रम में उनके विज्ञापन दिखाये गये बल्कि उनके प्रबंधक तो यह देखते हैं कि उस समय कितने दर्शक उसे देख रहे होंगे। इस लेखक ने कई बार यह बात लिखी है कि ऐसा लगता है कि आर्थिक तथा मनोरंजन क्षेत्र के विशेषज्ञ बकायदा योजना पूर्वक खबरें तैयार करवाते हैं या फिर कोई उनके लिये कोई स्वयंसेवी संगठन है तो निरंतर इसके लिये लगा रहता है जिसे इनसे रकम प्राप्त होती है।
यह शादी होकर रहेगी-यह बात हम उसी दिन लिखते अगर एक दिन पहले वर्डप्रेस पर प्रकाशित पाठ को अगले दिन ब्लागस्पाट पर बेफिक्री से नहीं  प्रकाशित करते। वह ब्लाग अनेक अन्य लेखक मित्रों के बीच में जाता है। ऐसे में चुनौती देती टिप्पणी-वह भी एक जानकारी ब्लाग लेखक से मिले-दिमागी रूप से हिला देती है। हमने डार्विन के विकासवाद पर अपने ही एक अन्य गुरु मित्र श्री एल.एम त्रिवेदी जी-जो अब ब्लाग पर अब कवितायें भी लिखते हैं-की शरण ली। उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि हमारी सोच ठीक है और विकासवाद का सिद्धांत वही है जैसा कि हम सोच रहे थे। उन्होंने कहा कि तुम तो उस ब्लाग का लिंक मेरे ब्लाग पर दे जाओ या ईमेल पर भेजो मैं पढ़कर उस टिप्पणी दूंगा।
इधर हमारे दिमाग में यह शादी का चक्कर भी फंसा हुआ था। फिर कुछ लिखने का समय नहीं मिला क्योंकि एक आम लेखक के लिये ढेर सारे अन्य संकट भी हुआ करते हैं। टीवी तो अब देखना बंद सा हो गया। कहते हैं कि एक झूठ सौ बार बोला जाये तो अपने को भी सच लगने लगता है। यही हाल हमारा है। अधिकतर खबरें और बयान समय पास करने के लिये प्रायोजित करने के लिये प्रस्तुत किये जाते हैं यह बात लिखते और कहते हुए हमारे दिमाग में इस तरह घर कर गयी है कि कहना ही क्या? हर खबर या बयान के पीछे हमें बस प्रायोजन ही नज़र आता है।
जिस पाकिस्तानी क्रिकेटर की शादी और तलाक का यह ड्रामा हुआ उस पर उसी के देश के पुराने तेज गेंदबाज ने फिक्सर होने का आरोप लगाया बल्कि यहां तक भी कह डाला कि वह अब टेनिस में फिक्सिंग का धंधा शुरु करने वाला है। कथित दूल्हा पाकिस्तानी क्रिकेट के चरित्र पर क्या लिखें? जिस समय यह पंक्तियां लिखी जा रही हैं उस पर अनुशासनहीनता के आरोप में एक साल का प्रतिबंध लगा हुआ है। यानि वह अपने ही देश में खलनायक है। पंद्रह अप्रैल को उसकी शादी के अवसर पर तोहफे के रूप में इस प्रतिबंध से मुक्ति देने के प्रस्ताव पर भी चल रहा है।
पुरानी शादी को लेकर चल रहे विवाद में पहली पत्नी का प्रचार आक्रमण-जी हां, यह शब्द व्यापक अर्थ में लें-का सामना कर रहे उस पाकिस्तानी क्रिकेटर और अपने होने वाले पति की बचाव में उतरी महिला टेनिस खिलाडी ने बचाव करते हुए कहा कि ‘वह लोग (पहली बीबी और उसके माता पिता) कैसे सामने आयेंगे यह बताने कि उन्होंने एक इंसान(पाकिस्तानी क्रिकेटर) को बेवकूफ बनाया है?
हम पाकिस्तानी क्रिकेट की पहली और संभावित पत्नी पर कुछ नहीं लिखेंगे। क्योंकि हमारा मानना है कि छोटी उमर की लडकियां इतनी चालाक नहीं होती कि वह कोई स्वयं दांव पैंच खेंलें पर उनको बरगला कर शातिर लोग अपने पक्ष में कर ही लेते हैं। इस शादी तलाक नाटक में हमें नहीं  लगता कि लड़कियों की कोई सीधी भूमिका इस नाटकबाजी में होगी पर उनका इस्तेमाल किया गया है यह बात तय लगती है।
शक के कई कारण है। इस शादी नाटक पर ढेर सारा सट्टा लगा-यह बात संगठित प्रचार माध्यम स्वयं कह रहे हैं। इस नाटक के केंद्र बिन्दु में पाकिस्तान और मध्य एशियाई देशों का नाम अनेक बार आया और तीनों पात्र कहीं न कहीं उनसे जुड़े हुए थे। फिर क्रिकेट और टेनिस जैसे वह खेल जुड़े हुए हैं जिन पर बाजार तथा प्रचार माध्यमों का प्रत्यक्ष नियंत्रण है-संगठित प्रचार माध्यम कई बार यह बता चुके हैं कि इन पर सट्टा चलता है।
टीवी चैनलों और अखबारों की सुर्खियों में इस शादी तलाक नाटक को लाया गया दर्शकों और  पाठकों  के मनोरंजन के लिये-जिसमें व्यतीत समय पर करोड़ों रुपयों की आय होती है। पाकिस्तान के जिस पुराने तेज गेंदबाज ने अपने ही पाकिस्तानी दूल्हा क्रिकेटर पर यह भी आरोप लगाया कि उसने नया प्यार पाने के लिये 18 लाख डालर खर्च किये। इधर यह भी समाचार है कि भारत की महिला खिलाड़ी उस पाकिस्तानी से शादी कर दुबई में बसना चाहती है। फिर ऐसा दूल्हा जिस पर उसके ही देश के खिलाड़ी फिक्सिंग का आरोप लगा रहे हों तब लगता है कि उसने इस नाटक में वारे न्यारे किये होंगे। एक बात याद रखने वाली बात है कि भारत के बाहर अन्य देशों के खिलाड़ियों को इतने विज्ञापन नहीं मिलते इसलिये उनके पास अमीर होने के ऐसे ही नुस्खे हैं। क्रिकेट खिलाड़ी ने स्वयं यह नाटक न रचा हो पर उसके पीछे स्थित किसी प्रबंधकीय समूह ने यह सब रचा हो। वैसे भी वह मुखौटा ही लग रहा था।
इस नाटक मंडली के भारत से जुड़े सदस्यों ने मध्य एशिया के अमीरों को धर्म आधार विषय बनाकर खुश कर दिया होगा। मध्य एशिया के शिखर पुरुषों की यह खूबी है कि वह केवल पैसे से  नहीं  बल्कि अपने मजहब का प्रचार देखकर भी उछलते हैं। पांच छह दिन भारतीय टीवी चैनलों पर एक मजहब के ठेकेदार ही आते रहे। अन्य मजहब के लोगों को तो मानो यह बताया जा रहा था कि जैसे यह आपका कोई विषय नहीं है और न लेना देना। आपकी औकात तो दर्शक की है जिसे चाहे नाटक दिखायें चाहें विज्ञापन। इसलिये अपने दिमाग के दरवाजे बंद कर हमारा यह धार्मिक और आर्थिक कार्यक्रम देखो।
हम यह पहले ही दिन लिखते पर एक ही दिन दो मूर्खतायें नहीं करना चाहिये। कम से कम अंतर्जाल पर जहां टिप्पणियों की सुविधा है। वैसे श्री त्रिवेदी जी से दोनों मसलों पर हमारी चर्चा हुई थी। उन्होंने हौंसला बढ़ाया तो अब सोच रहे हैं कि कुछ अन्य विषयों पर भी इस तरह लिखा जाये। बात गलत निकले तो हार मान लो। सच निकले तो वाह वाह तो्र होगी ही।
वैसे पहले दिन से हमने अनुमान लगाया था वह एक समय गलत होता दिख रहा था तब लगा कि अच्छा हुआ नहंी लिखा पर बाद में जब परिणाम सामने आया तो लगा कि एक मौका अपने हाथ से निकल गया। बहरहाल अब ऐसे सीधे प्रसारित नाटकों का अंत का अनुमान पहले लगाना आसान नहीं है क्योंकि इस पर भी सट्टा चलता है और इसमें अभिनय करने वाले पात्रों की डोर उनके हाथों में ही होती है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हंसी हो या स्यापा बाजार में बिकता है- हिन्दी शायरी


खुशी हो या ग़म
हंसी हो या स्यापा
अब बाजार में बिकता है,
कब क्या करना है
प्रचार में इशारा दिखता है।
कभी दिल को गुदगुदाना,
कभी आंखों में आंसु लाना,
सौदागरों का करना है जज़्बातों का सौदा
उनको नहीं मतलब इस बात से कि
किसका बसेगा
या किसका उजड़ेगा घरौंदा,
कलम का गुलाम
उनके पांव तले
उनकी उंगलियों के इशारे पर
हर पल की कहानी लिखता है।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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ब्लॉग पर लिखा गया भी साहित्य है-हिन्दी आलेख (Literature written on the blog – the Hindi article)


हिंदी की विकास यात्रा नहीं रुकेगी। लिखने वालों का लिखा बना रहेगा भले ही वह मिट जायें। पिछले दिनों कुछ दिलचस्प चर्चायें सामने आयीं। हिंदी के एक लेखक महोदय प्रकाशकों से बहुत नाखुश थे पर फिर भी उन्हें ब्लाग में हिंदी का भविष्य नहीं दिखाई दिया। अंतर्जाल लेखकों को अभी भी शायद इस देश के सामान्य लेखकों और प्रकाशकों की मानसिकता का अहसास नहीं है यही कारण है कि वह अपनी स्वयं का लेखकीय स्वाभिमान भूलकर उन लेखकों के वक्तव्यों का विरोध करते हुए भी उनके जाल में फंस जाते हैं।
एक प्रश्न अक्सर उठता है कि क्या ब्लाग पर लिखा गया साहित्य है? जवाब तो कोई नहीं देता बल्कि उलझ कर सभी ऐसे मानसिक अंतद्वंद्व में फंस जाते हैं जहां केवल कुंठा पैदा होती है। हमारे सामने इस प्रश्न का उत्तर एक प्रति प्रश्न ही है कि ‘ब्लाग पर लिखा गया आखिर साहित्य क्यों नहीं है?’

जिनको लगता है कि ब्लाग पर लिखा गया साहित्य नहीं है उनको इस प्रश्न का उत्तर ही ढूंढना चाहिए। पहले गैरअंतर्जाल लेखकों की चर्चा कर लें। वह आज भी प्रकाशकों का मूंह जोहते हैं। उसी को लेकर शिकायत करते हैं। उनकी शिकायतें अनंतकाल तक चलने वाली है और अगर आज के समय में आप अपने लेखकीय कर्म की स्वतंत्र और मौलिक अभिव्यक्ति चाहते हैं तो अंतर्जाल पर लिखने के अलावा कोई चारा नहीं है। वरना लिफाफे लिख लिखकर भेजते रहिये। एकाध कभी छप गयी तो फिर उसे दिखा दिखाकर अपना प्रचार करिये वरना तो झेलते रहिये दर्द अपने लेखक होने का।
उस लेखक ने कहा-‘ब्लाग से कोई आशा नहीं है। वहां पढ़ते ही कितने लोग हैं?
वह स्वयं एक व्यवसायिक संस्थान में काम करते हैं। उन्होंने इतनी कवितायें लिखी हैं कि उनको साक्षात्कार के समय सुनाने के लिये एक भी याद नहीं आयी-इस पाठ का लेखक भी इसी तरह का ही है। अगर वह लेखक सामने होते तो उनसे पूछते कि ‘आप पढ़े तो गये पर याद आपको कितने लोग करते हैं?’
अगर ब्लाग की बात करें तो पहले इस बात को समझ लें कि हम कंप्यूटर पर काम कर रहे हैं उसका नामकरण केल्कूलेटर, रजिस्टर, टेबल, पेन अल्मारी और मशीन के शब्दों को जोड़कर किया गया है। मतलब यह है कि इसमें वह सब चीजें शामिल हैं जिनका हम लिखते समय उपयोग करते हैं। अंतर इतना हो सकता है कि अधिकतर लेखक हाथ से स्वयं लिखते हैं पर टंकित अन्य व्यक्ति करता है और वह उनके लिये एक टंकक भर होता है। कुछ लेखक ऐसे भी हैं जो स्वयं टाईप करते हैं और उनके लिये यह अंतर्जाल एक बहुत बड़ा अवसर लाया है। स्थापित लेखकों में संभवतः अनेक टाईप करना जानते हैं पर उनके लिये स्वयं यह काम करना छोटेपन का प्रतीक है। यही कारण है अंतर्जाल लेखक उनके लिये एक तुच्छ जीव हैं।
इस पाठ का लेखक कोई प्रसिद्ध लेखक नहीं है पर इसका उसे अफसोस नहीं है। दरअसल इसके अनेक कारण है। अधिकतर बड़े पत्र पत्रिकाओं के कार्यालय बड़े शहरों में है और उनके लिये छोटे शहरों में पाठक होते हैं लेखक नहीं। फिर डाक से भेजी गयी सामग्री का पता ही नहीं लगता कि पहुंची कि नहीं। दूसरी बात यह है अंतर्जाल पर काम करना अभी स्थापित लोगों के लिये तुच्छ काम है और बड़े अखबारों को सामगं्री ईमेल से भी भेजी जाये तो उनको संपादकगण स्वयं देखते हों इसकी संभावना कम ही लगती है। ऐसे में उनको वह सामग्री मिलती भी है कि नहीं या फिर वह समझते हैं कि अंतर्जाल पर भेजकर लेखक अपना बड़प्पन दिखा रहा इसलिये उसको भाव मत दो। एक मजेदार चीज है कि अधिकतर बड़े अखबारों के ईमेल के पते भी नहीं छापते जहां उनको सामग्री भेजी जा सके। यह शिकायत नहीं है। हरेक की अपनी सीमाऐं होती हैं पर छोटे लेखकों के लिये प्रकाशन की सीमायें तो अधिक संकुचित हैं और ऐसे में उसके लिये अंतर्जाल पर ही एक संभावना बनती है।
इससे भी हटकर एक बात दूसरी है कि अंतर्जाल पर वैसी रचनायें नहीं चल सकती जैसे कि प्रकाशन में होती हैं। यहां संक्षिप्तीकरण होना चाहिये। मुख्य बात यह है कि हम अपनी लिखें। जहां तक हिट या फ्लाप होने का सवाल है तो यहां एक छोटी कहानी और कविता भी आपको अमरत्व दिला सकती है। हर कविता या कहानी तो किसी भी लेखक की भी हिट नहीं होती। बड़े बड़े लेखक भी हमेशा ऐसा नहीं कर पाते।
एक लेखिका ने एक लेखक से कहा-‘आपको कोई संपादक जानता हो तो कृपया उससे मेरी रचनायें प्रकाशित करने का आग्रह करें।’
उस लेखक ने कहा-‘पहले एक संपादक को जानता था पर पता नहीं वह कहां चला गया है। आप तो रचनायें भेज दीजिये।’
उस लेखिका ने कहा कि -‘ऐसे तो बहुत सारी रचनायें भेजती हूं। एक छपी पर उसके बाद कोई स्थान हीं नहीं मिला।‘
उस लेखक ने कहा-‘तो अंतर्जाल पर लिखिये।’
लेखिका ने कहा-‘वहां कौन पढ़ता है? वहां मजा नहीं आयेगा।
लेखक ने पूछा-‘आपको टाईप करना आता है।’
लेखिका ने नकारात्मक जवाब दिया तो लेखक ने कहा-‘जब आपको टाईप ही नहीं करना आता तो फिर अंतर्जाल पर लिखने की बात आप सोच भी कैसे सकती हैं?’
लेखिका ने कहा-‘वह तो किसी से टाईप करवा लूंगी पर वहां मजा नहीं आयेगा। वहां कितने लोग मुझे जान पायेंगे।’
लेखन के सहारे अपनी पहचान शीघ्र नहीं ढूंढी जा सकती। आप अगर शहर के अखबार में निरंतर छप भी रहे हैं तो इस बात का दावा नहीं कर सकते कि सभी लोग आपको जानते हैं। ऐसे में अंतर्जाल पर जैसा स्वतंत्र और मौलिक लेखन बेहतर ढंग से किया जा सकता है और उसका सही मतलब वही लेखक जानते हैं जो सामान्य प्रकाशन में भी लिखते रहे हैं।
सच बात तो यह है कि ब्लाग लिखने के लिये तकनीकी ज्ञान का होना आवश्यक है और स्थापित लेखक इससे बचने के लिये ऐसे ही बयान देते हैं। वैसे जिस तरह अंतर्जाल पर लेखक आ रहे हैं उससे पुराने लेखकों की नींद हराम भी है। वजह यह है कि अभी तक प्रकाशन की बाध्यताओं के आगे घुटने टेक चुके लेखकों के लिये अब यह संभव नहीं है कि वह लीक से हटकर लिखें।
इधर अंतर्जाल पर कुछ लेखकों ने इस बात का आभास तो दे ही दिया है कि वह आगे गजब का लिखने वाले हैं। सम सामयिक विषयों पर अनेक लेखकों ने ऐसे विचार व्यक्त किये जो सामान्य प्रकाशनों में स्थान पा ही नहीं सकते। भले ही अनेक प्रतिष्ठत ब्लाग लेखक यहां हो रही बहसें निरर्थक समझते हों पर यह लेखक नहीं मानता। मुख्य बात यह है कि ब्लाग लेखक आपस में बहस कर सकते हैं और आम लेखक इससे बिदकता है। जिसे लोग झगड़ा कह रहे हैं वह संवाद की आक्रामक अभिव्यक्ति है जिससे हिंदी लेखक अभी तक नहीं समझ पाये। हां, जब व्यक्तिगत रूप से आक्षेप करते हुए नाम लेकर पाठ लिखे जाते हैं तब निराशा हो जाती है। यही एक कमी है जिससे अंतर्जाल लेखकों को बचना चाहिये। वह इस बात पर यकीन करें कि उनका लिखा साहित्य ही है। क्लिष्ट शब्दों का उपयोग, सामान्य बात को लच्छेदार वाक्य बनाकर कहना या बड़े लोगों पर ही व्यंग्य लिखना साहित्य नहीं होता। सहजता पूर्वक बिना लाग लपेटे के अपनी बात कहना भी उतना ही साहित्य होता है। शेष फिर कभी।
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